"अनोखा दान -सुभद्रा कुमारी चौहान": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Subhadra-Kumari-Ch...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
{{Poemopen}}
{{Poemopen}}
<poem>
<poem>
अपने बिखरे भावों का मैं
अपने बिखरे भावों का मैं,
गूँथ अटपटा सा यह हार।
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
पंक्ति 36: पंक्ति 36:


डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य।
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा,
मेरे इन भावों का मूल्य?
मेरे इन भावों का मूल्य?


संकोचों में डूबी मैं जब
संकोचों में डूबी मैं जब,
पहुँची उनके आँगन में
पहुँची उनके आँगन में।
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।
अकुलाई सी थी मन में।
पंक्ति 47: पंक्ति 47:
किंतु अरे यह क्या,
किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला,
तुमने मुझे अहो मतिमान!
तुमने मुझे अहो मतिमान!


मैं अपने झीने आँचल में
मैं अपने झीने आँचल में,
इस अपार करुणा का भार
इस अपार करुणा का भार।
कैसे भला सँभाल सकूँगी
कैसे भला सँभाल सकूँगी,
उनका वह स्नेह अपार।
उनका वह स्नेह अपार।


लख महानता उनकी पल-पल
लख महानता उनकी पल-पल,
देख रही हूँ अपनी ओर
देख रही हूँ अपनी ओर।
मेरे लिए बहुत थी केवल
मेरे लिए बहुत थी केवल,
उनकी तो करुणा की कोर।  
उनकी तो करुणा की कोर।  
</poem>
</poem>

05:49, 14 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

अनोखा दान -सुभद्रा कुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान
कवि सुभद्रा कुमारी चौहान
जन्म 16 अगस्त, 1904
जन्म स्थान इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 फरवरी, 1948
मुख्य रचनाएँ 'मुकुल', 'झाँसी की रानी', बिखरे मोती आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ

अपने बिखरे भावों का मैं,
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार॥

डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य।
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा,
मेरे इन भावों का मूल्य?

संकोचों में डूबी मैं जब,
पहुँची उनके आँगन में।
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।

किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला,
तुमने मुझे अहो मतिमान!

मैं अपने झीने आँचल में,
इस अपार करुणा का भार।
कैसे भला सँभाल सकूँगी,
उनका वह स्नेह अपार।

लख महानता उनकी पल-पल,
देख रही हूँ अपनी ओर।
मेरे लिए बहुत थी केवल,
उनकी तो करुणा की कोर।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख