"सुचिन्द्रम": अवतरणों में अंतर
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'''सुचिन्द्रम''' एक प्रसिद्ध [[तीर्थ स्थान]] है, जो [[तमिलनाडु]] के [[कन्याकुमारी]] में स्थित है। इस तीर्थ स्थान की धार्मिक आस्था श्रद्धालुओं को सहज ही अपनी ओर खींच लाती है। इस स्थान पर भव्य 'स्थानुमलयन मंदिर' है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेव- [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] एवं [[शिव|महेश]] को समर्पित है। यह त्रिदेव यहाँ एक लिंग के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। उस काल के कुछ शिलालेख मंदिर में अब भी मौजूद हैं। सत्रहवीं शताब्दी में इस मंदिर को नया रूप दिया गया था। मंदिर में भगवान विष्णु की एक अष्टधातु की प्रतिमा एवं [[हनुमान|पवनपुत्र हनुमान]] की 18 फुट ऊँची प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है। | '''सुचिन्द्रम''' एक प्रसिद्ध [[तीर्थ स्थान]] है, जो [[तमिलनाडु]] के [[कन्याकुमारी]] में स्थित है। इस तीर्थ स्थान की धार्मिक आस्था श्रद्धालुओं को सहज ही अपनी ओर खींच लाती है। इस स्थान पर भव्य 'स्थानुमलयन मंदिर' है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेव- [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] एवं [[शिव|महेश]] को समर्पित है। यह त्रिदेव यहाँ एक लिंग के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। उस काल के कुछ शिलालेख मंदिर में अब भी मौजूद हैं। सत्रहवीं शताब्दी में इस मंदिर को नया रूप दिया गया था। मंदिर में भगवान विष्णु की एक अष्टधातु की प्रतिमा एवं [[हनुमान|पवनपुत्र हनुमान]] की 18 फुट ऊँची प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है। | ||
==पौराणिक कथा== | ==पौराणिक कथा== | ||
*पौराणिक काल में इस स्थान पर 'ज्ञान अरण्य' नामक एक सघन वन था। इसी ज्ञान अरण्य में [[महर्षि अत्रि]] अपनी पत्नी [[अनुसूया]] के साथ रहते थे। अनुसूया महान पतिव्रता स्त्री थी और पति की [[पूजा]] करती थीं। उन्हें एक ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वह किसी भी व्यक्ति का रूप परिवर्तित कर सकती थीं। भगवान [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] और [[महेश]] की पत्नियों को जब उनकी इस शक्ति के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पति से देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने को कहा। उस समय [[ऋषि]] अत्री [[हिमालय]] पर तप करने गए हुए थे। जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश साधु के वेश में ऋषि के [[आश्रम]] पहुँचे और भिक्षा माँगने के लिए आवाज़ लगाई। उस समय देवी अनुसूया [[स्नान]] कर रही थीं। तीनों ने उनसे उसी रूप में बाहर आकर भिक्षा देने को कहा। जहाँ ब्राह्मणों को भिक्षा दिए बिना लौटाना अधर्म था, वहीं ऐसी अवस्था में परपुरुष के सामने आने से पतिव्रत धर्म भंग होता। देवी अनुसूया को तो दोनों धर्मों का निर्वाह करना था। तब उन्होंने अपनी शक्ति के बल पर तीनों ब्राह्मणों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और उसी अवस्था में आकर भिक्षा प्रदान की। जब त्रिमूर्ति के शिशु रूप में परिवर्तित होने का ज्ञान उनकी पत्नियों को हुआ तो वे व्याकुल हो गईं। उन्होंने आश्रम में आकर देवी से क्षमा मांगी। तब उन्होंने उन्हें प्रभावमुक्त किया, लेकिन प्रतीक रूप में उन्हे आश्रम में रहने को कहा। उस समय त्रिमूर्ति ने अपने प्रतीक की स्थापना की, जिसके आधार पर ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा ऊपर शिव हैं। | *पौराणिक काल में इस स्थान पर 'ज्ञान अरण्य' नामक एक सघन वन था। इसी ज्ञान अरण्य में [[महर्षि अत्रि]] अपनी पत्नी [[अनुसूया]] के साथ रहते थे। अनुसूया महान पतिव्रता स्त्री थी और पति की [[पूजा]] करती थीं। उन्हें एक ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वह किसी भी व्यक्ति का रूप परिवर्तित कर सकती थीं। भगवान [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] और [[महेश]] की पत्नियों को जब उनकी इस शक्ति के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पति से देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने को कहा। उस समय [[ऋषि]] अत्री [[हिमालय]] पर तप करने गए हुए थे। जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश साधु के वेश में ऋषि के [[आश्रम]] पहुँचे और भिक्षा माँगने के लिए आवाज़ लगाई। उस समय देवी अनुसूया [[स्नान]] कर रही थीं। तीनों ने उनसे उसी रूप में बाहर आकर भिक्षा देने को कहा। जहाँ ब्राह्मणों को भिक्षा दिए बिना लौटाना अधर्म था, वहीं ऐसी अवस्था में परपुरुष के सामने आने से पतिव्रत धर्म भंग होता। देवी अनुसूया को तो दोनों धर्मों का निर्वाह करना था। तब उन्होंने अपनी शक्ति के बल पर तीनों ब्राह्मणों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और उसी अवस्था में आकर भिक्षा प्रदान की। जब त्रिमूर्ति के शिशु रूप में परिवर्तित होने का ज्ञान उनकी पत्नियों को हुआ तो वे व्याकुल हो गईं। उन्होंने आश्रम में आकर देवी से क्षमा मांगी। तब उन्होंने उन्हें प्रभावमुक्त किया, लेकिन प्रतीक रूप में उन्हे आश्रम में रहने को कहा। उस समय त्रिमूर्ति ने अपने प्रतीक की स्थापना की, जिसके आधार पर ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा ऊपर शिव हैं।<ref name="aa">{{cite web |url=http://www.jagran.com/festivals/suchindram-temple-in-tamilnadu-9619104.html|title=तमिलनाडु का सुचिन्द्रम मन्दिर|accessmonthday=07 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
*एक अन्य कथा के अनुसार [[गौतम ऋषि]] ने देवराज [[इन्द्र]] को शाप दे दिया था। उनके अभिशाप से मुक्ति पाने के लिए देवराज इन्द्र ने यहीं सुचिन्द्रम में तपस्या की और उष्ण घृत से [[स्नान]] कर उन्होंने स्वयं को पाप से मुक्त किया और अर्द्धरात्रि को [[पूजा]] आरंभ की। पूजा संपन्न कर वे पवित्र हुए और देवलोक को प्रस्थान किया। तब से इस स्थान का नाम 'सुचिन्द्रम' पड़ गया। | *एक अन्य कथा के अनुसार [[गौतम ऋषि]] ने देवराज [[इन्द्र]] को शाप दे दिया था। उनके अभिशाप से मुक्ति पाने के लिए देवराज इन्द्र ने यहीं सुचिन्द्रम में तपस्या की और उष्ण घृत से [[स्नान]] कर उन्होंने स्वयं को पाप से मुक्त किया और अर्द्धरात्रि को [[पूजा]] आरंभ की। पूजा संपन्न कर वे पवित्र हुए और देवलोक को प्रस्थान किया। तब से इस स्थान का नाम 'सुचिन्द्रम' पड़ गया। | ||
====आस्था का केन्द्र==== | ====आस्था का केन्द्र==== | ||
सुचिन्द्रम का 'स्थानुमलयन मंदिर' आज त्रिमूर्ति के प्रति आस्था का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। मंदिर में दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना एक वृक्ष है, जिसे [[तमिल भाषा]] में "कोनायडी वृक्ष" कहा जाता है। चमकदार पत्तियों वाले इस वृक्ष का तना खोखला है। इस खोखले भाग में ही त्रिमूर्ति स्थापित है। इस स्थान पर पहली बार मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ था। उस काल के [[शिलालेख]] आज भी यहाँ मौजूद हैं। सुचिन्द्रम कन्याकुमारी से मात्र 13 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह रास्ता [[नारियल]] के कुंचों से भरा हुआ है। | सुचिन्द्रम का 'स्थानुमलयन मंदिर' आज त्रिमूर्ति के प्रति आस्था का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। मंदिर में दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना एक वृक्ष है, जिसे [[तमिल भाषा]] में "कोनायडी वृक्ष" कहा जाता है। चमकदार पत्तियों वाले इस वृक्ष का तना खोखला है। इस खोखले भाग में ही त्रिमूर्ति स्थापित है। इस स्थान पर पहली बार मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ था। उस काल के [[शिलालेख]] आज भी यहाँ मौजूद हैं। सुचिन्द्रम कन्याकुमारी से मात्र 13 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह रास्ता [[नारियल]] के कुंचों से भरा हुआ है।<ref name="aa"/> | ||
==स्थापत्य कला== | ==स्थापत्य कला== | ||
17वीं शताब्दी में मंदिर को एक नया रूप प्रदान किया गया। मंदिर में क़रीब तीस [[पूजा]] स्थल हैं। इनमें से एक स्थान पर भगवान [[विष्णु]] की अष्टधातु प्रतिमा विराजमान है। मंदिर प्रवेश के दाई ओर [[सीता]] और भगवान [[श्रीराम]] की प्रतिमा स्थापित हैं। पास ही पवन पुत्र और राम भक्त [[हनुमान]] की एक 18 फुट ऊँची प्रतिमा है। ऐसी मान्यता है कि इसी विशाल रूप में हनुमान '[[अशोक वाटिका]]' में सीता जी के सामने प्रकट हुए थे और उन्हें श्रीराम की मुद्रिका दिखाई थी। पास ही भगवान [[गणेश]] का मंदिर है, जिसके सामने नवग्रह मंडप है। इस मंडप में नौ ग्रहों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की हुई हैं। मंदिर का सप्तसोपान गोपुरम भी भक्तों को प्रभावित करता है। मंदिर के निकट ही एक सरोवर है, जिसके मध्य एक मंडप है। | 17वीं शताब्दी में मंदिर को एक नया रूप प्रदान किया गया। मंदिर में क़रीब तीस [[पूजा]] स्थल हैं। इनमें से एक स्थान पर भगवान [[विष्णु]] की अष्टधातु प्रतिमा विराजमान है। मंदिर प्रवेश के दाई ओर [[सीता]] और भगवान [[श्रीराम]] की प्रतिमा स्थापित हैं। पास ही पवन पुत्र और राम भक्त [[हनुमान]] की एक 18 फुट ऊँची प्रतिमा है। ऐसी मान्यता है कि इसी विशाल रूप में हनुमान '[[अशोक वाटिका]]' में सीता जी के सामने प्रकट हुए थे और उन्हें श्रीराम की मुद्रिका दिखाई थी। पास ही भगवान [[गणेश]] का मंदिर है, जिसके सामने नवग्रह मंडप है। इस मंडप में नौ ग्रहों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की हुई हैं। मंदिर का सप्तसोपान गोपुरम भी भक्तों को प्रभावित करता है। मंदिर के निकट ही एक सरोवर है, जिसके मध्य एक मंडप है। | ||
अलंगर मंडप में चार संगीतमय स्तंभ हैं। ये अनोखे स्तंभ एक ही चट्टान से बने हैं, लेकिन इनसे [[मृदंग]], [[सितार]], जलतरंग तथा तंबूरे की अलग-अलग [[ध्वनि]] गुंजित होती है। पहले पूजा-अर्चना के समय इन्हीं स्तंभों से [[संगीत]] उत्पन्न किया जाता था। मंदिर में नटराज मंडप भी है। मंदिर में 800 वर्ष पुरानी भगवान [[शिव]] के सेवक [[नंदी]] की विशाल प्रतिमा भी दर्शनीय है। द्वार पर दो द्वारपाल प्रतिमाएँ हैं। मंदिर का गोपुरम 134 फुट ऊँचा है। यह सप्तसोपान गोपुरम मंदिर को अद्भुत भव्यता प्रदान करता है। इस पर बहुत-सी आकर्षक मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। मंदिर के निकट ही एक सुंदर सरोवर है। इसके मध्य में एक छोटा-सा मंडप बना है। | अलंगर मंडप में चार संगीतमय स्तंभ हैं। ये अनोखे स्तंभ एक ही चट्टान से बने हैं, लेकिन इनसे [[मृदंग]], [[सितार]], जलतरंग तथा तंबूरे की अलग-अलग [[ध्वनि]] गुंजित होती है। पहले पूजा-अर्चना के समय इन्हीं स्तंभों से [[संगीत]] उत्पन्न किया जाता था। मंदिर में नटराज मंडप भी है। मंदिर में 800 वर्ष पुरानी भगवान [[शिव]] के सेवक [[नंदी]] की विशाल प्रतिमा भी दर्शनीय है। द्वार पर दो द्वारपाल प्रतिमाएँ हैं। मंदिर का गोपुरम 134 फुट ऊँचा है। यह सप्तसोपान गोपुरम मंदिर को अद्भुत भव्यता प्रदान करता है। इस पर बहुत-सी आकर्षक मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। मंदिर के निकट ही एक सुंदर सरोवर है। इसके मध्य में एक छोटा-सा मंडप बना है।<ref name="aa"/> | ||
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08:51, 7 जून 2013 का अवतरण
सुचिन्द्रम एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है, जो तमिलनाडु के कन्याकुमारी में स्थित है। इस तीर्थ स्थान की धार्मिक आस्था श्रद्धालुओं को सहज ही अपनी ओर खींच लाती है। इस स्थान पर भव्य 'स्थानुमलयन मंदिर' है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को समर्पित है। यह त्रिदेव यहाँ एक लिंग के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। उस काल के कुछ शिलालेख मंदिर में अब भी मौजूद हैं। सत्रहवीं शताब्दी में इस मंदिर को नया रूप दिया गया था। मंदिर में भगवान विष्णु की एक अष्टधातु की प्रतिमा एवं पवनपुत्र हनुमान की 18 फुट ऊँची प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है।
पौराणिक कथा
- पौराणिक काल में इस स्थान पर 'ज्ञान अरण्य' नामक एक सघन वन था। इसी ज्ञान अरण्य में महर्षि अत्रि अपनी पत्नी अनुसूया के साथ रहते थे। अनुसूया महान पतिव्रता स्त्री थी और पति की पूजा करती थीं। उन्हें एक ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वह किसी भी व्यक्ति का रूप परिवर्तित कर सकती थीं। भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पत्नियों को जब उनकी इस शक्ति के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पति से देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने को कहा। उस समय ऋषि अत्री हिमालय पर तप करने गए हुए थे। जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश साधु के वेश में ऋषि के आश्रम पहुँचे और भिक्षा माँगने के लिए आवाज़ लगाई। उस समय देवी अनुसूया स्नान कर रही थीं। तीनों ने उनसे उसी रूप में बाहर आकर भिक्षा देने को कहा। जहाँ ब्राह्मणों को भिक्षा दिए बिना लौटाना अधर्म था, वहीं ऐसी अवस्था में परपुरुष के सामने आने से पतिव्रत धर्म भंग होता। देवी अनुसूया को तो दोनों धर्मों का निर्वाह करना था। तब उन्होंने अपनी शक्ति के बल पर तीनों ब्राह्मणों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और उसी अवस्था में आकर भिक्षा प्रदान की। जब त्रिमूर्ति के शिशु रूप में परिवर्तित होने का ज्ञान उनकी पत्नियों को हुआ तो वे व्याकुल हो गईं। उन्होंने आश्रम में आकर देवी से क्षमा मांगी। तब उन्होंने उन्हें प्रभावमुक्त किया, लेकिन प्रतीक रूप में उन्हे आश्रम में रहने को कहा। उस समय त्रिमूर्ति ने अपने प्रतीक की स्थापना की, जिसके आधार पर ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा ऊपर शिव हैं।[1]
- एक अन्य कथा के अनुसार गौतम ऋषि ने देवराज इन्द्र को शाप दे दिया था। उनके अभिशाप से मुक्ति पाने के लिए देवराज इन्द्र ने यहीं सुचिन्द्रम में तपस्या की और उष्ण घृत से स्नान कर उन्होंने स्वयं को पाप से मुक्त किया और अर्द्धरात्रि को पूजा आरंभ की। पूजा संपन्न कर वे पवित्र हुए और देवलोक को प्रस्थान किया। तब से इस स्थान का नाम 'सुचिन्द्रम' पड़ गया।
आस्था का केन्द्र
सुचिन्द्रम का 'स्थानुमलयन मंदिर' आज त्रिमूर्ति के प्रति आस्था का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। मंदिर में दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना एक वृक्ष है, जिसे तमिल भाषा में "कोनायडी वृक्ष" कहा जाता है। चमकदार पत्तियों वाले इस वृक्ष का तना खोखला है। इस खोखले भाग में ही त्रिमूर्ति स्थापित है। इस स्थान पर पहली बार मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ था। उस काल के शिलालेख आज भी यहाँ मौजूद हैं। सुचिन्द्रम कन्याकुमारी से मात्र 13 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह रास्ता नारियल के कुंचों से भरा हुआ है।[1]
स्थापत्य कला
17वीं शताब्दी में मंदिर को एक नया रूप प्रदान किया गया। मंदिर में क़रीब तीस पूजा स्थल हैं। इनमें से एक स्थान पर भगवान विष्णु की अष्टधातु प्रतिमा विराजमान है। मंदिर प्रवेश के दाई ओर सीता और भगवान श्रीराम की प्रतिमा स्थापित हैं। पास ही पवन पुत्र और राम भक्त हनुमान की एक 18 फुट ऊँची प्रतिमा है। ऐसी मान्यता है कि इसी विशाल रूप में हनुमान 'अशोक वाटिका' में सीता जी के सामने प्रकट हुए थे और उन्हें श्रीराम की मुद्रिका दिखाई थी। पास ही भगवान गणेश का मंदिर है, जिसके सामने नवग्रह मंडप है। इस मंडप में नौ ग्रहों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की हुई हैं। मंदिर का सप्तसोपान गोपुरम भी भक्तों को प्रभावित करता है। मंदिर के निकट ही एक सरोवर है, जिसके मध्य एक मंडप है।
अलंगर मंडप में चार संगीतमय स्तंभ हैं। ये अनोखे स्तंभ एक ही चट्टान से बने हैं, लेकिन इनसे मृदंग, सितार, जलतरंग तथा तंबूरे की अलग-अलग ध्वनि गुंजित होती है। पहले पूजा-अर्चना के समय इन्हीं स्तंभों से संगीत उत्पन्न किया जाता था। मंदिर में नटराज मंडप भी है। मंदिर में 800 वर्ष पुरानी भगवान शिव के सेवक नंदी की विशाल प्रतिमा भी दर्शनीय है। द्वार पर दो द्वारपाल प्रतिमाएँ हैं। मंदिर का गोपुरम 134 फुट ऊँचा है। यह सप्तसोपान गोपुरम मंदिर को अद्भुत भव्यता प्रदान करता है। इस पर बहुत-सी आकर्षक मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। मंदिर के निकट ही एक सुंदर सरोवर है। इसके मध्य में एक छोटा-सा मंडप बना है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 तमिलनाडु का सुचिन्द्रम मन्दिर (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 07 जून, 2013।
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