"तुरीयातीतोपनिषद": अवतरणों में अंतर

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*यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। इस पर चलने वाला दुर्लभ ही होता है। जो होता है, वह नित्य पवित्र, वैराग्य की प्रतिमूर्ति, ज्ञानी व [[वेद|वेदों]] का जानकार होता है। वह समस्त प्राणियों में अपनी छवि देखता है और उस छवि में परब्रह्म की छवि का अवलोकन करता है। वह हंस बनकर परमहंस बनने का सतत प्रयास करता है।  
*यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। इस पर चलने वाला दुर्लभ ही होता है। जो होता है, वह नित्य पवित्र, वैराग्य की प्रतिमूर्ति, ज्ञानी व [[वेद|वेदों]] का जानकार होता है। वह समस्त प्राणियों में अपनी छवि देखता है और उस छवि में परब्रह्म की छवि का अवलोकन करता है। वह हंस बनकर परमहंस बनने का सतत प्रयास करता है।  
*वह सर्वप्रथम अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है। अपने भीतर स्थित 'आत्मा' से तादात्म्य स्थापित करता है और समस्त मायावी प्रपचों को जानकर, दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली नित्यक्रियाओं को जल में विसर्जित कर देता है। वह दिगम्बर होकर जीर्ण वल्कल और मृगचर्म के परिग्रह का भी त्याग कर देता है। वह शरीर के समस्त प्रसाधनों को त्याग कर देता है। वैदिक-लौकिक कर्मों का उपसंहार करके सर्वत्र पुण्य-अपुण्य को भी छोड़कर, ज्ञान-अज्ञान को भी छोड़ देता है। वह समस्त ऋतुओं के ताप और शील को जीत लेता है।  
*वह सर्वप्रथम अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है। अपने भीतर स्थित 'आत्मा' से तादात्म्य स्थापित करता है और समस्त मायावी प्रपचों को जानकर, दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली नित्यक्रियाओं को जल में विसर्जित कर देता है। वह दिगम्बर होकर जीर्ण वल्कल और मृगचर्म के परिग्रह का भी त्याग कर देता है। वह शरीर के समस्त प्रसाधनों को त्याग कर देता है। वैदिक-लौकिक कर्मों का उपसंहार करके सर्वत्र पुण्य-अपुण्य को भी छोड़कर, ज्ञान-अज्ञान को भी छोड़ देता है। वह समस्त ऋतुओं के ताप और शील को जीत लेता है।  
*वह शरीर की समस्त वासनाओं का त्याग करके, जो मिल जाता है, उसी से अपना जीवन चलाता है। वह पूर्णत: तटस्थ हो जाता है तथा सर्वात्मक रूप 'अद्वैत' की कल्पना करके यह मानता है कि उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह राग-द्वेष से अलग समदर्शी रहता है। जगत के समस्त उपकरणों से उसका कोई नाता नहीं होता। वह सतत विचरणशील रहता है। वह सदैव 'ब्रह्मरूप' होकर अपने शरीर में रहता है। वह आत्मनिष्ठ होकर सबकों भुला देता है।  
*वह शरीर की समस्त वासनाओं का त्याग करके, जो मिल जाता है, उसी से अपना जीवन चलाता है। वह पूर्णत: तटस्थ हो जाता है तथा सर्वात्मक रूप 'अद्वैत' की कल्पना करके यह मानता है कि उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह राग-द्वेष से अलग समदर्शी रहता है। जगत् के समस्त उपकरणों से उसका कोई नाता नहीं होता। वह सतत विचरणशील रहता है। वह सदैव 'ब्रह्मरूप' होकर अपने शरीर में रहता है। वह आत्मनिष्ठ होकर सबकों भुला देता है।  
*इस प्रकार तुरीयातीत अवधूत के वेश वाला, सतत अद्वैत निष्ठा में लिप्त होकर 'प्रणव' भाव से शरीर का त्याग कर देता है।
*इस प्रकार तुरीयातीत अवधूत के वेश वाला, सतत अद्वैत निष्ठा में लिप्त होकर 'प्रणव' भाव से शरीर का त्याग कर देता है।



14:15, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

शुक्ल यजुर्वेद के इस उपनिषद में पितामह ब्रह्मा तथा आदिनारायण के प्रश्नोत्तर हैं। इसमें ब्रह्मा जी नारायण से तुरीयातीत-अवधूत का मार्ग पूछते हैं। आदिनारायण इस मार्ग पर चलने वालों की कठिनाई और अवधूत के आचरण-व्यवहार, चिन्तन-मनन आदि की कार्य-पद्धति बताते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।

अवधूत मार्ग

  • यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। इस पर चलने वाला दुर्लभ ही होता है। जो होता है, वह नित्य पवित्र, वैराग्य की प्रतिमूर्ति, ज्ञानी व वेदों का जानकार होता है। वह समस्त प्राणियों में अपनी छवि देखता है और उस छवि में परब्रह्म की छवि का अवलोकन करता है। वह हंस बनकर परमहंस बनने का सतत प्रयास करता है।
  • वह सर्वप्रथम अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है। अपने भीतर स्थित 'आत्मा' से तादात्म्य स्थापित करता है और समस्त मायावी प्रपचों को जानकर, दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली नित्यक्रियाओं को जल में विसर्जित कर देता है। वह दिगम्बर होकर जीर्ण वल्कल और मृगचर्म के परिग्रह का भी त्याग कर देता है। वह शरीर के समस्त प्रसाधनों को त्याग कर देता है। वैदिक-लौकिक कर्मों का उपसंहार करके सर्वत्र पुण्य-अपुण्य को भी छोड़कर, ज्ञान-अज्ञान को भी छोड़ देता है। वह समस्त ऋतुओं के ताप और शील को जीत लेता है।
  • वह शरीर की समस्त वासनाओं का त्याग करके, जो मिल जाता है, उसी से अपना जीवन चलाता है। वह पूर्णत: तटस्थ हो जाता है तथा सर्वात्मक रूप 'अद्वैत' की कल्पना करके यह मानता है कि उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह राग-द्वेष से अलग समदर्शी रहता है। जगत् के समस्त उपकरणों से उसका कोई नाता नहीं होता। वह सतत विचरणशील रहता है। वह सदैव 'ब्रह्मरूप' होकर अपने शरीर में रहता है। वह आत्मनिष्ठ होकर सबकों भुला देता है।
  • इस प्रकार तुरीयातीत अवधूत के वेश वाला, सतत अद्वैत निष्ठा में लिप्त होकर 'प्रणव' भाव से शरीर का त्याग कर देता है।


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