"याज्ञवल्क्योपनिषद": अवतरणों में अंतर

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*शुक्ल [[यजुर्वेद]] का यह [[उपनिषद]] राजा [[जनक]] और [[याज्ञवल्क्य]] के बीच हुए 'सन्न्यास धर्म' की चर्चा को अभिव्यक्त करता है।  
*शुक्ल [[यजुर्वेद]] का यह [[उपनिषद]] राजा [[जनक]] और [[याज्ञवल्क्य]] के बीच हुए 'सन्न्यास धर्म' की चर्चा को अभिव्यक्त करता है।  
*याज्ञवल्क्य जी राजा जनक को बताते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करने के उपरान्त 'सन्न्यास आश्रम' आता है, परन्तु भाव-प्रवणता की स्थिति में कभी भी सन्न्यास लिया जा सकता है।
*याज्ञवल्क्य जी राजा जनक को बताते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करने के उपरान्त 'सन्न्यास आश्रम' आता है, परन्तु भाव-प्रवणता की स्थिति में कभी भी सन्न्यास लिया जा सकता है।
* सन्न्यासी को शिखा, यज्ञोपवीत और गृह का त्याग करना अनिवार्य है। 'ॐकार' ही सन्न्यासी का यज्ञोपवीत है। नारी, सन्न्यासी को पथभ्रष्ट करने की सबसे बड़ी आधार है। सन्तान के मोह और नारी के मोह में पड़कर कभी सन्न्यास ग्रहण नहीं किया जा सकता।  
* संन्यासी को शिखा, यज्ञोपवीत और गृह का त्याग करना अनिवार्य है। 'ॐकार' ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है। नारी, संन्यासी को पथभ्रष्ट करने की सबसे बड़ी आधार है। सन्तान के मोह और नारी के मोह में पड़कर कभी सन्न्यास ग्रहण नहीं किया जा सकता।  
*सन्न्यासी को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार आदि का त्याग पूर्ण रूप से करना चाहिए। सन्न्यासी का एकमात्र चिन्तन-मनन का आधार 'परब्रह्म' होता है। उसी की साधना से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। उसके लिए वही सर्वश्रेष्ठ है।  
*संन्यासी को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार आदि का त्याग पूर्ण रूप से करना चाहिए। संन्यासी का एकमात्र चिन्तन-मनन का आधार 'परब्रह्म' होता है। उसी की साधना से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। उसके लिए वही सर्वश्रेष्ठ है।  





11:43, 3 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

  • शुक्ल यजुर्वेद का यह उपनिषद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के बीच हुए 'सन्न्यास धर्म' की चर्चा को अभिव्यक्त करता है।
  • याज्ञवल्क्य जी राजा जनक को बताते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करने के उपरान्त 'सन्न्यास आश्रम' आता है, परन्तु भाव-प्रवणता की स्थिति में कभी भी सन्न्यास लिया जा सकता है।
  • संन्यासी को शिखा, यज्ञोपवीत और गृह का त्याग करना अनिवार्य है। 'ॐकार' ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है। नारी, संन्यासी को पथभ्रष्ट करने की सबसे बड़ी आधार है। सन्तान के मोह और नारी के मोह में पड़कर कभी सन्न्यास ग्रहण नहीं किया जा सकता।
  • संन्यासी को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार आदि का त्याग पूर्ण रूप से करना चाहिए। संन्यासी का एकमात्र चिन्तन-मनन का आधार 'परब्रह्म' होता है। उसी की साधना से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। उसके लिए वही सर्वश्रेष्ठ है।


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