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ज्ञानयोग -स्वामी विवेकानन्द
'ज्ञानयोग' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
'ज्ञानयोग' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
लेखक स्वामी विवेकानन्द
मूल शीर्षक ज्ञानयोग
अनुवादक ब्रह्मेन्द्र शर्मा, एम. ए. शास्त्री, अमल सरकार और एम.ए. कोविद
प्रकाशक रामकृष्ण मठ
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2007
देश भारत
भाषा हिंदी
विषय दर्शन
मुखपृष्ठ रचना अजिल्द
विशेष स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेदान्त पर दिये गये भाषाणों का संग्रह ‘ज्ञानयोग’ है।

ज्ञान योग स्वंज्ञान अर्थात स्वयं का जानकारी प्राप्त करने को कहते है। ये अपनी और अपनी परिवेश को अनुभव करने के माध्यम से समझना है। स्वामी विवेकानन्द के ज्ञानयोग सम्बन्धित व्याख्यान, उपदेशों तथा लेखों को लिपिबद्ध कर 'ज्ञानयोग' पुस्तक में संकलित किया है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेदान्त पर दिये गये भाषाणों का संग्रह ‘ज्ञानयोग’ है। इन व्याख्यानों में श्री स्वामीजी ने वेदान्त के गूढ़ तत्त्वों की ऐसे सरल, स्पष्ट तथा सुन्दर रूप से विवेचना की है कि आजकल के शिक्षित जनसमुदाय को ये खूब जँच जाते हैं। उन्होंने यह दर्शाया है कि वैयक्तिक तथा सामुदायिक जीवन-गठन में वेदान्त किस प्रकार सहायक होता है। मनुष्य के विचारों का उच्चतम स्तर वेदान्त है और इसी की ओर संसार की समस्त विचारधाराएँ शनैःशनैः प्रवाहित हो रही हैं। अन्त में वे सब वेदान्त में ही लीन होंगी। स्वामीजी ने यह भी दर्शाया है कि मनुष्य के दैवी स्वरूप पर वेदान्त कितना ज़ोर देता है और किस प्रकार इसी में समस्त विश्व की आशा, कल्याण एवं शान्ति निहित है और हमें पूर्ण विश्वास है कि वेदान्त तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमियों को इस पुस्तक से विशेष लाभ होगा।

धर्म की आवश्यकता

मानव जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सब में धर्म के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं न कहीं यही अद्धुत शक्ति काम करती रही है, तथा अब तक मानवता की विविध इकाइयों को संगठित करने वाली सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुई है। हम सभी जानते हैं कि धर्मिक एकता का सम्बन्ध प्रायः जातिगत, जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजने वाले तथा एक धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति से एक-दूसरे का साथ देते हैं, वह एक ही वंश के लोगों की बात ही क्या, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलता। धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं। अब तक हमें जितने प्राचीन धर्मों का ज्ञान है वे सब एक यह दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं, मानो उनका उद्भव मानव-मस्तिष्क से नहीं बल्कि उस स्रोत से हुआ है, जो उसके बाहर है। आधुनिक विद्वान दो सिदान्तों के बारे में कुछ अंश तक सहमत हैं। एक है धर्म का आत्मामूलक सिद्धान्त और दूसरा असीम की धारणा का विकासमूलक सिद्धान्त। पहले सिद्धान्त के अनुसार पूर्वजों की पूजा से ही धार्मिक भावना का विकास हुआ। मनुष्य अपने दिवंगत सम्बन्धियों की समृति सजीव रखना चाहता है, और सोचता है कि यद्यपि उनके शरीर नष्ट हो चुके, फिर भी वे जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिए खाद्य पदार्थ रखना तथा एक अर्थ में उनकी पूजा करना चाहता है। मनुष्य की इसी भावना से धर्म का विकास हुआ।
मिस्र, बेबिलोन, चीन तथा अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मों के अध्ययन से ऐसे-स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि पितर-पूजा से ही धर्म का अविर्भाव हुआ है। प्राचीन मिस्रवादियों की आत्मा-सम्बन्धी धारणा द्वित्वमूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव-शरीर के भीतर एक और जीव रहता है जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है। किन्तु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर सुरक्षित रहता है।[1]

द्वितीय संस्करण

प्रस्तुत संस्करण में, मूल अंग्रेज़ी ‘ज्ञानयोग’ का अनुसरण करते हुए, ‘धर्म की आवश्यकता’, ‘आत्मा’, और ‘आत्माः उसके बन्धन तथा मुक्ति’ ये तीन आख्यान जोड़ दिये गये हैं। ये तीनों व्याख्यान अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित ‘विवेकानन्द साहित्य’ में से संकलित किये गये हैं।

प्रकाशक की ओर से

इस पुस्तक के अधिकांश भाग का अनुवाद बनारस के श्री ब्रह्मेन्द्र शर्मा, एम. ए. शास्त्री ने किया है और कुछ अंश का श्री अमल सरकार, एम.ए. कोविद, कलकत्ता ने किया है। इन दोनों मित्रों की इस सहायता के लिए हम उनके बड़े कृतज्ञ हैं। डॉ. पं. विद्याभास्करजी शुक्ल, एम. एस–सी., पी-एच. डी. कालेज ऑफ साइन्स नागपुर के भी हम बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के प्रूफ-संशोधन कार्य में हमें बड़ी सहायता दी है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञानयोग (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 16 जनवरी, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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