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कर्मयोग -स्वामी विवेकानन्द
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लेखक | स्वामी विवेकानन्द |
मूल शीर्षक | कर्मयोग |
अनुवादक | डॉ. विद्याभास्करजी शु्क्ल |
प्रकाशक | रामकृष्ण मठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2007 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
विशेष | इस पुस्तक में उनके जो व्याख्यान संकलित किए गये हैं, उनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य-जीवन को गढ़ना ही है। |
‘कर्मयोग’ स्वामी विवेकानन्द जी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में उनके जो व्याख्यान संकलित किए गये हैं, उनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य-जीवन को गढ़ना ही है। इन व्याख्याओं को पढ़ने से ज्ञात होगा कि स्वामीजी के विचार किस उच्च कोटि के तथा हमारे जीवन के लिए कितने उपयोगी रहे हैं। आज की परिस्थिति में संसार के लिए कर्मयोग का असली रूप समझ लेना बहुत आवश्यक है और विशेष कर भारतवर्ष के लिए। पं. डॉ. विद्याभास्करजी शु्क्ल, एम.एस.सी, पीएच.डी., प्रोफेसर, कॉलेज ऑफ साइन्स, नागपुर के प्रति हम परम कृतज्ञ हैं जिन्होंने इस पुस्तक का मूल अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया है। इस पुस्तक में मूल ग्रंथ का ओज, उसकी शैली तथा भाव ज्यों के त्यों रखे गए हैं।
कर्मयोग
कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से निकला है; ‘कृ’ धातु का अर्थ है करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ ‘कर्मफल’ भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाय, तो इसका अर्थ कभी -कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। परंतु कर्मयोग में ‘कर्म’ शब्द से हमारा मतलब केवल ‘कार्य’ ही है। मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। प्राच्य दर्शनशास्त्र हमारे सम्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता है। मनुष्य का अन्तिम ध्येय सुख नहीं वरन् ज्ञान है; क्योंकि सुख और आनन्द का तो एक न एक दिन अन्त हो ही जाता है। अतः यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है।
संसार में सब दुःखों का मूल यही है कि मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन् ज्ञान है, तथा सुख और दुःख दोनों ही महान् शिक्षक हैं, और जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती है, उतनी दुःख से भी। सुख और दुःख ज्यों- ज्यों आत्मा पर से होकर जाते रहते हैं, त्यों त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हैं। और इन चित्रों अथवा संस्कारों की समष्टि के फल को ही हम मानव का ‘चरित्र’ कहते हैं। यदि तुम किसी मनुष्य का चरित्र देखो, तो प्रतीत होगा कि वह उसका मानसिक प्रवृत्तियों एवं मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। तुम यह भी देखोगे कि उसके चरित्रगठन में सुख और दुःख दोनों ही समान रूप से उपादानस्वरूप है। चरित्र को एक विशिष्ट ढाँचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहता है, और कभी -कभी तो दुःख सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता है। यदि हम संसार के महापुरुषों के चरित्र का अध्ययन करें, तो मैं कह सकता हूँ कि अधिकांश दशाओं में हम यही देखेंगे कि सुख की अपेक्षा दुःख ने तथा सम्पत्ति की अपेक्षा दारिद्रय ने ही उन्हें अधिक शिक्षा दी है एवं प्रशंसा की अपेक्षा निंदारूपी आघात ने ही उसकी अन्तःस्थ ज्ञानाग्नि को अधिक प्रस्फुरित किया है। [1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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