"बाज़ार के बीच मैं -कुलदीप शर्मा": अवतरणों में अंतर

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कि स्तब्ध है सारी चीजे
कि स्तब्ध है सारी चीजे
जैसे यही से होकर  
जैसे यही से होकर  
आज के आज गुजरेगी सारी खुषी
आज के आज गुजरेगी सारी खुशी
आज के आज मनेगा महोत्सव
आज के आज मनेगा महोत्सव
आज के आज बिकने केा है  
आज के आज बिकने के है  
उतावली सारी चीज़े  
उतावली सारी चीज़े  
मेरी खुशी के लिए
मेरी खुशी के लिए
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जो खुश नहीं हो पा रहे हैं अब भी
जो खुश नहीं हो पा रहे हैं अब भी
जब कि बहुत खुश है बाज़ार
जब कि बहुत खुश है बाज़ार
ऐसे कितने लोग हैं पूरे देष में
ऐसे कितने लोग हैं पूरे देश में
जो जेब ओर जरूरतों में  
जो जेब ओर जरूरतों में  
सन्तुलन नहीं बिठा पा रहे हैं
सन्तुलन नहीं बिठा पा रहे हैं

13:35, 2 जनवरी 2012 का अवतरण

बाज़ार के बीच मैं -कुलदीप शर्मा
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (ऊना, हिमाचल प्रदेश)
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मैं खुश हो सकूं
इस गर्ज से बहुत कुछ रखा गया है
बाज़ार में;
बस मै ही नही जा पा रहा बाज़ार
रूइ के भाव बिक रही है गरमाहट
जिसे मै तलाश रहा था बरसों से
अपने आसपास सम्बंधों में
मै भूल चुका हूँ
कि व्यापारियो की मुस्कानों में भी
खोज सकता हूँ मैं आत्मीयता
बिना कोइ कीमत चुकाए,
यह भी कि व्यापारी ही अभ्यस्त है मुस्कानो के
मै गुम हो सकता हूँ
जेसे ही जबडे खुले दुकानों के
मै खो सकता हूँ ऐसे ही
जैसे ताइ का बेटा खो गया था शहर में

बाज़ार के बीचोबीच
सजाया गया है पार्क
खिलाए गए है फूल
कि मै कुछ भी खरीदूँ बाज़ार से
और लौट सकूँ पार्क मे
सकून के लिए
जो हर बार कम पड जाता है
बाज़ार में
इसलिए भी कि तब तक
हाथगाडी ठेलते पहुँच गए होगे पल्लेदार
नए सामान के साथ,
तब तक तरोताजा और व्यवस्थित हो चुका होगा समय़

बाज़ार सजाया गया है इस तरह
कि स्तब्ध है सारी चीजे
जैसे यही से होकर
आज के आज गुजरेगी सारी खुशी
आज के आज मनेगा महोत्सव
आज के आज बिकने के है
उतावली सारी चीज़े
मेरी खुशी के लिए
चिन्तित है सारी चीजे और सारे लोग
इतना कि वे भी सजे है यहाँ
जो नही हैं बि़क्रि के लिये अभी तैयार’
जिनके बिकने की योजना अगली सदी में थी़

विज्ञापनों व शोकेसों में छटपटाती चीजें
मुडों और उद्विग्न करती हैं
मुझमें और बाज़ार में
एक रस्साकस्सी चलती है निरन्तर
मैं गुज़रता हूँ बाज़ार से
कि बाज़ार मुडों चीरता निकल जाता है
हर बार पूछता हूँ एक ठेले वाले से
भइया, जरा बाज़ार से बाहर जाकर बताओ़
मैं हूँ बाज़ार में या मुझमें है बाज़ार ?


ऐसे कितने लोग हैं मेरे साथ
जो खुश नहीं हो पा रहे हैं अब भी
जब कि बहुत खुश है बाज़ार
ऐसे कितने लोग हैं पूरे देश में
जो जेब ओर जरूरतों में
सन्तुलन नहीं बिठा पा रहे हैं
जो बाज़ार में बिना कुछ खरीदे
लगातार खर्च होते जा रहे हैं ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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