"वैदेही वनवास प्रथम सर्ग": अवतरणों में अंतर
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सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन बहु गौरव पाया॥46॥ | सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन बहु गौरव पाया॥46॥ | ||
व्यथा यही है पड़ी सती क्यों | व्यथा यही है पड़ी सती क्यों दु:ख के पाले। | ||
पड़े प्रेम-मय उर में कैसे कुत्सित छाले॥ | पड़े प्रेम-मय उर में कैसे कुत्सित छाले॥ | ||
आह! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा। | आह! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा। | ||
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हँसते मिलते लोग दिखाते कहीं न रोते॥49॥ | हँसते मिलते लोग दिखाते कहीं न रोते॥49॥ | ||
होता सुख का राज, कहीं | होता सुख का राज, कहीं दु:ख लेश न होता। | ||
हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता॥ | हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता॥ | ||
पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा। | पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा। | ||
पंक्ति 287: | पंक्ति 287: | ||
मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया॥ | मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया॥ | ||
किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया। | किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया। | ||
पड़ी किस लिए हृदय-मुकुर में | पड़ी किस लिए हृदय-मुकुर में दु:ख की छाया॥53॥ | ||
गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही। | गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही। | ||
पंक्ति 411: | पंक्ति 411: | ||
प्रिये! कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया॥77॥ | प्रिये! कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया॥77॥ | ||
सब को सुख हो कभी नहीं कोई | सब को सुख हो कभी नहीं कोई दु:ख पाए। | ||
सबका होवे भला किसी पर बला न आये॥ | सबका होवे भला किसी पर बला न आये॥ | ||
कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली। | कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली। |
14:02, 2 जून 2017 का अवतरण
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लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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