"कुट्टनी": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "khoj.bharatdiscovery.org" to "bharatkhoj.org") |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'''कुट्टनी''' वेश्याओं को कामशास्त्र की शिक्षा देने वाली नारी को कहा जाता था। वेश्या संस्था के अनिवार्य अंग के रूप में इसका अस्तित्व पहली बार पाँचवीं शती ई. के आसपास ही देखने में आता है। इससे अनुमान होता है कि इसका आविर्भाव [[गुप्त साम्राज्य]] के वैभवशाली और भोग-विलास के युग में हुआ।<ref name="aa">{{cite web |url= http:// | '''कुट्टनी''' वेश्याओं को कामशास्त्र की शिक्षा देने वाली नारी को कहा जाता था। वेश्या संस्था के अनिवार्य अंग के रूप में इसका अस्तित्व पहली बार पाँचवीं शती ई. के आसपास ही देखने में आता है। इससे अनुमान होता है कि इसका आविर्भाव [[गुप्त साम्राज्य]] के वैभवशाली और भोग-विलास के युग में हुआ।<ref name="aa">{{cite web |url= http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%A8%E0%A5%80|title= कुट्टनी|accessmonthday=21 जुलाई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतखोज|language= हिन्दी}}</ref> [[गुप्त काल]] में वेश्यावृति करने वाली स्त्रियों को 'गणिका' कहा जाता था। 'कुट्टनी' उन वेश्याओं को कहते थे, जो वृद्ध हो जाती थीं और जिन्हें वेश्यावृति का अच्छा अनुभव रहता था। | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
==कुट्टनीमतम्== | ==कुट्टनीमतम्== |
12:25, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
कुट्टनी वेश्याओं को कामशास्त्र की शिक्षा देने वाली नारी को कहा जाता था। वेश्या संस्था के अनिवार्य अंग के रूप में इसका अस्तित्व पहली बार पाँचवीं शती ई. के आसपास ही देखने में आता है। इससे अनुमान होता है कि इसका आविर्भाव गुप्त साम्राज्य के वैभवशाली और भोग-विलास के युग में हुआ।[1] गुप्त काल में वेश्यावृति करने वाली स्त्रियों को 'गणिका' कहा जाता था। 'कुट्टनी' उन वेश्याओं को कहते थे, जो वृद्ध हो जाती थीं और जिन्हें वेश्यावृति का अच्छा अनुभव रहता था।
कुट्टनीमतम्
कुट्टनी के व्यापक प्रभाव, वेश्याओं के लिए महानीय उपादेयता तथा कामुक जनों को वशीकरण की सिद्धि दिखलाने के लिए कश्मीर नरेश जयापीड (779 ई.-812 ई.) के प्रधानमंत्री दामोदर गुप्त ने 'कुट्टनीमतम्' नामक काव्य की रचना की थी। यह काव्य अपनी मधुरिमा, शब्द सौष्ठव तथा अर्थगांभीर्य के निमित्त आलोचना जगत् में पर्याप्त विख्यात है, परंतु कवि का वास्तविक अभिप्राय सज्जनों को कुट्टनी के हथकंडों से बचाना है। इसी उद्देश्य से कश्मीर के प्रसिद्ध कवि क्षेमेंद्र ने भी 'एकादश शतक' में 'समयमातृका' तथा 'देशोपदेश' नामक काव्यों का प्रणयन किया था। इन दोनों काव्यों में कुट्टनी के रूप, गुण तथा कार्य का विस्तृत विवरण है। हिन्दी के रीति ग्रंथों में भी कुट्टनी का कुछ वर्णन उपलब्ध होता है।
व्यक्तित्व
कुट्टनी अवस्था में वृद्ध होती है, जिसे कामी संसार का बहुत अनुभव होता है। 'कुट्टीनमतम्' में चित्रित 'विकराला' नामक कुट्टनी[2] से कुट्टनी के बाह्य रूप का सहज अनुमान किया जा सकता है। अंदर को धँसी आँखें, भूषण से हीन तथा नीचे लटकने वाला कान का निचला भाग, काले-सफ़ेद बालों से गंगा-जमुनी बना हुआ सिर, शरीर पर झलकने वाली शिराएँ, तनी हुई गरदन, श्वेत धुली हुई धोती तथा चादर से मंडित देह, अनेक ओषधियों तथा मनकों से अलंकृत गले से लटकने वाला डोरा, कनिष्ठिका अँगुली में बारीक सोने का छल्ला। वेश्याओं को उनके व्यवसाय की शिक्षा देना तथा उन्हें उन हथकंडों का ज्ञान कराना, जिनके बल पर वे कामी जनों से प्रभूत धन का अपहरण कर सकें, इसका प्रधान कार्य है।[1] क्षेमेंद्र ने इस विशिष्ट गुण के कारण उसकी तुलना अनेक हिंस्र जंतुओं से की है। वह रक्त पीने तथा माँस खाने वाली व्याघ्नी है, जिसके न रहने पर कामुक जन गीदड़ों के समान उछल-कूद मचाया करते हैं-
व्याध्रीव कुट्टनी यत्र रक्तपानानिषैषिणी।
नास्ते तत्र प्रगल्भन्ते जम्बूका इव कामुका:।।[3]
छ्ल-कपट की प्रतिमा
कुट्टनी के बिना वेश्या अपने व्यवसाय का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकती। अनुभवहीन वेश्या की गुरु स्थानीय कुट्टनी कामी जनों के लिये छल तथा कपट की प्रतिमा होती है। धन ऐंठने के लिए विषम यंत्र होती है। वह जनरूपी वृक्षों को गिराने के लिये प्रकृष्ट माया की नदी होती है, जिसकी बाढ़ में हज़ारों संपन्न घर डूब जाते हैं-
जयत्यजस्रं जनवृक्षपातिनी।
प्रकृष्ट माया तटिनी कुट्टनी।।[4]
कुट्टनी वेश्या को कामुकों से धन ऐंठने की शिक्षा देती है, हृदय देने की नहीं। वह उसे प्रेम संपन्न धनहीनों को घर से निकाल बाहर करने का भी उपदेश देती है। उससे बचकर रहने का उपदेश ग्रंथों में दिया गया है।[1]
|
|
|
|
|