"शेरशाह सूरी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Shershah-Suri.jpg|शेरशाह सूरी<br /> Shershah Suri|thumb|200px]]
[[चित्र:Shershah-Suri.jpg|शेरशाह सूरी<br /> Shershah Suri|thumb|200px]]
(सन् 1540 − सन् 1545)<br />
(सन 1540−सन 1545)<br />
शेरशाह सूरी का नाम फ़रीद ख़ाँ था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता हसन की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन बिहार के सासाराम का ज़मींदार था।
'''शेरशाह सूरी''' के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की [[अफ़ग़ान]] पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, [[बिहार]] के [[सासाराम]] का ज़मींदार था। फ़रीद ख़ाँ ने अपने अधिकारों की रक्षा एवं शक्ति के विस्तार के लिए [[बिहार]] के सुल्तान मुहम्मद शाह नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली। एक बार शिकार पर गये नुहानी के साथ फ़रीद ख़ाँ ने एक शेर को तलवार के एक ही बार से मार दिया। उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे ‘शेर ख़ाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1529 ई. में [[बंगाल]] के शासक नुसरतशाह को परास्त करके शेरखां ने हजरत-ए-आला की उपाधि धारण की। 1530 ई. में शेरखां ने चुनार के किलेदार ताज खां की विधवा लाड़मलिका से विवाह करके चुनार का किला तथा बहुत सम्पत्ति प्राप्त की। [[हुमायूँ]] को हराने वाला शेर ख़ाँ, 'सूर' नाम के क़बीले का [[पठान]] सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने [[आगरा]] को अपनी राजधानी बनाया था।
[[हुमायूँ]] को हराने वाला शेर ख़ाँ 'सूर' नाम के क़बीले का पठान सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने [[आगरा]] को राजधानी बनाया था। [[दिल्ली]] के सुल्तानों की हिन्दू विरोधी नीति के ख़िलाफ़ उसने हिन्दुओं से मित्रता की नीति अपनायी। जिससे उसे अपनी शासन व्यवस्था सृदृढ़ करने में सहायता मिली। उसका [[दीवान]] और सेनापति एक हिन्दू सरदार था, जिसका नाम [[हेमू]] (हेमचंद्र)था। उसकी सेना में हिन्दू वीरों की संख्या बहुत थी। उसने अपने राज्य में शांति कर जनता को सुखी और समृद्ध बनाने के प्रयास किये। उसने यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा का प्रबंध किया। लगान और [[मालगुज़ारी]] वसूल करने की संतोषजनक व्यवस्था की। शेरशाह सूरी के फ़रमान फ़ारसी के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। वह पहला बादशाह था, जिसने बंगाल के सोनागाँव से सिंध नदी तक दो हज़ार मील लंबी पक्की सड़क बनवाई थी। उस सड़क पर घुड़सवारों द्वारा डाक लाने−ले−जाने की व्यवस्था थी। यह मार्ग उस समय 'सड़क-ए-आज़म' कहलाता था। बंगाल से पेशावर तक की यह सड़क 500 कोस (शुद्ध= [[क्रोश]]) या 2500 किलो मीटर लम्बी थी। शेरशाह का भतीजा [[अदली]] था, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद 1554 ई. में गद्दी पर बैठा।
==पिता का व्यवहार==
==बचपन==
'''हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे'''। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक माता से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य माँ से और सुलेमान और अहमद चौथी माँ से उत्पन्न हुए थे। [[चित्र:Shershah Tomb2.jpg|thumb|200px|left|शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार]] फ़रीद की माँ बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की माँ से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ) फ़रीद और निज़ाम की माँ से जलती थी, क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक ही था। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा।
हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक मां से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य मां से और सुलेमान और अहमद चौथी मां से उत्पन्न हुए थे। फ़रीद की मां बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की मां से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की मां के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की मां) फ़रीद और निज़ाम की मां से जलती थी क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा।
==हिन्दू मित्रता की नीति==
[[चित्र:Shershah Tomb2.jpg|thumb|200px|left|शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार]]
[[दिल्ली]] के सुल्तानों की [[हिन्दू]] विरोधी नीति के ख़िलाफ़ उसने हिन्दुओं से मित्रता की नीति अपनायी। जिससे उसे अपनी शासन व्यवस्था सृदृढ़ करने में सहायता मिली। उसका [[दीवान]] और सेनापति एक हिन्दू सरदार था, जिसका नाम [[हेमू]] (हेमचंद्र) था। उसकी सेना में हिन्दू वीरों की संख्या बहुत थी। उसने अपने राज्य में शांति स्थापित कर जनता को सुखी और समृद्ध बनाने के प्रयास किये। उसने यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा का प्रबंध किया। लगान और [[मालगुज़ारी]] वसूल करने की संतोषजनक व्यवस्था की। शेरशाह सूरी के फ़रमान [[फ़ारसी भाषा]] के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। वह पहला बादशाह था, जिसने [[बंगाल]] के सोनागाँव से [[सिंधु नदी]] तक दो हज़ार मील लम्बी पक्की सड़क बनवाई थी। उस सड़क पर घुड़सवारों द्वारा डाक लाने−ले−जाने की व्यवस्था थी। यह मार्ग उस समय 'सड़क-ए-आज़म' कहलाता था। बंगाल से [[पेशावर]] तक की यह सड़क 500 कोस (शुद्ध= [[क्रोश]]) या 2500 किलो मीटर लम्बी थी। शेरशाह का भतीजा अदली था, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद 1554 ई. में गद्दी पर बैठा था।
पिता-पुत्र के आपसी संबंध कटु हो गए। इसका एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फ़रीद शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुंचकर तथा वहां बड़ी जागीर पा जाने से हसन ख़ाँ का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फ़रीद और निज़ाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बार-बेटे का संबंध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फ़रीद रुष्ट होकर जौनपुर चला गया और स्वयं जमाल ख़ाँ की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन ख़ाँ को पता चला कि फ़रीद जौनपुर चला गया है तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल ख़ाँ से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल ख़ाँ को पत्र लिखा कि फ़रीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें। <ref>(पुस्तक संदर्भ ''''शेरशाह सूरी' लेखक 'विद्या भास्कर'''')</ref>
==पारिवारिक विवाद==
<blockquote>श्री कालिकारंजन क़ानूनगो ने लिखा है :- ‘‘बचपन में उसने साहित्य का जो अध्ययन किया उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया जिस पर [[शिवाजी]], [[हैदरअली]] और [[रणजीत सिंह]] जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊँचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। [[भारत]] के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।’’</blockquote>
'''पिता और शेरशाह के आपसी''' सम्बन्ध कटु होते जा रहे थे। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। इस विवाद का एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फ़रीद ख़ाँ (शेरशाह) शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुँचकर तथा वहाँ बड़ी जागीर पा जाने से हसन ख़ाँ का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फ़रीद और निज़ाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बाप-बेटे का सम्बन्ध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फ़रीद रुष्ट होकर [[जौनपुर]] चला गया और स्वयं जमाल ख़ाँ की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन ख़ाँ को पता चला कि फ़रीद जौनपुर चला गया है, तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल ख़ाँ से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल ख़ाँ को पत्र लिखा कि, "फ़रीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो, आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें"। <ref>(पुस्तक संदर्भ ''''शेरशाह सूरी' लेखक 'विद्या भास्कर'''')</ref>


श्री कालिकारंजन क़ानूनगो ने लिखा है :- ‘‘बचपन में उसने [[साहित्य]] का जो अध्ययन किया, उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया, जिस पर [[शिवाजी]], [[हैदर अली]] और [[रणजीत सिंह]] जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊँचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। [[भारत]] के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता, जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।’
==हुमायुँ और शेरशाह==
==हुमायुँ और शेरशाह==
{{tocright}}
{{tocright}}
आगरा से हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फ़रवरी, 1535 से फ़रवरी, 1537 तक) शेरशाह ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी मुग़लों के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को [[भारत]] से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुरशाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरशाह ने अपनी सेना का उपयोग बंगाल के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 [[दीनार]] ([[स्वर्ण मुद्रा]]) देने के लिए विवश किया था।
'''आगरा में हुमायूँ की अनुपस्थिति''' के दौरान (फ़रवरी, 1535-1537 तक) शेरशाह ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी [[मुग़ल|मुग़लों]] के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को [[भारत]] से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुर शाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुर शाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। [[हुमायूँ]] के [[आगरा]] लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरशाह ने अपनी सेना का उपयोग [[बंगाल]] के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 दीनार (स्वर्ण मुद्रा) देने के लिए विवश किया था।
 
एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि, ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची [[रूमी ख़ाँ]] के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को [[चुनार का क़िला]] जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरशाह ने धोखे से रोहतास के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी [[गौड़]] पर अधिकार कर लिया।
==चौंसा एवं बिलग्राम के युद्ध==
'''1539 ई. में चौंसा''' का एवं 1540 ई. में बिलग्राम या [[कन्नौज]] के युद्ध जीतने के बाद शेरशाह 1540 ई. में [[दिल्ली]] की गद्दी की पर बैठा। उत्तर [[भारत]] में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेर ख़ाँ द्वारा [[बाबर]] के चदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए, “ कि अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।” चौंसा युद्ध के पश्चात् शेर ख़ाँ ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण कर अपना राज्याभिषेक करवाया। कालान्तर में इसी नाम से खुतबे (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये एवं सिक्के ढलवाये।
 
जिस समय शेरशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, उसके साम्राज्य की सीमायें पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूरब में [[असम]] की पहाड़ियों एवं चटगाँव तथा उत्तर में [[हिमालय]] से लेकर दक्षिण में [[झारखण्ड]] की पहाड़ियों एवं [[बंगाल की खाड़ी]] तक फैली हुई थी।
==गक्खरों से युद्ध==
'''1541 ई. में शेरशाह सूरी''' ने गक्खरों को समाप्त करने के लिए एक अभियान किया। वह गक्खरों को इसलिए समाप्त करना चाहता था क्योंकि, यह जाति आये दिन [[मुग़ल|मुग़लों]] की सहायता किया करती थी। शेरशाह गक्खर जाति को समाप्त करने के अपने लक्ष्य को तो पूरा नहीं कर सका, लेकिन फिर भी वह गक्खरों की शक्ति को कम करने में अवश्य सफल रहा। शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने के लिए एक शक्तिशाली ‘रोहतासगढ़’ नामक क़िले का निर्माण करवाया। हैबत ख़ाँ एवं खवास ख़ाँ के प्रतिनिधित्व में शेरशाह ने यहाँ पर एक [[अफ़ग़ान]] सैनिक टुकड़ी को नियुक्त कर दिया।
==बंगाल का विद्रोह (1541 ई.)==
'''बंगाल का सूबेदार''' [[खिज्र ख़ाँ]], जो एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार कर रहा था, के विद्रोह को कुचलने के लिए शेरशाह बंगाल आया। उसने खिज्र ख़ाँ को बन्दी बना लिया। भविष्य में दोबारा बंगाल में विद्रोह को रोकने के लिए शेरशाह ने यहाँ एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रारम्भ किया, जिसके अन्तर्गत पूरे बंगाल को कई सरकारों (ज़िलों) में बाँट दिया गया और साथ ही प्रत्येक सरकार में एक छोटी सेना के साथ ‘शिक़दार’ (किसी श्रेत्र विशेष का अधिकारी) नियुक्त कर दिया गया। शिक़दारों को नियंत्रित करने के लिए एक ग़ैर सैनिक अधिकारी ‘अमीन-ए-बंगला’ की नियुक्ति की गई। सर्वप्रथम यह पद ‘क़ाज़ी फ़जीलात’ नाम के व्यक्ति को दिया गया।
==मालवा (1542 ई.)==
[[गुजरात]] के शासक बहादुर शाह के मरने के बाद [[मालवा]] के सूबेदार मल्लू ख़ाँ ने अपने को ‘कादिर शाह’ के नाम से मालवा का स्वतन्त्र शासक घोषित कर लिया। उसने अपने नाम से सिक्के ढलवाये एवं खुबते (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये। शेरशाह मालवा को अपने अधीन करने के लिए कादिर शाह पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा और अप्रैल, 1542 ई. में रास्ते में ही शेरशाह ने [[ग्वालियर]] के क़िले पर अधिकार कर वहाँ के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया। कादिर शाह ने शेरशाह से भयभीत होकर सारंगपुर में उसके समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। उसके समर्पण के बाद मांडू, उज्जैन एवं सारंगपुर पर शेरशाह का कब्जा हो गया। शेरशाह ने भद्रता का परिचय देते हुएकादि शाह को लखनौती व काल्पी का गर्वनर नियुक्त किया परन्तु कादिरशाह शेरशाह से डर कर अपने परिवार के साथ गुजरात के शासक महमूद तृतीय की शरण में चला गया। शेरशाह ने सुजात खां को मालवा का गर्वनर नियुक्त कर वापस जाते समय ‘रणथम्भौर’ के शक्तिशाली किले को अपने अधीन कर पुत्र आदिल खां को वहां गर्वनर बनाया।
 
रायसीन (1543 ई.) - यहां के शासक पूरनमल द्वारा 1542 ई. में अभियान के समय शेरशाह की अधीनता स्वीकार करने के बाद भी शेरशाह के लिए रायसीन पर आक्रमण करना इसलिए आवश्यक हो गया था क्योंकि वहां की मुस्लिम जनता को पूरनमल से बड़ी शिकायत थी। साथ ही रायसीन की सम्पन्नता भी आक्रमण एक कारण थी। 1543 ई. में रायसीन के किले पर घेरा डाला गया। कई महीने तक घेरा डाले रहने पर भी शेरशाह को सफलता नहीं मिली। अन्ततः शेरशाह ने चालाकी से पूरनमल को उसके आत्मसम्मान एवं जीवन की सुरक्षा का वायदा कर आत्मसमर्पण हेतु तैयार कर लिया, कुतुब खां और आदिल खां इस शर्त के गवाह बने। परन्तु रायसीन के मुसलमानों के पुनः दबाब के कारण राजपूतों को दण्ड देने के लिए शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेरा लिया। अपने को घिरा हुआ पाकर पूरनमल एवं उसके सिपाहियों ने बहादुरी से लड़ते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया तथा उनकी स्त्रियों ने ‘जौहर’ कर लिया। ‘श्ेारशाह द्वारा किया यह विश्वासघात उसके व्यक्तितत्व पर काला धब्बा है। इस विश्वासघात कुतुब खां इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।
 
सिन्ध एवं मुल्तान (1543 ई.) - शेरशाह ने हैवत खां के नेतृत में सिंध तथा मुल्तान के विद्रोहियों बख्सू लंगाह एवं फतेह खां पर विजय प्राप्त की। शेरशाह ने मुल्तान में फतेह खां एवं सिंध में इस्लाम खां को सूबेदार नियुक्त किया।
 
 
 
 
 
 


एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची रूमी ख़ाँ के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को [[चुनार का क़िला|चुनार का क़िला]] जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरशाह ने धोखे से [[रोहतास]] के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी [[गौड़]] पर अधिकार कर लिया।
===बंगाल का सौदा===
इस प्रकार शेरशाह ने हूमायूँ को लुका-छिपी पूरी तरह से मात दे दी। हुमायूँ को यह अनुभव कर लेना चाहिए था कि अधिक सावधानी से तैयारी के बिना वह इस स्थिति में नहीं हो सकता कि शेरशाह को सैनिक-चुनौती दे सके। लेकिन वह अपने सामने सैनिक और राजनीतिक स्थिति को नहीं समझ सका। गौड़ पर अपनी विजय के बाद शेरशाह ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा, और दस लाख सलाना कर देगा। यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेरशाह कितना ईमानदार था। लेकिन हुमायूँ बंगाल को शेरशाह के पास रहने देने के लिए तैयार नहीं था। बंगाल सोने का देश था, उद्योगों में उन्नत था और विदेशी व्यापार का केन्द्र था। साथ ही बंगाल का सुल्तान, जो घायल अवस्था में हुमायूँ की छावनी में पहुँच गया था, का कहना था कि शेरशाह का विरोध अब भी जारी है। इन सब कारणों से हुमायूँ ने शेरशाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। बंगाल का सुल्तान अपने घावों के कारण जल्दी ही मर गया। अतः हुमायूँ को अकेले ही बंगाल पर चढ़ाई करनी पड़ी।
बंगाल की ओर हुमायूँ का कूच उद्देश्यहीन था और यह उस विनाश की पूर्वपीठिका थी, जो उसकी सेना में लगभग एक वर्ष बाद [[चौसा]] में हुआ। शेरशाह ने बंगाल छोड़ दिया था और दक्षिण बिहार पहुँच गया था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके। गौड़ में पहुँच कर हुमायूँ ने तुरन्त क़ानून और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया। लेकिन इससे उसकी कोई समस्या हल नहीं हुई। उसके भाई हिंदाल द्वारा आगरा में स्वयं ताजपोशी के प्रयत्नों से उसकी स्थिति और बिगड़ गई। इस कारण से रसद और समाचारों से पूरी तरह कट गया।
इन हताशाओं के बावजूद हुमायूँ को शेरशाह के विरुद्ध अपनी सफलता पर विश्वास था। वह इस बात को भूल गया कि उसका सामना उस अफ़ग़ान सेना से है, जो एक साल पहले की सेना से एकदम अलग थी। उसने सर्वश्रेष्ठ अफ़ग़ान सेनापति के नेतृत्व में लड़ाईयों का अनुभव और आत्म-विश्वास प्राप्त किया था। शेरशाह की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ [[कर्मनाशा नदी]] के पूर्वी किनारे पर आ गया और इस प्रकार उसने वहाँ उपस्थित अफ़ग़ान घुड़सवारों को पूरा मौक़ा दे दिया। हुमायूँ ने ने केवल निम्न कोटि की राजनीतिक समझ का परिचय दिया वरन् निम्न कोटि के सेनापतित्व का भी परिचय दिया। उसने ग़लत मैदान चुना और शेरशाह को अपनी असावधानी से मौक़ा दिया।
जल्दबाज़ी में आगरा में इकट्ठी की गई हुमायूँ की सेना शेरशाह के मुक़ाबले कमज़ोर थी। लेकिन कन्नौज की लड़ाई (मई 1540) भयंकर थी। हुमायूँ के दोनों छोटे भाई [[अस्करी]] और [[हिन्दाल]] वीरता पूर्वक लड़े, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
कन्नौज की लड़ाई ने शेरशाह और मुग़लों के बीच निर्णय कर दिया।


==हुमायूँ की असफलता==
यह स्पष्ट है कि शेरशाह के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता का सबसे बड़ा कारण उसके द्वारा अफ़ग़ान शक्ति को समझ पाने की असमर्थता थी। उत्तर-भारत में अनेकानेक अफ़ग़ान जातियों के फैले रहने के कारण वे कभी भी किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एकत्र होकर चुनौती दे सकती थी। स्थानीय शासकों और ज़मींदारों को अपनी ओर मिलाये बिना मुग़ल संख्या में अफ़ग़ानों से कम ही रहते।


शेरशाह 5 वर्ष तक ही शासन कर सका। उस थोड़े काल में ही उसने अपनी योग्यता और प्रबंध−कुशलता का सिक्का जमा दिया था। 22 मई, सन् 1545 में कालिंजर के दुर्ग की घेराबंदी करते हुए बारूदख़ाने में आग लग जाने से उसकी अकाल मृत्यु हो गई थी।


==शेरशाह सूर के निर्माण कार्य==
==शेरशाह सूर के निर्माण कार्य==

12:32, 22 मार्च 2011 का अवतरण

शेरशाह सूरी
Shershah Suri

(सन 1540−सन 1545)
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, बिहार के सासाराम का ज़मींदार था। फ़रीद ख़ाँ ने अपने अधिकारों की रक्षा एवं शक्ति के विस्तार के लिए बिहार के सुल्तान मुहम्मद शाह नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली। एक बार शिकार पर गये नुहानी के साथ फ़रीद ख़ाँ ने एक शेर को तलवार के एक ही बार से मार दिया। उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे ‘शेर ख़ाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1529 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को परास्त करके शेरखां ने हजरत-ए-आला की उपाधि धारण की। 1530 ई. में शेरखां ने चुनार के किलेदार ताज खां की विधवा लाड़मलिका से विवाह करके चुनार का किला तथा बहुत सम्पत्ति प्राप्त की। हुमायूँ को हराने वाला शेर ख़ाँ, 'सूर' नाम के क़बीले का पठान सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने आगरा को अपनी राजधानी बनाया था।

पिता का व्यवहार

हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक माता से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य माँ से और सुलेमान और अहमद चौथी माँ से उत्पन्न हुए थे।

शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार

फ़रीद की माँ बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की माँ से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ) फ़रीद और निज़ाम की माँ से जलती थी, क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक ही था। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा।

हिन्दू मित्रता की नीति

दिल्ली के सुल्तानों की हिन्दू विरोधी नीति के ख़िलाफ़ उसने हिन्दुओं से मित्रता की नीति अपनायी। जिससे उसे अपनी शासन व्यवस्था सृदृढ़ करने में सहायता मिली। उसका दीवान और सेनापति एक हिन्दू सरदार था, जिसका नाम हेमू (हेमचंद्र) था। उसकी सेना में हिन्दू वीरों की संख्या बहुत थी। उसने अपने राज्य में शांति स्थापित कर जनता को सुखी और समृद्ध बनाने के प्रयास किये। उसने यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा का प्रबंध किया। लगान और मालगुज़ारी वसूल करने की संतोषजनक व्यवस्था की। शेरशाह सूरी के फ़रमान फ़ारसी भाषा के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। वह पहला बादशाह था, जिसने बंगाल के सोनागाँव से सिंधु नदी तक दो हज़ार मील लम्बी पक्की सड़क बनवाई थी। उस सड़क पर घुड़सवारों द्वारा डाक लाने−ले−जाने की व्यवस्था थी। यह मार्ग उस समय 'सड़क-ए-आज़म' कहलाता था। बंगाल से पेशावर तक की यह सड़क 500 कोस (शुद्ध= क्रोश) या 2500 किलो मीटर लम्बी थी। शेरशाह का भतीजा अदली था, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद 1554 ई. में गद्दी पर बैठा था।

पारिवारिक विवाद

पिता और शेरशाह के आपसी सम्बन्ध कटु होते जा रहे थे। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। इस विवाद का एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फ़रीद ख़ाँ (शेरशाह) शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुँचकर तथा वहाँ बड़ी जागीर पा जाने से हसन ख़ाँ का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फ़रीद और निज़ाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बाप-बेटे का सम्बन्ध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फ़रीद रुष्ट होकर जौनपुर चला गया और स्वयं जमाल ख़ाँ की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन ख़ाँ को पता चला कि फ़रीद जौनपुर चला गया है, तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल ख़ाँ से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल ख़ाँ को पत्र लिखा कि, "फ़रीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो, आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें"। [1]

श्री कालिकारंजन क़ानूनगो ने लिखा है :- ‘‘बचपन में उसने साहित्य का जो अध्ययन किया, उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया, जिस पर शिवाजी, हैदर अली और रणजीत सिंह जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊँचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। भारत के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता, जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।’

हुमायुँ और शेरशाह

आगरा में हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फ़रवरी, 1535-1537 तक) शेरशाह ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी मुग़लों के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को भारत से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुर शाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुर शाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरशाह ने अपनी सेना का उपयोग बंगाल के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 दीनार (स्वर्ण मुद्रा) देने के लिए विवश किया था।

एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि, ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची रूमी ख़ाँ के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को चुनार का क़िला जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरशाह ने धोखे से रोहतास के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया।

चौंसा एवं बिलग्राम के युद्ध

1539 ई. में चौंसा का एवं 1540 ई. में बिलग्राम या कन्नौज के युद्ध जीतने के बाद शेरशाह 1540 ई. में दिल्ली की गद्दी की पर बैठा। उत्तर भारत में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेर ख़ाँ द्वारा बाबर के चदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए, “ कि अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।” चौंसा युद्ध के पश्चात् शेर ख़ाँ ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण कर अपना राज्याभिषेक करवाया। कालान्तर में इसी नाम से खुतबे (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये एवं सिक्के ढलवाये।

जिस समय शेरशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, उसके साम्राज्य की सीमायें पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूरब में असम की पहाड़ियों एवं चटगाँव तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों एवं बंगाल की खाड़ी तक फैली हुई थी।

गक्खरों से युद्ध

1541 ई. में शेरशाह सूरी ने गक्खरों को समाप्त करने के लिए एक अभियान किया। वह गक्खरों को इसलिए समाप्त करना चाहता था क्योंकि, यह जाति आये दिन मुग़लों की सहायता किया करती थी। शेरशाह गक्खर जाति को समाप्त करने के अपने लक्ष्य को तो पूरा नहीं कर सका, लेकिन फिर भी वह गक्खरों की शक्ति को कम करने में अवश्य सफल रहा। शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने के लिए एक शक्तिशाली ‘रोहतासगढ़’ नामक क़िले का निर्माण करवाया। हैबत ख़ाँ एवं खवास ख़ाँ के प्रतिनिधित्व में शेरशाह ने यहाँ पर एक अफ़ग़ान सैनिक टुकड़ी को नियुक्त कर दिया।

बंगाल का विद्रोह (1541 ई.)

बंगाल का सूबेदार खिज्र ख़ाँ, जो एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार कर रहा था, के विद्रोह को कुचलने के लिए शेरशाह बंगाल आया। उसने खिज्र ख़ाँ को बन्दी बना लिया। भविष्य में दोबारा बंगाल में विद्रोह को रोकने के लिए शेरशाह ने यहाँ एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रारम्भ किया, जिसके अन्तर्गत पूरे बंगाल को कई सरकारों (ज़िलों) में बाँट दिया गया और साथ ही प्रत्येक सरकार में एक छोटी सेना के साथ ‘शिक़दार’ (किसी श्रेत्र विशेष का अधिकारी) नियुक्त कर दिया गया। शिक़दारों को नियंत्रित करने के लिए एक ग़ैर सैनिक अधिकारी ‘अमीन-ए-बंगला’ की नियुक्ति की गई। सर्वप्रथम यह पद ‘क़ाज़ी फ़जीलात’ नाम के व्यक्ति को दिया गया।

मालवा (1542 ई.)

गुजरात के शासक बहादुर शाह के मरने के बाद मालवा के सूबेदार मल्लू ख़ाँ ने अपने को ‘कादिर शाह’ के नाम से मालवा का स्वतन्त्र शासक घोषित कर लिया। उसने अपने नाम से सिक्के ढलवाये एवं खुबते (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये। शेरशाह मालवा को अपने अधीन करने के लिए कादिर शाह पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा और अप्रैल, 1542 ई. में रास्ते में ही शेरशाह ने ग्वालियर के क़िले पर अधिकार कर वहाँ के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया। कादिर शाह ने शेरशाह से भयभीत होकर सारंगपुर में उसके समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। उसके समर्पण के बाद मांडू, उज्जैन एवं सारंगपुर पर शेरशाह का कब्जा हो गया। शेरशाह ने भद्रता का परिचय देते हुएकादि शाह को लखनौती व काल्पी का गर्वनर नियुक्त किया परन्तु कादिरशाह शेरशाह से डर कर अपने परिवार के साथ गुजरात के शासक महमूद तृतीय की शरण में चला गया। शेरशाह ने सुजात खां को मालवा का गर्वनर नियुक्त कर वापस जाते समय ‘रणथम्भौर’ के शक्तिशाली किले को अपने अधीन कर पुत्र आदिल खां को वहां गर्वनर बनाया।

रायसीन (1543 ई.) - यहां के शासक पूरनमल द्वारा 1542 ई. में अभियान के समय शेरशाह की अधीनता स्वीकार करने के बाद भी शेरशाह के लिए रायसीन पर आक्रमण करना इसलिए आवश्यक हो गया था क्योंकि वहां की मुस्लिम जनता को पूरनमल से बड़ी शिकायत थी। साथ ही रायसीन की सम्पन्नता भी आक्रमण एक कारण थी। 1543 ई. में रायसीन के किले पर घेरा डाला गया। कई महीने तक घेरा डाले रहने पर भी शेरशाह को सफलता नहीं मिली। अन्ततः शेरशाह ने चालाकी से पूरनमल को उसके आत्मसम्मान एवं जीवन की सुरक्षा का वायदा कर आत्मसमर्पण हेतु तैयार कर लिया, कुतुब खां और आदिल खां इस शर्त के गवाह बने। परन्तु रायसीन के मुसलमानों के पुनः दबाब के कारण राजपूतों को दण्ड देने के लिए शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेरा लिया। अपने को घिरा हुआ पाकर पूरनमल एवं उसके सिपाहियों ने बहादुरी से लड़ते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया तथा उनकी स्त्रियों ने ‘जौहर’ कर लिया। ‘श्ेारशाह द्वारा किया यह विश्वासघात उसके व्यक्तितत्व पर काला धब्बा है। इस विश्वासघात कुतुब खां इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।

सिन्ध एवं मुल्तान (1543 ई.) - शेरशाह ने हैवत खां के नेतृत में सिंध तथा मुल्तान के विद्रोहियों बख्सू लंगाह एवं फतेह खां पर विजय प्राप्त की। शेरशाह ने मुल्तान में फतेह खां एवं सिंध में इस्लाम खां को सूबेदार नियुक्त किया।






शेरशाह सूर के निर्माण कार्य

शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार

शेरशाह सूरी हुमायूँ को पराजित कर बादशाह बना। उसके निर्माण कार्यों में सड़कों, सरायों एवं मस्जिदों आदि का बनाया जाना प्रसिद्ध है। वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने यातायात की उत्तम व्यवस्था की और यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा का संतोषजनक प्रबंध किया। उसने बंगाल के सोनागाँव से लेकर पंजाब में सिंधु नदी तक, आगरा से राजस्थान और मालवा तक पक्की सड़कें बनवाई थीं। सड़कों के किनारे छायादार एवं फल वाले वृक्ष लगाये गये थे, और जगह-जगह पर सराय, मस्जिद और कुओं का निर्माण कराया गया था। ब्रजमंडल के चौमुहाँ गाँव की सराय और छाता गाँव की सराय का भीतरी भाग उसी के द्वारा निर्मित हैं। दिल्ली में उसने शहर पनाह बनवाया था, जो आज वहाँ का 'लाल दरवाज़ा' है। दिल्ली का 'पुराना क़िला' भी उसी के द्वारा बनवाया माना जाता है।

शेरशाह की उपाधि

1539 ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को हरा, शेर ख़ाँ ने शेरशाह की उपाधि ली। 1540 ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को दोबारा हराकर राजसिंहासन पर बैठा। शेरशाह का 10 जून, 1540 को आगरा में विधिवत राज्याभिषेक हुआ। उसके बाद 1540 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। बाद में ख्वास ख़ाँ और हैबत ख़ाँ ने पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया। फलतः शेरशाह ने भारत में पुनः द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य की स्थापना की। इतिहास में इसे 'सूरवंश' के नाम से जाना जाता है। सिंहासन पर बैठते समय शेरशाह 68 वर्ष का हो चुका था और 5 वर्ष तक शासन सम्भालने के बाद मई 1545 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

मलिकमुहम्मद जायसी, फरिश्ता और बदाँयूनी ने शेरशाह के शासन की बड़ी प्रशंसा की है। बदाँयूनी ने लिखा है- बंगाल से पंजाब तक, तथा आगरा से मालवा तक, सड़क पर दोनों ओर छाया के लिए फल वाले वृक्ष लगाये गये थे। कोस−कोस पर एक सराय, एक मस्जिद और कुँए का निर्माण किया था। मस्जिद में एक इनाम और अजान देने वाला एक मुल्ला था। निर्धन यात्रियों का भोजन बनाने के लिए एक हिन्दू और मुसलमान नौकर था। 'प्रबंध की यह व्यवस्था थी कि बिल्कुल अशक्त बुड्ढ़ा अशर्फियों का थाल हाथ पर लिये चला जाय और जहाँ चाहे वहाँ पड़ा रहे। चोर या लुटेरे की मजाल नहीं कि आँख भर कर उसकी ओर देख सके'।

दस वर्ष की छोटी-सी अवधि में ही शेरशाह ने लगभग सारे राजस्थान को जीत लिया। उसका अंतिम अभियान कालिंजर के क़िले के विरुद्ध था। यह क़िला बहुत मज़बूत और बुन्देलखण्ड का द्वार था। घेरे के दौरान एक तोप फट गई, जिससे शेरशाह गंभीर रूप से घायल हो गया। वह क़िले पर फ़तह का समाचार सुनने के बाद मौत की नींद सो गया।

मक़बरा

बनारस-कोलकाता रोड पर सासाराम शेरशाह सूरी का शहर था। यहीं उसने अपने जीते जी अपना मक़बरा बनवाना शुरू कर दिया था। मक़बरा पत्थरों से बना है। मक़बरे के सबसे ऊपरी सिरे से पूरा सासाराम साफ दिखाई देता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (पुस्तक संदर्भ 'शेरशाह सूरी' लेखक 'विद्या भास्कर')