"अकबर": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 35: पंक्ति 35:
|अद्यतन=
|अद्यतन=
}}
}}
'''अकबर महान''' (1556-1605 ई.) का जन्म 23 नवंबर, 1542 ई. को 'हमीदा बानू बेगम' के गर्भ से [[अमरकोट]] के राणा ‘वीरसाल’ के महल में हुआ था। अकबर के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय [[हुमायूँ]] ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित [[अस्करी]] के संरक्षण में [[माहम अनगा]], जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में [[कंधार]] में बीता।
'''अकबर महान''' (1556-1605 ई.) का जन्म 23 नवंबर, 1542 ई. को 'हमीदा बानू बेगम' के गर्भ से [[अमरकोट]] के राणा ‘वीरसाल’ के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका [[राजस्थान]] का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ [[हिन्दू]] [[राजपूत]] बसते हैं। रेगिस्तान और [[सिंध]] की सीमा पर होने के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह [[पाकिस्तान]] का अंग बन गया। अकबर के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय [[हुमायूँ]] ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित [[अस्करी]] के संरक्षण में [[माहम अनगा]], जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में [[कंधार]] में बीता।
==पिता हुमायूँ की मुश्किलें==
==पिता हुमायूँ की मुश्किलें==
'''हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन''' कर पाया था कि, 26 जून, 1539 को [[गंगा]] किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ ([[शेरशाह]]) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद [[कन्नौज]] में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह [[राजस्थान]] के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। बानू का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई हिन्दाल का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। [[सिंध]] में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि, हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।
'''हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन''' कर पाया था कि, 26 जून, 1539 को [[गंगा]] किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ ([[शेरशाह]]) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद [[कन्नौज]] में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह [[राजस्थान]] के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। बानू का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई हिन्दाल का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। [[सिंध]] में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि, हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।
पंक्ति 46: पंक्ति 46:


अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देख-रेख में रहने लगा। खानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ, अनगा-नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में [[कन्नौज]] के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। [[माहम अनगा]] दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र-अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश)-अदहम ख़ान का पीछे बहुत मान बढ़ा।
अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देख-रेख में रहने लगा। खानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ, अनगा-नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में [[कन्नौज]] के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। [[माहम अनगा]] दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र-अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश)-अदहम ख़ान का पीछे बहुत मान बढ़ा।
==सूबेदार का पद==
'''1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में''' पहली बार अकबर को गजनी की सूबेदारी सौंपी गई। [[हुमायूँ]] ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा ‘[[सरहिन्द]]’ को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। [[दिल्ली]] पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को [[लाहौर]] का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति ‘बैरम ख़ाँ’ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।
==शिक्षा==
==शिक्षा==
'''अकबर आजीवन निरक्षर रहा'''। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-[[बैरम ख़ाँ]] के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम। कभी मन होता तो मुल्ला के सामने किताब लेकर बैठ जाता। हिजरी 863 (1555-56 ई.) में मीर अब्दुल लतीफ़ कजवीनी ने भी भाग्य परीक्षा की। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] तो मातृभाषा ठहरी, इसलिए अच्छी साहित्यिक फ़ारसी अकबर को बोलने-चालने में ही आ गई थी। कजबीनी के सामने [[दीवान]] हाफ़िज शुरू किया, लेकिन जहाँ तक अक्षरों का सम्बन्ध था, अकबर ने अपने को कोरा रखा। मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद चित्रकला के उस्ताद नियुक्त किये गए। अकबर ने कबूल किया और कुछ दिनों रेखाएँ खींची भी, लेकिन किताबों पर आँखें गड़ाने में उसकी रूह काँप जाती थी।
'''अकबर आजीवन निरक्षर रहा'''। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-[[बैरम ख़ाँ]] के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम। कभी मन होता तो मुल्ला के सामने किताब लेकर बैठ जाता। हिजरी 863 (1555-56 ई.) में मीर अब्दुल लतीफ़ कजवीनी ने भी भाग्य परीक्षा की। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] तो मातृभाषा ठहरी, इसलिए अच्छी साहित्यिक फ़ारसी अकबर को बोलने-चालने में ही आ गई थी। कजबीनी के सामने [[दीवान]] हाफ़िज शुरू किया, लेकिन जहाँ तक अक्षरों का सम्बन्ध था, अकबर ने अपने को कोरा रखा। मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद चित्रकला के उस्ताद नियुक्त किये गए। अकबर ने कबूल किया और कुछ दिनों रेखाएँ खींची भी, लेकिन किताबों पर आँखें गड़ाने में उसकी रूह काँप जाती थी।
==स्मरण शक्ति का धनी==
==स्मरण शक्ति का धनी==
अक्षर ज्ञान के अभाव से यह समझ लेना ग़लत होगा कि, अकबर अशिक्षित था। आखिर पुराने समय में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, हमारे [[ऋषि]] भी आँख से नहीं, कान से पढ़ते थे। इसीलिए ज्ञान का अर्थ [[संस्कृत]] में श्रुत है और महाज्ञानी को आज भी बहुश्रुत कहा जाता है। अकबर बहुश्रुत था। उसकी स्मृति की सभी दाद देते हैं। इसलिए सुनी बातें उसे बहुत जल्द याद आ जाती थीं। हाफ़िज, रूमी आदि की बहुत-सी कविताएँ उसे याद थीं। उस समय की प्रसिद्ध कविताओं में शायद ही कोई होगी, जो उसने सुनी नहीं थी। उसके साथ बाकायदा पुस्तक पाठी रहते थे। फ़ारसी की पुस्तकों के समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, [[अरबी भाषा|अरबी]] पुस्तकों के अनुवाद (फ़ारसी) सुनता था। ‘शाहनामा’ आदि पुस्तकों को सुनते वक्त जब पता लगा कि संस्कृत में भी ऐसी पुस्तकें हैं, तो वह उनको सुनने के लिए उत्सुक हो गया और [[महाभारत]], [[रामायण]] आदि बहुत-सी पुस्तकें उसने अपने लिए फ़ारसी में अनुवाद करवाईं। ‘महाभारत’ को ‘शाहनामा’ के मुकाबले का समझकर वह अनुवाद करने के लिए इतना अधीर हो गया कि, संस्कृत पंडित के अनुवाद को सुनकर स्वयं फ़ारसी में बोलने लगा और लिपिक उसे उतारने लगे। कम फुर्सत के कारण यह काम देर तक नहीं चला। अक्षर पढ़ने की जगह उसने अपनी जवानी खेल-तमाशों और शारीरिक-मानसिक साहस के कामों में लगाई। चीतों से हिरन का शिकार, कुत्तों का पालना, घोड़ों और हाथियों की दौड़ उसे बहुत पसन्द थी। किसी से काबू में न आने वाले [[हाथी]] को वह सर करता था और इसके लिए जान-बूझकर ख़तरा मोल लेता था।
अक्षर ज्ञान के अभाव से यह समझ लेना ग़लत होगा कि, अकबर अशिक्षित था। आखिर पुराने समय में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, हमारे [[ऋषि]] भी आँख से नहीं, कान से पढ़ते थे। इसीलिए ज्ञान का अर्थ [[संस्कृत]] में श्रुत है और महाज्ञानी को आज भी बहुश्रुत कहा जाता है। अकबर बहुश्रुत था। उसकी स्मृति की सभी दाद देते हैं। इसलिए सुनी बातें उसे बहुत जल्द याद आ जाती थीं। हाफ़िज, रूमी आदि की बहुत-सी कविताएँ उसे याद थीं। उस समय की प्रसिद्ध कविताओं में शायद ही कोई होगी, जो उसने सुनी नहीं थी। उसके साथ बाकायदा पुस्तक पाठी रहते थे। फ़ारसी की पुस्तकों के समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, [[अरबी भाषा|अरबी]] पुस्तकों के अनुवाद (फ़ारसी) सुनता था। ‘शाहनामा’ आदि पुस्तकों को सुनते वक्त जब पता लगा कि संस्कृत में भी ऐसी पुस्तकें हैं, तो वह उनको सुनने के लिए उत्सुक हो गया और [[महाभारत]], [[रामायण]] आदि बहुत-सी पुस्तकें उसने अपने लिए फ़ारसी में अनुवाद करवाईं। ‘महाभारत’ को ‘शाहनामा’ के मुकाबले का समझकर वह अनुवाद करने के लिए इतना अधीर हो गया कि, संस्कृत पंडित के अनुवाद को सुनकर स्वयं फ़ारसी में बोलने लगा और लिपिक उसे उतारने लगे। कम फुर्सत के कारण यह काम देर तक नहीं चला। अक्षर पढ़ने की जगह उसने अपनी जवानी खेल-तमाशों और शारीरिक-मानसिक साहस के कामों में लगाई। चीतों से हिरन का शिकार, कुत्तों का पालना, घोड़ों और हाथियों की दौड़ उसे बहुत पसन्द थी। किसी से काबू में न आने वाले [[हाथी]] को वह सर करता था और इसके लिए जान-बूझकर ख़तरा मोल लेता था।
==सूबेदार का पद==
'''1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में''' पहली बार अकबर को गजनी की सूबेदारी सौंपी गई। [[हुमायूँ]] ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा ‘[[सरहिन्द]]’ को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। [[दिल्ली]] पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को [[लाहौर]] का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति ‘बैरम ख़ाँ’ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।
==हुमायूँ की मृत्यु==
==हुमायूँ की मृत्यु==
'''दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद''' यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर [[बैरम ख़ाँ]] ने गुरुदासपुर के निकट ‘कलानौर’ में 14 फ़रवरी, 1556 ई. को अकबर का राज्याभिषेक करवा दिया और वह 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी की उपाधि से राजसिंहासन पर बैठा। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष 4 महीने की थी।
'''दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद''' यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर [[बैरम ख़ाँ]] ने गुरुदासपुर के निकट ‘कलानौर’ में 14 फ़रवरी, 1556 ई. को अकबर का राज्याभिषेक करवा दिया और वह 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी की उपाधि से राजसिंहासन पर बैठा। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष 4 महीने की थी।
==नाबालिग बादशाह (1556-1564 ई.)==
'''कलानोर में 14 वर्ष के अकबर को बादशाह घोषित''' कर दिया गया, पर उसे खेल-तमाशे से फुर्सत नहीं थी, ऊपर से बैरम ख़ाँ जैसा आदमी उसका सरपरस्त था। सल्तनत भी अभी [[आगरा]] से [[पंजाब]] तक ही सीमित थी। [[हुमायूँ]] और [[बाबर]] के राज्य के पुराने सूबे हाथ में नहीं आये थे। [[बंगाल]] में [[पठान|पठानों]] का बोलबाला था, [[राजस्थान]] में [[राजपूत]] रजवाड़े स्वच्छन्द थे। [[मालवा]] में [[मांडू]] का सुल्तान और [[गुजरात]] में अलग बादशाह था। गोंडवाना ([[मध्य प्रदेश]]) में रानी दुर्गावती कीतपी थी, कहावत है, ‘ताल में भूपालताल और सब तलैया। रानी में दुर्गावती और सब गधैया।’ ख़ानदेश, [[बरार]], [[बीदर]], [[अहमदनगर]], [[गोलकुंडा]], [[बीजापुर]], [[दिल्ली]] से आज़ाद हो अपने-अपने सुल्तानों के अधीन थे। किसी वक्त [[मलिक काफ़ूर]] ने [[रामेश्वरम]] पर [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] का झण्डा गाड़ा था, आज वहाँ [[विजयनगर साम्राज्य]] का हिन्दू राज्य था। [[कश्मीर]], [[सिंध]], [[बलूचिस्तान]] सभी दिल्ली से मुक्त थे।
==हेमू की सफलता==
==हेमू की सफलता==
'''आदिशाल शेरशाह ने चुनार को अपनी''' राजधानी बनाया तथा [[हेमू]] को [[मुग़लों]] को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया। हेमू रेवाड़ी का निवासी था, जो धूसर वैश्य कुल में पैदा हुआ था। आरम्भिक दिनों में वह रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। राज्य की सेवा में सर्वप्रथम उसे तोल करने वालों के रूप में नौकरी मिल गई। इस्लामशाह ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर दरबार में एक गुप्त पद के नियुक्त कर दिया। आदिलशाह के शासक बनते ही हेमू प्रधानमंत्री बनाया गया। [[मुसलमान|मुसलमानी]] शासन में मात्र दो [[हिन्दू]], [[टोडरमल]] एवं हेमू ही प्रधानमंत्री बनाया गया। हेमू ने अपने स्वामी के लिए 24 लड़ाईयाँ लड़ी थीं, जिसमें उसे 22 में सफलता मिली थी। हेमू [[आगरा]] और [[ग्वालियर]] पर अधिकार करता हुआ, 7 अक्टूबर, 1556 ई. को [[तुग़लक़ाबाद]] पहुँचा। यहाँ उसने तर्दी बेग को परास्त कर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। हेमू ने राजा 'विक्रमादित्य' की उपाधि के साथ एक स्वतन्त्र शासक बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।  
'''आदिशाल सूर ने चुनार को अपनी''' राजधानी बनाया तथा [[हेमू]] को [[मुग़ल|मुग़लों]] को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया। हेमू रेवाड़ी का निवासी था, जो धूसर वैश्य कुल में पैदा हुआ था। आरम्भिक दिनों में वह रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। राज्य की सेवा में सर्वप्रथम उसे तोल करने वालों के रूप में नौकरी मिल गई। इस्लामशाह ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर दरबार में एक गुप्त पद के नियुक्त कर दिया। आदिलशाह के शासक बनते ही हेमू प्रधानमंत्री बनाया गया। [[मुसलमान|मुसलमानी]] शासन में मात्र दो [[हिन्दू]], [[टोडरमल]] एवं हेमू ही प्रधानमंत्री बनाया गया। हेमू ने अपने स्वामी के लिए 24 लड़ाईयाँ लड़ी थीं, जिसमें उसे 22 में सफलता मिली थी। हेमू [[आगरा]] और [[ग्वालियर]] पर अधिकार करता हुआ, 7 अक्टूबर, 1556 ई. को [[तुग़लकाबाद]] पहुँचा। यहाँ उसने तर्दी बेग को परास्त कर [[दिल्ली]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। हेमू ने राजा 'विक्रमादित्य' की उपाधि के साथ एक स्वतन्त्र शासक बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।  


हेमू की इस सफलता से चिंतित अकबर और उसके कुछ सहयोगियों के मन में काबुल वापस जाने की बात कौंधने लगी। परंतु बैरम ख़ाँ ने अकबर को इस विषम परिस्थति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया, जिसका परिणाम था-[[पानीपत युद्ध द्वितीय|पानीपत की द्वितीय लड़ाई]]।
हेमू की इस सफलता से चिंतित अकबर और उसके कुछ सहयोगियों के मन में काबुल वापस जाने की बात कौंधने लगी। परंतु बैरम ख़ाँ ने अकबर को इस विषम परिस्थति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया, जिसका परिणाम था-[[पानीपत युद्ध द्वितीय|पानीपत की द्वितीय लड़ाई]]।
==पानीपत की द्वितीय लड़ाई (5 नवम्बर, 1556 ई.)==
यह संघर्ष [[पानीपत]] के मैदान में 5 नवम्बर, 1556 ई. को हेमू के नेतृत्व में [[अफ़ग़ान]] सेना एवं बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना के मध्य लड़ा गया। दिल्ली और आगरा के हाथ से चले जाने पर दरबारियों ने सलाह दी कि हेमू इधर भी बढ़ सकता है। इसीलिए बेहतर है कि, यहाँ से काबुल चला जाए। लेकिन बैरम ख़ाँ ने इसे पसन्द नहीं किया। बाद में बैरम ख़ाँ और अकबर अपनी सेना लेकर पानीपत पहुँचे और वहीं जुआ खेला, जिसे तीन साल पहले दादा ने खेला था। हेमू की सेना संख्या और शक्ति, दोनों में बढ़-चढ़कर थी। पोर्तुगीजों से मिली तोपों का उसे बड़ा अभिमान था। 1500 महागजों की काली घटा मैदान में छाई हुई थी। 5 नवम्बर को हेमू ने मुग़ल दल में भगदड़ मचा दी। युद्ध का प्रारम्भिक क्षण हेमू के पक्ष में जा रहा था, लेकिन इसी समय उसकी आँख में एक तीर लगा, जो भेजे के भीतर घुस गया, वह संज्ञा खो बैठा। नेता के बिना सेना में भगदड़ मच गई। हेमू को गिरफ्तार करके बैरम ख़ाँ ने मरवा दिया। कहा जाता है कि, बैरम ख़ाँ ने अकबर से अपने दुश्मन का सिर काटकर ग़ाज़ी बनने की प्रार्थना की थी, लेकिन अकबर ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अकबर इस समय अभी मुश्किल से 14 वर्ष का हो पाया था। उसमें इतना विवेक था कि, इसे मानने के लिए कुछ इतिहासकार तैयार नहीं हैं। [[हिन्दू]] चूक गए, पर हेमू की जगह उन्होंने अकबर जैसे शासक को पाया, जिसने आधी शताब्दी तक भेद-भाव की खाई को पाटने की कोशिश की।
==विवाह==
'''दिल्ली से अकबर दिसम्बर में''' [[सरहिन्द]] लौट आया, क्योंकि अभी सिकन्दर सूर सर नहीं हुआ था। मई, 1557 में सिकन्दर ने मानकोट (रामकोट, [[जम्मू]]) के पहाड़ी क़िले में कितनी ही देर तक घिरे रहने के बाद आत्म समर्पण किया। उसे खरीद और [[बिहार]] के ज़िले जागीर में मिले, जहाँ पर वह दो वर्ष के बाद मर गया। [[काबुल]] से शाही बेगमें भी मानकोट पहुँची। उनके स्वागत के लिए अकबर दो मंज़िल आगे आया। मानकोट से [[लाहौर]] होते [[जालंधर]] पहुँचने पर बैरम ख़ाँ ने हुमायूँ की भाँजी सलीमा बेगम से विवाह किया। लेकिन यह विवाह कुछ ही समय का रहा, क्योंकि 31 जनवरी, 1561 में बैरम ख़ाँ की हत्या के बाद फूफी की लड़की सलीमा अकबर की बहुत प्रभावशालिनी बीबी बनी और 1621 ई. में मरी। अक्टूबर, 1558 में अकबर दिल्ली से दल-बल सहित [[यमुना नदी]] से नाव द्वारा आगरा पहुँचा। यद्यपि आगरा एक नगण्य नगर नहीं था। बाबर और सूरी ने भी उसकी कदर की थी, तथापि उसका भाग्य अकबराबाद बनने के बाद ही जागा।


बैरम ख़ाँ की अतालीकी के अन्तिम वर्षों में राज्य सीमा खूब बढ़ी। जनवरी-फ़रवरी, 1559 में [[ग्वालियर]] ने अधीनता स्वीकार कर ली। इसके कारण दक्षिण का रास्ता खुल गया और ग्वालियर जैसा सुदृढ़ दुर्ग तथा सांस्कृतिक केन्द्र अकबर के हाथ में आ गया। इसी साल पूर्व में [[जौनपुर]] तक [[मुग़ल]] झण्डा फहराने लगा। [[रणथम्भौर]] के अजेय दुर्ग को लेने की कोशिश की गई, पर उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। मालवा को भी बैरम ख़ाँ लेने में असफल रहा और इस प्रकास से साबित कर दिया गया कि अब अतालीक से ज़्यादा आशा नहीं की जा सकती।
==बैरम ख़ाँ का पतन==
'''हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में लोगों ने चुगली लगाई कि''' बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। [[हुमायूँ]] एक दिन स्वयं कंधार पहुँचा। बैरम ख़ाँ ने बहुतेरा चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सकता था। अकबर के ज़माने में भी बहुत दिनों तक कंधार बैरम ख़ाँ के शासन में ही रहा, उसका नायब शाह मुहम्मद कंधारी उसकी ओर से काम करता था। हुमायूँ के मरने पर अकबर की सल्तनत का भार बैरम ख़ाँ के ऊपर था। ख़ानख़ाना की योग्यता और प्रभाव को देखकर मरने से थोड़ा पहले हुमायूँ ने अपनी भाँजी सलीमा सुल्तान बेगम की शादी बैरम ख़ाँ से निश्चित कर दी थी। अकबर के दूसरे सनजलूस (1558 ई.) में बड़े धूमधाम से यह शादी सम्पन्न हुई। दरबार के कुछ मुग़ल सरदार और कितनी ही बेगमें इस सम्बन्ध से नाराज़ थीं। तैमूरी ख़ानदान की शाहज़ादी एक तुर्कमान सरदार से ब्याही जाए, इसे वह कैसे पसन्द कर सकते थे।


 
तीसरे सनजलूस (1558-1559 ई.) में शेख़ गदाई को सदरे-सुदूर बनाया गया था। गदाई और बैरम ख़ाँ दोनों ही शिया थे। अमीरों में एक बहुत बड़ी संख्या में सुन्नी थे। हिन्दुस्तान का इस्लाम सुन्नी था। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि इतने बड़े पद पर किसी शिया को रखा गया हो। बैरम ख़ाँ के इस कार्य ने सभी सुन्नी अमीरों को उसके ख़िलाफ़ एकमत कर दिया। यह भी बैरम ख़ाँ के पतन का एक मुख्य कारण था। अकबर की माँ हमीदा बानू (मरियम मकानी), उसकी दूध माँ [[माहम अनगा]], दूधभाई अदहम ख़ाँ, उनका सम्बन्धी तथा दिल्ली का हाकिम शहाबुद्दीन, बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वालों के मुखिया थे। वह अकबर को यह भी समझा रहे थे कि बैरम कामराँ मिर्ज़ा के लड़के को गद्दी पर बैठाना चाहता है। ये लोग बैरम ख़ाँ के सर्वनाश के लिए कमर कस चुके थे। ख़ानख़ाना के सलाहकार उससे कह रहे थे, ‘अकबर को गिरफ्तार करो, लेकिन बैरम ख़ाँ ऐसी नमक हरामी के लिए तैयार नहीं था।’ जब मालूम होने लगा कि बैरम ख़ाँ का सितारा डूबने जा रहा है तो कितने ही सहायक उससे अलग होकर चले गए।
 
==बैरम ख़ाँ की हत्या==
 
'''अकबर भी अब 18 वर्ष का हो रहा था'''। वह बैरम ख़ाँ के हाथों की कठपुतली बनकर रहना नहीं चाहता था। उधर बैरम ख़ाँ ने भी अपने आप को सर्वेसर्वा बना लिया था। इसके कारण उसके दुश्मनों की संख्या बढ़ गई थी। दरबार में एक-दूसरे के खून के प्यासे दो दल बन गए थे। जिनमें से विरोधी दल के सिर पर अकबर का हाथ था। बैरम ख़ाँ की तलवार और राजनीति ने अन्त में हार खाई। वह पकड़कर अकबर के सामने उपस्थित किया गया। अकबर ने कहा, “ख़ानबाबा अब तीन ही रास्ते हैं। जो पसन्द हो, उसे आप स्वीकार करो: (1)राजकाज चाहते हो, तो चँदेरी और कालपी के ज़िले ले लो, वहाँ जाकर हुकूमत करो। (2) दरबारी रहना पसन्द है, तो मेरे पास रहो, तुम्हारा दर्जा और सम्मान पहले जैसा ही रहेगा। (3) यदि हज करना चाहते हो, तो उसका प्रबन्ध किया जा सकता है।” ख़ानख़ाना ने तीसरी बात मंज़ूर कर ली।
 
 
हज के लिए जहाज़ पकड़ने वह समुद्र की ओर जाता हुआ, पाटन ([[गुजरात]]) में पहुँचा। जनवरी, 1561 में विशाल सहसलंग सरोवर में नाव पर सैर कर रहा था। शाम की नमाज़ का वक्त आ गया। ख़ानख़ाना किनारे पर उतरा। इसी समय मुबारक ख़ाँ लोहानी तीस-चालीस पठानों के साथ मुलाकात करने के बहाने वहाँ आ गया। बैरम ख़ाँ हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा। लोहानी ने पीठ में खंजर मारकर छाती के पार कर दिया। ख़ानख़ाना वहीं गिरकर तड़पने लगा। लोहानी ने कहा-माछीवाड़ा में तुमने मेरे बाप को मारा था, उसी का बदला आज हमने ले लिया। बैरम ख़ाँ का बेटा और भावी [[हिन्दी]] का महान कवि [[रहीम|अब्दुर्रहीम]] उस समय चार साल का था। अकबर को मालूम हुआ। उसने ख़ानख़ाना की बेगमों को [[दिल्ली]] बुलवाया। बैरम ख़ाँ की बीबी तथा अपनी फूफी (गुलरुख बेगम) की लड़की सलीमा सुल्तान के साथ स्वयं विवाह करके बैरम ख़ाँ के परिवार के साथ घनिष्ठता स्थापित की। सलीमा बानू अकबर की बहुत प्रभावशाली बेगमों में से थी।





12:42, 3 अप्रैल 2011 का अवतरण

अकबर
अकबर
अकबर
पूरा नाम जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर
जन्म 23 नवंबर सन 1542 (लगभग)
जन्म भूमि अमरकोट, सिन्ध
मृत्यु तिथि 27 अक्टूबर सन 1605(उम्र 63 वर्ष)
मृत्यु स्थान फ़तेहपुर सीकरी, आगरा
पिता/माता हुमायूँ, मरियम मक़ानी
पति/पत्नी मरियम ज़मानी (हरका बाई)
संतान जहाँगीर से अलावा 5 पुत्र 7 बेटियाँ
उपाधि जलाल-उद-दीन
शासन 27 जनवरी, 1556 - 27 अक्टूबर, 1605
धार्मिक मान्यता नया मज़हब बनाया दीन-ए-इलाही
राज्याभिषेक 14 फ़रबरी 1556 कलानपुर के पास गुरदासपुर
युद्ध पानीपत, हल्दीघाटी
सुधार-परिवर्तन जज़िया हटाया, राजपूतों से विवाह संबंध
राजधानी फ़तेहपुर सीकरी आगरा, दिल्ली
पूर्वाधिकारी हेमू, शेरशाह सूरी
राजघराना मुग़ल
वंश तैमूर और चंगेज़ ख़ाँ का वंश
मक़बरा सिकन्दरा, आगरा
संबंधित लेख मुग़ल काल

अकबर महान (1556-1605 ई.) का जन्म 23 नवंबर, 1542 ई. को 'हमीदा बानू बेगम' के गर्भ से अमरकोट के राणा ‘वीरसाल’ के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका राजस्थान का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ हिन्दू राजपूत बसते हैं। रेगिस्तान और सिंध की सीमा पर होने के कारण अंग्रेज़ों ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह पाकिस्तान का अंग बन गया। अकबर के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय हुमायूँ ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित अस्करी के संरक्षण में माहम अनगा, जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में कंधार में बीता।

पिता हुमायूँ की मुश्किलें

हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन कर पाया था कि, 26 जून, 1539 को गंगा किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ (शेरशाह) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद कन्नौज में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह राजस्थान के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। बानू का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई हिन्दाल का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। सिंध में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि, हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।

जन्म

अगस्त, 1542 ई. में अपने सात सवारों के साथ हुमायूँ अमरकोट पहुँचा। अमरकोट (थरपाकर ज़िले का सदर-मुकाम) रेगिस्तान के भीतर से सिंध जाने वाले रास्ते रेगिस्तान के छोर पर सूखी पहाड़ियों में है। अमरकोट के राणा परशाद ने हुमायूँ का दिल खोलकर स्वागत किया। उसने अपनी जाति के दो हज़ार और दूसरों के तीन हज़ार सवार हुमायूँ के लिए जमा कर दिये। हुमायूँ ने विजय की तैयारी की। अकबर इस समय हमीदा बानू के गर्भ में था। दो या तीन हज़ार सवारों को साथ लेकर 20 नवम्बर को हुमायूँ ठट्टाभक्कर के ज़िलों पर आक्रमण करने के लिए चला। अमरकोट से बीस मील पर एक तालाब के किनारे उसका डेरा पड़ा था। वहीं पर तर्दी बेग ने कुछ सवारों के साथ दौड़कर युवराज के जन्म की खुशख़बरी दी। बच्चा पूर्णमासी के दिन (14 शाबान, 949 हिजरी, तदनुसार गुरुवार 23 नवम्बर, 1542 में) पैदा हुआ था, इसलिए 'बदर' (पूर्णचन्द्र) शब्द जोड़कर नाम 'बदरुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा गया। हजरत मुहम्मद के दामाद अली को मुहम्मद अकबर कहा जाता था, शायद इसी ख्याल से शिशु के नाम के साथ इसे जोड़ा गया। हुमायूँ ऐसी स्थिति में नहीं था कि, अपने प्रथम पुत्र के जन्मोत्सव को उचित रीति से मना सकता। सारी कठिनाइयों में मालिक के साथ रहने वाला, जौहर, अकबर के समय बहुत बूढ़ा होकर मरा। उसने लिखा है-

“बादशाह ने इस संस्मरण के लेखक को हुक्म दिया-जो वस्तुएँ तुम्हें मैनें सौंप रखी हैं, उन्हें ले आओ। इस पर मैं जाकर दो सौ शाहरुखदी (रुपया), एक चाँदी का कड़ा और दो दाना कस्तूरी (नाभि) ले आया। पहली दोनों चीजों को उनके मालिकों के पास लौटाने के लिए हुक्म दिया। फिर एक चीनी की तस्तरी मंगाई। उसमें कस्तूरी को फोड़कर रख दिया और यह कहते हुए उपस्थित व्यक्तियों में उसे बाँटा: “अपने पुत्र के जन्म दिन के उपलक्ष्य में आप लोगों को भेंट देने के लिए मेरे पास बस यही मौजूद है। मुझे विश्वास है, एक दिन उसकी कीर्ति सारी दुनिया में उसी तरह फैलेगी, जैसे एक स्थान में यह कस्तूरी।” ढोल और बाजे बजाकर इस खुशख़बरी की सूचना दी गई।

माता-पिता से बिछुड़ना

हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह ईरान के तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने सिंध पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते क्वेटा के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि कंधार की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई अस्करी अपने भाई काबुल के शासक कामराँ की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि, अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दीबेग से माँगा, तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।

अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देख-रेख में रहने लगा। खानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ, अनगा-नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। माहम अनगा दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र-अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश)-अदहम ख़ान का पीछे बहुत मान बढ़ा।

शिक्षा

अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-बैरम ख़ाँ के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम। कभी मन होता तो मुल्ला के सामने किताब लेकर बैठ जाता। हिजरी 863 (1555-56 ई.) में मीर अब्दुल लतीफ़ कजवीनी ने भी भाग्य परीक्षा की। फ़ारसी तो मातृभाषा ठहरी, इसलिए अच्छी साहित्यिक फ़ारसी अकबर को बोलने-चालने में ही आ गई थी। कजबीनी के सामने दीवान हाफ़िज शुरू किया, लेकिन जहाँ तक अक्षरों का सम्बन्ध था, अकबर ने अपने को कोरा रखा। मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद चित्रकला के उस्ताद नियुक्त किये गए। अकबर ने कबूल किया और कुछ दिनों रेखाएँ खींची भी, लेकिन किताबों पर आँखें गड़ाने में उसकी रूह काँप जाती थी।

स्मरण शक्ति का धनी

अक्षर ज्ञान के अभाव से यह समझ लेना ग़लत होगा कि, अकबर अशिक्षित था। आखिर पुराने समय में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, हमारे ऋषि भी आँख से नहीं, कान से पढ़ते थे। इसीलिए ज्ञान का अर्थ संस्कृत में श्रुत है और महाज्ञानी को आज भी बहुश्रुत कहा जाता है। अकबर बहुश्रुत था। उसकी स्मृति की सभी दाद देते हैं। इसलिए सुनी बातें उसे बहुत जल्द याद आ जाती थीं। हाफ़िज, रूमी आदि की बहुत-सी कविताएँ उसे याद थीं। उस समय की प्रसिद्ध कविताओं में शायद ही कोई होगी, जो उसने सुनी नहीं थी। उसके साथ बाकायदा पुस्तक पाठी रहते थे। फ़ारसी की पुस्तकों के समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, अरबी पुस्तकों के अनुवाद (फ़ारसी) सुनता था। ‘शाहनामा’ आदि पुस्तकों को सुनते वक्त जब पता लगा कि संस्कृत में भी ऐसी पुस्तकें हैं, तो वह उनको सुनने के लिए उत्सुक हो गया और महाभारत, रामायण आदि बहुत-सी पुस्तकें उसने अपने लिए फ़ारसी में अनुवाद करवाईं। ‘महाभारत’ को ‘शाहनामा’ के मुकाबले का समझकर वह अनुवाद करने के लिए इतना अधीर हो गया कि, संस्कृत पंडित के अनुवाद को सुनकर स्वयं फ़ारसी में बोलने लगा और लिपिक उसे उतारने लगे। कम फुर्सत के कारण यह काम देर तक नहीं चला। अक्षर पढ़ने की जगह उसने अपनी जवानी खेल-तमाशों और शारीरिक-मानसिक साहस के कामों में लगाई। चीतों से हिरन का शिकार, कुत्तों का पालना, घोड़ों और हाथियों की दौड़ उसे बहुत पसन्द थी। किसी से काबू में न आने वाले हाथी को वह सर करता था और इसके लिए जान-बूझकर ख़तरा मोल लेता था।

सूबेदार का पद

1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में पहली बार अकबर को गजनी की सूबेदारी सौंपी गई। हुमायूँ ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा ‘सरहिन्द’ को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को लाहौर का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति ‘बैरम ख़ाँ’ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।

हुमायूँ की मृत्यु

दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर बैरम ख़ाँ ने गुरुदासपुर के निकट ‘कलानौर’ में 14 फ़रवरी, 1556 ई. को अकबर का राज्याभिषेक करवा दिया और वह 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी की उपाधि से राजसिंहासन पर बैठा। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष 4 महीने की थी।

नाबालिग बादशाह (1556-1564 ई.)

कलानोर में 14 वर्ष के अकबर को बादशाह घोषित कर दिया गया, पर उसे खेल-तमाशे से फुर्सत नहीं थी, ऊपर से बैरम ख़ाँ जैसा आदमी उसका सरपरस्त था। सल्तनत भी अभी आगरा से पंजाब तक ही सीमित थी। हुमायूँ और बाबर के राज्य के पुराने सूबे हाथ में नहीं आये थे। बंगाल में पठानों का बोलबाला था, राजस्थान में राजपूत रजवाड़े स्वच्छन्द थे। मालवा में मांडू का सुल्तान और गुजरात में अलग बादशाह था। गोंडवाना (मध्य प्रदेश) में रानी दुर्गावती कीतपी थी, कहावत है, ‘ताल में भूपालताल और सब तलैया। रानी में दुर्गावती और सब गधैया।’ ख़ानदेश, बरार, बीदर, अहमदनगर, गोलकुंडा, बीजापुर, दिल्ली से आज़ाद हो अपने-अपने सुल्तानों के अधीन थे। किसी वक्त मलिक काफ़ूर ने रामेश्वरम पर अलाउद्दीन ख़िलजी का झण्डा गाड़ा था, आज वहाँ विजयनगर साम्राज्य का हिन्दू राज्य था। कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान सभी दिल्ली से मुक्त थे।

हेमू की सफलता

आदिशाल सूर ने चुनार को अपनी राजधानी बनाया तथा हेमू को मुग़लों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया। हेमू रेवाड़ी का निवासी था, जो धूसर वैश्य कुल में पैदा हुआ था। आरम्भिक दिनों में वह रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। राज्य की सेवा में सर्वप्रथम उसे तोल करने वालों के रूप में नौकरी मिल गई। इस्लामशाह ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर दरबार में एक गुप्त पद के नियुक्त कर दिया। आदिलशाह के शासक बनते ही हेमू प्रधानमंत्री बनाया गया। मुसलमानी शासन में मात्र दो हिन्दू, टोडरमल एवं हेमू ही प्रधानमंत्री बनाया गया। हेमू ने अपने स्वामी के लिए 24 लड़ाईयाँ लड़ी थीं, जिसमें उसे 22 में सफलता मिली थी। हेमू आगरा और ग्वालियर पर अधिकार करता हुआ, 7 अक्टूबर, 1556 ई. को तुग़लकाबाद पहुँचा। यहाँ उसने तर्दी बेग को परास्त कर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। हेमू ने राजा 'विक्रमादित्य' की उपाधि के साथ एक स्वतन्त्र शासक बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।

हेमू की इस सफलता से चिंतित अकबर और उसके कुछ सहयोगियों के मन में काबुल वापस जाने की बात कौंधने लगी। परंतु बैरम ख़ाँ ने अकबर को इस विषम परिस्थति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया, जिसका परिणाम था-पानीपत की द्वितीय लड़ाई

पानीपत की द्वितीय लड़ाई (5 नवम्बर, 1556 ई.)

यह संघर्ष पानीपत के मैदान में 5 नवम्बर, 1556 ई. को हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान सेना एवं बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना के मध्य लड़ा गया। दिल्ली और आगरा के हाथ से चले जाने पर दरबारियों ने सलाह दी कि हेमू इधर भी बढ़ सकता है। इसीलिए बेहतर है कि, यहाँ से काबुल चला जाए। लेकिन बैरम ख़ाँ ने इसे पसन्द नहीं किया। बाद में बैरम ख़ाँ और अकबर अपनी सेना लेकर पानीपत पहुँचे और वहीं जुआ खेला, जिसे तीन साल पहले दादा ने खेला था। हेमू की सेना संख्या और शक्ति, दोनों में बढ़-चढ़कर थी। पोर्तुगीजों से मिली तोपों का उसे बड़ा अभिमान था। 1500 महागजों की काली घटा मैदान में छाई हुई थी। 5 नवम्बर को हेमू ने मुग़ल दल में भगदड़ मचा दी। युद्ध का प्रारम्भिक क्षण हेमू के पक्ष में जा रहा था, लेकिन इसी समय उसकी आँख में एक तीर लगा, जो भेजे के भीतर घुस गया, वह संज्ञा खो बैठा। नेता के बिना सेना में भगदड़ मच गई। हेमू को गिरफ्तार करके बैरम ख़ाँ ने मरवा दिया। कहा जाता है कि, बैरम ख़ाँ ने अकबर से अपने दुश्मन का सिर काटकर ग़ाज़ी बनने की प्रार्थना की थी, लेकिन अकबर ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अकबर इस समय अभी मुश्किल से 14 वर्ष का हो पाया था। उसमें इतना विवेक था कि, इसे मानने के लिए कुछ इतिहासकार तैयार नहीं हैं। हिन्दू चूक गए, पर हेमू की जगह उन्होंने अकबर जैसे शासक को पाया, जिसने आधी शताब्दी तक भेद-भाव की खाई को पाटने की कोशिश की।

विवाह

दिल्ली से अकबर दिसम्बर में सरहिन्द लौट आया, क्योंकि अभी सिकन्दर सूर सर नहीं हुआ था। मई, 1557 में सिकन्दर ने मानकोट (रामकोट, जम्मू) के पहाड़ी क़िले में कितनी ही देर तक घिरे रहने के बाद आत्म समर्पण किया। उसे खरीद और बिहार के ज़िले जागीर में मिले, जहाँ पर वह दो वर्ष के बाद मर गया। काबुल से शाही बेगमें भी मानकोट पहुँची। उनके स्वागत के लिए अकबर दो मंज़िल आगे आया। मानकोट से लाहौर होते जालंधर पहुँचने पर बैरम ख़ाँ ने हुमायूँ की भाँजी सलीमा बेगम से विवाह किया। लेकिन यह विवाह कुछ ही समय का रहा, क्योंकि 31 जनवरी, 1561 में बैरम ख़ाँ की हत्या के बाद फूफी की लड़की सलीमा अकबर की बहुत प्रभावशालिनी बीबी बनी और 1621 ई. में मरी। अक्टूबर, 1558 में अकबर दिल्ली से दल-बल सहित यमुना नदी से नाव द्वारा आगरा पहुँचा। यद्यपि आगरा एक नगण्य नगर नहीं था। बाबर और सूरी ने भी उसकी कदर की थी, तथापि उसका भाग्य अकबराबाद बनने के बाद ही जागा।

बैरम ख़ाँ की अतालीकी के अन्तिम वर्षों में राज्य सीमा खूब बढ़ी। जनवरी-फ़रवरी, 1559 में ग्वालियर ने अधीनता स्वीकार कर ली। इसके कारण दक्षिण का रास्ता खुल गया और ग्वालियर जैसा सुदृढ़ दुर्ग तथा सांस्कृतिक केन्द्र अकबर के हाथ में आ गया। इसी साल पूर्व में जौनपुर तक मुग़ल झण्डा फहराने लगा। रणथम्भौर के अजेय दुर्ग को लेने की कोशिश की गई, पर उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। मालवा को भी बैरम ख़ाँ लेने में असफल रहा और इस प्रकास से साबित कर दिया गया कि अब अतालीक से ज़्यादा आशा नहीं की जा सकती।

बैरम ख़ाँ का पतन

हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन स्वयं कंधार पहुँचा। बैरम ख़ाँ ने बहुतेरा चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सकता था। अकबर के ज़माने में भी बहुत दिनों तक कंधार बैरम ख़ाँ के शासन में ही रहा, उसका नायब शाह मुहम्मद कंधारी उसकी ओर से काम करता था। हुमायूँ के मरने पर अकबर की सल्तनत का भार बैरम ख़ाँ के ऊपर था। ख़ानख़ाना की योग्यता और प्रभाव को देखकर मरने से थोड़ा पहले हुमायूँ ने अपनी भाँजी सलीमा सुल्तान बेगम की शादी बैरम ख़ाँ से निश्चित कर दी थी। अकबर के दूसरे सनजलूस (1558 ई.) में बड़े धूमधाम से यह शादी सम्पन्न हुई। दरबार के कुछ मुग़ल सरदार और कितनी ही बेगमें इस सम्बन्ध से नाराज़ थीं। तैमूरी ख़ानदान की शाहज़ादी एक तुर्कमान सरदार से ब्याही जाए, इसे वह कैसे पसन्द कर सकते थे।

तीसरे सनजलूस (1558-1559 ई.) में शेख़ गदाई को सदरे-सुदूर बनाया गया था। गदाई और बैरम ख़ाँ दोनों ही शिया थे। अमीरों में एक बहुत बड़ी संख्या में सुन्नी थे। हिन्दुस्तान का इस्लाम सुन्नी था। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि इतने बड़े पद पर किसी शिया को रखा गया हो। बैरम ख़ाँ के इस कार्य ने सभी सुन्नी अमीरों को उसके ख़िलाफ़ एकमत कर दिया। यह भी बैरम ख़ाँ के पतन का एक मुख्य कारण था। अकबर की माँ हमीदा बानू (मरियम मकानी), उसकी दूध माँ माहम अनगा, दूधभाई अदहम ख़ाँ, उनका सम्बन्धी तथा दिल्ली का हाकिम शहाबुद्दीन, बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वालों के मुखिया थे। वह अकबर को यह भी समझा रहे थे कि बैरम कामराँ मिर्ज़ा के लड़के को गद्दी पर बैठाना चाहता है। ये लोग बैरम ख़ाँ के सर्वनाश के लिए कमर कस चुके थे। ख़ानख़ाना के सलाहकार उससे कह रहे थे, ‘अकबर को गिरफ्तार करो, लेकिन बैरम ख़ाँ ऐसी नमक हरामी के लिए तैयार नहीं था।’ जब मालूम होने लगा कि बैरम ख़ाँ का सितारा डूबने जा रहा है तो कितने ही सहायक उससे अलग होकर चले गए।

बैरम ख़ाँ की हत्या

अकबर भी अब 18 वर्ष का हो रहा था। वह बैरम ख़ाँ के हाथों की कठपुतली बनकर रहना नहीं चाहता था। उधर बैरम ख़ाँ ने भी अपने आप को सर्वेसर्वा बना लिया था। इसके कारण उसके दुश्मनों की संख्या बढ़ गई थी। दरबार में एक-दूसरे के खून के प्यासे दो दल बन गए थे। जिनमें से विरोधी दल के सिर पर अकबर का हाथ था। बैरम ख़ाँ की तलवार और राजनीति ने अन्त में हार खाई। वह पकड़कर अकबर के सामने उपस्थित किया गया। अकबर ने कहा, “ख़ानबाबा अब तीन ही रास्ते हैं। जो पसन्द हो, उसे आप स्वीकार करो: (1)राजकाज चाहते हो, तो चँदेरी और कालपी के ज़िले ले लो, वहाँ जाकर हुकूमत करो। (2) दरबारी रहना पसन्द है, तो मेरे पास रहो, तुम्हारा दर्जा और सम्मान पहले जैसा ही रहेगा। (3) यदि हज करना चाहते हो, तो उसका प्रबन्ध किया जा सकता है।” ख़ानख़ाना ने तीसरी बात मंज़ूर कर ली।   हज के लिए जहाज़ पकड़ने वह समुद्र की ओर जाता हुआ, पाटन (गुजरात) में पहुँचा। जनवरी, 1561 में विशाल सहसलंग सरोवर में नाव पर सैर कर रहा था। शाम की नमाज़ का वक्त आ गया। ख़ानख़ाना किनारे पर उतरा। इसी समय मुबारक ख़ाँ लोहानी तीस-चालीस पठानों के साथ मुलाकात करने के बहाने वहाँ आ गया। बैरम ख़ाँ हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा। लोहानी ने पीठ में खंजर मारकर छाती के पार कर दिया। ख़ानख़ाना वहीं गिरकर तड़पने लगा। लोहानी ने कहा-माछीवाड़ा में तुमने मेरे बाप को मारा था, उसी का बदला आज हमने ले लिया। बैरम ख़ाँ का बेटा और भावी हिन्दी का महान कवि अब्दुर्रहीम उस समय चार साल का था। अकबर को मालूम हुआ। उसने ख़ानख़ाना की बेगमों को दिल्ली बुलवाया। बैरम ख़ाँ की बीबी तथा अपनी फूफी (गुलरुख बेगम) की लड़की सलीमा सुल्तान के साथ स्वयं विवाह करके बैरम ख़ाँ के परिवार के साथ घनिष्ठता स्थापित की। सलीमा बानू अकबर की बहुत प्रभावशाली बेगमों में से थी।




राजपूतों से वैवाहिक संबंध

बैरमख़ाँ के अनुशासन से मुक्त होते ही अकबर ने उदार नीति से शासन करना आरंभ किया। उसने शेरशाह का अनुकरण करते हुए हिन्दुओं के साथ सद्व्यवहार किया। उनके सहयोग से राज्य विस्तार और शासन को सुदृढ़ करने में सफलता प्राप्त की थी। वह राजपूतों की वीरता और प्रतिज्ञा−पालन की आदत से प्रभावित था। उसने अपनी कुशाग्र बुद्धि से समझ लिया कि भारत में मुग़ल राज्य को सुदृढ़ और स्थायी बनाने के लिए राजपूत वीरों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है, उसके लिए वह राजपूत राजाओं से मित्रतापूर्ण वैवाहिक संबंध स्थापित करने लगा। उससे पहले सुल्तानों के काल में सुंदर हिन्दू-लड़कियों को मुसलमानी शासक बलात पकड़ कर निकाह कर लेते थे, जिससे पारस्परिक कटुता की निरंतर वृद्धि होती रही थी। अकबर ने बल के स्थान पर मित्रता का व्यवहार किया। इस प्रकार उसने सुल्तानी काल की कुप्रथा को ख़त्म कर कटुता के स्थान पर हिन्दुओं का प्रेम पाया।


गोविन्द देव मन्दिर, वृन्दावन
Govind Dev Temple, Vrindavan

14 जनवरी, सन 1562 में अपनी प्रथम अजमेर यात्रा में वह आमेर राजा बिहारीमल से मिला और राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ। इस प्रकार राजपूत राजाओं में कछवाहा नरेश सबसे पहले अकबर के सम्बन्धी और सहायक हुए। राजा बिहारीमल ने अपनी बेटी का विवाह अकबर के साथ किया। उस समय अकबर की उम्र 19 वर्ष थी। यह विवाह अकबर की उन्नति का सूत्रधार बन गया। बिहारीमल का पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह अंत तक अकबर के सहयोगी और सहायक बने रहे थे। अकबर की पहली पत्नी और युवराज सलीम की माँ का मूल नाम अज्ञात है। वह अपने वास्तविक नाम से नहीं अपनी उपाधि 'मरियम ज़मानी' (विश्व के प्रति दयालु महिला) के नाम से प्रसिद्ध रही थी। अकबरी दरबार के इतिहासकार 'अबुल फ़ज़ल' कृत 'आइना-ए-अकबरी' में और जहाँगीर के लिखे आत्मचरित 'तुजुक जहाँगीर' में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है । यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन 1569 में दी गई थी। कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है। जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन 1585 में हुआ था।


वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से मुग़ल अंत:पुर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थीं। वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठावान रही। सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी। वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्योहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी। उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात सन 1623 में आगरा में हुई थी। उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती सिकंदरा नामक स्थान पर सम्राट के मक़बरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है।

मेवाड़ का युद्ध

राजस्थान में मेवाड़ राज्य अपनी गौरवमयी परंपरा और अनुपम वीरता के कारण सर्वोपरि माना जाता था। राजपूत राजाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर विशाल सेना के साथ आक्रमण किया था। उस समय मेवाड़ का राजा उदयसिंह था । वह डरकर राजधानी से भाग गया, लेकिन वहाँ के सामंतों ने बिना राजा के ही अकबर की सेना से संघर्ष किया। इन वीरों के कारण अकबर की विशाल सेना को चित्तौड़ पर शीघ्र विजय नहीं मिली थी। बाद में कहीं मुग़ल सेना चित्तौड पर अधिकार कर सकी थी। सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर राज्य के अधिकांश भाग को अपने राज्य में मिला लिया था, किंतु महाराणा प्रताप ने मुग़ल सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। वे जीवन पर्यंत छापामार युद्ध कर अकबर को परेशान करते रहे थे।

प्रशासन व्यवस्था

सुल्तानों के शासनकाल का प्रशासनिक या राजनीतिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं था। यही स्थिति अकबर के समय में थी। अकबर के समय में वित्तमन्त्री राजा टोडरमल ने प्रशासन का ढ़ाँचा ही बदल दिया था। उसने भूमि का नया बंदोबस्त कर राज्य को 15 सूबों में बाँट दिया था। प्रत्येक सूबे में कई सरकार(ज़िले),प्रत्येक सरकार में कई परगने और प्रत्येक परगना में कई मुहालें होते थे। सूबे के शासन को 'सिपहसालार' और सरकार के हकिम को 'फ़ौजदार' कहा जाता था। बड़े−बड़े शहरों में 'कोतवाल' भी होते थे। सब सूबों में आगरा का सूबा सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण था। आगरा सूबा में 13 सरकारें और 203 परगने थे। आगरा सरकार में 31 परगनें थे, जिनका क्षेत्रफल 1864 वर्ग मील था। उस समय में मथुरा मंडल आगरा सरकार के अंतर्गत था और उनका प्रशासनिक केन्द्र महावन था। मथुरा नगर तब साधारण ही था, जिसका कोई प्रशासनिक महत्त्व नहीं था। सुल्तानों के समय से ही मथुरामंडल का प्रशासनिक केन्द्र महावन रहा था, मुग़ल काल में वही व्यवस्था कायम रही थी। अकबर के समय में महावन का हाक़िम अलीख़ान था। उसका पिता ब्रज के बच्छगाँव का रहने वाला क्षत्रिय था, जो पठानों के समय में मुसलमान हो गया था। अलीख़ान की पुत्री पीरजादी बचपन से ही कृष्ण−भक्त थी। उसके प्रभाव से अलीख़ान कृष्ण−भक्त हो गया था। दोनों पिता−पुत्री गो. विट्टलनाथ जी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। मथुरा मुहाल का तब विस्तार 37,347 बीघा था और उसकी मालगुजारी 11,55807 दाम थी।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया।

तीर्थंकर और जजिया हटाना

अकबर राजा बनने के 8वें वर्ष सन 1563 में पहली बार मथुरा आया था। तभी उसे पता चला कि मथुरा में तीर्थ−यात्रियों से कर लिया जाता है। उसने तीर्थंकर बंद करने का हुक्म दे दिया, इस कर से शाही खजाने को 10 लाख सालाना की आमदनी होती थी। गैर मुस्लिमों पर एक कर और लगाया था, जो जज़िया कहलाता था। अकबर ने अपने शासन के नवें वर्ष मार्च, सन 1564 में उस कर को भी हटा दिया था। इस कर को हटवाने में अकबर की हिन्दू-रानियों और हिन्दू दरबारियों का विशेष रूप से हाथ था।

धर्मस्थानों के निर्माण की आज्ञा

सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर−देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा−स्थलों का पुनरूद्धार किया गया और नये मंदिर−देवालयों को बनवाया गया था।

गो−वध पर रोक

हिन्दू समुदाय में गौ को पवित्र माना जाता है। मुसलमान हिन्दुओं को आंतकित करने के लिए गौ−वध किया करते थे। अकबर ने गौ−वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था। शाही आज्ञा से गौ−हत्या के अपराध की सज़ा मृत्यु थी।


सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया। कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी। यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी क़िस्म का एक ही नमूना है। |}

धार्मिक विद्वानों का सत्संग

जिस समय अकबर ने अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरी में स्थानान्तरित की, उस समय उसकी धार्मिक जिज्ञासा बड़ी प्रबल थी। उसने वहाँ राजकीय इमारतों के साथ ही साथ एक इबादतखाना (उपासना गृह) भी सन 1575 में बनवाया था, जहाँ वह सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन सुन उनसे विचार−विमर्श किया करता था। वह अपना अधिकांश समय धर्म−चर्चा में ही लगाता था। वह मुस्लिम धर्म के विद्वानों के साथ ही साथ ईसाई, जैन और वैष्णव धर्माचार्यों के प्रवचन सुनता था और कभी−कभी उनमें शास्त्रार्थ भी कराता था। सन 1576 से जनवरी, सन 1579 तक लगभग 3 वर्ष तक वहाँ धार्मिक विचार−विमर्श का जोर बढ़ता गया। उस समय के धर्माचार्य श्री विट्ठलनाथ जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हीरविजय सूरि श्वेतांबर जैन धर्म के विद्वान आचार्य थे। अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म बनाया और चलाया।


दिल्ली के सुल्तानों के पश्चात मथुरा मंडल पर मुग़ल सम्राट का शासन हुआ था। उनमें सम्राट अकबर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा में रखी थी। आगरा ब्रजमंडल का प्रमुख नगर है; अत: राजकीय रीति−नीति का प्रभाव इस भूभाग पर पड़ा था। ये सम्राट अकबर की धार्मिक नीति उदार थी, जिससे ब्रज के अन्य धर्मावलंबी प्रचुरता से लाभान्वित हुए थे। सम्राट अकबर से पहले ग्वालियर और बटेश्वर (ज़िला आगरा) जैन धर्म के परंपरागत केन्द्र थे। अकबर के शासन काल में आगरा भी इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था। ग्वालियर और बटेश्वर का तो पहले से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्त्व था, किंतु आगरा राजनीतिक कारण से जैनियों का केन्द्र बना। ब्रजमंडल के जैन धर्मावलंबियों में अधिक संख्या व्यापारी वैश्यों की थी। उनमें सबसे अधिक अग्रवाल, खंडेलवाल−ओसवाल आदि थे। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा उस समय में व्यापार−वाणिज्य का भी बड़ा केन्द्र था, इसलिए वणिक वृत्ति के जैनियों का वहाँ बड़ी संख्या में एकत्र होना स्वाभाविक था।


मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्मावलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूर्वक सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे। आचार्य हीर विजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्रा का वर्णन 'हीर सौभाग्य' काव्य के 14 वें सर्ग में हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जी ने मथुरा के विहार कर पार्श्वनाथ और जम्बू स्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपों की यात्रा की थी। सूरि जी के कुछ काल पश्चात सन 1591 में कवि दयाकुशल ने जैन तीर्थों की यात्रा कर तीर्थमाला की रचना की थी। उसके 40 वें पद्य में उसने अपने उल्लास का इस प्रकार कथन किया है,−

मथुरा देखिउ मन उल्लसइ । मनोहर थुंम जिहां पांचसइं ।।


गौतम जंबू प्रभवो साम । जिनवर प्रतिमा ठामोमाम ।।

अकबर की मृत्यु

अकबरनामा के अनुसार, अकबर के दरबार का एक दृश्य

सम्राट अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था। उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था। इसलिए उसकी गणना भारतवर्ष के महान सम्राटों में की जाती है। उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था। अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था। उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था। अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे। उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था। पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था। जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे। जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तरकाल में उसने उस बड़े बेटे शाहज़ादा ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था। किंतु अकबर ने ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया लेकिन उस महत्त्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी। अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन 1605 में हुआ था। उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफ़नाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मक़बरा बना हुआ है। अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना।

अकबर के नवरत्न

अकबर के दरबार में 9 विशेष दरबारी थे जिन्हें अकबर के 'नवरत्न' के नाम से भी जाना जाता है।

  • अबुलफज़ल (1551 - 1602 ) ने अकबर के काल को क़लमबद्ध किया था। उसने अकबरनामा और आइना-ए-अकबरी की भी रचना की थी।
  • फ़ैज़ी (1547 - 1595) अबुल फ़ज़ल का भाई था। वह फ़ारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था।
  • मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे।
  • राजा बीरबल (1528 - 1583) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे।
  • राजा टोडरमल अकबर के वित्त मन्त्री थे।
  • राजा मान सिंह आम्बेर (आमेर, जयपुर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे । वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे।
  • अब्दुर्रहीम खानखाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम ख़ान के बेटे थे।
  • फ़कीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे।
  • मुल्ला दो पिआज़ा अकबर के सलाहकार थे।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख