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10:37, 15 मार्च 2011 का अवतरण
लॉर्ड रिपन, जिसका पूरा नाम जॉर्ज फ़्रेडरिक सैमुअल राबिन्सन था, 1880 से 1884 ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल तथा वाइसराय था। ग्लैडस्टोन की भाँति रिपन का भी राजनीतिक दृष्टिकोण उदार था, जिसके कारण वह लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ।
उदार दृष्टिकोण
भारत में आते ही सर्वप्रथम उसने द्वितीय अफ़ग़ान युद्ध समाप्त करा दिया और अब्दुर्रहमान को अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बनाकर वहाँ से समस्त ब्रिटिश सेनाएँ वापस बुला लीं। भारत के आन्तरिक शासन में सुधार करने के विचार से उसने उदार दृष्टिकोण अपनाया। फलस्वरूप शराब, स्पिरिट, शस्त्र और गोला-बारूद सदृश कुछ थोड़ी सी वस्तुओं को छोड़कर उसने मुक्त व्यापार प्रणाली को प्रचलित किया तथा नमक पर लगे कर में भी कमी कर दी। उसने ब्रिटिश सरकार को इस बात पर राज़ी करने का असफल प्रयास किया कि जिन ज़िलों का सर्वेक्षण हो चुका हो, वहाँ वस्तुओं की मूल्यवृद्धि को छोड़कर अन्य किसी दशा में कर-वृद्धि न की जाए।
रिपन की नीतियाँ
रिपन ने प्रत्येक तहसील में ऐसी स्थानीय परिषदों का निर्माण कराया, जिनमें जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सरकारी अनुदान में प्राप्त धनराशि को स्थानीय सड़कों आदि की मरम्मत, पहरे की व्यवस्था तथा अन्य सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा सकें। उसने 'ज़िला बोर्डों' की स्थापना करके उन्हें शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण तथा अन्य सार्वजनिक कार्यों का प्रबन्ध-भार सौंप दिया। जिन नगरों में 'नगरपालिकाओं' का गठन हो चुका था, वहाँ उसने ग़ैर-सरकारी अध्यक्ष चुने जाने की प्रथा चलाई। लॉर्ड लिटन द्वारा 1878 ई. में पारित 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट' रद्द कर दिया, जिससे देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों को भी अंग्रेज़ी पत्रों की भाँति स्वतंत्रता प्राप्त हुई। उसने शिक्षा के क्षेत्र में 'हण्टर कमीशन' के सुझावों के आधार पर प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में सुधार सम्बन्धी नीति को स्वीकृति दे दी। 1881 ई. में रिपन ने मैसूर के बँटवारे को मान्यता दी और राज्य का शासन वहाँ के राजा को इस शर्त पर सौंप दिया कि शासन कार्य सुचारु एवं उत्तम रीति से चलाया जाए।
इल्बर्ट बिल
1881 ई. में ही भारतीय कारख़ानों के श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए एक क़ानून बना, जिसके द्वारा नाबालिग बालकों की सुरक्षा हेतु अनेक कार्य के घण्टों के निर्धारण एवं ख़तरनाक मशीनों के चारों ओर बचाव हेतु समुचित रक्षा व्यवस्था तथा निरीक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। किन्तु सुधारों की दृष्टि से उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य 1883 ई. का इल्बर्ट बिल था। जिसके द्वारा न्याय के क्षेत्र में रंगभेद को दूर करने का प्रयास किया गया था। इस बिल के द्वारा भारतीय न्यायधीशों को भी यूरोपीय न्यायाधीशों की भाँति यूरोपियनों के फ़ौजदारी वादों की सुनवाई का अधिकार दिये जाने का सुझाव था। किन्तु इस बिल (प्रस्ताव) का यूरोपियन तथा एंग्लोइण्डियन समुदाय के द्वारा इतना अधिक विरोध किया गया कि बिल की धाराओं में विशेष परिवर्तन करके ही उसे पारित किया गया और रंगभेद बना ही रहा। फिर भी ऐसा प्रस्ताव रखने मात्र से भारतीय जनता में लॉर्ड रिपन की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई।
त्यागपत्र
1884 ई. में त्यागपत्र देकर प्रस्थान करते समय भारतीयों ने उसे सैकड़ों अभिनन्दन पत्र देकर सम्मानित किया और शिमला से बम्बई (वर्तमान मुम्बई) तक की यात्रा के दौरान स्थान-स्थान पर उसे भावभीनी विदाई दी गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-411
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