"राज्यपाल": अवतरणों में अंतर

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*प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें
*प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें
*राज्यपाल समिति का प्रतिवेदन
*राज्यपाल समिति का प्रतिवेदन
*सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशें
*राजमन्नार समिति रिपोर्ट की सिफ़ारिशें
*सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशें
*सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशें
====प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें====
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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11:57, 14 अप्रैल 2011 का अवतरण

भारत का संविधान संघात्मक है। इसमें संघ तथा राज्यों के शासन के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। संविधान के भाग 6 में राज्य शासन के लिए प्रावधान है। यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्यों के लिए लागू होता है। जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के कारण उसके लिए अलग संविधान है। संघ की तरह राज्य की भी शासन पद्धति संसदीय है। राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख राज्यपाल होता है, जो कि मंत्रीपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करता है। कुछ मामलों में राज्यपाल को विवेकाधिकार दिया गया है, ऐसे मामले में वह मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना कार्य करता है।

राज्यपाल की योग्यता

अनुच्छेद 157 के अनुसार राज्यपाल पद पर नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताओं का होना अनिवार्य है–

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  3. वह राज्य सरकार या केन्द्र सरकार या इन राज्यों के नियंत्रण के अधीन किसी सार्वजनिक उपक्रम में लाभ के पद पर न हो
  4. वह राज्य विधानसभा का सदस्य चुने जाने के योग्य हो।

राज्यपाल की नियुक्ति

संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार- राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से की जाएगी, किन्तु वास्तव में राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री की सिफ़ारिश पर की जाती है। राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में निम्न दो प्रकार की प्रथाएँ बन गयी थीं-

  1. किसी व्यक्ति को उस राज्य का राज्यपाल नहीं नियुक्त किया जाएगा, जिसका वह निवासी है।
  2. राज्यपाल की नियुक्ति से पहले सम्बन्धित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार विमर्श किया जाएगा।

यह प्रथा 1950 से 1967 तक अपनायी गयी, लेकिन 1967 के चुनावों में जब कुछ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ, तब दूसरी प्रथा को समाप्त कर दिया गया और मुख्यमंत्री से विचार विमर्श किए बिना राज्यपाल की नियुक्ति की जाने लगी।

राज्यपाल की कार्य अवधि

यद्यपि राज्यपाल की कार्य अवधि उसके पद ग्रहण की तिथि से पाँच वर्ष तक होती है, लेकिन इस पाँच वर्ष की अवधि के समापन के बाद वह तब तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक उसका उत्तराधिकारी पद नहीं ग्रहण कर लेता। जब राज्यपाल पाँच वर्ष की अवधि की समाप्ति के बाद पद पर रहता है, तब वह प्रतिदिन के वेतन के आधार पर पद पर बना रहता है। ऐसे कई उदाहरण है, जब राज्यपाल अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति न किये जाने के कारण अपने पद पर बने रहे हैं। इन उदाहरणों में हरियाणा के राज्यपाल 'बी. एन. चक्रवर्ती' का उदाहरण महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये अपनी पदावधि के समापन के बाद उत्तराधिकारी की नियुक्ति न होने के कारण 3 वर्ष तक प्रतिदिन के वेतन के आधार पर पद पर बने रहे थे।

इसके अतिरिक्त राज्यपाल अपनी पदावधि की समाप्ति के पूर्व राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर अपना पद छोड़ भी सकता है या राष्ट्रपति उसे पदमुक्त कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, 1980 में तमिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी तथा 1981 में राजस्थान के राज्यपाल 'रघुकुल तिलक' तथा 1992 में नागालैंण्ड के राज्यपाल 'एम. एम. थामस' को राष्ट्रपति ने बर्ख़ास्त कर दिया था। इसके अतिरिक्त कई बार राज्यपालों को त्यागपत्र देने के लिए विवश किया गया है या उनसे त्यागपत्र माँग लिया गया है।

शपथ ग्रहण

राज्यपाल को सम्बन्धित राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है।

वेतन एवं भत्ते

11 सितम्बर, 2008 को लिये गये निर्णय के अनुसार राज्यपाल का वेतन 36,000 रुपये से बढ़ाकर 1.10 लाख रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है। यह वेतनमान जनवरी, 2006 से प्रभावी माना गया है। इसके पूर्व 10 जनवरी, 2008 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने राज्यपाल का वेतन 75,000 रुपये प्रतिमाह करने का निर्णय लिया था। राज्यपाल ऐसे भत्ते का भी हकदार है, जिसे संसद के द्वारा नियत किया जाए। इसके अतिरिक्त उसे रहने के लिए सरकारी आवास मिलता है। जिसके लिये उसे किराया नहीं देना पड़ता। यदि दो या दो से अधिक राज्यों का एक ही राज्यपाल है, तब उसे दोनों राज्यपालों का वेतन उस अनुपात में दिया जाएगा, जैसा कि राष्ट्रपति निर्धारित करेंगे।

स्थानान्तरण

संविधान में राज्यपाल के स्थानान्तरण के लिए कोई व्यवस्था नहीं है, लेकिन राज्यपाल का स्थानान्तरण किया जाता है और यह कुछ हद तक एक प्रथा बन गयी है। केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की सरकार ने मार्च, 1998 में बिहार के राज्यपाल 'डॉ. ए. आर. किदवई' को स्थानान्तरित कर पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया था।

उन्मुक्तियाँ तथा विशेषाधिकार

राज्यपाल को निम्नलिखित विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ प्राप्त हैं–

  1. वह अपने पद की शक्तियों के प्रयोग तथा कर्तव्यों के पालन के लिए किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
  2. राज्यपाल की पदावधि के दौरान उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में किसी भी प्रकार की आपराधिक कार्यवाही प्रारम्भ नहीं की जा सकती।
  3. जब वह पद पर आरूढ़ हो, तब उसकी गिरफ्तारी या कारावास के लिए किसी भी न्यायालय से कोई आदेशिका जारी नहीं की जा सकती।
  4. राज्यपाल का पद ग्रहण करने से पूर्व या पश्चात उसके द्वारा व्यक्तिगत क्षमता में किये गये कार्य के सम्बन्ध में कोई सिविल कार्यवाही करने के पहले उसे दो मास पूर्व सूचना देनी पड़ती है।

शक्ति तथा कार्य

जिस प्रकार केन्द्र में कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है, उसी प्रकार राज्य में कार्यपालिका की शक्ति राज्यपाल में निहित है। राज्यपाल की शक्तियाँ तथा इसके कार्य निम्नलिखित हैं–

कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य

अनुच्छेद 154 के अनुसार राज्यपाल के पास कार्यपालिका सम्बन्धी निम्नलिखित कार्य हैं–

  • राज्यपाल राज्य सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष है तथा राज्य की कार्यपालिका सम्बन्धि शक्ति का प्रयोग वह अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से कराता है। वह सरकार की कार्यवाही सम्बन्धी नियम बनाता है तथा मंत्रियों में कार्यों का विभाजन करता है।
  • राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा मुख्यमंत्री की सलाह से उसके मंत्रिपरिषद के सदस्यों को नियुक्त करता है तथा उन्हें पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है।
  • राज्यपाल, राज्य के उच्च अधिकारियों, जैसे–महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है तथा राज्य के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को परामर्श देता है।
  • राज्यपाल को यह अधिकार है कि, वह राज्य के प्रशासन के सम्बन्ध में मुख्यमंत्री से सूचना प्राप्त करे।
  • जब राज्य का प्रशासन संवैधानिक तंत्र के अनुसार न चलाया जा सके, तो राज्यपाल राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश करता है। जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है, तब राज्यपाल केन्द्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में राज्य का प्रशासन चलाता है।
  • राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है तथा उप कुलपतियों को भी नियुक्त करता है।

विधायी अधिकार

अनुच्छेद 174 के अनुसार राज्यपाल को विधायी अधिकार प्राप्त हैं। राज्यपाल राज्य विधान मण्डल का एक अभिन्न अंग है और इसे विधायिका के सम्बन्ध में निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं–

  • वह राज्य विधान मण्डल के सत्र को आहूत कर सकता है, स्थगित कर सकता है तथा राज्य विधानसभा को भंग कर सकता है।
  • यदि राज्यपाल को ऐसा प्रतीत हो कि, राज्य विधानसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह आंग्ल भारतीय समुदाय के एक व्यक्ति को राज्य विधानसभा के सदस्य के रूप में मनोनीत कर सकता है। वह राज्य विधान परिषद की कुल सदस्य संख्या के सदस्य के एक छठवें भाग के लिए सदस्यों, जिनका विज्ञान, साहित्य, कला, समाज सेवा, सहकारी आंदोलन आदि के क्षेत्र में विशेष ज्ञान, अनुभव या योगदान हो, को नियुक्त कर सकता है।
  • यदि राज्य विधानसभा के किसी सदस्य की अयोग्यता का प्रश्न उत्पन्न होता है तो, अयोग्यता सम्बन्धी विवाद का निर्धारण राज्यपाल चुनाव आयोग से परामर्श करके करता है।
  • वह सामान्य आम चुनाव के बाद प्रारम्भ होने वाले तथा प्रत्येक वर्ष के प्रथम विधानमण्डल के प्रथम सत्र को सम्बोधित करता है तथा सदनों को अपना संदेश भी भेज सकता है।
  • वह राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक पर हस्ताक्षर करता है और राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद ही विधेयक अधिनियम के रूप में प्रवृत्त होता है।
  • राज्यपाल धन विधेयक के अतिरिक्त किसी विधेयक को पुन: विचार के लिए राज्य विधान मण्डल के पास भेज सकता है तथा राज्य विधान मण्डल द्वारा विधेयक को पुन: पारित किये जाने पर वह उस पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य है।
  • राज्य विधानसभा में धन विधेयक तभी पेश किया जाता है, जब राज्यपाल ने विधेयक पेश करने के लिए अपनी अनुमति दे दी हो।
  • विभिन्न आयोगों, उच्च तथा स्वायत्त संस्थाओं के वार्षिक प्रतिवेदन राज्यपाल को सौंपे जाते हैं और वह उन्हें विचारार्थ राज्य विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत करता है।
  • कुछ विशिष्ट प्रकार के विधेयकों को राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है। जैसे–
  1. व्यक्तिगत सम्पत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से सम्बन्धित विधेयक
  2. उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में कमी से सम्बन्धित विधेयक
  3. संसद द्वारा निर्मित क़ानून के अधीन आवश्यक घोषित वस्तु पर करारोपण से सम्बन्धित विधेयक
  4. समवर्ती सूची में उल्लिखित विषयों से सम्बन्धित विधेयक (जब संसद द्वारा निर्मित क़ानून से संघर्ष की सम्भावना हो), तथा
  5. अन्य कोई विधेयक, जिसके कारण केन्द्रीय सरकार या अन्य राज्यों की सरकार से विवाद होने की सम्भावना हो।

अध्यादेश जारी करने की शक्ति

अनुच्छेद 213 के अनुसार जब राज्य विधान मण्डल या राज्य विधानसभा सत्र में न हो तथा संविधान की सातवीं अनुसूची में अन्तर्विष्ट राज्यसूची में वर्णित विषयों में से किसी विषय पर क़ानून बनाना आवश्यक हो, तब राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर अध्यादेश जारी कर सकता है। इस प्रकार जारी किया गया अध्यादेश केवल 6 मास तक प्रभावी रहता है और 6 मास की अवधि समाप्त होने के पूर्व ही राज्य विधानमण्डल या राज्य विधानसभा का सत्र प्रारम्भ हो जाए, तो अध्यादेश को 6 सप्ताह के अन्दर विधानमण्डल या विधानसभा द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए और यदि 6 सप्ताह के अन्दर अनुमोदित नहीं किया जाता है तो अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाएगा। जिन विधेयकों पर राज्यपाल अनुमति देने के पूर्व उन्हें राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखता है, उन विधेयकों से सम्बन्धित विषय पर राज्यपाल अध्यादेश जारी नहीं कर सकता है।

वित्तीय अधिकार

संविधान द्वारा राज्यपाल को निम्नलिखित वित्तीय अधिकार प्रदान किये गये हैं–

  1. राज्यपाल की सिफ़ारिश के बिना राज्य विधानसभा में धन विधेयक को पेश नहीं किया जा सकता।
  2. राज्य की आकस्मिक निधि से व्यय राज्यपाल की अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता।
  3. राज्यपाल राज्य के वित्तमंत्री के माध्यम से राज्य विधानसभा में राज्य का वार्षिक बजट पेश कराता है।
  4. किसी प्रकार के अनुदान की माँग को या करों के प्रस्ताव को राज्यपाल के अनुमोदन से विधानसभा में पेश किया जाता है।

न्यायिक अधिकार

राज्यपाल के न्यायिक अधिकार निम्नलिखित हैं–

  1. वह ज़िला न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानान्तरण तथा पदोन्नति से सम्बन्धित मामलों का निर्णय करता है। राज्यपाल इस शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय के परामर्श से करता है।
  2. वह न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किये गये अपराधियों को क्षमा करने, उनके दण्ड को कम करने या निलम्बन करने या विलम्बित करने की शक्ति रखता है। लेकिन इस शक्ति का प्रयोग उसके द्वारा उसी सीमा तक किया जा सकता है, जिस सीमा तक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है।

विवेकाधिकार

संविधान के द्वारा राज्यपाल को निम्नलिखित विवेकाधिकार प्रदान किया गया है–
राज्यपाल राज्य कार्यपालिका का प्रमुख होता है। राज्य कार्यपालिका की शक्ति उसमें निहित है। जिसका प्रयोग वह अपने प्राधिकारियों के माध्यम से कराता है। यहाँ अधीनस्थ प्राधिकारियों का तात्पर्य मंत्रिपरिषद से है। मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है, जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करता है। मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की भी नियुक्ति करता है। सामान्यत: राज्यपाल उसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है, जो विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता हो या जिसे बहुमत प्राप्त करने के लिए कई दलों का समर्थन प्राप्त हो। लेकिन यदि विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तथा किसी भी व्यक्ति को कई दलों का समर्थन प्राप्त न हो या कई दलों के गठबन्धन ने मिलकर चुनाव में बहुमत न प्राप्त किया हो, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री को नियुक्त करने में अपने विवेक का प्रयोग करता है। राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने में प्रयोग किये गये विवेकाधिकार से इस विवेकाधिकार के सम्बन्ध में निम्नलिखित दो सिद्धान्तों का विकास हुआ है–

  • अनुमान न लगाने का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त को "प्रकासा सिद्धान्त" नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि इस सिद्धान्त का प्रयोग सबसे पहले 1952 में मद्रास के राज्यपाल 'प्रकासा' द्वारा 1952 में मद्रास के चुनाव के पश्चात किया गया था। इस सिद्धान्त के अनुसार जब आम चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं होता है, तब राज्यपाल विधानसभा के सबसे बड़े दल के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है। इस सिद्धान्त का प्रयोग 1952 में मद्रास, पेप्सू तथा ट्राबनकोर कोचीन में, 1957 में उड़ीसा में, 1967 में राजस्थान में, 1974 में पाण्डिचेरी में, 1982 में हरियाणा में तथा 1988 में तमिलनाडु में किया गया था। लेकिन यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि इस सिद्धान्त का प्रयोग केवल तब किया गया है, जब कांग्रेस दल को सरकार बनाने का अवसर मिला है। जब अन्य दल को सरकार बनाने का अवसर मिल रहा था, तब इस सिद्धान्त का अनुसरण नहीं किया गया। उदाहरणार्थ, जब 1957 में केरल में भारतीय साम्यवादी दल, 1965 में केरल में मार्क्सवादी साम्यवादी दल, 1971 में पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी साम्यवादी दल को इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार बनाने का अवसर मिला था, तब इस सिद्धान्त का अनुसरण नहीं किया गया।

  • अनुमान लगाने का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार जब आम चुनाव में किसी भी राजनैतिक दल को विधानसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिलता, तब राज्यपाल अनुमान लगाता है कि किस दल का नेता स्थायी सरकार का गठन कर सकता है और इसके आधार पर यह निर्णय करता है कि किस नेता को मंत्रिमण्डल बनाने के लिए आमंत्रित किया जाए। इस सिद्धान्त का प्रयोग 1954 में ट्रावनकोर कोचीन, 1957 तथा 1965 में केरल, 1967 में उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान, 1969 में बिहार, 1971 में उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल, 1974 में नागालैण्ड, 1975 में गुजरात, 1978 में महाराष्ट्र तथा 1982 में कर्नाटक में किया गया। राज्यपाल अनुमान लगाने में 'लिस्ट पद्धति' तथा 'परेड पद्धति' को अपनाते हैं।
(1) लिस्ट पद्धति - राज्यपालों के द्वारा लिस्ट पद्धति का अनुसरण तब किया गया, जब मुख्यमंत्री पद के एक से अधिक दावेदार थे। ऐसी स्थिति में राज्यपाल दावेदारों से अपने समर्थकों की सूची पेश करने के लिए कहे और यदि विधायक का नाम एक से अधिक सूचियों में पाया जाए, तो राज्यपाल द्वारा उस विधायक का साक्षात्कार लिया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, 1967 में विश्वनाथ दास ने उत्तर प्रदेश में, हुकुम सिंह ने राजस्थान में, 1974 में बी. के. नेहरू ने नागालैण्ड में तथा 1978 में सादिक अली ने महाराष्ट्र में इस पद्धति का प्रयोग किया था। लेकिन कुछ राज्यपालों ने इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया है। उदाहरणार्थ 1969 तथा 1970 में बिहार में नित्यानन्द कानूनगो तथा 1984 में आंध्र प्रदेश में रामलाल ने लिस्ट पद्धति का अनुसरण नहीं किया।
(2) परेड पद्धति - परेड पद्धति के अनुसार मुख्यमंत्री पद के दावेदार अपने समर्थकों की परेड राज्यपाल के समक्ष करवाते हैं और परेड में शामिल विधायकों के आधार पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति की जाती है। इस पद्धति का सबसे पहले प्रयोग 1970 में पंजाब में किया गया था। इसके बाद इस पद्धति का प्रयोग 1974 में मणिपुर में, 1978 में बम्बई तथा 1984 में जम्मू-कश्मीर में किया गया।

मंत्रिपरिषद को भंग करना

राज्यपाल को मंत्रिपरिषद को भंग करने का अधिकार प्राप्त है। राज्यपाल निम्नलिखित स्थितियों में मंत्रिपरिषद को भंग कर सकता है–

  • जब राज्यपाल को विश्वास हो जाए, कि मंत्रिपरिषद का विधानमण्डल में बहुमत नहीं रह गया है।
  • जब मंत्रिपरिषद के विरुद्ध विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे और मंत्रिपरिषद त्यागपत्र न दे।
  • जब मंत्रिपरिषद संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य न कर रहा हो या मंत्रिपरिषद की नीतियों से राष्ट्र का अहित सम्भाव्य हो या केन्द्र से संघर्ष होने की सम्भावना हो।
  • जब किसी स्वतंत्र अधिकरण ने जाँच के पश्चात मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार मं आलिप्त पाया हो।

विधानसभा का अधिवेशन बुलाना

सामान्यतया राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर विधानसभा का अधिवेशन बुलाता है, लेकिन यदि असाधारण परिस्थिति उत्पन्न हो जाएँ, तब राज्यपाल विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुला सकता है।

विधानसभा को भंग करना

सामान्यतया राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही विधानसभा को भंग करता है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में वह मुख्यमत्री की सलाह के बिना भी विधानसभा का भंग कर सकता है।

मुख्यमंत्री के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही

राज्यपाल कार्यरत या भूतपूर्व मुख्यमंत्री के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही करने की अनुमति दे सकता है। यदि वह भ्रष्टाचार या किसी षड़यंत्र या आपराधिक कार्य में संलिप्त हो।

राज्यपाल के सम्बन्ध में सिफ़ारिशें

राज्यपाल के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिफ़ारिशें अपना महत्व रखती हैं-

  • प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें
  • राज्यपाल समिति का प्रतिवेदन
  • राजमन्नार समिति रिपोर्ट की सिफ़ारिशें
  • सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशें

प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें

राज्यपाल की नियुक्ति तथा भूमिका के सम्बन्ध में प्रशासनिक सुधार आयोग की प्रमुख सिफ़ारिशें निम्नवत हैं–

  1. ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिए, जिसका सार्वजनिक जीवन और प्रशासन के विषय में लम्बा अनुभव हो और जिसका दलीय पूर्वाग्रहों से ऊपर उठने की क्षमता में विश्वास हो। अपने कार्यकाल की समाप्ति पर वह दोबारा राज्यपाल नियुक्त किये जाने के योग्य नहीं होना चाहिए। सेवा निवृत्त होने के बाद न्यायाधीशों को राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन एक न्यायाधीश, जो सेवानिवृत्त होने के बाद सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करता है और विधायक बन जाता है अथवा निर्वाचित पद पर है, तो उसे राज्यपाल की नियुक्ति के लिए अयोग्य नहीं मानना चाहिए।
  2. राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व मुख्यमंत्री से परामर्श की परम्परा एक स्वस्थ परम्परा है। यह बनी रहनी चाहिए।
  3. राज्यपालों के द्वारा किस प्रकार स्वविवेक की शक्तियों का प्रयोग किया जाए, इस विषय में निर्देश-संकेतों को केन्द्र की स्वीकृति पर राष्ट्रपति के नाम से जारी किया जाना चाहिए। उन्हें संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाना चाहिए।
  4. राज्यपाल को राष्ट्रपति के पास पाक्षिक रिपोर्ट भेजने के साथ ही, जब भी आवश्यकता हो, तदर्थ रिपोर्ट भेजनी चाहिए। राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली रिपोर्ट बनाते समय राज्यपाल को स्वविवेक और स्वनिर्णय के आधार पर काम करना चाहिए। इसी प्रकार राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयकों को सुरक्षित रखने के विषय में भी स्वनिर्णय का प्रयोग करना चाहिए।
  5. जब भी राज्यपाल के पास यह विश्वास करने का कारण हो कि मंत्रिमण्डल का विधानसभा में बहुमत नहीं रहा है, तो इसका अन्तिम निर्णय उसे विधानसभा का सत्र बुलाकर मंत्रिमण्डल के समर्थन को देखकर करना चाहिए। जब भी यह प्रश्न उठे कि मंत्रिमण्डल को सदन में बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है और मुख्यमंत्री राज्यपाल को विधानसभा का सत्र बुलाने के उद्देश्य से, यदि उचित समझे तो विधानसभा सत्र को स्वयं बुला सकता है।
  6. जब कोई मंत्रिमण्डल किसी बड़े नीति निर्माण सम्बन्धी विषय पर सदन में पराजित हो जाता है और यदि हारने वाला मुख्यमंत्री राज्यसभा भंग करने की सलाह देता है, ताकि वह मतदाताओं से निर्णय ले सके, तो राज्यपाल को उसकी सलाह मान लेनी चाहिए। अन्य मामलों में वह स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है।
  7. राज्यपाल को न केवल अनुच्छेद 167 के प्रावधान के अनुकूल सूचना प्राप्त करनी चाहिए, बल्कि अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों को प्रभावी तौर पर पूरा करने के लिए ऐसा करना चाहिए।

राज्यपाल समिति का प्रतिवेदन

प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपने 1969 के प्रतिवेदन में राष्ट्रपति के नाम से उन निर्देशों को जारी करने की सिफ़ारिश की थी, जिनके अनुसार राज्यपाल स्वविवेक शक्तियों का प्रयोग करें। 1970 में राज्यपाल सम्मेलन में इस सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया गया और निर्देशों को निश्चित करने के लिए जम्मू कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल 'भगवान सहाय' की अध्यक्षता में 5 सदस्यों की समिति गठित की गयी। समिति के अन्य सदस्य थे–बी. गोपाल रेड्डी, अलीयावर जंग, विश्वनाथन तथा एम. एम. धवन। इस समिति की प्रमुख सिफ़ारिशें निम्नलिखित हैं–

  1. यदि विधानसभा का विश्वास प्राप्त करने के विषय में कोई मुख्यमंत्री विधानसभा का अधिवेशन बुलाने से इन्कार करता है, तो राज्यपाल मंत्रिमण्डल को बर्ख़ास्त कर सकता है।
  2. मंत्रिमण्डल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त है या नहीं, इसका निर्धारण विधानसभा के द्वारा किया जाना चाहिए। यदि कोई मुख्यमंत्री विधानसभा द्वारा बहुमत के प्रश्न को निर्धारित करने से इन्कार करता है तो यह माना जाना चाहिए कि मंत्रिमण्डल को बहुमत प्राप्त नहीं है।
  3. यदि मुख्यमंत्री के त्यागपत्र या बर्ख़ास्तगी के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने की सम्भावना न हो, तो राज्यपाल के पास राष्ट्रपति को विधानसभा भंग करने की रिपोर्ट देनी चाहिए।
  4. यदि कोई व्यक्ति राज्य विधानसभा का सदस्य न हो या विधानसभा का मनोनीत सदस्य हो, तो उसे मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं दिलाना चाहिए।
  5. यदि कई दलों के गठबंधन सरकार का कोई भागीदार दल मुख्यमंत्री से मतभेद होने के कारण सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेता है, तो यह आवश्यक नहीं है कि मुख्मंत्री त्यागपत्र दे, लेकिन यदि मुख्यमंत्री के विधानसभा के सम्बन्ध में सन्देह उत्पन्न होता है, तो उससे यह आशा की जाती है कि राज्यपाल से परामर्श करके यथासम्भव शीघ्र विधानसभा का अधिवेशन बुलाये और विधानसभा में अपना बहुमत साबित करे।
  6. राष्ट्रपति सचिवालय में एक विशेष कक्ष की स्थापना की जानी चाहिए और इस कक्ष द्वारा विभिन्न राज्यों में समय-समय पर घटित होने वाली राजनीतिक और संवैधानिक घटनाओं के सम्बन्ध में आधिकाधिक सूचनाएँ एकत्र की जानी चाहिए। इस कक्ष को विशेष मामलों के सम्बन्ध में राष्ट्रपति की अनुमति से समस्त जानकारी राज्यपाल को दी जानी चाहिए, जिससे राज्यपाल को किसी निर्णय में आसानी हो।
  7. राज्यपाल अपने राज्य का अध्यक्ष होता है, न कि राष्ट्रपति का अभिकर्ता और संविधान द्वारा राज्यपाल के कर्तव्य को निर्धारित किया गया है।

राजमन्नार समिति रिपोर्ट की सिफ़ारिशें

इस समिति की प्रमुख सिफ़ारिशें निम्नलिखित हैं–

  • राज्यपाल की नियुक्ति सदैव राज्य मंत्रिमण्डल से परामर्श करके की जानी चाहिए तथा इसके लिए सदैव वैकल्पिक व्यवस्था यह हो सकती है कि राज्यपाल की नियुक्ति इस प्रयोजन के लिए गठित एक उच्च शक्ति प्राप्त संगठन की सलाह के आधार पर की जाए।
  • एक बार राज्यपाल पद पर रह चुके व्यक्तियों को इसी पद पर दूसरे कार्यकाल अथवा सरकार के अधीन किसी अन्य पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। राज्यपाल को अपने कार्यकाल में पद से तब तक नहीं हटाया जाना चाहिए, जब तक उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच के बाद उसके द्वारा दुर्व्यवहार या उसकी अक्षमता न साबित हो जाए।
  • संविधान में विशेष प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए, जो राष्ट्रपति को राज्यपालों के लिए निर्देश देने का अधिकार प्रदान करे। ये लिखित निर्देश उन मामलों के विषय में दिशा-निर्देश करेंगे, जिनमें राज्यपाल को केन्द्र सरकार से परामर्श करना चाहिए अथवा जिनमें केन्द्र सरकार उसे निर्देश दे सकती है। उन निर्देशों के द्वारा उन सिद्धान्तों को भी स्पष्ट किया जाना चाहिए, जिनके सन्दर्भ में राज्यपाल को कार्य करना चाहिए। इन कार्यों में राज्य के प्रमुख के रूप में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों के क्रियान्वयन का अवसर शामिल है।
  • संविधान में शामिल इस प्रावधान को तत्काल निकाल दिया जाना चाहिए कि मंत्रिमण्डल राज्यपाल के प्रसाद के पर्यन्त पद पर रहेगा।
  • संविधान में विशेष रूप से निम्नलिखित निर्देशों को शामिल करना चाहिए। जैसे-
  1. राज्यपाल को राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करना चाहिए।
  2. जहाँ राज्यपाल को विधानसभा में किसी एक दल के स्पष्ट बहुमत के सम्बन्ध में समाधान न हो, वहाँ पर राज्यपाल को विधानसभा का अधिवेशन मुख्यमंत्री के चयन के लिए बुलाना चाहिए और अधिवेशन में चुने गये व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करना चाहिए।
  3. यदि मुख्यमंत्री किसी मंत्री को बर्ख़ास्त करने की सलाह राज्यपाल को देता है, तो उसे मुख्यमंत्री की सलाह मान लेनी चाहिए।
  4. यदि राज्यपाल को यह प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री ने विधानसभा में बहुमत खो दिया है, तो राज्यपाल को तत्काल विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का निर्देश देना चाहिए। यदि मुख्यमंत्री बहुमत साबित करने में असफल रहता है, तो राज्यपाल को मुख्यमंत्री को बर्ख़ास्त कर देना चाहिए।

सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशें

सरकारिया आयोग ने राज्यपाल के सन्दर्भ में निम्न सिफ़ारिशें की हैं–

  1. राज्यपाल के रूप में नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति को राज्य, जिसमें वह नियुक्त किया जाए, के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए तथा उसे राज्य की राजनीति में रुचि नहीं रखना चाहिए।
  2. उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो सामान्य रूप से या विशेष रूप से नियुक्त किये जाने के पहले राजनीति में सक्रिय भाग न ले रहा हो।
  3. राज्यपाल का चयन करते समय अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तियों को समुचित अवसर दिया जाना चाहिए।
  4. राज्यपाल के रूप में किसी व्यक्ति का चयन करते समय राज्य के मुख्यमंत्री से प्रभावी सलाह लेने की प्रक्रिया को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए।
  5. किसी ऐसे व्यक्ति को राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, जो कि केन्द्र में सत्तारूढ़ का दल का सदस्य हो, जिसमें शासन किसी अन्य दल के द्वारा चलाया जा रहा हो।
  6. यदि राजनीतिक कारणों से किसी राज्य की संवैधानिक व्यवस्था टूट रही हो, तो राज्यपाल को यह देखना चाहिए कि क्या उस राज्य में विधानसभा में बहुमत वाली सरकार का गठन हो सकता है।
  7. यदि नीति सम्बन्धी किसी प्रश्न पर राज्य की सरकार विधानसभा में पराजित हो जाती है तो शीघ्र चुनाव कराये जा सकने की स्थिति में राज्यपाल को चुनाव तक पुराने मंत्रीमण्डल को कार्यकारी सरकार के रूप में कार्य करते रहने देना चाहिए।
  8. यदि राज्य सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो देती है तो राज्यपाल को सबसे बड़े विरोधी दल को सरकार बनाने का आमंत्रण देना चाहिए, और विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश देना चाहिए। यदि सबसे बड़ा दल सरकार गठित करने की स्थिति में न हो, तो राज्यपाल को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश करनी चाहिए।


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