"गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा": अवतरणों में अंतर

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गवाह और अपराधी के बीच
गवाह और अपराधी के बीच
एक अदालती रिश्ता है  
एक अदालती रिश्ता है  
जो सच की कब्र पर  
जो सच की क़ब्र पर  
फूल की तरह खिलता है़।
फूल की तरह खिलता है़।
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13:23, 14 मई 2013 के समय का अवतरण

गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (उना, हिमाचल प्रदेश)
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तुमने तो की थी प्रतिज्ञा
कि लड़ोगे तुम
अन्तिम कारण तक
उन सबके लिए
जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
जो न परास्त हुए न मरे हैं
अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
कनकौए की तरह खड़े हैं
जिनके अधिकार और हथियार
पहले ही छिन चुके हैं
लोकतन्त्र के इस जंगल में
जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
जिनका जीवित सर
बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
जिन्हें भाषा और धर्म
रंग और जात के नाम पर
अलग अलग बांट दिया गया है

तुमने तो कहा था
तुमने तो कहा था-
हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
न्याय के लिए़
तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
कि तमाम खतरों के बावजूद
जिन्दा रहेगा सच
तुमने लिया था संकल्प
कि अपनी आत्मा की अस्मिता
रखोगे अक्षुण्ण
रक्त की अन्तिम बूंद तक़

पर तुम्हीं ने बांध ली
आंखों पर पट्टी
और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
ताकि देखना न पड़े
न्याय के लिए जूझते
दम तोड़ते आदमी का चेहरा

तुम्हें पता था
न्याय और जीवन के लिए
लड़ते आदमी का चेहरा देखना
सचमुच मुश्किल होता है
तब और भी ज़्यादा
जब तुम अन्धेरे में हो
और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
तब और भी ज़्यादा
जब तुम खड़े हो
मूक दर्शकों की पंक्ति में

तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
मक्कारी में डूबे पूछते हो
आराम में खलल डालता यह आदमी
आखिर है कौन
उधर अदालत की चौखट पर
सर पटकती है
न्याय की उम्मीद
भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
कराहता है आहत सच
और सहम कर वहीं दुबक जाता है
असहाय सा कोने में

काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
काले कव्वे की शह पर
इतराता है, गुर्राता है
कानून की किसी उपधारा को
ढाल बनाकर निकल जाता है
प्रजातन्त्र के जंगल में
नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ

क्या तुमने सुना है
सिसक- सिसक कर रोता सच
अदालत के उठ जाने के बाद
वहीं किसी अंधेरे कोने में
पत्थर पर सिर टिकाए
दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?

जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
सदियों से खड़ी है गांधारी
अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
देखती नहीं कुछ
सुनती है बस
पर फ़र्क़ नहीं कर सकती
घायल की कराहट
और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
पर अपना ही कुनबा
आ जाता है सामने हरबाऱ

सदियों से खड़ी है गांधारी
जिसकी आंखों पर पट्टी
हाथ में तराजू है
और तोलने को कुछ भी नहीं
संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
उसके एक हाथ में
मरी हुई परिभाषाओं से भरी
एक भारी किताब है
दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
वह गूँगा नहीं है
नक्कारखाने में उसका मौन
एक लाचारी है
जिस अपराधी के पक्ष में
एक डरी हुई चुप्पी है
डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़

जिन्दा आदमी के जले गोश्त की
गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
जब मोदी पूछता है
अलग अलग करके बताओ
कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
कितने मुस्व्लमान ?
संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
कुछ और पसर जाता है आराम से
जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
जैसिका को किसी ने नहीं मारा
जैसिका कभी मरी ही नहीं
उसे दफन किया गया है फाईलों में ज़िन्दा़

गांधारी के शब्दकोश में आदमी
न जिंदा है न मरा है
अदालत का एक कटघरा है
जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
गवाह और अपराधी के बीच
एक अदालती रिश्ता है
जो सच की क़ब्र पर
फूल की तरह खिलता है़।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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