"नृत्य कला": अवतरणों में अंतर

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*कुशलतापूर्वक नृत्य संयोजन।
*कुशलतापूर्वक नृत्य संयोजन।
जिसे अधिकतर कुछ पेशेवर लोगों के द्वारा किया जाता है। इस विषय से जुड़े दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण संयोजक विचार हैं, नृत्य में इन दो अवधारणाओं के बीच का सम्बन्ध अन्य कलाओं के मुकाबले अधिक मज़बूत है और एक-दूसरे के बिना दोनों का ही अस्तित्व नहीं हो सकता। यद्यपि इस व्यापक परिभाषा में कला के सभी स्वरूप आ जाते हैं। दार्शनिकों और आलोचकों ने समूचे इतिहास में नृत्य की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। लेकिन वे नृत्य की उस शैली का विस्तृत विवरण मात्र है, जिससे वे सुपरिचित थे। अतः पोयटिक्स में अरस्तु का वक्तव्य है कि नृत्य लयात्मक गति है, जिसका उद्देश्य मनुष्यों के गुणों के साथ-साथ उनके कार्यों व कष्टों का प्रतिनिधित्व करना है। यूनानी शास्त्रीय रंगमंच में नृत्य की केन्द्रीय भूमिका की ओर इंगित करता है। जहाँ गायक दल गीति प्रहसन के दौरान अपनी भाव भंगिमाओं द्वारा नाटक की कथावस्तु को प्रस्तुत करता था।  
जिसे अधिकतर कुछ पेशेवर लोगों के द्वारा किया जाता है। इस विषय से जुड़े दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण संयोजक विचार हैं, नृत्य में इन दो अवधारणाओं के बीच का सम्बन्ध अन्य कलाओं के मुकाबले अधिक मज़बूत है और एक-दूसरे के बिना दोनों का ही अस्तित्व नहीं हो सकता। यद्यपि इस व्यापक परिभाषा में कला के सभी स्वरूप आ जाते हैं। दार्शनिकों और आलोचकों ने समूचे इतिहास में नृत्य की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। लेकिन वे नृत्य की उस शैली का विस्तृत विवरण मात्र है, जिससे वे सुपरिचित थे। अतः पोयटिक्स में अरस्तु का वक्तव्य है कि नृत्य लयात्मक गति है, जिसका उद्देश्य मनुष्यों के गुणों के साथ-साथ उनके कार्यों व कष्टों का प्रतिनिधित्व करना है। यूनानी शास्त्रीय रंगमंच में नृत्य की केन्द्रीय भूमिका की ओर इंगित करता है। जहाँ गायक दल गीति प्रहसन के दौरान अपनी भाव भंगिमाओं द्वारा नाटक की कथावस्तु को प्रस्तुत करता था।  
==जान वीवर के लेख में==
==जॉन वीवर के लेख में==
अंग्रेजी बैले के पंण्डित जान वीवर ने 1721 में लिखे एक लेख में यह तर्क दिया कि 'नृत्य' एक परिष्कृत, नियमित गति है, जो सुन्दर मुद्राओं से समन्वयात्मक ढंग से रचित (सुव्यवस्थित) है और जिसमें शरीर व अंगों की सौम्य मुद्राएँ एवं उनके अंश भी हैं। वीवर का विवरण स्पष्टतः तत्कालीन बैले के प्रतिष्ठित व शालीन स्वरूप का प्रतिबिम्ब है, जो अत्यधिक औपचारिक था और जिसमें सशक्त भावना की कमी थी, 19वीं शताब्दी के नृत्य इतिहासकार गस्तों वीली ने भी लालित्य, समन्वय और सौंदर्य जैसी विशेषताओं पर ज़ोर दिया और वास्तविक नृत्य को आरम्भिक मनुष्य की अपरिष्कृत व स्वतः गतियों से अलग किया।  
अंग्रेजी बैले के पंण्डित जॉन वीवर ने 1721 में लिखे एक लेख में यह तर्क दिया कि 'नृत्य' एक परिष्कृत, नियमित गति है, जो सुन्दर मुद्राओं से समन्वयात्मक ढंग से रचित (सुव्यवस्थित) है और जिसमें शरीर व अंगों की सौम्य मुद्राएँ एवं उनके अंश भी हैं। वीवर का विवरण स्पष्टतः तत्कालीन बैले के प्रतिष्ठित व शालीन स्वरूप का प्रतिबिम्ब है, जो अत्यधिक औपचारिक था और जिसमें सशक्त भावना की कमी थी, 19वीं शताब्दी के नृत्य इतिहासकार गस्तों वीली ने भी लालित्य, समन्वय और सौंदर्य जैसी विशेषताओं पर ज़ोर दिया और वास्तविक नृत्य को आरम्भिक मनुष्य की अपरिष्कृत व स्वतः गतियों से अलग किया।


==नृत्य संयोजन कला==
==नृत्य संयोजन कला==

06:04, 28 मई 2010 का अवतरण

बिरजू महाराज
Birju Maharaj

जयमंगल के मतानुसार चौंसठ कलाओं में से यह एक कला है। यह कला नृत्य (नाचना) कला है। हाव-भाव आदि के साथ की गयी गति नृत्य कहा जाता है। नृत्य में करण, अंगहार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों की अभिव्यक्ति की जाती है। नृत्य के दो प्रकार हैं-

  • एक नाट्य।
  • दूसरा अनाट्य।

स्वर्ग-नरक या पृथ्वी के निवासियों की कृतिका अनुकरण को 'नाट्य' कहा जाता है और अनुकरण-विरहित नृत्य को 'अनाट्य' कहा जाता है।

नृत्यकला

खुले स्थान में शरीर की गति या संचालन, नृत्य या तालबद्ध गति, प्राचीनतम अभिव्यक्तियों में से एक है। सभी संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में नृत्य विद्यमान है। प्रागैतिहासिक गुफ़ा चित्रों से लेकर आधुनिक चित्रकारों और शिल्पकारों तक सभी ने इस गतिज क्षण को पत्थरों या चित्रों में बांधने का प्रयास किया है, नृत्य स्वरूपों और शैलियों में विविधता है। यह साधारण अनुकरण, नकल से लेकर पश्चिमी बैले की सुगढ़ शैली तक हो सकता है। नृत्य एक सशक्त आवेग (मनोवेग) है। लेकिन नृत्य कला एक ऐसा आवेग है, जिसे कुशल कलाकारों के द्वारा किसी माध्यम से ऐसी क्रिया में बदल दिया जाता है, जो गहन रूप से अभिव्यक्तिपूर्ण होती है और दर्शकों को, जो स्वयं नृत्य करने की इच्छा नहीं रखते, आनन्दित करती है।

अवधारणाएँ

नृत्य कला की ये दो अवधारणाएँ—

  • एक सशक्त आवेग के तौर पर नृत्य और
  • कुशलतापूर्वक नृत्य संयोजन।

जिसे अधिकतर कुछ पेशेवर लोगों के द्वारा किया जाता है। इस विषय से जुड़े दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण संयोजक विचार हैं, नृत्य में इन दो अवधारणाओं के बीच का सम्बन्ध अन्य कलाओं के मुकाबले अधिक मज़बूत है और एक-दूसरे के बिना दोनों का ही अस्तित्व नहीं हो सकता। यद्यपि इस व्यापक परिभाषा में कला के सभी स्वरूप आ जाते हैं। दार्शनिकों और आलोचकों ने समूचे इतिहास में नृत्य की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। लेकिन वे नृत्य की उस शैली का विस्तृत विवरण मात्र है, जिससे वे सुपरिचित थे। अतः पोयटिक्स में अरस्तु का वक्तव्य है कि नृत्य लयात्मक गति है, जिसका उद्देश्य मनुष्यों के गुणों के साथ-साथ उनके कार्यों व कष्टों का प्रतिनिधित्व करना है। यूनानी शास्त्रीय रंगमंच में नृत्य की केन्द्रीय भूमिका की ओर इंगित करता है। जहाँ गायक दल गीति प्रहसन के दौरान अपनी भाव भंगिमाओं द्वारा नाटक की कथावस्तु को प्रस्तुत करता था।

जॉन वीवर के लेख में

अंग्रेजी बैले के पंण्डित जॉन वीवर ने 1721 में लिखे एक लेख में यह तर्क दिया कि 'नृत्य' एक परिष्कृत, नियमित गति है, जो सुन्दर मुद्राओं से समन्वयात्मक ढंग से रचित (सुव्यवस्थित) है और जिसमें शरीर व अंगों की सौम्य मुद्राएँ एवं उनके अंश भी हैं। वीवर का विवरण स्पष्टतः तत्कालीन बैले के प्रतिष्ठित व शालीन स्वरूप का प्रतिबिम्ब है, जो अत्यधिक औपचारिक था और जिसमें सशक्त भावना की कमी थी, 19वीं शताब्दी के नृत्य इतिहासकार गस्तों वीली ने भी लालित्य, समन्वय और सौंदर्य जैसी विशेषताओं पर ज़ोर दिया और वास्तविक नृत्य को आरम्भिक मनुष्य की अपरिष्कृत व स्वतः गतियों से अलग किया।

नृत्य संयोजन कला

सम्भवतः मानवता के आरम्भिक काल में अपरिचित थी। वनों में घूमते, अपने शिकार किए गए माँस का स्वाद लेते असभ्य मनुष्य को उन लयात्मक भंगिमाओं का ज़रा भी ज्ञान नहीं था। जो उसके मिज़ाज से बिल्कुल अलग मधुर व प्रेमपूर्ण संवेदनाओं का प्रतिबिम्ब थीं। वह अधिक से अधिक अपने असभ्य जीवन की खुशियों व दुखों को उछल-कूदकर, असंगत मुद्राओं से व्यक्त करता रहा होगा।

20वीं शताब्दी के नृत्य आलोचक जान मार्टिन ने आंतरिक भाव की शारीरिक अभिव्यक्ति के तौर पर नृत्य की भूमिका पर ज़ोर देते समय उसके औपचारिक आयाम की लगभग उपेक्षा की। ऐसा करके, उन्होंने आधुनिक अमेरिकी नृत्य की अभिव्यक्तिवादी शैली के प्रति अपनी सहानुभूति को ही झुठलाया। नृत्य की इन विविध अभिव्यक्तियों के मूल में.....गति का सहारा लेने का सामान्य आवेग है, जिससे उन अवस्थाओं को मूर्त रूप दिया जा सकता है जो तार्किक साधनों से सम्भव नहीं है। यही मौलिक नृत्य है। अतः नृत्य की वास्तविक सार्वभौमिक परिभाषा को आधारभूत सिद्धांत की ओर लौटना होगा कि नृत्य एक कला शैली या गतिविधि है, जो शरीर व शरीर की यथासम्भव विभिन्न गतिविधियों का उपयोग करती है। नृत्य गतियाँ कार्य, यात्रा या जीवित रहने से प्रत्यक्ष तौर पर सम्बद्ध या असम्बद्ध हो सकती है। नृत्य इन गतिविधियों से जुड़ी गतियों से बना हो सकता है। जैसे कि कई संस्कृतियों में क्रियात्मक नृत्य आम है और ऐसी गतिविधियों के साथ किए जा सकते हैं, यहाँ तक की सर्वाधिक व्यावहारिक नृत्य की घटक गतियाँ भी सीधे श्रम के स्तर तक नहीं पहुँच जाती, बल्कि उनमें आत्मभिव्यक्ति सौंदर्यत्मक आनन्द और मनोरंजन जैसी अतिरिक्त विशेषताएँ शामिल होती हैं।

भारतीय नृत्य

भारत में नृत्य को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है—

  • शास्त्रीय,
  • लोक और
  • आधुनिक या समसामयिक नृत्य।

शास्त्रीय नृत्य

शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ सर्वाधिक संरक्षित व 20वीं शताब्दी में प्रचलित प्राचीनतम शैलियों में से हैं। मन्दिर, राजसी दरबार और गुरु-शिष्य परम्परा ने इस कला को जीवित व अपरिवर्तित रखा है।

लोक नृत्य

लोकनृत्य ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद है और ग्रामीण समुदायों के दैनिक काम काज व रीति-रिवाजों की अभिव्यक्ति है।

आधुनिक या समसामयिक नृत्य

आधुनिक भारतीय नृत्य 20 शताब्दी की देन है और पहली भारत की नई विषय-वस्तुओं व आवेगों को व्यक्त करती है।

भारतीय फिल्म

वर्तमान समय में भारत में नृत्य की लोकप्रियता इस तथ्य से आंकी जा सकती है कि शायद ही कोई ऐसी भारतीय फिल्म होगी, जिसमें आधे दर्जन नृत्य न हों। एक आम-सी प्रेम कहानी में नायक व नायिका कहीं भी, किसी भी जगह पर नाच सकते हैं। एक फिल्म कहानी में कोई पटकथा लेखक भले न हो, लेकिन उसमें एक नृत्य निर्देशक जरूर होता है। नृत्य के बहुत से अवसर उपलब्ध कराने के लिए कवियों, दरबारी व मन्दिर में नृत्य करने वाले नर्तकों पर व पौराणिक विषय-वस्तु पर फिल्में बनाई जाती हैं। इसके लिए विशेषज्ञ नर्तकों की सेवाएँ ली जाती हैं।

20वीं शताब्दी में शास्त्रीय नृत्य मन्दिरों व राजसी दरबारों से बाहर निकला और अब बड़े शहरों में मंच पर नियमित तौर पर प्रस्तुत किया जाता हैं। धनी उद्यमी, अंतर्राष्ट्रीय होटल व उच्च वर्ग के धनी परिवार नृत्य के प्रमुख संरक्षक हैं। व्यापारिक रात्रि भोज पर किसी क्लब के वार्षिक समारोह में किसी बड़े कलाकार के द्वारा शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत किया जाना असमान्य बात नहीं है। कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में नृत्य एक नियमित विषय है। शहरों के समसामयिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोकनृत्य भी अब आम होते जा रहे हैं। अधिकांश महाविद्यालयों की अपनी लोकनृत्य मंडलियाँ हैं। यहाँ तक की पंजाब पुलिस में भाँगड़ा करने के लिए लोकनृत्य समूह है। ग्रामीण पृष्ठभूमि से कट चुके लोकनृत्य अपनी मूल ऊर्जा व सौंदर्य खो चुके हैं। लेकिन ये राज्यों के बीच हो रहे क्षेत्रीय संस्कृति के कलात्मक आदान-प्रदान का अपरिहार्य अंग हैं।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य

नृत्य-नाटिका

भारत में शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के ज़रिये एक प्रकार की नृत्य-नाटिका का उदय हुआ है। जो पूर्णतः एक नाट्य स्वरूप है। इसमे अभिनेता जटिल भंगिमापूर्ण भाषा के ज़रिये एक कथा को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है और यह स्वरूप अपने सार्वभौमिक प्रभाव में उपमहाद्वीप की भाषाई सीमाओं से ऊपर उठ चुका है। कुछ शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाओं (जैसे-कथकली, कुचिपुड़ी और भागवत मेला) में लोकप्रिय हिन्दू पौराणिक कथाओं का अभिनय होता है। 20वीं शताब्दी के नर्तक उदयशंकर और शांति बर्द्धन ने इन पारम्परिक नृत्य-नाटिकाओं से प्रेरित बैले का सृजन किया। समकालीन भारतीय निर्देशक और लेखक पारम्परिक नृत्य शैलियों को फिर से परख रहे हैं और अधिक मनोवैज्ञानिक पुनरावेदन तथा गहरे कलात्मक प्रभाव के लिए अपनी रचनाओं में इनका उपयोग कर रहे हैं। भारत के गाँवों में रहने वाले करोड़ों लोग अब भी लोक विरासत की गद्य नाटकों की लोकप्रियता के बावजूद ग्रामीण भारत में नृत्य-नाटिकाओं के माध्यम से अपना मनोरंजन करते हैं। शहरी दर्शकों में सीधे गद्य नाटकों की लोकप्रियता के बावजूद ग्रामीण भारत में नृत्य-नाटिका निश्चित रूप से अधिक गहरा प्रभाव छोड़ती है और ज्यादा संतुष्टि प्रदान करती है। क्योंकि ग्रामीणों का सौंदर्य बोध अब भी परम्पराओं से जुड़ा हुआ है।

शास्त्रीय नृत्य की तकनीक और इसके प्रकार

नाट्यशास्त्र के अनुसार, नर्तक अभिनेता नाटक के अर्थ को चार प्रकार के अभिनयों के ज़रिये प्रस्तुत करता हैः आंगिक या शरीर के विभिन्न अंगों के शैलीपूर्ण संचालन के माध्यम से भावना की प्रस्तुति; वाचिक या बोली, गीत, स्वर की तारता और स्वरशैली; आहार्य या वेशभूषा और श्रृंगार; और सात्विक की किसी अन्य पुस्तक में सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक संसाधनों की प्रस्तुति है।

कलाकार के पास शैलीकृत भंगिमाओं का जटिल भंडार होता है। शरीर के प्रत्येक अंग, जिनमें से आँखें व हाथ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, के लिए पारम्परिक तौर पर मुद्राएँ निर्धारित हैं। सिर के लिए 13, भौंहों के लिए 7, नाक के लिए 6, गालों के लिए 6, ठोड़ी के लिए 7, गर्दन के लिए 9, वक्ष के लिए 5 व आँखों के लिए 36, पैरों व निम्न अंगों के लिए 32, जिनमें से 16 भूमि पर व 16 हवा के लिए निर्धारित हैं। पाँव की विभिन्न गतियाँ (जैसे-इठलाना, ठुमकना, तिरछे चलना, ताल) सावधानी से की जाती हैं। एक हाथ की 24 मुद्राएँ (असंयुक्त हस्त) और दोनों हाथों की 13 मुद्राएँ (संयुक्त हस्त), एक हस्त मुद्रा के एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न 30 अर्थ हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, एक हाथ की पताका मुद्रा, जिसमें सभी अंगुलियों को आगे बढ़ाकर, मुड़े हुए अंगूठे के साथ मिलाकर, गर्मी, वर्षा, भीड़, रात्रि, वन, घोड़ा या पक्षियों की उड़ाने को दिखाया जा सकता है। पताका मुद्रा में ही तीसरी अंगुली मोड़ने का (त्रिपताका) अर्थ मुकुट, वृक्ष विवाह, अग्नि द्वार या राजा भी हो सकता है। कर्कट (केंकड़ा) में दोनों हाथों का उपयोग कर, अंगुलियों को जोड़कर मधुमक्खी का छत्ता, जम्हाई या शंख दिखाया जा सकता है। इन अलग-अलग अर्थों के लिए हाथ की स्थिति या क्रिया भिन्न होगी।

किसी एकल नृत्य नाटिका में अभिनय करते हुए एक पुरुष या एक महिला चेहरे के भाव, मुद्राएँ व मिज़ाज बदलते हुए क्रमशः दो या तीन प्रमुख चरित्रों की अभिनय करती है। उदाहरण के लिए, भगवान कृष्ण, उनकी ईर्ष्यालु पत्नी सत्यभामा व उनकी सौम्य पत्नी रुक्मिणी को एक ही व्यक्ति अभिनीत कर सकता है। हिन्दू नृत्य व रंगमंच का सोंदर्यात्मक आनन्द इस बात पर निर्भर करता है कि कोई कलाकार किसी विशिष्ट भाव को व्यक्त करने व रस जगाने में कितना सफल है। शाब्दिक रूप में रस का अर्थ 'स्वाद' या 'महक' है और यह आनन्दातिरेक या मनोदशा है, जिसका अनुभव दर्शक किसी नृत्य (अभिनय) प्रदर्शन को देखकर करता है। हिन्दू नाटक के आलोचक कथावस्तु या किसी कविता व नाटक की तकनीकी पूर्णता की ओर अधिक ध्यान देकर रस पर अधिक ध्यान देते हैं। नृत्य में नौ रस हैं—

  • श्रृंगार रस,
  • करुण रस,
  • क्रोध रस,
  • भय रस,
  • वीर रस,
  • जुगुत्सा रस,
  • विस्मय रस एवं
  • शान्त रस ।

इन रसों के संगत भाव भी हैं—प्रेम, हास्य, दुख, क्रोध, ऊर्जा, भय, निराशा, आश्चर्य एवं शान्ति। अब तक मौजूद शास्त्रीय नृत्य की चार प्रमुख शैलियाँ हैं। भरतनाट्यम, कथकली, कथक और मणिपुरी। इनमें दो प्रकार के भाव हैं। एक तांडव, जो शिव के रौद्र पौरुष, दूसरा लास्य, जो शिव की पत्नी पार्वती के लयात्मक लावण्य का प्रतिनिधित्व करता है, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्में भरतनाट्यम में लास्य की प्रधानता है और इसका उदय दक्षिणी भारत के तमिलनाडु राज्य में हुआ है। कथकली केरल में जन्मी तांडव भाव की मूकानिभय नृत्य-नाटिका है। जिसमें उच्च शिरोवस्त्र वे चेहरे का विस्तृत श्रृंगार किया जाता है। कथक लास्य व तांडव का मिश्रण है। क्लिष्ट पदताल व लयात्मक रचनाओं की गणितीय परिशुद्धता इसकी विशेषता है और यह नृत्य उत्तर में फला-फूला, अपनी झूमती व विसर्पित मुद्राओं से युक्त मणिपुरी में लास्य की विशेषताएँ हैं और यह मणिपुर का नृत्य है। 1958 में नई दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी ने दो नृत्य शैलियों, आंध्र प्रदेश की कुचिपुड़ी व उड़ीसा की ओडिसी शैली को शास्त्रीय नृत्य का दर्जा दिया। स्वरूप और प्रकृति में, कुचिपुड़ी की कुछ विशेषताएँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं, ओडिसी अपने आप में एक अलग शैली है। इसका नृत्य व्याकरण मूलतः त्रिभंग से विकसित हुआ है। यह उड़ीसा की शैली है।

शास्त्रीय नृत्य की शैलियाँ

भारत में नृत्य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्यों की विभिन्ऩ विधाओं ने जन्म- लिया है। प्रत्ये‍क विधा ने विशिष्टर समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। राष्ट्रि शास्त्री य नृत्यत की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्ये क का संबंध देश के विभिन्नि भागों से है। प्रत्येक विधा किसी विशिष्ट क्षेत्र अथवा व्यतक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्वस करती है।

  • भरतनाट्यम
  • कथकली
  • कत्थीक
  • ओडिसी
  • मणिपुरी
  • मोहिनी अट्टम
  • कुची पुड़ी
  • कुट्टी अट्टम

शास्त्रीय नृत्य के अन्य स्वरूप

अन्य शास्त्रीय या अर्द्धशास्त्रीय पांरम्परिक नृत्य शैलियों में भागवत मेला, मोहिनीअट्टम व कुरवंचि शामिल हैं। तमिलनाडु के मेलाटुर गाँव के प्रसिद्ध वार्षिक नरसिंह जयंती पर्व में प्रदर्शित भागवत मेला में समृद्ध कर्नाटक संगीत से पूर्ण शास्त्रीय भंगिमाओं का प्रयोग किया जाता है। इसके व्याकरण को संगीतकार-कवि वेंकटरामा शास्त्री (1759-1847) ने समृद्ध किया। जिन्होंने तेलुगु भाषा में उल्लेखनीय नृत्य-नाटिकाएँ तैयार की हैं। मोहिनीअट्टम हिन्दू पौराणिक कथाओं में वर्णित शिव को मोहने वाली मोहिनी की किंवदंती पर आधारित है। यह भरतनाट्यम व कथकली के तथ्यों पर आधारित है और इसमें कर्नाटक संगीत के साथ मलयालम गीतों का उपयोग किया जाता है। कुरवंचि तमिलनाडु में प्रचलित गीति सौंदर्य से युक्त नृत्य-नाटिका है। इसे चार से आठ महिलाओं के द्वारा किया जाता है। जिनके साथ एक यायावर (भविष्यवक्ता) होता है, जो अपने प्रेमी के लिए लालायित एक स्त्री की कथा का प्रारम्भ करता है। औपचारिक तौर पर यह भारतीय लोकनृत्य एवं शास्त्रीय नृत्य शैली का मिश्रण है।

लोकनृत्य

भारतीय लोकनृत्यों के अंतर्गत अनंत प्रकार के स्वरूप और ताल हैं। इनमें धर्म, व्यवसाय और जाति के आधार पर अन्तर पाया जाता है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियाँ (मुरिया, भील, गोंड़, जुआंग और संथाल) सभी अवसरों पर नृत्य करती हैं। जीवन चक्र और ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य, दैनिक जीवन और धार्मिक अनुष्ठानों का अंग है। बदलती जीवन शैलियों के कारण नृत्यों की प्रासंगिकता विशिष्ट अवसरों से भी आगे पहुँच गई है। नृत्यों ने कलात्मक-नृत्य का दर्ज़ा प्राप्त कर लिया है। प्रत्येक उत्सव या सार्वजनिक आयोजन में इन नृत्यों का दिखाई देना सामान्य बात है। प्रतिवर्ष 26 जनवरी, भारतीय गणतंत्र दिवस एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर है, जब नेशनल स्टेडियम के विशाल क्षेत्र और परेड के 8 किमी. लम्बे मार्ग पर नृत्य करने के लिए देश के सभी भागों से नर्तक दिल्ली आते हैं।

भारतीय लोकनृत्यों का वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन सामान्य तौर पर इन्हें चार वर्गों में रखा जा सकता है।

  • वृत्तिमूलक (जैसे जुताई, बुआई, मछली पकड़ना और शिकार),
  • धार्मिक,
  • आनुष्ठानिक (तांत्रिक अनुष्ठान द्वारा प्रसन्न कर देवी या दानव-प्रेतात्मा के कोप से मुक्ति के लिए) और
  • सामाजिक (ऐसा प्रकार जो उपरोक्त सभी वर्गों में शामिल है)।

प्रसिद्ध सामाजिक लोकनृत्यों में कोलयाचा (कोलियों का नृत्य) शामिल है। पश्चिमी भारत के कोंकण तट के मछुआरों के मूल नृत्य कोलयाचा में नौकायन की भावभंगिमा दिखाई जाती है। महिलाएँ अपने पुरुष साथियों की ओर रुमाल लहराती हैं और पुरुष थिरकती चाल के साथ आगे बढ़ते हैं। विवाह के अवसर पर युवा कोली (मछुआरे) नवदंम्पति के स्वागम में घरेलू बर्तन हाथ में पकड़कर गलियों में नृत्य करते हैं और नृत्य के चरम पर पहुँचते ही नवदंम्पति भी नाचने लगते हैं।

लोक नृत्य की तकनीक और इसके प्रकार

घूमर राजस्थान का सामाजिक लोकनृत्य है। महिलाएँ लम्बे घाघरे और रंगीन चुनरी पहनकर नृत्य करती हैं। इस क्षेत्र के कच्ची घोड़ी नर्तक विशेष तौर पर दर्शनीय है। ढाल और लम्बी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग को बाँस के ढाँचे पर काग़ज़ की लुगदी से बने घोड़े से ढका जाता है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर बरेछेबाज़ी का मुक़ाबला करते हैं। बावरी लोग लोकनृत्य की इस शैली के कुशल कलाकार हैं। पंजाब क्षेत्र में सबसे अधिक जोशीला लोकनृत्य फ़सल कटाई के अवसर पर भांगड़ा है, जो भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर किया जाता है और लोकप्रिय भी है। इस नृत्य के साथ-साथ गीत गाया जाता है। प्रत्येक पंक्ति की समाप्ति पर ढोल गूँजता है और अन्तिम पंक्ति सभी नर्तक मिलकर गाते हैं। भांगड़ा के हर्षोन्माद का नृत्य है, जिसमें हर आयु के पुरुष नाचते हैं। वे मस्ती में चिल्लाते और गोलाई में घूमते हुए नृत्य करते हैं और उनके कंधे और कूल्हे ढोल की लय पर थिरकते हैं।

आंध्र प्रदेश का नृत्य

आंध्र प्रदेश की लंबाड़ी जनाजाति की ख़ानाबदोश महिलाएँ शीशों से जड़े शिरोवस्त्र और घाघरे पहनती हैं और अपनी बाजू चौड़े सफेद हड्डियों के बने कंगनों से ढकती हैं। वे धीरे-धीरे झूमते हुए नृत्य करती हैं। जबकि पुरुष ढोल बजाने और गाने का काम करते हैं। उनका सामाजिकेनृत्य आवेगपूर्ण शोभा और गीतिमयता से ओतप्रोत होता है और यह विश्व के अन्य भागों के बंजारों के नृत्य से अपेक्षाकृत कम प्रचंड होता है।

मध्य प्रदेश का नृत्य

मध्य प्रदेश में मुरिया जनजाति का गवल-सींग (पहाड़ी भैंसा) नृत्य पुरुषों और महिलाओं, दोनों के द्वारा किया जाता है। जो पारम्परिक तौर पर बराबरी का जीवन व्यतीत करते हैं। पुरुष सींग से जड़े शिरोवस्त्र गुच्छेदार पंख के साथ पहनते हैं और उनके चेहरों पर कौड़ी की झालर लटकती है। उनके गले में लकड़ी के लट्ठ जैसा ढोल लटकता है। महिलाओं के सिर चौड़ी ठोस पीतल की माला से और सीना भारी धातु के गहनों से ढके होते हैं और उनके हाथों में ढोल जैसे मंजीरे होते हैं। 50 से 100 की संख्या में स्त्री व पुरुष मिलकर नृत्य करते हैं। गवल (बाइसन) के वेश में पुरुष एक-दूसरे पर हमला करते व लड़ते हैं और सींगों से पत्तों को उड़ाते हुए वे प्रकृति के मिलन के मौसम की गतिशील अभिव्यक्ति करते हुए नृत्यांगनाओं का पीछा करते हैं। उड़ीसा में जुआंग जनजाति सशक्त पौरुषपूर्ण फुर्ती के साथ पक्षियों और पशुओं का नृत्य बड़े सजीव अभिनय के साथ करती हैं, धार्मिक लोकनृत्यों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैः महाराष्ट्र के डिंडी और काला नृत्य, जो धार्मिक उल्लास की अभिव्यक्ति है। नर्तक गोल चक्कर में घूमते हैं और छोटी लाठियाँ (डिंडी) जमीन पर मारते हुए समूहगान के मुख्य गायक बीचों बीच खड़े ढोल वादक का साथ देते हैं। लय में तेज़ी आते ही नर्तक दो पक्तियाँ बना लेते हैं और दांय पाँव को झुकाकर बांए पाँव के साथ आगे बढ़ते हैं और इस प्रकार ज्यामिति के आकार बनाते हैं। काला नृत्य में एक बर्तन में दही होना जरूरी है, जो उर्वरता का प्रतीक है। नर्तकों का समूह दो वृत्त बनाता है। जिसमें एक नर्तक के ऊपर दूसरा नर्तक होता है। एक पुरुष इन दोनों वृत्तों के ऊपर चढ़कर ऊपर लटकी दही की मटकी फोड़ता है। जिसमें दही नर्तकों के शरीर पर फैल जाता है। इस आनुष्ठानिक शुरुआत के बाद नर्तक जबरदस्त रण नृत्य की मुद्रा में अपनी लाठियाँ और तलवारें घुमाते हैं।

गुजरात का नृत्य

गरबा, जो वास्तव में एक धार्मिक हंडिया को कहते हैं, गुजरात का सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है। यह नवरात्रि के नौ दिन के वार्षिक उत्सव के दौरान 50 से 100 महिलाओं के समूह द्वारा देवी अंबा के सम्मान में किया जाता है। जिन्हें भारत के अन्य भागों में दुर्गा या काली के नाम से जाना जाता है। महिलाएँ गोल चक्कर में घूमते हुए झुकती, मुड़ती, हाथों से तालियाँ और कभी-कभी अंगुलियों से चुटकी बजाती हैं। इस नृत्य के साथ देवी की स्तुति में गीत भी गाए जाते हैं।

तमिलनाडु राज्य का नृत्य

धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े लोकनृत्यों की अनंत शैलियों में कई का चमत्कारिक महत्व है और ये पुरातन उपासना से जुड़ी हैं। तमिलनाडु राज्य का काराकम नृत्य मुख्यतः मरियम्मई (महामारी की देवी) की प्रतिमा के समक्ष वार्षिक उत्सव पर देवी से महामारी का प्रकोप न फैलाने की प्रार्थना के साथ किया जाता है। नर्तक के सिर पर लम्बे बाँस के ढांचे से ढके कच्चे चावल का बर्तन रखा जाता है। जिसे नर्तक को नृत्य की उछल-कूद के दौरान बिना छुए सम्भाले रखना होता है। लोग इसे देवी की कृपा मानते हैं और कहते हैं कि नर्तक के शरीर में देवी प्रवेश करती है। जिसके कारण यह चमत्कार होता है। केरल में हिन्दुओं के पूज्य देवों तथा दानवों को प्रसन्न करने के लिए थेरयाट्टम उत्सव आयोजित किया जाता है। विस्मयकारी वेशभूषा और मुखौटों से लैस नर्तक गाँव के पूजा स्थल के सामने अनोखा अनुष्ठान करते हैं। एक श्रृद्धालु मुर्गे की भेंट चढ़ाता है। जिसे नर्तक झपट लेता है और एक ही झटके में उसका सिर अलग कर देता है व आशीर्वाद देते हुए उसे श्रृद्धालु का लौटा देता है। इस समारोह के साथ लम्बा और मंथर नृत्य चलता रहता है।

अरुणाचल प्रदेश का नृत्य

अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी 'नेफा') में सबसे ज़्यादा मुखौटा नृत्य किए जाते हैं। यहाँ तिब्बत की नृत्य शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है। याक नृत्य कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और असम के निकट हिमालय के दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्रों में किया जाता है। याक का रूप धारण किए नर्तक अपनी पीठ पर चढ़े आदमी को साथ लिए नृत्य करता है। मुखौटों के साथ किए जाने वाले लोकनृत्य सादा टोपोत्सेन में पुरुष नर्तक भड़कीले ज़रीदार रेशम के लम्बे कुरते पहनते हैं। जिनकी चौड़ी झूलती बाहें होती हैं। वे अजीबो ग़रीब मुस्कान वाले लकड़ी के मुखौटे पहनते हैं। जिन पर खोपड़ियों का मुकुट होता है। जो परलोक की आत्माओं का प्रतिनिधित्व करती है। नर्तक बीच-बीच में कूदते हुए ताकतवर लेकिन धीमी चक्करदार मुद्राएँ बनाते हैं। मुखौटा नृत्य की एक अनूठी शैली छऊ को झारखंड (भूतपूर्व बिहार) के पूर्व—सरायकेला रियासत के एक शाही परिवार ने संरक्षित रखा है। नर्तक भगवान, पशु, पक्षी, शिकारी, इन्द्रधनुष, रात या फूल का रूप धारण करता है। वह एक छोटे प्रसंग का अभिनय करता है और अप्रैल में वार्षिक चैत्र उत्सव में कई भावचित्रों की एक लड़ी प्रस्तुत करता है। छऊ मुखौटे अधिकांशतः मानवीय लक्षणों से युक्त होते हैं। जिन्हें विविध भाव दिखाने के लिए थोड़ा-बहुत परावर्तित किया जाता है। साधारण सपाट रंगों में चित्रित मुखौटों की शान्त अभिव्यक्ति कथकली के व्यापक रूप श्रृंगार या कांडयान मुखौटों की ज़रूरत से ज़्यादा पिशाचीय आकृति और जापान के 'नो ड्रामा' से बहुत अलग दिखती है। चूंकि छऊ नर्तक का चेहरा भावहीन होता है, इसलिए उसका शरीर ही पात्र के सम्पूर्ण भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तनावों को व्यक्त करता है। उसके पाँव भंगिमा-भाषा का प्रयोग करते हैं। उसके पंजे पशु के पंजों की तरह फुर्तीले, सक्रिय और भावाबोधक होते हैं। नृत्य के दौरान गायन नहीं होता, सिर्फ वाद्य संगीत होता है। उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले में किए जाने वाले छऊ नृत्य की एक अन्य शैली में नर्तक मुखौटे नहीं पहनते, परन्तु जान-बूझकर सख़्त और अचल चेहरे बनाकर मुखौटे का भ्रम देते हैं। उनका नृत्य श्रम और करतब से भरा होता है।

लोक नृत्य की शैलियाँ

भारत की प्राचीन संस्कृतत ने, लोक नृत्योंम के विभिन्नत स्व रूपों को जन्म दिया है, जो राष्ट्र की अतुल्य् विविधता से आते है। संस्कृति व परंपराओं की विविधता लोक नृत्यों में साफ झलकती है। विभिन्नब राज्योंम के इन नृत्यों में जीवन का प्रतिबिंब है और नृत्यं की लगभग हर मुद्रा का विशिष्टा अर्थ होता है।

  • भांगड़ा
  • भोरताल नृत्य
  • भवई
  • बिहू
  • गरबा
  • कुम्मी
  • पोइक्क ल कुदीराई अट्टम
  • देवरत्तनम
  • थाबल छोंगबा
  • छाऊ
  • जात्रा
  • यक्षगान
  • चेरा

आधुनिक भारतीय नृत्य

हालाँकि पश्चिम में उच्चरित शब्दों, संगीत और नृत्यों के रंगमंचीय तत्वों का स्वतंत्र रूप से ड्रामा, ओपेरा और नृत्य-नाटिका 'बैले' के तौर पर विकास हुआ, लेकिन भारत में मंचीय परम्परा तीनों स्वरूपों को एक ही साथ अपने नाटकों में सम्मिलित करती रही। भारतीय फिल्मों में अब तक इसी नियम को माना जाता है। नायिका, अचानक अपने नायक के लिए गाना गाने या नृत्य करने लगती है। ऐसी परम्परा पश्चिम के लोगों के लिए बहुत कौतूहलपूर्ण है। लेकिन वास्तव में फिल्म निर्माता अपनी शास्त्रीय और लोक परम्परा का पालन कर रहे हैं। हाल में पश्चिम अर्थ में जटिल कोरियोग्राफ़ी-नृत्यकला के साथ बैले नृत्य-नाटिका के स्वरूप में नृत्य ने अलग पहचान बनाई है।

आधुनिक भारतीय बैले नृत्य-नाटिका की जड़ें उदय शंकर के कार्य में है, जो मूर्तिकला के अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए और राधा तथा कृष्ण नृत्य-नाटिका के साथी कलाकार के रूप में रूस की बैले कलाकार अन्ना पाव्लोवा द्वारा चुने गए। पूरे उत्साह से भरे युवा उदय शंकर भारत लौटे। शास्त्रीय नृत्य की चार प्रमुख शैलियों के आवश्यक तत्वों का अध्ययन करने के बाद उन्होंने जटिल नृत्यकला और संगीत तथा लकड़ी और धातु के मंजीरों तथा पारम्परिक वाद्ययंत्रों की ध्वनि के मिश्रण से नई नृत्य-नाटिकाएँ तैयार कीं। उन्होंने शास्त्रीय और लोक ताल का तथा पश्चिमी मंच की तकनीकों का उपयोग किया। उन्होंने अपनी नृत्य-नाटिकाएँ ऐसी कुशलता तथा सुसंस्कृत ढंग से प्रस्तुत कीं, जिनसे भारतीय दर्शक पहले अनभिज्ञ थे। इन नृत्य-नाटिकाओं में शिव-पार्वती और लंका-दहन शामिल थे। जिनसे उन्होंने लंका के लकड़ी के मुखौटों का प्रयोग किया। रिद्म आफ लाइफ (1938) और लेबर एंड मशीनरी (1939) में उन्होंने समकालीन राजनीतिक, सामाजिक विषय चुने।

उन्होंने 1939 में अल्मोड़ा मं सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना की। जहाँ चार वर्ष में उन्होंने आधुनिक नर्तकों की नई पीढ़ी तैयार की। उदय शंकर के कनिष्ठ साथी शान्ति बर्द्धन ने आधुनिक युग की सर्वाधिक कल्पनाशील नृत्य-नाटिकाएँ तैयार कीं। बंबई (वर्तमान मुंबई) में 1952 में लिट्स बैले की तरह ट्रूप की स्थापना करने के बाद उन्होंने रामायण को प्रस्तुत किया। जिसमें कलाकार कठपुतलियों की तरह नाचते और चलते थे। उनके मरणोंपरान्त उनकी नृत्य-नाटिका पंचतंत्र चार मित्रों (चूहा, कछुआ, हिरन और कौआ) की कहानी पर आधारित है और इसमें पशुओं और पक्षियों के मुखौटों और भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल किया गया है। उदय शंकर के दोनों शिष्यों, नरेन्द्र शर्मा और सचिन शंकर ने अपने गुरु की परम्परा जारी रखी है। आधुनिक भारतीय नृत्य को आकार देने वाले अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में मेनका, राम गोपाल और मृणालिनी साराभाई हैं। जिन्होंने भरतनाट्यम और कथकली शैलियों के माध्यम से आधुनिक विषयों को व्यक्त करने का प्रयोग किया है।

नृत्य प्रशिक्षण केन्द्र

छोटी अकादमियों और स्थानीय कला-केन्द्रों में नृत्य प्रशिक्षण समूचे समकालीन भारत में दिया जाता है। गुरु अब भी शिष्यों को विशिष्ट प्रशिक्षण देते हैं। ये शिष्य गाँवों में गुरु के साथ रहकर कई वर्ष तक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में नृत्य न केवल स्वीकृत विषय है, अपितु 20वीं शताब्दी में स्थापित सरकारी या सार्वजनिक-वित्तपोषित प्रशिक्षण केन्द्रों में भी विश्व भर क छात्र सीखने आते हैं। इनमें से प्रमुख हैं—केरला कलामंडलम (केरल कला संस्थान), निकट शोरानूर, कला क्षेत्र, आड्यार, तमिलनाडु, कथक केन्द्र, भारतीय कला केन्द्र की नृत्य शाखा और त्रिवेणी कला संगम (संगीत, नृत्य और चित्रकला का केन्द्र) नई दिल्ली, दर्पण अकादमी, अहमदाबाद, गुजरात, विश्वभारती (रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा स्थापित) शान्तिनिकतन, पश्चिम बंगाल और जवाहरलाल नेहरू मणिपुर नृत्य अकादमी इंम्फाल।


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