"अमरावती (राजधानी)": अवतरणों में अंतर
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[[आन्ध्र प्रदेश]] के [[गुंटूर ज़िला|गुंटूर ज़िले]] में [[कृष्णा नदी]] के दाहिने तट पर स्थित यह नगर सातवाहन राजाओं के शासनकाल में [[हिन्दू]] [[संस्कृति]] का केन्द्र था। इसका प्राचीन नाम धान्यघट या धान्यकटक अथवा धरणिकोट है। कृष्णा नदी के तट पर बसे होने से इस स्थान का बड़ा | [[आन्ध्र प्रदेश]] के [[गुंटूर ज़िला|गुंटूर ज़िले]] में [[कृष्णा नदी]] के दाहिने तट पर स्थित यह नगर सातवाहन राजाओं के शासनकाल में [[हिन्दू]] [[संस्कृति]] का केन्द्र था। इसका प्राचीन नाम धान्यघट या धान्यकटक अथवा धरणिकोट है। कृष्णा नदी के तट पर बसे होने से इस स्थान का बड़ा महत्त्व था। क्योंकि समुद्र से कृष्णा नदी से होकर व्यापारिक जहाज़ यहाँ पहुँचते थे। यहाँ से भारी मात्रा में आहत सिक्के (पंच मार्क्ड) जो सबसे पुराने हैं, मिले हैं। | ||
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आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में कृष्णा नदी के दाहिने तट पर स्थित यह नगर सातवाहन राजाओं के शासनकाल में हिन्दू संस्कृति का केन्द्र था। इसका प्राचीन नाम धान्यघट या धान्यकटक अथवा धरणिकोट है। कृष्णा नदी के तट पर बसे होने से इस स्थान का बड़ा महत्त्व था। क्योंकि समुद्र से कृष्णा नदी से होकर व्यापारिक जहाज़ यहाँ पहुँचते थे। यहाँ से भारी मात्रा में आहत सिक्के (पंच मार्क्ड) जो सबसे पुराने हैं, मिले हैं।
इतिहास
धम्मपद अट्ठकथा में उल्लेख है कि बुद्ध अपने किसी पूर्व जन्म में सुमेध नामक एक ब्राह्मण कुमार के रूप में इस नगर में पैदा हुए थे। अशोक की मृत्यु के बाद से तकरीबन चार शताब्दियों तक दक्षिण भारत में सातवाहनों का शासन रहा। आंध्रवंशीय सातवाहन नरेश शातकर्णी ने लगभग 180 ई.पू. अमरावती को अपनी राजधानी बनाया। सातवाहन नरेश ब्राह्मण होते हुए भी महायान मत के पोषक थे। और उन्हीं के शासनकाल में अमरावती का प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप बना, जो तेरहवीं शताब्दी तक बौद्ध यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा। मूल स्तूप घण्टाकार था। स्तूप की ऊँचाई सौ फुट थी। आधार से शिखर तक तक्षित शिला-पट्ट लगाये गये थे। इस प्रकार का अलंकरण अन्यत्र नहीं मिलता। चीनी यात्री युवानच्वांग ने उस स्थान के बारे लिखा था कि बैक्ट्रिया के समस्त भवनों की शान-शौक़त इसमें निहित थी। बुद्ध के जीवन की कथाओं के दृश्य उन पर उत्कीर्ण थे।
वास्तुकला और मूर्तिकला
स्तूप के अवशेष ही बचे हैं। इसके बचे-खुचे अवशेष ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन, राष्ट्रीय संग्रहालय, कोलकाता और चेन्नई संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। इन अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि अमरावती में वास्तुकला और मूर्तिकला की स्थानीय मौलिक शैली विकसित हुई थी। यहाँ से प्राप्त मूर्तियों की कोमलता एवं भाव-भंगिमाएँ दर्शनीय हैं। प्रत्येक मूर्ति का अपना आकर्षण है। कमल पुष्प का अकंन इस बड़े स्वाभाविक रूप से हुआ है। अनेक दृशयों का साथ-साथ अंकन इस काल के अमरावती के शिल्प की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। बुद्ध की मूर्तियों को मानव आकृति के बजाय प्रतीकों के द्धारा गढ़ा गया है, जिससे पता चलता है। कि अमरावती शैली, मथुरा शैली और गान्धार शैली से पुरानी है। यह यूनानी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जिस समय अमरावती का स्तूप अपनी अक्षुण्ण अवस्था में रहा होगा, उस समय वह दक्षिण भारत के मूर्ति शिल्प का अपना ढँग का अत्यंत भव्य उदाहरण रहा होगा। अमरावती मूर्ति कला शैली, जो दक्षिण-पूर्वी भारत में लगभग दूसरी शताब्दी ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई. तक सातवाहन वंश के शासनकाल में फली-फूली। यह अपने भव्य उभारदार, भित्ति-चित्रों के लिए जानी जाती है। जो संसार में कथात्मक मूर्तिकला के सर्वश्रेष्ट उदाहरण हैं।
आन्ध्र वंश के पश्चात् अमरावती पर कई शताब्दियों तक इक्ष्वाकु राजाओं का शासन रहा। उन्होंने उस नगरी को छोड़कर नागार्जुनकोंडा या विजयपुर को अपनी राजधानी बनाया।
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