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सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा? | सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 62 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
*कुंती को कर्ण के समक्ष जाकर उसे [[पुत्र]] कहकर पुकारने का साहस नहीं था। वह प्रतिदिन सोचती थी कि अब कर्ण को सब कुछ बताये बिना काम नहीं चलेगा। किंतु, कर्ण की ओर जाने का उसे साहस नहीं होता था। आखिरकार जब युद्धारम्भ को मात्र एक [[दिन]] रह गया, तब वह सारी शक्ति समेट कर कर्ण के पास गयी और बोली कि 'तू मेरा बेटा और पाण्डवों का भाई है, अतएव इस युद्ध में इन्हीं का नेता बन।' | *कुंती को कर्ण के समक्ष जाकर उसे [[पुत्र]] कहकर पुकारने का साहस नहीं था। वह प्रतिदिन सोचती थी कि अब कर्ण को सब कुछ बताये बिना काम नहीं चलेगा। किंतु, कर्ण की ओर जाने का उसे साहस नहीं होता था। आखिरकार जब युद्धारम्भ को मात्र एक [[दिन]] रह गया, तब वह सारी शक्ति समेट कर कर्ण के पास गयी और बोली कि 'तू मेरा बेटा और पाण्डवों का भाई है, अतएव इस युद्ध में इन्हीं का नेता बन।' | ||
‘‘राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है, | ‘‘राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है, | ||
जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है। | जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है। | ||
तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है, | तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है, | ||
अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है। | अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 65 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
*कर्ण ने कुंती को उससे भी कडा उत्तर दिया, जैसा उसने भगवान कृष्ण को दिया था। | *कर्ण ने कुंती को उससे भी कडा उत्तर दिया, जैसा उसने भगवान कृष्ण को दिया था। | ||
डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके, | डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके, | ||
कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके। | कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके। | ||
राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से, | राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से, | ||
‘‘तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ? | ‘‘तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 68 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
*कुंती बेचारी निरुत्तर हो गयी और यह कह कर जाने लगी कि 'सुनती थी कि तू बड़ा ही दानी है, किंतु आज माता को ही भीख नहीं मिली।' यह सुनते ही कर्ण का वीर हृदय द्रवित हो गया और उसने कहा कि 'यदि मेरे द्वार से कोई खाली हाथ नहीं जाता है, तो तुम भी निराश नहीं जाओगी। लो, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि [[अर्जुन]] के सिवा अन्य पाण्डवों को हाथ आया पाकर भी मैं उनका वध नहीं करूँगा। | *कुंती बेचारी निरुत्तर हो गयी और यह कह कर जाने लगी कि 'सुनती थी कि तू बड़ा ही दानी है, किंतु आज माता को ही भीख नहीं मिली।' यह सुनते ही कर्ण का वीर हृदय द्रवित हो गया और उसने कहा कि 'यदि मेरे द्वार से कोई खाली हाथ नहीं जाता है, तो तुम भी निराश नहीं जाओगी। लो, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि [[अर्जुन]] के सिवा अन्य पाण्डवों को हाथ आया पाकर भी मैं उनका वध नहीं करूँगा। | ||
‘‘पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा, | ‘‘पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा, | ||
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा। | पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा। | ||
अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में, | अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में, | ||
पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।’’ | पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।’’<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 80 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
*हाँ, अर्जुन हाथ आया तो उसे जीवित छोड़ना मेरे वश की बात नहीं है।' कुंती बोली, 'यह दान भी कोई दान है? मैं छ: बेटों की माता बनने को आयी थी, सो अब पाँच भी नहीं रहे, केवल चार बेटों की माता बनकर वापस जा रही हूँ।' | *हाँ, अर्जुन हाथ आया तो उसे जीवित छोड़ना मेरे वश की बात नहीं है।' कुंती बोली, 'यह दान भी कोई दान है? मैं छ: बेटों की माता बनने को आयी थी, सो अब पाँच भी नहीं रहे, केवल चार बेटों की माता बनकर वापस जा रही हूँ।' | ||
"पाकर न एक को, और एक को खोकर, | "पाकर न एक को, और एक को खोकर, | ||
मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।’’ | मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।’’ | ||
कह उठा कर्ण, ‘‘छह और चार को भूलो, | कह उठा कर्ण, ‘‘छह और चार को भूलो, | ||
माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो। | माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 80 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
*इस पर कर्ण भावुकता में आ गया और बोला, 'छ्ह और चार का हिसाब गलत है माँ, तुम जब तक जियोगी, पाँच बेटों की माता बनी रहोगी। इस युद्ध में यदि अर्जुन ने मुझे मार डाला तो पाँच पाण्डव ज्यों के त्यों बने रहेंगे। हाँ, यदि अर्जुन मरा और विजय [[दुर्योधन]] की हुई तो मैं दुर्याधन का पक्ष छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा, जिससे पाण्डवों की संख्या पाँच-की-पाँच ही रह जाय।... किन्तु मैं यह व्यर्थ कह रहा हूँ। जिसके रक्षक स्वयं कृष्ण हैं, उसका विनाश क्यों होगा?' | *इस पर कर्ण भावुकता में आ गया और बोला, 'छ्ह और चार का हिसाब गलत है माँ, तुम जब तक जियोगी, पाँच बेटों की माता बनी रहोगी। इस युद्ध में यदि अर्जुन ने मुझे मार डाला तो पाँच पाण्डव ज्यों के त्यों बने रहेंगे। हाँ, यदि अर्जुन मरा और विजय [[दुर्योधन]] की हुई तो मैं दुर्याधन का पक्ष छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा, जिससे पाण्डवों की संख्या पाँच-की-पाँच ही रह जाय।... किन्तु मैं यह व्यर्थ कह रहा हूँ। जिसके रक्षक स्वयं कृष्ण हैं, उसका विनाश क्यों होगा?' | ||
‘‘पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता, | ‘‘पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता, | ||
वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता, | वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता, | ||
मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा, | मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा, | ||
जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा। | जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 80 | chapter =पंचम सर्ग}}</ref> | ||
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रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है- | रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है- | ||
<poem> मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे | <poem> मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे | ||
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल | पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे। | ||
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, | जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, | ||
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem> | मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 57 | chapter =चतुर्थ सर्ग}}</ref><ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem> | ||
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रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। पंचम सर्ग की कथा इस प्रकार है -
पंचम सर्ग
- जब कृष्ण के समझाने पर कर्ण नहीं माना और वह पाण्डवों के पक्ष में आने को तैयार नहीं हुआ, तब वही प्रस्ताव लेकर कुंती उसके पास गयी।
सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में।
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?[1]
- कुंती को कर्ण के समक्ष जाकर उसे पुत्र कहकर पुकारने का साहस नहीं था। वह प्रतिदिन सोचती थी कि अब कर्ण को सब कुछ बताये बिना काम नहीं चलेगा। किंतु, कर्ण की ओर जाने का उसे साहस नहीं होता था। आखिरकार जब युद्धारम्भ को मात्र एक दिन रह गया, तब वह सारी शक्ति समेट कर कर्ण के पास गयी और बोली कि 'तू मेरा बेटा और पाण्डवों का भाई है, अतएव इस युद्ध में इन्हीं का नेता बन।'
‘‘राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,
जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।
तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,
अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।[2]
- कर्ण ने कुंती को उससे भी कडा उत्तर दिया, जैसा उसने भगवान कृष्ण को दिया था।
डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,
कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।
राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,
‘‘तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?[3]
- कुंती बेचारी निरुत्तर हो गयी और यह कह कर जाने लगी कि 'सुनती थी कि तू बड़ा ही दानी है, किंतु आज माता को ही भीख नहीं मिली।' यह सुनते ही कर्ण का वीर हृदय द्रवित हो गया और उसने कहा कि 'यदि मेरे द्वार से कोई खाली हाथ नहीं जाता है, तो तुम भी निराश नहीं जाओगी। लो, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अर्जुन के सिवा अन्य पाण्डवों को हाथ आया पाकर भी मैं उनका वध नहीं करूँगा।
‘‘पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।
अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,
पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।’’[4]
- हाँ, अर्जुन हाथ आया तो उसे जीवित छोड़ना मेरे वश की बात नहीं है।' कुंती बोली, 'यह दान भी कोई दान है? मैं छ: बेटों की माता बनने को आयी थी, सो अब पाँच भी नहीं रहे, केवल चार बेटों की माता बनकर वापस जा रही हूँ।'
"पाकर न एक को, और एक को खोकर,
मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।’’
कह उठा कर्ण, ‘‘छह और चार को भूलो,
माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।[5]
- इस पर कर्ण भावुकता में आ गया और बोला, 'छ्ह और चार का हिसाब गलत है माँ, तुम जब तक जियोगी, पाँच बेटों की माता बनी रहोगी। इस युद्ध में यदि अर्जुन ने मुझे मार डाला तो पाँच पाण्डव ज्यों के त्यों बने रहेंगे। हाँ, यदि अर्जुन मरा और विजय दुर्योधन की हुई तो मैं दुर्याधन का पक्ष छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा, जिससे पाण्डवों की संख्या पाँच-की-पाँच ही रह जाय।... किन्तु मैं यह व्यर्थ कह रहा हूँ। जिसके रक्षक स्वयं कृष्ण हैं, उसका विनाश क्यों होगा?'
‘‘पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,
वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,
मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा,
जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।[6]
कर्ण-चरित
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[7][8]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 62।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 65।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 68।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 80।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 80।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “पंचम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 80।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
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