"चंद्र": अवतरणों में अंतर
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04:48, 17 अगस्त 2015 का अवतरण
चंद्र (शासनकाल- 375 - 415 ई.) सम्राट चंद्र का ज्ञान मेहरौली में कुतुबमीनार के समीप स्थित लौहस्तंभ के लेख से होता है। इस स्तंभ में सम्राट चंद्र की यशोगाथा उत्कीर्ण है। इससे लगता है कि उन्होंने वंग प्रदेश में एकत्र[1] शत्रुओं को पराजित किया। सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीक[2] जीता। उनके वीर्यानिल से दक्षिण जलनिधि सुवासित हो रहा था। उन्होंने विस्तृत पृथ्वी पर स्वबाहुबल से एकाधिराज्य स्थापित किया। अभिलेख लिखे जाने के समय वे स्वयं जीवित नहीं थे। इनके अतिरिक्त लेख के अनुसार वे वैष्णव थे। इस लेख में सम्राट चंद्र के वंश के अनुल्लेख के कारण उनकी पहचान निश्चय पूर्वक करना संभव नहीं है।[3]
चंद्र की पहचान
विभिन्न विद्वानों ने इस सम्राट चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से करने की चेष्टा की है- चंद्रगुप्त मौर्य, कनिष्क प्रथम, पुष्करण के चंद्रवर्मन, चंद्रगुप्त प्रथम, नाग राजाओं-सदाचंद्र या चंद्रांश तथा चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ की है।
विजय का आरंभ
उपरिलिखित राजाओं में चंद्रगुप्त मौर्य के साथ चंद्र की समता स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि लौहस्तंभ-लेख की लिपि मौर्य युगीन ब्राह्मी से बहुत बाद की है। कनिष्क प्रथम ने अपने साम्राज्यवादी जीवन का आरंभ ही बैक्ट्रिया और[4] उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से किया, जबकि चंद्र की विजयों का आरंभ बंगाल एवं उसकी परिणति पंजाब और बलख में हुई। चंद्रवर्मन एवं नागराजा सदाचंद्र और चंद्रांश छोटे छोटे स्थानीय शासक थे जिनके लिये इतनी विस्तृत और साहसिक विजय यात्राएँ संभव न हुई होंगी। चंद्रगुप्त प्रथम स्वयं बलख में युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे। इसके अतिरिक्त दक्षिण पर उनका प्रभाव भी नहीं था।[3]
मेहरौली लेख की बातें
मेहरौली लेख की अधिकांश बातें चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) में उपलब्ध हैं। इसी से अधिकांश विद्वान चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। गुप्त अभिलेखों से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को अपने पिता समुद्रगुप्त से एक विस्तृत साम्राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। यदि यह माना जाय कि यह लेख चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के उपरांत लिखा गया, तो यह स्वीकार किया जा सकेगा कि लेख खुदवाने वाले व्यक्ति ने अतिरिक्त श्रद्धावश चंद्र को साम्राज्य का संस्थापक कहा होगा। अन्यथा 'प्राप्तेन स्वभुजार्जित' रुद्रदामन प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख में आए 'स्वयमधिगत महाक्षत्र पनाम्ना' की भाँति मात्र स्व-प्रभुता ज्ञापनार्थ प्रयुक्त वाक्यावली भर ही सिद्ध होगी। इन्हें भी देखें: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य एवं चंद्रगुप्त मौर्य
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टीका टिप्पणी और संदर्भ