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'''एक'''
आदमी जो बार-बार
चौक़ उठता है नींद में
ज़रूर उसका खोया होगा कहीं / घर
घर / ताश के पत्तों का भी
          घर होता है
ढहें तो नीवें
हिल जाती हैं सपनों की
सोता-सोता जो आदमी
    चौंकता है नींद में
भरभराकर
गिर सकता है ज़मीन पर भी
और लहुलुहान हो सकता है
सँभालो / संभालो उसे !
'''दो'''
आदमी जो बार-बार
चौंक उठता है नींद में
अर्से पहले
उसने रहन रख दिए थे पंख
अब वह पंखों के बिना ही
आसमानों के पार जाना चाहता है
आकाँक्षा तो उड़ सकती है
        पंखों के बिना
पर आदमी
बिना पंख कैसे उड़ सकता है ।





18:22, 24 जून 2012 का अवतरण

आदमी जो चौक़ उठता है नींद में -सुभाष रस्तोग़ी
[[चित्र:|समय के सामने' का आवरण चित्र|150px|center]]
कवि सुभाष रस्तोगी
मूल शीर्षक समय के सामने
प्रकाशक कादम्बरी प्रकाशन,5451, शिव मार्किट,न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली-110007।
प्रकाशन तिथि 2003
देश भारत
पृष्ठ: 112
भाषा हिन्दी
विषय कविता
प्रकार काव्य संग्रह
सुभाष रस्तोगी की रचनाएँ

एक
आदमी जो बार-बार
चौक़ उठता है नींद में
ज़रूर उसका खोया होगा कहीं / घर
घर / ताश के पत्तों का भी
           घर होता है
ढहें तो नीवें
हिल जाती हैं सपनों की
सोता-सोता जो आदमी
    चौंकता है नींद में
भरभराकर
गिर सकता है ज़मीन पर भी
और लहुलुहान हो सकता है
सँभालो / संभालो उसे !
दो
आदमी जो बार-बार
चौंक उठता है नींद में
अर्से पहले
उसने रहन रख दिए थे पंख
अब वह पंखों के बिना ही
आसमानों के पार जाना चाहता है
आकाँक्षा तो उड़ सकती है
         पंखों के बिना
पर आदमी
बिना पंख कैसे उड़ सकता है ।

 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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