"परती परिकथा -फणीश्वरनाथ रेणु": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 33: | पंक्ति 33: | ||
रेणु जी के उपन्यास '[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]]' पर जब तरह-तरह के आरोप लगाये जा रहे थे, आलोचना-प्रत्यालोचना का माहौल गर्म था, रेणु 'परती परिकथा' के लेखन में जुटे थे। [[इलाहाबाद]] से [[उपेंद्रनाथ अश्क]] के संपादन में 'संकेत' नामक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें रेणु का [[रिपोर्ताज]] 'एकलव्य के नोट्स' छपा। 'एकलव्य के नोट्स' के कई अंश रेणु ने 'परती परिकथा' में शामिल किए। इस उपन्यास का लेखन उन्होंने [[पटना]] में शुरू किया, पर वहाँ जब रेणु के विषय में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाई जाने लगीं, तो वे गाँव चले गए। पर गाँव में अनेक तरह की समस्याएँ और झंझट! वे वहाँ से [[हजारीबाग]] चले आए और 'परती परिकथा' के एक भाग को यहीं पर लिखा। हजारीबाग में रेणु जी कि सुसराल थी। वे यहाँ भी लम्बे समय तक नहीं रह सकते थे। उस वक्त 'राजकमल प्रकाशन' और ओमप्रकाशजी की मुख्य गतिविधियों का केंद्र इलाहाबाद था। ओमप्रकाशजी ने रेणु को इलाहाबाद में बुलवा लिया और रेणु वहाँ लूकरगंज मुहल्ले में एक मकान लेकर रहने लगे। 'परती परिकथा' का तीन चौथाई भाग वहीं लिखा गया। बाद में इलाहाबाद में भी रेणु को परेशान करने वाली शक्तियाँ ज्यादा कारगर होने लगीं, तो वे [[बनारस]] चले गए और [[उपन्यास]] वहीं पर पूरा किया। | रेणु जी के उपन्यास '[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]]' पर जब तरह-तरह के आरोप लगाये जा रहे थे, आलोचना-प्रत्यालोचना का माहौल गर्म था, रेणु 'परती परिकथा' के लेखन में जुटे थे। [[इलाहाबाद]] से [[उपेंद्रनाथ अश्क]] के संपादन में 'संकेत' नामक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें रेणु का [[रिपोर्ताज]] 'एकलव्य के नोट्स' छपा। 'एकलव्य के नोट्स' के कई अंश रेणु ने 'परती परिकथा' में शामिल किए। इस उपन्यास का लेखन उन्होंने [[पटना]] में शुरू किया, पर वहाँ जब रेणु के विषय में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाई जाने लगीं, तो वे गाँव चले गए। पर गाँव में अनेक तरह की समस्याएँ और झंझट! वे वहाँ से [[हजारीबाग]] चले आए और 'परती परिकथा' के एक भाग को यहीं पर लिखा। हजारीबाग में रेणु जी कि सुसराल थी। वे यहाँ भी लम्बे समय तक नहीं रह सकते थे। उस वक्त 'राजकमल प्रकाशन' और ओमप्रकाशजी की मुख्य गतिविधियों का केंद्र इलाहाबाद था। ओमप्रकाशजी ने रेणु को इलाहाबाद में बुलवा लिया और रेणु वहाँ लूकरगंज मुहल्ले में एक मकान लेकर रहने लगे। 'परती परिकथा' का तीन चौथाई भाग वहीं लिखा गया। बाद में इलाहाबाद में भी रेणु को परेशान करने वाली शक्तियाँ ज्यादा कारगर होने लगीं, तो वे [[बनारस]] चले गए और [[उपन्यास]] वहीं पर पूरा किया। | ||
====प्रकाशन==== | ====प्रकाशन==== | ||
बनारस के ही 'सन्मति मुद्रणालय' में 'परती परिकथा' का मुद्रण हुआ। [[सितम्बर]] [[1957]] में इसका प्रकाशन हुआ। 'राजकमल प्रकाशन' इस उपन्यास का विज्ञापन बहुत पहले से ही कर रहा था और इस कृति की प्रतीक्षा इसके प्रकाशन के पूर्व ही होने लगी थी। 'राजकमल प्रकाशन' ने [[दिल्ली]] और [[पटना]] में इसका भव्य प्रकाशनोत्सव मनाया। दिल्ली के तीन दैनिक पत्रों 'हिन्दुस्तान टाइम्स', '[[हिन्दुस्तान (समाचार पत्र)|हिन्दुस्तान]]', और '[[नवभारत टाइम्स]]' में यह विज्ञापन छपवाया गया कि 'परती परिकथा' के लेखक श्री रेणु पुस्तक के प्रकाशन के दिन यानी [[21 सितम्बर]], [[1957]] को 2 के 5 बजे सांय तक 'राजकमल प्रकाशन' में उपस्थित रहेंगे, तथा जो पाठक इस उपन्यास को खरीदेंगे, उस पर हस्ताक्षर देंगे। पाठकों तथा लेखकों में इस प्रकार सम्पर्क स्थापित करने का यह पहला प्रयास था। अनेक पाठकों ने '[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]]' लिखकर एकाएक ख्याति पाने वाले अपने प्रिय लेखक से व्यक्तिगत परिचय प्राप्त करने के इस सुअवसर का लाभ उठाया और लेखक को भी अनेक जीवन-स्तरों से आने वाले पाठकों से मिल कर एक नया अनुभव हुआ। | बनारस के ही 'सन्मति मुद्रणालय' में 'परती परिकथा' का मुद्रण हुआ। [[सितम्बर]] [[1957]] में इसका प्रकाशन हुआ। 'राजकमल प्रकाशन' इस उपन्यास का विज्ञापन बहुत पहले से ही कर रहा था और इस कृति की प्रतीक्षा इसके प्रकाशन के पूर्व ही होने लगी थी। 'राजकमल प्रकाशन' ने [[दिल्ली]] और [[पटना]] में इसका भव्य प्रकाशनोत्सव मनाया। दिल्ली के तीन दैनिक पत्रों 'हिन्दुस्तान टाइम्स', '[[हिन्दुस्तान (समाचार पत्र)|हिन्दुस्तान]]', और '[[नवभारत टाइम्स]]' में यह विज्ञापन छपवाया गया कि 'परती परिकथा' के लेखक श्री रेणु पुस्तक के प्रकाशन के दिन यानी [[21 सितम्बर]], [[1957]] को 2 के 5 बजे सांय तक 'राजकमल प्रकाशन' में उपस्थित रहेंगे, तथा जो पाठक इस उपन्यास को खरीदेंगे, उस पर हस्ताक्षर देंगे। पाठकों तथा लेखकों में इस प्रकार सम्पर्क स्थापित करने का यह पहला प्रयास था। अनेक पाठकों ने '[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]]' लिखकर एकाएक ख्याति पाने वाले अपने प्रिय लेखक से व्यक्तिगत परिचय प्राप्त करने के इस सुअवसर का लाभ उठाया और लेखक को भी अनेक जीवन-स्तरों से आने वाले पाठकों से मिल कर एक नया अनुभव हुआ। यही कार्यक्रम [[28 सितम्बर]], [[1957]] को 'राजकमल प्रकाशन' के पटना कार्यालय में भी दुहराया गया। | ||
[[दिल्ली]] में [[21 सितम्बर]], [[1957]] को शाम के छह बजे वेंगर रेस्टोराँ में 'परती परिकथा' के प्रकाशनोत्सव के उपलक्ष्य में जलपान का आयोजन हुआ। इस अवसर पर [[हिन्दी]] के उदीयमान और वयोवृद्ध लेखकों तथा प्रकाशकों का जो सम्मिलन हुआ, वह अभूतपूर्व था। [[रामधारी सिंह 'दिनकर'|श्री दिनकर]], [[बालकृष्ण शर्मा नवीन]], [[जैनेंद्र कुमार|जैनेंद्र]], [[बनारसीदास चतुर्वेदी]], [[आचार्य चतुरसेन शास्त्री]], [[डॉ. नगेन्द्र|नगेन्द्र]], उदयशंकर भट्ट, बारान्निकोण, रामधन शास्त्री, नरेश मेहता, [[रघुवीर सहाय]], महावीर अधिकारी, गोपालकृष्ण कौल, लक्ष्मण राव जोशी, सुहैल, अजीमावादी, प्रयागनारायण त्रिपाठी, मन्मथनाथ गुप्त, सत्यवती मल्लिक, सावित्री देवी वर्मा, [[विष्णु प्रभाकर]], क्षेमचंद्र सुमन, शिवदानसिंह चौहान, संतराम, नेमिचंद्र जैन, राधामुकुंद मुखर्जी, शमशेरसिंह नरूला, श्रीराम शर्मा 'राम' तथा नर्मदेश्वर आदि लेखक मौजूद थे। | |||
==साहित्यकारों का बखान== | |||
*'''शिवदानसिंह चौहान''' - इस अवसर पर शिवदानसिंह चौहान ने 'परती परिकथा' पर अपना लम्बा भाषण दिया। 'परती परिकथा' पर बोलते हुए उन्होंने कहा- "यह [[हिन्दी]] का अब तक का सर्वश्रेष्ठ [[उपन्यास]] है, इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में रखा जा सकता है और पाश्चात्य साहित्य में इस बीच (यानी पिछले पाँच-सात वर्षों में) जो महत्त्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, उनमें से किसी से भी यह टक्कर ले सकता है। यह हम सब के लिए गर्व का विषय है।' | |||
*'''बालकृष्ण शर्मा नवीन''' - [[बालकृष्ण शर्मा नवीन|नवीन]] ने कहा- "आपने निरीक्षण और स्मृति-चित्रण का अद्भुत सामर्थ्य है। भारतीय ग्राम जीवन में जो कुछ कुत्सित, द्वेषपूर्ण, संकुचित, कलहप्रिय, नीच-वृत्ति है, उसे आपने अत्यंत, अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक व्यक्त किया है। इस निम्न वृत्ति में आप खो नहीं गए हैं। [[भारत]] के गाँवों में आपने मानवत्व को देखा है। आप निराश नहीं हैं। आप पराजयवादी नहीं हैं। आपने आशावादिता को पंक से कमलवत्, विकसित और पुष्पित किया है।... 'परती परिकथा' उपन्यास नहीं है, वह तो भारतीय जन की आत्मकथा है।' | |||
पटना में 'परती परिकथा' का प्रकाशनोत्सव | पटना में 'परती परिकथा' का प्रकाशनोत्सव [[28 सितम्बर]], [[1957]] को शाम छह बजे सिन्हा लाइब्रेरी के हॉल में मनाया गया। इसमें सैकड़ों लेखक, संपादक, प्रकाशक तथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद थे। इनमें प्रमुख व्यक्तियों के नाम हैं- [[शिवपूजन सहाय|आचार्य शिवपूजन सहाय]], [[रामधारी सिंह दिनकर]], नलिनविलोचन शर्मा, छविनाथ पाण्डेय, नवलकिशोर गौड़, हरिमोहन झा, अनूपलाल मंडल, नर्मदेश्वर प्रसाद, बी.एन. माधव, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, कामताप्रसाद सिंह 'काम', देवेंद्रप्रसाद सिंह, सुशीला कोइराला (बी. पी. कोइराला की पत्नी), रामदयाल पांडेय, हिमांशु श्रीवास्तव, शिवचंद्र शर्मा, सुमन वाजपेयी, रंजन सूरिदेव आदि। आचार्य शिवपूजन सहाय ने रेणु को आशीर्वाद दिया। नलिनविलोचन शर्मा ने रेणु के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय देते हुए बधाई दी। दिनकरजी ने इस अवसर पर कहा कि- 'परती परिकथा' में लेखक ने जो ईमानदारी बरती है, उससे अधिक ईमानदारी की किसी लेखक से उम्मीद भी नहीं की जा सकती। उन्होंने बताया कि उपन्यास ने उन्हें इतना पकड़ा कि ज़रा भी फुर्सत पाने पर वे इसे पढ़ने बैठ जाते थे। | ||
'परती परिकथा' के छपते ही संपूर्ण हिन्दी जगत में इसकी धूम मच गई। वरिष्ठ कथाकार यशपाल ने 'परती परिकथा' पढ़कर उन्हें एक लंबा पत्र लिखा | ==यशपाल का पत्र== | ||
'परती परिकथा' के छपते ही संपूर्ण [[हिन्दी]] जगत में इसकी धूम मच गई। वरिष्ठ कथाकार [[यशपाल]] ने 'परती परिकथा' पढ़कर उन्हें एक लंबा पत्र लिखा- | |||
'बीसियों लोगों ने प्रशंसा की होगी। जिसे नहीं रुची, उसकी समझ कुछ और ही ढंग की होगी। मुझे तो आरंभ से अंत तक इतना सुन्दर लगा कि प्रशंसा में अत्युक्ति का भय नहीं रहता। अभिव्यक्ति के लिए ध्वनियों का प्रयोग, मुहावरों के लटके और भाषा कि सरलता की क्या प्रशंसा करूँ। भाषा का चुनाव वस्तु वर्णन के बिना भी एक विशेष वातावरण और चेतना जगाए रखता है। सहज भाषा के लिए क्या कहूँ, वह आपकी अपनी भाषा और आपके रक्त और स्वभाव में रमी हुई है। जैसे भाव में से उद्धृत है! हम इस भाषा को लाख सीखें, परन्तु आपका सहज कौशल हमारी पहुँच में कैसे आयेगा? प्रयोजन को भी आपने ऐसे बैठाया है कि प्ले-बैक के जोड़ की अनुभूति या उखड़न कहीं नहीं हो पाती। शब्द और अर्थ दोनों ही ढंग का हास्य भी, पुलाव में काली मिर्च की तरह अंदाज से बिखरा हुआ है, आद्यंत चमक बनी रहती है। | "(पुस्तक) आज दोपहर तक पूरी पढ़ डाली है। इस बीच दाँत-दर्द ने भी कुछ शिथिलता की और 'परती परिकथा' ने दाँत-दर्द सहने में सहायता दी। 'बीसियों लोगों ने प्रशंसा की होगी। जिसे नहीं रुची, उसकी समझ कुछ और ही ढंग की होगी। मुझे तो आरंभ से अंत तक इतना सुन्दर लगा कि प्रशंसा में अत्युक्ति का भय नहीं रहता। अभिव्यक्ति के लिए ध्वनियों का प्रयोग, मुहावरों के लटके और भाषा कि सरलता की क्या प्रशंसा करूँ। [[भाषा]] का चुनाव वस्तु वर्णन के बिना भी एक विशेष वातावरण और चेतना जगाए रखता है। सहज भाषा के लिए क्या कहूँ, वह आपकी अपनी भाषा और आपके रक्त और स्वभाव में रमी हुई है। जैसे भाव में से उद्धृत है! हम इस भाषा को लाख सीखें, परन्तु आपका सहज कौशल हमारी पहुँच में कैसे आयेगा? प्रयोजन को भी आपने ऐसे बैठाया है कि प्ले-बैक के जोड़ की अनुभूति या उखड़न कहीं नहीं हो पाती। शब्द और अर्थ दोनों ही ढंग का हास्य भी, पुलाव में काली मिर्च की तरह अंदाज से बिखरा हुआ है, आद्यंत चमक बनी रहती है।" | ||
==आलोचना== | |||
एक ओर इस कृति को हिन्दी के महानतम उपन्यास के रूप में स्वीकारा जा रहा था, तो दूसरी ओर इसकी प्रतीकूल समीक्षाएँ भी आईं। श्रीपत राय, जिन्होंने 'मैला | एक ओर इस कृति को हिन्दी के महानतम उपन्यास के रूप में स्वीकारा जा रहा था, तो दूसरी ओर इसकी प्रतीकूल समीक्षाएँ भी आईं। श्रीपत राय, जिन्होंने '[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]]' की बेहद प्रशंसा की थी, 'कल्पना' के [[फ़रवरी]], [[1958]] के अंक में उपन्यास के मौलिक आग्रह तथा 'परती परिकथा' लेख लिखकर इसे उपन्यास तक मानने से इनकार किया। बालकृष्ण राव, शम्भुनाथ सिंह आदि ने भी श्रीपत राय की तरह ही इसकी प्रतिकूल समीक्षा की और इसे उपन्यास के शास्त्रीय निकष पर एक असफल कृति माना। यहाँ तक कि आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने 'साहित्य' के [[जनवरी]], [[1958]] के अंक में 'परती परिकथा' को खारिज करते हुए लेख लिखा। इसी क्रम में डॉ. रामविलास शर्मा ने 1958 में ही रेणु के 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' पर तीखा आलोचनात्मक लेख लिखा, जो उनकी पुस्तक 'आस्था और सौंदर्य' में संकलित है। रेणु के प्रति इन आलोचकों के इस रवैये पर यशपालजी बेहद क्षुब्द हुए और उन्होंने 'नया पथ' के [[मार्च]], 1958 के अंक में एक आक्रामक लेख लिखा- '''आलोचना का उल्कापात : 'परती परिकथा' की अद्भुत समीक्षाएँ'''। | ||
==फ़िल्म का निर्माण== | ==फ़िल्म का निर्माण== | ||
[[फणीश्वरनाथ रेणु]] के इस प्रसिद्ध उपन्यास 'परती परिकथा' पर एक फ़िल्म का भी निर्माण हुआ, जिसका नाम था- '[[मदर इंडिया]]'। यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि [[महबूब ख़ान]] की मशहूर [[सिनेमा]] 'मदर इंडिया' और फणीश्वरनाथ रेणु का दूसरा उपन्यास 'परती परिकथा' वर्ष [[1957]] में एक मास के भीतर ही प्रदर्शित हुए थे। 'मदर इंडिया' उस [[वर्ष]] सबसे पहले [[25 अक्टूबर]] को [[बम्बई]] और [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) में परदे पर आयी और 'परती परिकथा' के लिये इससे कुछ पहले [[21 सितम्बर]] को 'राजकमल प्रकाशन' के दफ्तर [[दिल्ली]] में और [[28 सितम्बर]] को [[पटना]] में बड़े धूम-धाम से 'प्रकाशनोत्सव' मनाया गया। देश के [[अख़बार|अख़बारों]] में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ-साथ था। यह भी उल्लेखनीय है कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी। फ़िल्म 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दोनों ही [[भारत]] के ग्रामीण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं। 'मदर इंडिया' की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है, जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं, जो पचास के दशक के नवभारत के सपनों की धरती है। एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं।<ref name="ab"/> | [[फणीश्वरनाथ रेणु]] के इस प्रसिद्ध उपन्यास 'परती परिकथा' पर एक फ़िल्म का भी निर्माण हुआ, जिसका नाम था- '[[मदर इंडिया]]'। यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि [[महबूब ख़ान]] की मशहूर [[सिनेमा]] 'मदर इंडिया' और फणीश्वरनाथ रेणु का दूसरा उपन्यास 'परती परिकथा' वर्ष [[1957]] में एक मास के भीतर ही प्रदर्शित हुए थे। 'मदर इंडिया' उस [[वर्ष]] सबसे पहले [[25 अक्टूबर]] को [[बम्बई]] और [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) में परदे पर आयी और 'परती परिकथा' के लिये इससे कुछ पहले [[21 सितम्बर]] को 'राजकमल प्रकाशन' के दफ्तर [[दिल्ली]] में और [[28 सितम्बर]] को [[पटना]] में बड़े धूम-धाम से 'प्रकाशनोत्सव' मनाया गया। देश के [[अख़बार|अख़बारों]] में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ-साथ था। यह भी उल्लेखनीय है कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी। फ़िल्म 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दोनों ही [[भारत]] के ग्रामीण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं। 'मदर इंडिया' की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है, जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं, जो पचास के दशक के नवभारत के सपनों की धरती है। एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं।<ref name="ab"/> | ||
====कथा साहित्य की उपलब्धि==== | |||
'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है। [[हिन्दी]] में अब तक इन दोनों उपन्यासों के समान विस्तृत परिदृश्य के बहुत कम उपन्यास लिखे गए। इन दोनों कथा कृतियों पर अनेक खारिज करने वाले तीखे लेख लिखे जा चुके हैं। फिर भी इनका महत्त्व आज तक बना हुआ है और अब भी ये उपन्यास प्रमुख कथा समीक्षकों के सामने नई दृष्टि से मूल्यांकन के लिए आकर्षित करते हैं। इन दोनों उपन्यासों ने [[हिन्दी साहित्य]] में 'आंचलिक उपन्यास' नामक एक नयी विधा को जन्म दिया और आंचलिकता पर उस समय से अब तक एक लंबी बहस जारी है। | |||
'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' धरती पुत्रों की सिर्फ़ व्यग्र कथा प्रस्तुत करने वाली कथा कृतियाँ ही नहीं हैं, न सिर्फ़ भूमि-संघर्षों को उजागर करने वाली कथा कृतियाँ। इनमें सिर्फ़ लोक-संस्कृति की रंगारंग अर्थ-छवियाँ ही नहीं हैं। इन उपन्यासों में [[भारत]] की राष्ट्रीय समस्याओं, बदलते हुए राजनीतिक, सामाजिक मूल्यों पर गहरी नजर है। ये उपन्यास आंचलिक होते हुए भी देश की वास्तविक छवि को प्रस्तुत करने वाले हैं। हिन्दी में ऐसी कथा कृतियाँ बहुत कम हैं, जो अपनी स्थानीयता या स्थानीय रंग के कारण याद तो की ही जाती हों, साथ ही जो अपनी संकेतात्मकता या मूल आशय में इतनी परिव्याप्ति भी लिए हुए हों। | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
07:56, 25 मार्च 2013 का अवतरण
परती परिकथा -फणीश्वरनाथ रेणु
| |
लेखक | फणीश्वरनाथ रेणु |
मूल शीर्षक | 'परती परिकथा' |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 21 सितम्बर, 1957 |
ISBN | 9788126713240 |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
विधा | उपन्यास |
परती परिकथा भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का प्रसिद्ध उपन्यास है। अपने एक और प्रसिद्ध उपन्यास "मैला आंचल" में रेणु ने जिन नई राजनीतिक ताकतों का उभार दिखाते हुए सत्तांध चरित्रों के नैतिक पतन का खाका खींचा था, वह प्रक्रिया 'परती परिकथा' उपन्यास में पूर्ण होती है। उपन्यास 'परती परिकथा' का नायक 'जित्तन' परती जमीन को खेती लायक बनाने के लिए कुत्सित राजनीति का अनुभव लेकर और साथ ही उसका शिकार होकर परानपुर लौटता है। परानपुर का राजनीतिक परिदृश्य राष्ट्रीय राजनीति का लघु संस्करण है।
लेखक के संबंध में
साहित्य की तकरीबन हर विधा में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु समकालीन ग्रामीण भारत की आवाज़ को उठाने तथा सामाजिक स्थितियों को कथा के माध्यम से चित्रित करने के लिए पहचाने जाते हैं। 'पद्मश्री' से सम्मानित महान लेखक रेणु जी का जन्म बिहार के तत्कालीन पूर्णिया ज़िले के फारबिसगंज के निकट एक गाँव में[1] 4 मार्च, 1921 को हुआ था। नेपाल से उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की थी। 'बिहार विश्वविद्यालय' के 'लक्ष्मी नारायण दुबे महाविद्यालय' के अंग्रेज़ी विभाग के अवकाश प्राप्त विभागाध्यक्ष और वरिष्ठ लेखक एस.के. प्रसून के अनुसार रेणु ने "मैला आंचल" के माध्यम से न केवल बिहार बल्कि पूरे देश के वंचितों और पिछड़ों की पीड़ा को उकेरा। रेणु ने 1942 के 'स्वतंत्रता संग्राम' में हिस्सा लिया और 1950 के करीब उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष में भी हिस्सा लिया था। "काशी हिंदू विश्विविद्यालय" से शिक्षा ग्रहण करने वाले फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी "मारे गए गुलफ़ाम" पर "तीसरी कसम" नामक एक फ़िल्म भी बन चुकी है, जो ग्रामीण पृष्ठभूमि का अत्यंत बारीकी से किया गया भावनात्मक चित्रण है। फणीश्वरनाथ रेणु प्रेमचंद युग के बाद आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक सफल और प्रभावी लेखकों में से हैं।[2]
कथावस्तु
फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आंचल' के समान ही 'परती परिकथा' भी एक गाँव के परिवेश के परिवर्तन की कहानी है। यहाँ भी बाँध बनता है, यहाँ भी सपने आकार लेते हैं। नेहरुवादी विकासमूलक सपने। 'परती परिकथा' के अंत की ओर पाठक एक ऐसे ही जश्न से रुबरु होता है। रेणु जी के उपन्यास के गाँव और फ़िल्म 'मदर इंडिया' के गाँव में एक बड़ा फर्क है। रेणु के गाँव को उत्तर भारत में किसी दूसरे क्षेत्र में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। यह कोशी नदी के पूरब का गाँव है, इसे कोशी के पच्छिम भी नहीं सरका सकते। 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दो रूप हैं। सन 1950 के गाँव पर नेहरुवादी आधुनिकता और औपनिवेशिकता। 'मदर इंडिया' जिसमें व्यक्ति की कल्पना को इज़ाज़त है जगह चुनने की, क्योंकि स्थानिकता के विस्तार में जगह की विशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है। 'परती परिकथा' पाठक के स्थानजनित कल्पना को जगह के इर्द-गिर्द समेटने की कोशिश है। फणीश्वरनाथ रेणु के 'परती परिकथा' और "मैला आंचल" ये दोनों ही उपन्यास भारत के गाँवों के पिछड़ेपन की कहानी हैं। एक में औरत के जीवन-चरित के तौर पर, दूसरे में धरती के टुकड़े की। यह पिछड़ा टुकड़ा है पूर्णिया ज़िले का एक गाँव।[3]
उपन्यास का लेखन कार्य
रेणु जी के उपन्यास 'मैला आंचल' पर जब तरह-तरह के आरोप लगाये जा रहे थे, आलोचना-प्रत्यालोचना का माहौल गर्म था, रेणु 'परती परिकथा' के लेखन में जुटे थे। इलाहाबाद से उपेंद्रनाथ अश्क के संपादन में 'संकेत' नामक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें रेणु का रिपोर्ताज 'एकलव्य के नोट्स' छपा। 'एकलव्य के नोट्स' के कई अंश रेणु ने 'परती परिकथा' में शामिल किए। इस उपन्यास का लेखन उन्होंने पटना में शुरू किया, पर वहाँ जब रेणु के विषय में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाई जाने लगीं, तो वे गाँव चले गए। पर गाँव में अनेक तरह की समस्याएँ और झंझट! वे वहाँ से हजारीबाग चले आए और 'परती परिकथा' के एक भाग को यहीं पर लिखा। हजारीबाग में रेणु जी कि सुसराल थी। वे यहाँ भी लम्बे समय तक नहीं रह सकते थे। उस वक्त 'राजकमल प्रकाशन' और ओमप्रकाशजी की मुख्य गतिविधियों का केंद्र इलाहाबाद था। ओमप्रकाशजी ने रेणु को इलाहाबाद में बुलवा लिया और रेणु वहाँ लूकरगंज मुहल्ले में एक मकान लेकर रहने लगे। 'परती परिकथा' का तीन चौथाई भाग वहीं लिखा गया। बाद में इलाहाबाद में भी रेणु को परेशान करने वाली शक्तियाँ ज्यादा कारगर होने लगीं, तो वे बनारस चले गए और उपन्यास वहीं पर पूरा किया।
प्रकाशन
बनारस के ही 'सन्मति मुद्रणालय' में 'परती परिकथा' का मुद्रण हुआ। सितम्बर 1957 में इसका प्रकाशन हुआ। 'राजकमल प्रकाशन' इस उपन्यास का विज्ञापन बहुत पहले से ही कर रहा था और इस कृति की प्रतीक्षा इसके प्रकाशन के पूर्व ही होने लगी थी। 'राजकमल प्रकाशन' ने दिल्ली और पटना में इसका भव्य प्रकाशनोत्सव मनाया। दिल्ली के तीन दैनिक पत्रों 'हिन्दुस्तान टाइम्स', 'हिन्दुस्तान', और 'नवभारत टाइम्स' में यह विज्ञापन छपवाया गया कि 'परती परिकथा' के लेखक श्री रेणु पुस्तक के प्रकाशन के दिन यानी 21 सितम्बर, 1957 को 2 के 5 बजे सांय तक 'राजकमल प्रकाशन' में उपस्थित रहेंगे, तथा जो पाठक इस उपन्यास को खरीदेंगे, उस पर हस्ताक्षर देंगे। पाठकों तथा लेखकों में इस प्रकार सम्पर्क स्थापित करने का यह पहला प्रयास था। अनेक पाठकों ने 'मैला आंचल' लिखकर एकाएक ख्याति पाने वाले अपने प्रिय लेखक से व्यक्तिगत परिचय प्राप्त करने के इस सुअवसर का लाभ उठाया और लेखक को भी अनेक जीवन-स्तरों से आने वाले पाठकों से मिल कर एक नया अनुभव हुआ। यही कार्यक्रम 28 सितम्बर, 1957 को 'राजकमल प्रकाशन' के पटना कार्यालय में भी दुहराया गया।
दिल्ली में 21 सितम्बर, 1957 को शाम के छह बजे वेंगर रेस्टोराँ में 'परती परिकथा' के प्रकाशनोत्सव के उपलक्ष्य में जलपान का आयोजन हुआ। इस अवसर पर हिन्दी के उदीयमान और वयोवृद्ध लेखकों तथा प्रकाशकों का जो सम्मिलन हुआ, वह अभूतपूर्व था। श्री दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, जैनेंद्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, नगेन्द्र, उदयशंकर भट्ट, बारान्निकोण, रामधन शास्त्री, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, महावीर अधिकारी, गोपालकृष्ण कौल, लक्ष्मण राव जोशी, सुहैल, अजीमावादी, प्रयागनारायण त्रिपाठी, मन्मथनाथ गुप्त, सत्यवती मल्लिक, सावित्री देवी वर्मा, विष्णु प्रभाकर, क्षेमचंद्र सुमन, शिवदानसिंह चौहान, संतराम, नेमिचंद्र जैन, राधामुकुंद मुखर्जी, शमशेरसिंह नरूला, श्रीराम शर्मा 'राम' तथा नर्मदेश्वर आदि लेखक मौजूद थे।
साहित्यकारों का बखान
- शिवदानसिंह चौहान - इस अवसर पर शिवदानसिंह चौहान ने 'परती परिकथा' पर अपना लम्बा भाषण दिया। 'परती परिकथा' पर बोलते हुए उन्होंने कहा- "यह हिन्दी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है, इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में रखा जा सकता है और पाश्चात्य साहित्य में इस बीच (यानी पिछले पाँच-सात वर्षों में) जो महत्त्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, उनमें से किसी से भी यह टक्कर ले सकता है। यह हम सब के लिए गर्व का विषय है।'
- बालकृष्ण शर्मा नवीन - नवीन ने कहा- "आपने निरीक्षण और स्मृति-चित्रण का अद्भुत सामर्थ्य है। भारतीय ग्राम जीवन में जो कुछ कुत्सित, द्वेषपूर्ण, संकुचित, कलहप्रिय, नीच-वृत्ति है, उसे आपने अत्यंत, अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक व्यक्त किया है। इस निम्न वृत्ति में आप खो नहीं गए हैं। भारत के गाँवों में आपने मानवत्व को देखा है। आप निराश नहीं हैं। आप पराजयवादी नहीं हैं। आपने आशावादिता को पंक से कमलवत्, विकसित और पुष्पित किया है।... 'परती परिकथा' उपन्यास नहीं है, वह तो भारतीय जन की आत्मकथा है।'
पटना में 'परती परिकथा' का प्रकाशनोत्सव 28 सितम्बर, 1957 को शाम छह बजे सिन्हा लाइब्रेरी के हॉल में मनाया गया। इसमें सैकड़ों लेखक, संपादक, प्रकाशक तथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद थे। इनमें प्रमुख व्यक्तियों के नाम हैं- आचार्य शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, नलिनविलोचन शर्मा, छविनाथ पाण्डेय, नवलकिशोर गौड़, हरिमोहन झा, अनूपलाल मंडल, नर्मदेश्वर प्रसाद, बी.एन. माधव, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, कामताप्रसाद सिंह 'काम', देवेंद्रप्रसाद सिंह, सुशीला कोइराला (बी. पी. कोइराला की पत्नी), रामदयाल पांडेय, हिमांशु श्रीवास्तव, शिवचंद्र शर्मा, सुमन वाजपेयी, रंजन सूरिदेव आदि। आचार्य शिवपूजन सहाय ने रेणु को आशीर्वाद दिया। नलिनविलोचन शर्मा ने रेणु के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय देते हुए बधाई दी। दिनकरजी ने इस अवसर पर कहा कि- 'परती परिकथा' में लेखक ने जो ईमानदारी बरती है, उससे अधिक ईमानदारी की किसी लेखक से उम्मीद भी नहीं की जा सकती। उन्होंने बताया कि उपन्यास ने उन्हें इतना पकड़ा कि ज़रा भी फुर्सत पाने पर वे इसे पढ़ने बैठ जाते थे।
यशपाल का पत्र
'परती परिकथा' के छपते ही संपूर्ण हिन्दी जगत में इसकी धूम मच गई। वरिष्ठ कथाकार यशपाल ने 'परती परिकथा' पढ़कर उन्हें एक लंबा पत्र लिखा-
"(पुस्तक) आज दोपहर तक पूरी पढ़ डाली है। इस बीच दाँत-दर्द ने भी कुछ शिथिलता की और 'परती परिकथा' ने दाँत-दर्द सहने में सहायता दी। 'बीसियों लोगों ने प्रशंसा की होगी। जिसे नहीं रुची, उसकी समझ कुछ और ही ढंग की होगी। मुझे तो आरंभ से अंत तक इतना सुन्दर लगा कि प्रशंसा में अत्युक्ति का भय नहीं रहता। अभिव्यक्ति के लिए ध्वनियों का प्रयोग, मुहावरों के लटके और भाषा कि सरलता की क्या प्रशंसा करूँ। भाषा का चुनाव वस्तु वर्णन के बिना भी एक विशेष वातावरण और चेतना जगाए रखता है। सहज भाषा के लिए क्या कहूँ, वह आपकी अपनी भाषा और आपके रक्त और स्वभाव में रमी हुई है। जैसे भाव में से उद्धृत है! हम इस भाषा को लाख सीखें, परन्तु आपका सहज कौशल हमारी पहुँच में कैसे आयेगा? प्रयोजन को भी आपने ऐसे बैठाया है कि प्ले-बैक के जोड़ की अनुभूति या उखड़न कहीं नहीं हो पाती। शब्द और अर्थ दोनों ही ढंग का हास्य भी, पुलाव में काली मिर्च की तरह अंदाज से बिखरा हुआ है, आद्यंत चमक बनी रहती है।"
आलोचना
एक ओर इस कृति को हिन्दी के महानतम उपन्यास के रूप में स्वीकारा जा रहा था, तो दूसरी ओर इसकी प्रतीकूल समीक्षाएँ भी आईं। श्रीपत राय, जिन्होंने 'मैला आंचल' की बेहद प्रशंसा की थी, 'कल्पना' के फ़रवरी, 1958 के अंक में उपन्यास के मौलिक आग्रह तथा 'परती परिकथा' लेख लिखकर इसे उपन्यास तक मानने से इनकार किया। बालकृष्ण राव, शम्भुनाथ सिंह आदि ने भी श्रीपत राय की तरह ही इसकी प्रतिकूल समीक्षा की और इसे उपन्यास के शास्त्रीय निकष पर एक असफल कृति माना। यहाँ तक कि आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने 'साहित्य' के जनवरी, 1958 के अंक में 'परती परिकथा' को खारिज करते हुए लेख लिखा। इसी क्रम में डॉ. रामविलास शर्मा ने 1958 में ही रेणु के 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' पर तीखा आलोचनात्मक लेख लिखा, जो उनकी पुस्तक 'आस्था और सौंदर्य' में संकलित है। रेणु के प्रति इन आलोचकों के इस रवैये पर यशपालजी बेहद क्षुब्द हुए और उन्होंने 'नया पथ' के मार्च, 1958 के अंक में एक आक्रामक लेख लिखा- आलोचना का उल्कापात : 'परती परिकथा' की अद्भुत समीक्षाएँ।
फ़िल्म का निर्माण
फणीश्वरनाथ रेणु के इस प्रसिद्ध उपन्यास 'परती परिकथा' पर एक फ़िल्म का भी निर्माण हुआ, जिसका नाम था- 'मदर इंडिया'। यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि महबूब ख़ान की मशहूर सिनेमा 'मदर इंडिया' और फणीश्वरनाथ रेणु का दूसरा उपन्यास 'परती परिकथा' वर्ष 1957 में एक मास के भीतर ही प्रदर्शित हुए थे। 'मदर इंडिया' उस वर्ष सबसे पहले 25 अक्टूबर को बम्बई और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में परदे पर आयी और 'परती परिकथा' के लिये इससे कुछ पहले 21 सितम्बर को 'राजकमल प्रकाशन' के दफ्तर दिल्ली में और 28 सितम्बर को पटना में बड़े धूम-धाम से 'प्रकाशनोत्सव' मनाया गया। देश के अख़बारों में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ-साथ था। यह भी उल्लेखनीय है कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी। फ़िल्म 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दोनों ही भारत के ग्रामीण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं। 'मदर इंडिया' की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है, जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं, जो पचास के दशक के नवभारत के सपनों की धरती है। एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं।[3]
कथा साहित्य की उपलब्धि
'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है। हिन्दी में अब तक इन दोनों उपन्यासों के समान विस्तृत परिदृश्य के बहुत कम उपन्यास लिखे गए। इन दोनों कथा कृतियों पर अनेक खारिज करने वाले तीखे लेख लिखे जा चुके हैं। फिर भी इनका महत्त्व आज तक बना हुआ है और अब भी ये उपन्यास प्रमुख कथा समीक्षकों के सामने नई दृष्टि से मूल्यांकन के लिए आकर्षित करते हैं। इन दोनों उपन्यासों ने हिन्दी साहित्य में 'आंचलिक उपन्यास' नामक एक नयी विधा को जन्म दिया और आंचलिकता पर उस समय से अब तक एक लंबी बहस जारी है। 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' धरती पुत्रों की सिर्फ़ व्यग्र कथा प्रस्तुत करने वाली कथा कृतियाँ ही नहीं हैं, न सिर्फ़ भूमि-संघर्षों को उजागर करने वाली कथा कृतियाँ। इनमें सिर्फ़ लोक-संस्कृति की रंगारंग अर्थ-छवियाँ ही नहीं हैं। इन उपन्यासों में भारत की राष्ट्रीय समस्याओं, बदलते हुए राजनीतिक, सामाजिक मूल्यों पर गहरी नजर है। ये उपन्यास आंचलिक होते हुए भी देश की वास्तविक छवि को प्रस्तुत करने वाले हैं। हिन्दी में ऐसी कथा कृतियाँ बहुत कम हैं, जो अपनी स्थानीयता या स्थानीय रंग के कारण याद तो की ही जाती हों, साथ ही जो अपनी संकेतात्मकता या मूल आशय में इतनी परिव्याप्ति भी लिए हुए हों।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अब अररिया ज़िले में
- ↑ ग्रामीण परिवेश से परिचित कराते थे- रेणु (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2013।
- ↑ 3.0 3.1 रेणु साहित्य और आंचलिक आधुनिकता (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख