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'''चुनार''' [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[मिर्ज़ापुर ज़िला|मिर्ज़ापुर ज़िले]] में [[विंध्याचल पर्वत|विंध्याचल]] की पहाड़ियों में [[गंगा नदी|गंगा]] तट पर स्थित है। इसका प्राचीन नाम 'चरणाद्रि' था। चौदहवीं शताब्दी में यह [[चंदेल वंश|चंदेलों]] के अधिकार में था। सोलहवीं शताब्दी में चुनार को [[बिहार]] तथा [[बंगाल]] को जीतने के किए पहला बड़ा नाका समझा जाता था।
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====कालीदास का उल्लेख====
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==चुनार का दुर्ग==
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चुनार का विख्यात दुर्ग राजा भर्तृहरि के समय का कहा जाता है। इनकी मृत्यु 651 ई. में हुई थी।<ref>श्री नं. ला. डे के अनुसार पाल राजाओं ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था।</ref> किंवदंती है कि सन्यास लेने के उपरान्त जब भर्तृहरि [[विक्रमादित्य]] के मनाने पर भी घर न लौटे, तो उनकी रक्षार्थ विक्रमादित्य ने यह क़िला बनवा दिया था। उस समय यहाँ घना जंगल था। क़िले का संबंध 'आल्हा-ऊदल' की कथा से भी बताया जाता है। यह स्थान जहाँ आल्हा की पत्नी मुनवा का महल था, अब 'सुनवा बुर्ज' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पास ही 'माडो' नामक स्थान है, जहाँ आल्हा का [[विवाह]] हुआ था। चुनार का दुर्ग [[प्रयाग]] के दुर्ग की अपेक्षा अधिक दृढ़ तथा विशाल है। क़िले के नीचे सैंकड़ों वर्षों से गंगा की तीक्ष्ण धारा बहती रही, किंतु दुर्ग की भित्तियों को कोई हानि नहीं पहुँच सकी है। इसके दो ओर गंगा बहती है तथा एक ओर गहरी खाई है। दुर्ग, चुनार के प्रसिद्ध बलुआ पत्थर का बना है और भूमितल से काफ़ी ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मुख्य द्वार लाल पत्थर का है और उस पर सुंदर नक्काशी है। क़िले का परकोटा प्राय: दो गज चौड़ा है। उपर्युक्त माड़ो तथा सुनवा बुर्ज दुर्ग के भीतर अवस्थित हैं। यहीं राजा भर्तृहरि का मंदिर है, जहाँ उन्होंने अपना सन्यास काल बिताया था। क़िले के निकट ही सवा सौ या डेढ़ सौ फुट गहरी बावड़ी है। किले में कई गहरे तहखाने भी हैं, जिनमें सुरंगे बनी हैं।
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1575 ई. में बादशाह [[अकबर]] ने चुनार को जीता और तपश्चात [[मुग़ल साम्राज्य]] के अंतिम दिनों तक यह मुग़लों के अधिकार में रहा। 18वीं शती के द्वितीय चरण में [[अवध]] के नवाबों ने चुनार को अवध राज्य में सम्मिलित कर लिया, किंतु तत्पश्चात 1772 ई. में [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] का प्रभुत्व स्थापित हुआ। [[बनारस]] के राजा [[चेतसिंह]] को जब [[वारेन हेस्टिंग्स]] का कोप भाजन बनने के कारण [[काशी]] को छोड़ना पड़ा, तो काशी की प्रजा की क्रोधाग्नि भड़क उठी और हेस्टिंग्स को काशी, जहाँ चेतसिंह को गिरफ्तार करने आया था, छोड़ कर भागना पड़ा। उसने इस अवसर पर चुनार के क़िले में शरण ली थी।
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==स्मारक==
चुनार में कई प्रसिद्ध प्राचीन स्मारक हैं। कामाक्षा मंदिर ऊंची पहाड़ी पर है। मंदिर के नीचे दुर्गाकुंड और एक अन्य प्राचीन मंदिर है। दुर्गाकुंड और दुर्गाखोह के आस-पास अनेक पुराने मंदिरों के भग्नावशेष पड़े हुए हैं और [[गुप्त काल]] से लेकर 18वीं शती के अनेक [[अभिलेख]] प्राप्त हुए हैं। यहाँ की प्रसिद्ध मसजिद 'मुअज्जिन' नामक है, जिसमें [[मुग़ल]] सम्राट [[फ़र्रुख़सियर]] के समय में [[मक्का (अरब)|मक्का]] से लाए हुए 'हसन-हुसैन' के पहने हुए वस्त्र सुरक्षित हैं।
 
{{seealso|चुनार क़िला}}
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक स्थान}}
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11:40, 7 सितम्बर 2012 का अवतरण

चुनार उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्ज़ापुर ज़िले में विंध्याचल की पहाड़ियों में गंगा तट पर स्थित है। इसका प्राचीन नाम 'चरणाद्रि' था। चौदहवीं शताब्दी में यह चंदेलों के अधिकार में था। सोलहवीं शताब्दी में चुनार को बिहार तथा बंगाल को जीतने के किए पहला बड़ा नाका समझा जाता था।

नामकरण

बनारस से 39 मील (लगभग 62.4 कि.मी.) और प्रयाग से 75 मील (लगभग 120 कि.मी.) की दूरी पर चुनार स्थित है। कहा जाता है कि यह नाम वहाँ की पहाड़ी की मानवचरण के समान आकृति होने के कारण ही पड़ा है।[1] संभवत: 'धोनसारव' जातक में वर्णित भग्गों की राजधानी 'सुंसुमागिरि' भी इसी पहाड़ी पर बसी हुई थी। चुनार गंगा नदी के किनारे बसा है। जनश्रुति है कि चुनार में गंगा उल्टी बहती है। यहाँ गंगा में एक घुमाव है; नदी उत्तर-पश्चिम की ओर घूमकर फिर पूर्व की ओर मुड़कर काशी की ओर बहती है। घुमाव का कारण चुनार की पहाड़ी की स्थिति है। इसी विशेष स्थिति के कारण चुनार का प्राचीन काल में नदी मार्ग का नाका समझा जाता था।

कालीदास का उल्लेख

संभवत: यह स्थान चुनार के निकट ही था। कुशावती से अयोध्या जाने वाले मार्ग में चुनार की स्थिति स्वाभाविक ही जान पड़ती है। महाकवि कालिदास ने, जो इस विशष्ट स्थान के वर्णन में गंगा की प्रतीप गति बताई है, उससे यह संभव दीखता है कि कवि के ध्यान में चुनार की स्थिति ही रही होगी, क्योंकि किसी अन्य स्थान पर गंगा की उल्टी ओर बहना प्रसिद्ध नहीं हैं। संभव है कि हिन्दी के मुहावरे- 'उलटी गंगा बहना' का संबंध भी चुनार में गंगा के उल्टे प्रवाह से हो।

'रघुवंश'[2] के अनुसार कुशावती से अयोध्या लौटते समय कुश की सेना ने जिस स्थान पर गंगा को पार किया था, वहा गंगा 'प्रतीपगा' या 'पश्चिम-वाहिनी' थी-

'तीर्थे तदीये गजसेतुबंधात्प्रतीपगामुत्तरतोस्यंगगाम्, अयत्नबालव्यजनीवभूवुर्हसानभोलंधनलोलपक्षा:'।

चुनार का दुर्ग

चुनार का विख्यात दुर्ग राजा भर्तृहरि के समय का कहा जाता है। इनकी मृत्यु 651 ई. में हुई थी।[3] किंवदंती है कि सन्यास लेने के उपरान्त जब भर्तृहरि विक्रमादित्य के मनाने पर भी घर न लौटे, तो उनकी रक्षार्थ विक्रमादित्य ने यह क़िला बनवा दिया था। उस समय यहाँ घना जंगल था। क़िले का संबंध 'आल्हा-ऊदल' की कथा से भी बताया जाता है। यह स्थान जहाँ आल्हा की पत्नी मुनवा का महल था, अब 'सुनवा बुर्ज' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पास ही 'माडो' नामक स्थान है, जहाँ आल्हा का विवाह हुआ था। चुनार का दुर्ग प्रयाग के दुर्ग की अपेक्षा अधिक दृढ़ तथा विशाल है। क़िले के नीचे सैंकड़ों वर्षों से गंगा की तीक्ष्ण धारा बहती रही, किंतु दुर्ग की भित्तियों को कोई हानि नहीं पहुँच सकी है। इसके दो ओर गंगा बहती है तथा एक ओर गहरी खाई है। दुर्ग, चुनार के प्रसिद्ध बलुआ पत्थर का बना है और भूमितल से काफ़ी ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मुख्य द्वार लाल पत्थर का है और उस पर सुंदर नक्काशी है। क़िले का परकोटा प्राय: दो गज चौड़ा है। उपर्युक्त माड़ो तथा सुनवा बुर्ज दुर्ग के भीतर अवस्थित हैं। यहीं राजा भर्तृहरि का मंदिर है, जहाँ उन्होंने अपना सन्यास काल बिताया था। क़िले के निकट ही सवा सौ या डेढ़ सौ फुट गहरी बावड़ी है। किले में कई गहरे तहखाने भी हैं, जिनमें सुरंगे बनी हैं।

मुस्लिम आधिपत्य

1333 ई. के एक संस्कृत अभिलेख से सूचित होता है कि उस समय यह दुर्ग स्वामीराजा चंदेल के अधिकार में था। चंदेलों के समय में चुनार का नाम 'चंदेलगढ़' भी था। इसके बाद यहाँ मुस्लिमों का आधिपत्य हो गया। चुनारगढ़ का उल्लेख शेरशाहमुग़ल बादशाह हुमायूँ की लड़ाइयों के संबंध में भी आता है। इस काल में चुनार को, बिहार तथा बंगाल को जीतने तथा अधिकार में रखने के लिए, पहला बड़ा नाका समझा जाता था। शेरशाह ने हुमायूँ को चुनार के पास हराया था, जिससे हुमायूँ को भारी विपत्ति का सामना करना पड़ा था।

मुग़लों का अधिकार

1575 ई. में बादशाह अकबर ने चुनार को जीता और तपश्चात मुग़ल साम्राज्य के अंतिम दिनों तक यह मुग़लों के अधिकार में रहा। 18वीं शती के द्वितीय चरण में अवध के नवाबों ने चुनार को अवध राज्य में सम्मिलित कर लिया, किंतु तत्पश्चात 1772 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हुआ। बनारस के राजा चेतसिंह को जब वारेन हेस्टिंग्स का कोप भाजन बनने के कारण काशी को छोड़ना पड़ा, तो काशी की प्रजा की क्रोधाग्नि भड़क उठी और हेस्टिंग्स को काशी, जहाँ चेतसिंह को गिरफ्तार करने आया था, छोड़ कर भागना पड़ा। उसने इस अवसर पर चुनार के क़िले में शरण ली थी।

स्मारक

चुनार में कई प्रसिद्ध प्राचीन स्मारक हैं। कामाक्षा मंदिर ऊंची पहाड़ी पर है। मंदिर के नीचे दुर्गाकुंड और एक अन्य प्राचीन मंदिर है। दुर्गाकुंड और दुर्गाखोह के आस-पास अनेक पुराने मंदिरों के भग्नावशेष पड़े हुए हैं और गुप्त काल से लेकर 18वीं शती के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। यहाँ की प्रसिद्ध मसजिद 'मुअज्जिन' नामक है, जिसमें मुग़ल सम्राट फ़र्रुख़सियर के समय में मक्का से लाए हुए 'हसन-हुसैन' के पहने हुए वस्त्र सुरक्षित हैं।

इन्हें भी देखें: चुनार क़िला


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चरण+आद्रि=पहाड़ी
  2. रघुवंश 16, 33
  3. श्री नं. ला. डे के अनुसार पाल राजाओं ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था।

बाहरी कड़ियाँ

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