"आधुनिक काल में लोकविश्वास": अवतरणों में अंतर
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बीसवीं शती के प्रारंभ में ही इस अंचल की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव दिखाई पड़ता है। [[मैथिलीशरण गुप्त]] के राष्ट्रीय मुक्तक 1903-04 ई. में रचे गये थे। 1907-08 ई. में उनके [[मुक्तक]] और [[गीत]] लोकप्रिय हो चुके थे। 1912-14 ई. में भारत-भारती के मुक्तक एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ चुके थे। तात्पर्य यह है कि दूसरे दशक से एक नये परिवर्तन का चरण अपने अंगदी पाँव रोप चुका था। दो दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट थीं-एक तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा दूसरी वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का लोकजीवन में प्रभाव। फलस्वरूप लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ। एक तरफ रुढिबद्ध लोकविश्वासों का विरेध किया गया, तो दूसरी तकफ नये लोकविश्वासों का प्रसव प्रारंभ हुआ। पुराने और नये के बीच द्विविधा का भाव भी नयी मानसिकता की तीसरी दिशा थी। लोककाव्य में राष्ट्रीय चेतना की धारा 1842 ई. की पारीछत की अंग्रेज़ों से लड़ाई के बाद ही फूट चुकी थी और [[बुंदेलखंड]] के हरबोलों ने 1857 ई. के पहले घर-घर और गाँव-गाँव जाकर उसे प्रवाहित कर दिया था। ईसुरी के पहले खान फकीरे, दादूराम और गंगासिंह ने सत्तावन के संघर्ष का वर्णन किया था।<ref>सुराज, म. प्र. आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल, बुंदेली लोकगीत के अंतर्गत संकलित</ref> सन् [[1942]] एवं [[1947]] के गीतों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। [[महात्मा गांधी]], [[सुभाष चन्द्र बोस|सुभाष]] और [[चरखा]], खादी, [[स्वदेशी आंदोलन]], राजाओं का अत्याचार, स्वराज्य-प्राप्ति आदि उनके प्रमुख विषय रहे हैं। महात्मा गांधी के लिए [[अवतार]] का परम्परित लोकविश्वास इस समय भी लोकमुख में रहा है। स्वर्ग और मोक्ष के स्थान पर यश छा गया है। परम्परित लोकविश्वासों में मानव का क्षणभंगुरता (इक दिन चलो सबई कों जानें), राम ही रक्षक है (कीको को है संग सहेला, रक्षक राम अकेला), मानव का शरीर दुर्लभ है (गंगा फिर पाई ना पाई दुरलभ देइया मानस की), जन्मभूमि इंद्रपुरी (स्वर्ग) से भी बढ़कर है, अब [[सतयुग]] चला गया और [[कलियुग]] आ गया है (आ गओ अब कलजुग को पारो, सतजुग दै गओ टारो) आदि आज भी मान्य हैं, लेकिन रुढियों के प्रति विद्रोह भी जारी है- | बीसवीं शती के प्रारंभ में ही इस अंचल की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव दिखाई पड़ता है। [[मैथिलीशरण गुप्त]] के राष्ट्रीय मुक्तक 1903-04 ई. में रचे गये थे। 1907-08 ई. में उनके [[मुक्तक]] और [[गीत]] लोकप्रिय हो चुके थे। 1912-14 ई. में भारत-भारती के मुक्तक एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ चुके थे। तात्पर्य यह है कि दूसरे दशक से एक नये परिवर्तन का चरण अपने अंगदी पाँव रोप चुका था। दो दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट थीं-एक तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा दूसरी वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का लोकजीवन में प्रभाव। फलस्वरूप लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ। एक तरफ रुढिबद्ध लोकविश्वासों का विरेध किया गया, तो दूसरी तकफ नये लोकविश्वासों का प्रसव प्रारंभ हुआ। पुराने और नये के बीच द्विविधा का भाव भी नयी मानसिकता की तीसरी दिशा थी। लोककाव्य में राष्ट्रीय चेतना की धारा 1842 ई. की पारीछत की अंग्रेज़ों से लड़ाई के बाद ही फूट चुकी थी और [[बुंदेलखंड]] के हरबोलों ने 1857 ई. के पहले घर-घर और गाँव-गाँव जाकर उसे प्रवाहित कर दिया था। ईसुरी के पहले खान फकीरे, दादूराम और गंगासिंह ने सत्तावन के संघर्ष का वर्णन किया था।<ref>सुराज, म. प्र. आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल, बुंदेली लोकगीत के अंतर्गत संकलित</ref> सन् [[1942]] एवं [[1947]] के गीतों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। [[महात्मा गांधी]], [[सुभाष चन्द्र बोस|सुभाष]] और [[चरखा]], खादी, [[स्वदेशी आंदोलन]], राजाओं का अत्याचार, स्वराज्य-प्राप्ति आदि उनके प्रमुख विषय रहे हैं। महात्मा गांधी के लिए [[अवतार]] का परम्परित लोकविश्वास इस समय भी लोकमुख में रहा है। स्वर्ग और मोक्ष के स्थान पर यश छा गया है। परम्परित लोकविश्वासों में मानव का क्षणभंगुरता (इक दिन चलो सबई कों जानें), राम ही रक्षक है (कीको को है संग सहेला, रक्षक राम अकेला), मानव का शरीर दुर्लभ है (गंगा फिर पाई ना पाई दुरलभ देइया मानस की), जन्मभूमि इंद्रपुरी (स्वर्ग) से भी बढ़कर है, अब [[सतयुग]] चला गया और [[कलियुग]] आ गया है (आ गओ अब कलजुग को पारो, सतजुग दै गओ टारो) आदि आज भी मान्य हैं, लेकिन रुढियों के प्रति विद्रोह भी जारी है- | ||
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09:44, 30 मार्च 2015 का अवतरण
लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है।
बीसवीं शती के प्रारंभ में ही इस अंचल की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव दिखाई पड़ता है। मैथिलीशरण गुप्त के राष्ट्रीय मुक्तक 1903-04 ई. में रचे गये थे। 1907-08 ई. में उनके मुक्तक और गीत लोकप्रिय हो चुके थे। 1912-14 ई. में भारत-भारती के मुक्तक एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ चुके थे। तात्पर्य यह है कि दूसरे दशक से एक नये परिवर्तन का चरण अपने अंगदी पाँव रोप चुका था। दो दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट थीं-एक तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा दूसरी वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का लोकजीवन में प्रभाव। फलस्वरूप लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ। एक तरफ रुढिबद्ध लोकविश्वासों का विरेध किया गया, तो दूसरी तकफ नये लोकविश्वासों का प्रसव प्रारंभ हुआ। पुराने और नये के बीच द्विविधा का भाव भी नयी मानसिकता की तीसरी दिशा थी। लोककाव्य में राष्ट्रीय चेतना की धारा 1842 ई. की पारीछत की अंग्रेज़ों से लड़ाई के बाद ही फूट चुकी थी और बुंदेलखंड के हरबोलों ने 1857 ई. के पहले घर-घर और गाँव-गाँव जाकर उसे प्रवाहित कर दिया था। ईसुरी के पहले खान फकीरे, दादूराम और गंगासिंह ने सत्तावन के संघर्ष का वर्णन किया था।[1] सन् 1942 एवं 1947 के गीतों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। महात्मा गांधी, सुभाष और चरखा, खादी, स्वदेशी आंदोलन, राजाओं का अत्याचार, स्वराज्य-प्राप्ति आदि उनके प्रमुख विषय रहे हैं। महात्मा गांधी के लिए अवतार का परम्परित लोकविश्वास इस समय भी लोकमुख में रहा है। स्वर्ग और मोक्ष के स्थान पर यश छा गया है। परम्परित लोकविश्वासों में मानव का क्षणभंगुरता (इक दिन चलो सबई कों जानें), राम ही रक्षक है (कीको को है संग सहेला, रक्षक राम अकेला), मानव का शरीर दुर्लभ है (गंगा फिर पाई ना पाई दुरलभ देइया मानस की), जन्मभूमि इंद्रपुरी (स्वर्ग) से भी बढ़कर है, अब सतयुग चला गया और कलियुग आ गया है (आ गओ अब कलजुग को पारो, सतजुग दै गओ टारो) आदि आज भी मान्य हैं, लेकिन रुढियों के प्रति विद्रोह भी जारी है-
कैसी छाई हिये नादानी, करत सदा मनमानी।
खीर खांड़ को पिंड खाँय को देत बनाकर सानी।
ढोर समान मान पित्रन कों देत तलैया पानी।
जियों पिता की बात न पूँछी मरें भये बरदानी।
'बलदेव' तजो पोप लीला कों तुम सों कहत बखानी।। 1।।
का मिल जात पथरिया पूजें, तुम्हें कछू नी सूजें।
पूजन करत सदा जड़ केरो, जड़ बुद्धी बन गूँजें ।। 2।।
उक्त पंक्तियों में पिंड देना, तर्पण करना, पत्थर पूजना आदि को पोप लीला या पाखंड बताकर उसके विरुद्ध विद्रोह किया गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों से आयी बौद्धिकता ने पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं। फिर भी कुछ वर्गों में परम्परित लोकविश्वास जमे हुए हैं। इस दृष्टि से इस अंचल में तीन प्रकार के वर्ग बनाये जा सकते हैं-
- परम्परित लोकविश्वासों के अनुयायी, जिन्हें हम परम्परावादी कह सकते हैं
- रूढिबद्ध लोकविश्वासों या अंधविश्वासों के विरोधी तथा परम्परित लोकविस्वासों को मान्यता देने वाले, जिन्हें हम परम्पराशील मान सकते हैं
- पुराने लोकविश्वासों के स्थान पर नये लोकविश्वासों के समर्थक, जिन्हें परंपरामुक्त या स्वच्छंद के रूप में अभिहित किया जा सकता है।
इस तरह लोकमन के तीन रूप हैं- एक जो परम्परा को सबकुछ मानकर चलता है, दूसरा वह जो बिल्कुल स्वच्छंद है और तीसरा वह जो समन्वयवादी होकर उपयोगी पुराने को ग्रहण करता है और नये को समर्थन देता है। वस्तुत: लोकविश्वास इतने अधिक और इतने विविध हैं कि उन्हें वर्गबद्ध करना कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न वर्गीकरण किया गया है-
- मानव और जगत् संबंधी लोकविश्वास
- प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास
- धार्मिक लोकविश्वास
- अतिप्राकृत लोकविश्वास
- कृषि-संबंधी लोकविश्वास
- ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास
- घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास
- शकुनापशकुन
- स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास
- नीतिपरक लोकविश्वास
- अंधविश्वास
मानव और जगत्-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- मनुष्य की योनि श्रेष्ठ है।
- संसार के प्राणी और वस्तुएँ नश्वर हैं।
- कर्म का फल मिलता है, सुकर्मों से कीर्ति मिलती है।
- अर्द्धप्रचलित
- ब्रह्मा सृष्टि की रचना, विष्णु उसका पोषण और महेश संहार करते हैं।
- इस जन्म में किये कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है।
- जगत् की सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा से पैदा हौती, घटती-बढ़ती और नष्ट होती हैं।
- अप्रचलित
प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- वृक्षों में जीवन होता है।
- फलदार वृक्षों को सींचना पुण्य है।
- तुलसी, पीपल, आँवला, केला और वट की पूजा से इच्छा की पूर्ति होती है।
- अर्द्धप्रचलित
- वृक्ष के पत्ते रात में तोड़ना पाप है।
- मोरपंख से सपने नहीं आते।
- चींटियाँ और मछलियाँ चुगाने से पुण्य होता है।
- कौआ घर की मुँड़ेर पर बोलकर किसी के आगमन की सूचना देता है।
- मृत्यु के समय गंगाजल और तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष मिलता है।
- अप्रचलित
- आँवले की पूजा से पाप-नाश होता है।
- गाय की पूजा से मोक्ष मिलता है।
- चिड़िया के धूल में लोटने से वर्षा होती है।
- मछली के दाँत गले में पहनाने से बच्चे के दाँत जल्दी निकल आते हैं।
- बेरी वृक्ष में भूत का वास होता है।
धार्मिक लोकविश्वास
- प्रचलित
- देवी-देवताओं की पूजा से इच्छा की पूर्ति होती है।
- शुभ अवसरों पर देवताओं की पूजा और निमंत्रण से कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं।
- आत्मा अमर है।
- जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है।
- पुनर्जन्म होता है।
- गंगा-स्नान सबको पवित्र कर देता है।
- तीर्थ-यात्रा और पर्व-स्नान से पुण्य मिलता है।
- अर्द्धप्रचलित
- प्रसाद चढ़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं।
- व्रत-उपवास का फल मिलता है।
- कथा और भजन-कीर्तन से जीवन पवित्र होता है।
- वृक्ष-पूजा, तीर्थ-यात्रा, भूखे को भोजन देने और अनाथ की सहायता करने से पुण्य होता है।
- अप्रचलित
- नर या पशु-बलि से देवता प्रसन्न होते हैं।
- देवी-देवता वेश बदल कर विचरण करते हैं।
- देवताओं की सवारी आधी रात के बाद निकलती है।
- जप-तप से मोक्ष मिलता है।
- पाप करने से नरक मिलता है।
अतिप्राकृत लोकविश्वास
- प्रचलित
- भूत-प्रेत किसी पुराने वृक्ष, पुरानी बेहर और पुराने खाली पड़े मकान में वास करते हैं।
- भूत-प्रेत तरह-तरह के कृत्यों से व्यक्ति को तंग करते हैं।
- भूत-प्रेत या चुड़ैल से बचने के लिए अग्नि या लोहा रखना और तंत्रों या मंत्रों का प्रयोग लाभकारी होता है।
- अर्द्धप्रचलित
- अकाल मृत्यु होने पर प्रेतयोनि मिलती है।
- गड़े धन की चिन्ता में मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति भूत बन जाता है।
- भूत खजाने या सम्पत्ति की रक्षा करते हैं और अनधिकृत व्यक्ति को तंग करते हैं।
- अप्रचलित
- चुड़ैल व्यक्ति का खून पीती है।
- प्रेतात्मा या चुड़ैल शेर या शेरनी का रूप रखकर बदले की भावना से हमला करते हैं और मार डालते हैं।
- भूत-प्रेत या चुड़ैल को किसी पात्र में बंदकर गाड़ देते हैं।
कृषि-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- अमावस्या को बैल हल में नहीं जोतते।
- माई न परसे भरे न पेट, मघा न बरसे भरे न खेत।
- स्वाँती गोहूँ आर्द्रा धान, न ब्यापै कीरा औ घाम।
- बरसन लागी ऊतरा, कोदों न खाय कूतरा।
- अर्द्धप्रचलित
- मंगलवार और गुरुवार को सब्जी की कुशलता के लिए काछी होम-धूप देते हैं।
- बरसौ राम पकै धुनियाँ, खाय किसान मरै बनिया।
- साउन पैली पंचमी।
- जो गरजै अधरात, तुम जइयो पिय मालबै हम जैबी गुजरात।
- अप्रचलित
- इंद्र पानी बरसाते हैं।
- जब तक रबी की बौनी होती रहती है, तब तक किसान बाल नहीं बनवाते।
- बौनी से बचे अनाज को दान करने से फसल अच्छी होती है।
घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- कन्या के पैर पूजने से पुण्य होता है।
- पुत्री के घर पिता या कोई समकक्ष सदस्य खाना नहीं खाता।
- दक्षिण की ओर पैर करके सोना अमांगलिक है।
- पैले दिना को पाउनो दुसरे दिना को पइ, तिसरे दिना ना गओ तो बेइज्जती भइ।
- अर्द्धप्रचलित
- बाँझ का शुभ कर्म में भाग लेने से अनिष्ट होता है।
- सूर्योदय के पहले आँगन बुहारने से घर में लक्ष्मी का निवास होता है।
- घर के सदस्य के विदेश जाने के बाद झाडू नहीं लगायी जाती।
- अप्रचलित
- घर का द्वार दक्षिण की ओर होना अशुभ है।
- पुत्री की ससुराल के गाँव का पानी पीने से सद्गति नहीं होती।
- घर में दिया जलाकर उसका मुँह दक्षिण की ओर रखना अशुभ है।
स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- उपवास करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
- पेट ठीक न रहने से सब रोग होते है।
- नीम की पत्तियाँ प्रात: सेवन करने से ज्वर नहीं आता।
- निन्नें पानी जे पियें हर्र भून कें खायँ, दूद बियारी जे करें तिन घर बैद न जायँ।
- अर्द्धप्रचलित
- बच्चों के रोने और कै करने पर अगर मुख से गंध आती है, तो उसे न लगी होती है और न उतारने का टोटका करने से बच्चा स्वस्थ हो जाता है।
- परया या तिजारी ज्वर टोटकों से ठीक हो जाता है।
- अप्रचलित
- दूध डालने पर बच्चे को सफेद दुधी पहनाने से लाभ होता है।
- हैजा की रोक के लिए देवी की सवारी निकालते हैं।
- सूखा रोग झाड़-फूँक या ताबीज से ठीक हो जाता है।
नीतिपरक लोकविश्वास
- प्रचलित
- पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।
- सेवा करै सो मेवा पाबै।
- जाके पाँव न फटी बीमाई, बौ का जानें पीर पराई।
- प्रेम में नेम नईं होत।
- पराई आसा मरै उपासा।
- धावै सो पाबै।
- करता से करतार हारो।
- मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
- अर्द्धप्रचलित
- धरम करै धन ना घटै।
- बेटा सें बैटी भली जो कुलवंती होय।
- बड़े बोल को सिर उँचो।
- बड़ों का आर्शीवाद लाभ देता है।
- अप्रचलित
- प्रजा के दुखी होने पर राजा को नरक मिलता है।
- बाँट खाय बरक्कत होत।
- चाकर होकें का जीनै।
- बड़ों के सामने झुककर चलने से लाभ होता है।
ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास
- प्रचलित
- ग्रहों के प्रकोप से हानि होती है।
- ग्रह-दशा पर व्यक्ति का सुख-दु:ख निर्भर है।
- नौ देवी के नौ दिन हर शुभ कर्म के लिए शुभ होते हैं।
- एकपाख दो गैना (ग्रहण) पिरजा मरै कै सेना।
- अर्द्धप्रचलित
- आषाढ़-कृष्ण प्रतिपदा को बादल गरजने पर युद्ध होता है या अकाल पड़ता है।
- सास बहू की एकई सोर, लच्छो कढ़ गई पाखो फोर।
- अप्रचलित
- पुष्य, पुनर्वसु नक्षत्रों में चूड़ियाँ पहनने पर पति-पत्नी को छोड़ देता है, रोहिणी नक्षत्र में पहनने पर पति की मृत्यु हो जाती है, लेकिन तीनों उत्तरा में पहनने से पति का सुख प्राप्त होता है।
- पौष में सोमवार, शुक्रवार और गुरुवार को अमावस्या होने पर हर घर सुखी रहता है।
शकुनापशकुन
- प्रचलित
जलभरा कलश, मछली, नीलकंठ, दहीभरा बर्तन, श्मशान ले जाता हुआ शव, नेवला, बछड़े को दूध पिलाती गाय देखना शुभ और बिल्ली या सपं का रास्ता काटना, काना मनुष्य, छूछा घड़ा दिखाई देना अशुभ।
- अर्द्धप्रचलित
पाँच-सात की संख्याएँ, पुरुष की दायीं और स्त्री की बायीं भुजा फड़कना, मंगल गीत सुनना शकुन और यात्रा के लिए जाते समय कुत्ते का भौंकना या गीदड़ का बोलना, सिर पर कौआ बैठना, बिल्ली का रोना, स्वप्न में सेंदुर ढुलक जाना अपशकुन।
- अप्रचलित
गोद में बालक लिए सुहागिन स्त्री, हाथी, वेश्या, ब्राह्मण, साधु देखना शकुन और तेली, विधवा, आसमान से तारे का टूटना देखना अपशकुन।
अंधविश्वास
वे लोकविश्वास हैं, जो अनुपयोगी होने पर भी प्रचलन में रहते हैं। उनके प्रचलन का कारण या तो रूढि का दबाव है या फिर द्विविधा की मानसिकता। उदाहरण के लिए यात्रा के प्रारंभ में ही छींक होने पर यदि कोई टोकता है कि दो मिनट ठहर जाएँ, तो रुकना पड़ता है। मन में ऐसा लगता है कि कहीं छींक के कारण कुछ हो गया तो। दो मिनट रुकने में क्या हानि है। कभी-कभी व्यक्तिगत अनुबंधन (कंडीशनिंग) से भी कोई अंधविश्वास जीवित रहता है। यदि एक-दो बार काना व्यक्ति मिलने पर यात्रा असफल रहती है, तो यात्रा करते समय काने व्यक्ति से परहेज करना पड़ता है। जब दायीं आँख एक-दो बार फड़कती है, तब कोई शुभ सुचना मिलती है और जब दायीं हथेली खुजलाती है, तब अर्थ की प्राप्ति होती है। यह भी पूर्वानुमान का अनुबंधन हो सकता है। कुछ लोकविश्वास बड़े विचित्र हैं। एक जाति संबंधी लोकविश्वास है कि 'माँगे कुरमी बार न देय। घींच मरोरै सबरो देय।।'[2] कहीं-कहीं यह वैश्य के संबंध में प्रचलित है। मूर्ति-संबंधी एक लोकविश्वास है कि प्रात: बालिका, दोपहर यौवना और संध्या वृद्धा के रूप में दिखाई पड़ती है।[3] बेटा-बहू की बलि देने से तालाब भरना, प्रात: गाँव का नाम लेने से उस दिन खाने को नहीं मिलना, मूर्ति का सोना उगलना आदि इसी तरह के लोकविश्वास हैं।[4] लोकगीतों में इन विचित्र विश्वासों का समावेश है। जैसे निम्न पंक्तियों में 'दिन के बैल और रात को मर्द बना लेना' एवं 'कोदों के दान करने से छोटे पति मिलना' का उल्लेख है-
जादू मारकें बैल बना लओ रे,
दिन के बैलवा रात के मर्द बना लओ रे राम।
मैंनें दये कोदों के दान बलम नन्ने मिले री,
मैंनें दये गोऊँ के दान बलम गोरे मिले री।
सगुनौटी उठाना, रामशलाका प्रश्न में उंगली एक अक्षर पर रखना आदि अलग रतह के लोकविश्वास हैं। लोकगीत है कि 'ननद बाई सगुन तो धरो रे, सगुन तो धरो कब आहें तुमाये राजा वीर हो।' नायिका ननद से सगुनौटी उठाने को कहती है कि उसके भाई कब आएँगे। सगुनौटी उठाने का रीति के अनुसार गेहूँ की राशि में से कुछ यानी कि मनचाहे गेहूँ उठाकर उन्हें गिनते हैं। यदि संख्या विषम हो, तो पहले से सोची बात पूरी होना संभव माना जाता है।
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