"द्राह्यायण श्रौतसूत्र": अवतरणों में अंतर

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राणायनीय शाखा के अनुयायी आज कर्नाटक के शिमोगा, उत्तरी कनागा ज़िलों में, तमिलनाडु में ताम्रपर्णी नदी के तटवर्ती क्षेत्रों, उत्तरी आन्ध्र और उड़ीसा के सीमान्त भा्र में ही अधिकांशतया पाए जाते हैं। उनके अतिरिक्त दक्षिण के कौथुम शाखीय (मूलत: लाट्यायनीय) सामवेदियों ने भी प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा की सूचनानुसार, द्राह्यायण श्रौतसूत्र को ही स्वीकार कर लिया है। अस्को परपोला ने भी यह इंगित किया है कि दक्षिण में लाट्यायन श्रौतसूत्र के हस्तलेख कम ही मिले हैं। इसके विपरीत द्राह्यायण श्रौतसूत्र के हस्तलेख प्राय: मिल ही जाते हैं।<ref> द्राह्यायण श्रौतसूत्र, भूमिका, पृष्ठ 18–19, प्रयाग, 1983।</ref> दोनों ही श्रौतसूत्रों की एकता में सबसे बड़ी भूमिका सामलक्षण ग्रन्थों ने निभाई है, जो प्राय: समान हैं। प्रो. शार्मा ने द्राह्यायण और लाट्यायन श्रौतसूत्रों के मध्य विद्यमान साम्य के आधार पर यह अवधारणा व्यक्त की है कि [[लाट्यायन श्रौतसूत्र]] में सुरक्षित किसी प्राचीन सूत्र को ही द्राह्यायण में पुन: सम्पादित रूप में प्रस्तुत किया है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में खण्डों का विभाग बहुधा स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर देता है।
राणायनीय शाखा के अनुयायी आज कर्नाटक के शिमोगा, उत्तरी कनागा ज़िलों में, तमिलनाडु में ताम्रपर्णी नदी के तटवर्ती क्षेत्रों, उत्तरी आन्ध्र और उड़ीसा के सीमान्त भा्र में ही अधिकांशतया पाए जाते हैं। उनके अतिरिक्त दक्षिण के कौथुम शाखीय (मूलत: लाट्यायनीय) सामवेदियों ने भी प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा की सूचनानुसार, द्राह्यायण श्रौतसूत्र को ही स्वीकार कर लिया है। अस्को परपोला ने भी यह इंगित किया है कि दक्षिण में लाट्यायन श्रौतसूत्र के हस्तलेख कम ही मिले हैं। इसके विपरीत द्राह्यायण श्रौतसूत्र के हस्तलेख प्राय: मिल ही जाते हैं।<ref> द्राह्यायण श्रौतसूत्र, भूमिका, पृष्ठ 18–19, प्रयाग, 1983।</ref> दोनों ही श्रौतसूत्रों की एकता में सबसे बड़ी भूमिका सामलक्षण ग्रन्थों ने निभाई है, जो प्राय: समान हैं। प्रो. शार्मा ने द्राह्यायण और लाट्यायन श्रौतसूत्रों के मध्य विद्यमान साम्य के आधार पर यह अवधारणा व्यक्त की है कि [[लाट्यायन श्रौतसूत्र]] में सुरक्षित किसी प्राचीन सूत्र को ही द्राह्यायण में पुन: सम्पादित रूप में प्रस्तुत किया है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में खण्डों का विभाग बहुधा स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर देता है।
==हस्तलेख और पटल==
==हस्तलेख और पटल==
द्राह्यायण श्रौतसूत्र 31 पटलों में विभक्त है। 22वें और 28वें पटलों को छोड़कर, जिनमें पाँच–पाँच खण्ड हैं, शेष पटलों में प्राय: चार–चार खण्ड हैं। 27वाँ पटल भी अपवाद है– इसमें छ: खण्ड हैं। कुछ हस्तलेखों में पटल के स्थान पर अध्यायात्मक विभाजन भी मिला है। प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से द्राह्यायण श्रौतसूत्र के प्रथम सात पटलों में ज्योतिष्टोम (अग्निष्टोम) का ही निरूपण हुआ है। अष्टम से एकादशान्त पटलों में गवामयन (सत्रयाग) का विवरण है। 12वें से 21वें तक ब्रह्मा के कार्यों, हवियागों और सोमयागों से सम्बद्ध सामान्य कार्य–कलापों का निरूपण है। 22वें से 25वें पटल तक एकाहयागों का वर्णन है। 28–29 पटलों में सत्रयागों तथा 30–31 पटलों में अयनयागों का निरूपण है। वाजपेय, [[राजसूय यज्ञ|राजसूय]] और [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] सदृश बहुचर्चित यागों का वर्णन क्रमश: 24वें, 25वें तथा 27वें पटलों में है।
द्राह्यायण श्रौतसूत्र 31 पटलों में विभक्त है। 22वें और 28वें पटलों को छोड़कर, जिनमें पाँच–पाँच खण्ड हैं, शेष पटलों में प्राय: चार–चार खण्ड हैं। 27वाँ पटल भी अपवाद है– इसमें छ: खण्ड हैं। कुछ हस्तलेखों में पटल के स्थान पर अध्यायात्मक विभाजन भी मिला है। प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से द्राह्यायण श्रौतसूत्र के प्रथम सात पटलों में ज्योतिष्टोम (अग्निष्टोम) का ही निरूपण हुआ है। अष्टम से एकादशान्त पटलों में गवामयन (सत्रयाग) का विवरण है। 12वें से 21वें तक ब्रह्मा के कार्यों, हवियागों और सोमयागों से सम्बद्ध सामान्य कार्य–कलापों का निरूपण है। 22वें से 25वें पटल तक एकाहयागों का वर्णन है। 28–29 पटलों में सत्रयागों तथा 30–31 पटलों में अयनयागों का निरूपण है। [[वाजपेय]], [[राजसूय यज्ञ|राजसूय]] और [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] सदृश बहुचर्चित यागों का वर्णन क्रमश: 24वें, 25वें तथा 27वें पटलों में है।
 
==सूत्र==
==सूत्र==
जैसा कि पहले कहा गया है, द्राह्यायण की दृष्टि में लाट्यायन श्रौतसूत्र उपजीव्य रहा है। विषय प्रतिपादन में प्राय: समानता है। सूत्रों के क्रम तथा उनके विभाजन में अवश्य कहीं–कहीं भिन्नता है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में अपेक्षाकृत कुछ वृद्धि भी दिखलाई देती है। अस्को परपोला के अनुसार लाट्यायन श्रौतसूत्र में केवल 13 सूत्र ऐसे हैं, जिनके समानान्तर द्राह्यायण श्रौतसूत्र में कोई सूत्र नहीं है, जबकि द्राह्यायण श्रौतसूत्र में 250 से अधिक ऐसे सूत्र हैं, जिनके समानान्तर लाट्यायन श्रौतसूत्र में सूत्र उपलब्ध नहीं हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, द्राह्यायण की दृष्टि में लाट्यायन श्रौतसूत्र उपजीव्य रहा है। विषय प्रतिपादन में प्राय: समानता है। सूत्रों के क्रम तथा उनके विभाजन में अवश्य कहीं–कहीं भिन्नता है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में अपेक्षाकृत कुछ वृद्धि भी दिखलाई देती है। अस्को परपोला के अनुसार लाट्यायन श्रौतसूत्र में केवल 13 सूत्र ऐसे हैं, जिनके समानान्तर द्राह्यायण श्रौतसूत्र में कोई सूत्र नहीं है, जबकि द्राह्यायण श्रौतसूत्र में 250 से अधिक ऐसे सूत्र हैं, जिनके समानान्तर लाट्यायन श्रौतसूत्र में सूत्र उपलब्ध नहीं हैं।

12:37, 28 मार्च 2012 का अवतरण

इसका सम्बन्ध राणायनीय शाखा से है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र के नामान्तर हैं–

  • छन्दोग सूत्र,
  • प्रधान सूत्र तथा
  • वसिष्ठ सूत्र।

राणायनीय शाखा के अनुयायी आज कर्नाटक के शिमोगा, उत्तरी कनागा ज़िलों में, तमिलनाडु में ताम्रपर्णी नदी के तटवर्ती क्षेत्रों, उत्तरी आन्ध्र और उड़ीसा के सीमान्त भा्र में ही अधिकांशतया पाए जाते हैं। उनके अतिरिक्त दक्षिण के कौथुम शाखीय (मूलत: लाट्यायनीय) सामवेदियों ने भी प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा की सूचनानुसार, द्राह्यायण श्रौतसूत्र को ही स्वीकार कर लिया है। अस्को परपोला ने भी यह इंगित किया है कि दक्षिण में लाट्यायन श्रौतसूत्र के हस्तलेख कम ही मिले हैं। इसके विपरीत द्राह्यायण श्रौतसूत्र के हस्तलेख प्राय: मिल ही जाते हैं।[1] दोनों ही श्रौतसूत्रों की एकता में सबसे बड़ी भूमिका सामलक्षण ग्रन्थों ने निभाई है, जो प्राय: समान हैं। प्रो. शार्मा ने द्राह्यायण और लाट्यायन श्रौतसूत्रों के मध्य विद्यमान साम्य के आधार पर यह अवधारणा व्यक्त की है कि लाट्यायन श्रौतसूत्र में सुरक्षित किसी प्राचीन सूत्र को ही द्राह्यायण में पुन: सम्पादित रूप में प्रस्तुत किया है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में खण्डों का विभाग बहुधा स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर देता है।

हस्तलेख और पटल

द्राह्यायण श्रौतसूत्र 31 पटलों में विभक्त है। 22वें और 28वें पटलों को छोड़कर, जिनमें पाँच–पाँच खण्ड हैं, शेष पटलों में प्राय: चार–चार खण्ड हैं। 27वाँ पटल भी अपवाद है– इसमें छ: खण्ड हैं। कुछ हस्तलेखों में पटल के स्थान पर अध्यायात्मक विभाजन भी मिला है। प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से द्राह्यायण श्रौतसूत्र के प्रथम सात पटलों में ज्योतिष्टोम (अग्निष्टोम) का ही निरूपण हुआ है। अष्टम से एकादशान्त पटलों में गवामयन (सत्रयाग) का विवरण है। 12वें से 21वें तक ब्रह्मा के कार्यों, हवियागों और सोमयागों से सम्बद्ध सामान्य कार्य–कलापों का निरूपण है। 22वें से 25वें पटल तक एकाहयागों का वर्णन है। 28–29 पटलों में सत्रयागों तथा 30–31 पटलों में अयनयागों का निरूपण है। वाजपेय, राजसूय और अश्वमेध सदृश बहुचर्चित यागों का वर्णन क्रमश: 24वें, 25वें तथा 27वें पटलों में है।

सूत्र

जैसा कि पहले कहा गया है, द्राह्यायण की दृष्टि में लाट्यायन श्रौतसूत्र उपजीव्य रहा है। विषय प्रतिपादन में प्राय: समानता है। सूत्रों के क्रम तथा उनके विभाजन में अवश्य कहीं–कहीं भिन्नता है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में अपेक्षाकृत कुछ वृद्धि भी दिखलाई देती है। अस्को परपोला के अनुसार लाट्यायन श्रौतसूत्र में केवल 13 सूत्र ऐसे हैं, जिनके समानान्तर द्राह्यायण श्रौतसूत्र में कोई सूत्र नहीं है, जबकि द्राह्यायण श्रौतसूत्र में 250 से अधिक ऐसे सूत्र हैं, जिनके समानान्तर लाट्यायन श्रौतसूत्र में सूत्र उपलब्ध नहीं हैं।

व्याख्याएँ

रुद्रस्कन्द की कृति 'औद्गात्र सारसंग्रह' के अतिरिक्त अग्निस्वामी तथा धन्विन् ने मखस्वामी की प्राचीन व्याख्या का उल्लेख किया है। यह अद्यावधि प्रकाशित है। उपलब्ध और प्रकाशित व्याख्या है धन्विन् कृत 'दीप'। धन्विन् में पुष्पिका में जो श्लोक दिए हैं तदनुसार वे सामवेदीय औद्गात्र तन्त्र के गम्भीर विद्वान ही नहीं, स्वयं ही सोमयागों के अनुष्ठाता थे– निदानकल्पोग्रन्थ ब्राह्मणानि पुन: पुन:। समीक्ष्य धन्वी मेधावी दीपमारोपयत् स्फुटम्।। इति छन्दोगसूत्रस्य सुतसोमेन धन्विना। आरोपित: प्रदीपोऽयं प्रीयतां पुरुषोत्तम:।। कुछ मातृकाओं में काश्पगोत्रेण सुतसोमेन पाठ मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि धन्विन् कश्यप गोत्रीय थे।

संस्करण

  • जे. एन. रिटूयर ने सन् 1904 में धन्विभाष्य सहित प्रथम चार पटलों को प्रकाशित कराया था।
  • डॉ. रघुवीर ने 11–15 पटलों को सन् 1934 में ‘जर्नल ऑफ वेदिक स्टडीज़’ (भाग–1) में प्रकाशित किया था।
  • धन्विभाष्य सहित सम्पूर्ण द्राह्यायण श्रौतसूत्र के सर्वाङ्ग शुद्ध संस्करण का सम्पादन प्रो. बी. आर. शर्मा ने किया है, जो अनेक उपयोगी अनुक्रमणियों के साथ गंगानाथ झा के सं. विद्यापीठ, प्रयाग से सन् 1983 में प्रकाशित हुआ है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्राह्यायण श्रौतसूत्र, भूमिका, पृष्ठ 18–19, प्रयाग, 1983।

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