"घोड़े का इतिहास": अवतरणों में अंतर
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घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7,000 [[वर्ष]] पूर्व दक्षिणी [[रूस]] के पास [[आर्य|आर्यों]] ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं और लेखकों ने इसके [[आर्य]] इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया में कहा, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर [[एशिया]] से [[यूरोप]], [[मिस्र]] और शनै: शनै: [[अमरीका]] आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक '''शालिहोत्र''' है, जिसे [[शालिहोत्र|शालिहोत्र ऋषि]] ने [[महाभारत|महाभारत काल]] से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि 'शालिहोत्र' द्वारा अश्व-चिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण [[प्राचीन भारत]] में '''पशुचिकित्सा विज्ञान'''<ref>Veterinary Science</ref> को 'शालिहोत्र शास्त्र' नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय [[नल|राजा नल]] और [[पांडव|पांडवों]] में [[नकुल]] अश्व विद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थीं। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्व चिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। [[भारत]] में अनिश्चित काल से देशी अश्व चिकित्सक को 'शालिहोत्री' कहा जाता है। | घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7,000 [[वर्ष]] पूर्व दक्षिणी [[रूस]] के पास [[आर्य|आर्यों]] ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं और लेखकों ने इसके [[आर्य]] इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया में कहा, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर [[एशिया]] से [[यूरोप]], [[मिस्र]] और शनै: शनै: [[अमरीका]] आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक '''शालिहोत्र''' है, जिसे [[शालिहोत्र|शालिहोत्र ऋषि]] ने [[महाभारत|महाभारत काल]] से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि 'शालिहोत्र' द्वारा अश्व-चिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण [[प्राचीन भारत]] में '''पशुचिकित्सा विज्ञान'''<ref>Veterinary Science</ref> को 'शालिहोत्र शास्त्र' नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय [[नल|राजा नल]] और [[पांडव|पांडवों]] में [[नकुल]] अश्व विद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थीं। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्व चिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। [[भारत]] में अनिश्चित काल से देशी अश्व चिकित्सक को 'शालिहोत्री' कहा जाता है। | ||
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12:20, 11 जनवरी 2018 का अवतरण
घोड़े का इतिहास
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जगत | जीव-जंतु |
संघ | कॉर्डेटा (Chordata) |
वर्ग | मेमेलिया (Mammalia) |
गण | अर्टिओडाक्टायला (Artiodactyla) |
कुल | ईक्यूडी (Equidae) |
जाति | ईक्वस (Equus) |
प्रजाति | ई. फेरस (E. ferus) |
द्विपद नाम | ईक्वस फेरस (Equus ferus) |
विशेष | विवाहोत्सव और धार्मिक जलूसों में सजे-धजे घोड़ों को देखकर उत्साह का संचार हो जाता है। गुरु गोविन्द सिंह जयंती, महाराणा प्रताप जयंती और रामनवमी के शुभ अवसर पर सुसज्जित अश्व भारतीय जनमानस में प्राचीन गौरव को जागृत कर वीरत्व को उत्पन्न करते हैं। |
अन्य जानकारी | हाथी और ऊँट की भांति घोड़ा भी उपयोगी पशु है। संस्कृत में इसे 'अश्व' और अंग्रेज़ी में 'हॉर्स' (Horse) कहा जाता है। घोड़ा मनुष्य से संबंधित संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी न किसी रूप में सेवा की है। |
घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7,000 वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यों ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं और लेखकों ने इसके आर्य इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया में कहा, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर एशिया से यूरोप, मिस्र और शनै: शनै: अमरीका आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्र है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि 'शालिहोत्र' द्वारा अश्व-चिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान[1] को 'शालिहोत्र शास्त्र' नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय राजा नल और पांडवों में नकुल अश्व विद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थीं। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्व चिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्व चिकित्सक को 'शालिहोत्री' कहा जाता है।
शालिहोत्र शास्त्र के अनुसार
शालिहोत्र में चार दर्जन प्रकार के घोड़े बताए गए हैं। इस पुस्तक में घोड़ों का वर्गीकरण बालों के आवर्तों के अनुसार किया गया है। इसमें लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होंठ तथा छोटे कान और पूँछ वाले घोड़ों को उत्तम माना गया है। मुँह की लंबाई 2 अँगुल, कान 6 अँगुल तथा पूँछ 2 हाथ लिखी गई है। घोड़े का प्रथम गुण गति का होना बताया है। उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तों वाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है। शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम त्यंड[2], त्रिकर्णिन[3], द्विखुरिन[4], हीनदंत[5], हीनांड[6], चक्रवर्तिन[7], चक्रवाक[8] आदि दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं। उक्त पुस्तक में घोड़े के शरीर में 12,000 शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु 32 वर्ष बताई गई है।
उत्पत्ति और विकास
यद्यपि घोड़े की उत्पत्ति के काफ़ी प्रमाण प्राप्त हो चुके है और उसका विकास के पूर्ण रूप से क्रमबद्ध अवशेष अमरीका और अन्य देशों में प्राप्त हो चुके हैं, फिर भी बहुत सी गुत्थियाँ अभी तक नहीं सुलझ पाई हैं। कहा जाता है, घोड़े के और मनुष्य के प्रथम पूर्वजों का जन्म एक ही काल में हुआ, अर्थात् दोनों की उत्पत्ति एक साथ हुई। 5,50,00,000 वर्ष पूर्व ईयोसीन या आदिनूतन युग के आरंभ में ईयोहिप्पस एवं हाइरैकोथीरियम[9] नामक प्रथम घोड़े की उत्पत्ति हुई। यह पूर्वज लोमड़ी के समान छोटा था, जिसकी खोपड़ी अल्प विकसित थी, पैर पतले और लंबे, अगले पैरों में चार अँगुलियाँ, पिछले में तीन, दाँत 44 और नीचे उपरिदंत वाले थे, जो इसके जंगली जीवन और कोमल पत्तों आदि के भोजन के अनुकूल थे। इस पूर्वज के फॉसिल[10] उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया में प्राप्त हुए हैं। तब से क्रमश: घोड़े का विकास होता रहा है।
आदिनूतन युग के मध्य के औरोहिप्पस[11] और अंत के एपिहिप्पस[12] नामक पूर्वजों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन सब पूर्वजों के दाँतों में प्रगति होती रही और वे शाकाहारी जीवन के लिये अनुकूल हो रहे थे। एपिहिप्पस के कंकाल अभी तक नहीं मिल पाए हैं। अत: हमारे निष्कर्ष में अभी न्यूनता रह गई है।
फिर 2,00,00,000 वर्ष के बाद औलिगोसीन[13] या आदिनूतन युग में तीन अँगुलियों वाले मेसोहिप्पस[14] घोड़े की उत्पत्ति हुई। इसकी चौथी अँगुली नष्ट हो चुकी थी। यह आकार में आदिनूतन युग के घोड़ों से अधिक बड़ा तो नहीं था, परंतु इसके शरीर के अनेक अंगों में प्रगति हो गई थी। इसके सिर में घोड़े के समान मुँह, आँखें थोड़ी पीछे को, एवं मस्तिष्क थोड़ा बड़ा था। इसकी गर्दन छोटी, पीठ लंबी तथा टाँगे पतली लंबी और तीन अँगुलियों वाली थीं। चौथी अँगुली की एक छोटी सी गाँठ रह गई थी। दाँतों में भी प्रगति हो चुकी थी।
इसी काल में माइयोहिप्पस नाम के घोड़े की भी उत्पत्ति हुई। यह मेसोहिप्पस से प्राय: बिल्कुल मिलता था। इसमें पाँचवीं अँगुली की चपती[15] मेसोहिप्पस की चपती से काफ़ी छोटी थी और इसके कपोलदंत भी अधिक जटिल हो गए थे। माइयोहिप्पस के कारण घोड़े के विकास की कहानी में थोड़ी जटिलता हुई है। इसी युग के ऐंकीथेरियम[16] नामक घोड़े के अवशेष भी प्राप्त हुई हैं, जिसके दाँतों में माइयोहिप्पस के समान जटिलता नहीं थी। संभवत: यह माइयोहिप्पस पूर्वज से जन्मा और यूरोप, एशिया तथा अमरीका में माइयोसीन[17] या मध्य नूतन, काल तक जीवित रहा।
मेसोहिप्पस के साथ मेगाहिप्पस[18]और हाइपोहिप्पस[19] नामक घोड़े भी आदिनूतन युग में पाए गए। इसके 1,00,00,000 वर्ष बाद, अर्थात् आज से 2,50,00,000 वर्ष पूर्व माइयोसीन[20] या मध्यनूतन काल के मध्य और अंतिम भाग में मर्सीहिप्पस[21] नामक पूर्वजों ने जन्म लिया। ये पूर्वज शनै: शनै: वर्तमान युग के घोड़े के निकट आ रहे थे। इनके दाँत ऊँचे उपरिदंत जैसे होते गए, ताकि वे अपने मैदानी जीवन और वानस्पतिक भोजन का उपभोग कर सकें।
इनके कपोलदंत भी आज के घोड़े के समान हो गए थे और दाँतों में सीमेंट[22] की सतह भी उत्पन्न हो गई, जो इससे पहले युगों के पूर्वजों में नहीं थी। इन पूर्वजों में शरीर की लंबाई बढ़ गई थी। सिर में मुँह, आंखें और मस्तिष्क आज के घोड़े जैसे ही हो गए थे। टाँगों की हड्डियाँ भी परिवर्तित हो गई थीं। बहि:प्रकोष्ठिका[23] से अंत: प्रकोष्ठिका[24] जुड़ गई थी और बहिर्जधिका[25] एक पतली पट्टी के समान रह गई थी। परंतु अभी तक टांगों में तीन अँगुलियाँ बाकी थीं, जिनमें बीच की अँगुली, जिस पर शरीर का भार रहता था, मोटी, बड़ी, और घोड़े के समान खुर वाली थी। मर्सीहिप्पस साधारणत: आज के टट्टू के समान प्रतीत होता था। अतिनूतन या प्लायोसीन[26] युग में आज से 1,00,00,000 वर्ष पूर्व मर्सीहिप्पस ने अनेक नई जातियों को जन्म दिया, जिनमें से अधिकतर जातियाँ युग के अंत तक लुप्त हो गई।
नीयोहिप्पेरियन[27], हिप्पेरियन[28], नैनिहिप्पस[29], कैलिहिप्पस[30] और प्लायोहिप्पस[31] इस युग के प्रांरभ से प्राय: अंत तक विद्यमान थे। ये सब घोड़े उत्तरी अमरीका में मिले। केवल हिप्पेरियन अमरीका, यूरोप और एशिया सब जगह प्रकट हुआ। प्लायोहिप्पस आज के घोड़े ईक्वस का निकटतम पूर्वज था। यह इस युग का वह घोड़ा था जिसमें दोनों पार्श्व अँगुलियां पूर्णतया नष्ट हो गई थीं और शरीर के अंग प्राय: ईक्वस के समान हो गए थे।
आज से 10,00,000 वर्ष पूर्व प्लायस्टोसीन[32], अर्थात् प्रातिनूतन युग, में आज का घोड़ा जन्मा। आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त आज का घोड़ा संसार के सब देशों में इस युग में मिला। इस विकास क्रम में इयोहिप्पस से लेकर वर्तमान घोड़े ईक्वस तक इनकी आकार वृद्धि, टाँगों का लंबा होना, बाँई दाईं अँगुलियों का क्रमश: कम होना और बीच की अँगुली का बराबर बढ़ते रहना मुख्य है। इसके साथ साथ इनकी पीठ बराबर मजबूत और दृढ़ होती गई और कृंतक[33] दाँत बराबर चौड़े होते गए। खोपड़ी गहरी और आँखों के आगे का हिस्सा लंबा हो गया। मस्तिष्क के आकार और जटिलता में वृद्धि होती गई। इस प्रकार एक छोटे से प्राणी से आज के विशालकाय और दृढ़ घोड़े का विकास हुआ।
प्लायोसीन या अतिनूतन युग के निखातक नर्मदा की घाटी में मध्य भारत में और उत्तर में सिवालिक की चट्टानों में मिले हैं। इनको ईक्वस नामाद्रीकस एवं ई. सिवालेन्सिस नाम दिए गए। ये कंधे तक 5 फुट ऊँचे होते थे। आँखों के स्थान से आगे खोपड़ी में गड्ढा था। ये आज के घोड़े और मर्सीहिप्पस की बीच की स्थिति प्रकट करते हैं।
प्रोफेसर वूल का मत है कि अरबी घोड़े की उत्पत्ति सिवालिक घोड़े से नर्मदा घोड़े द्वारा हुई, क्योंकि मर्सीहिप्पस के युग में ही भारत की सिवालिक पहाड़ियों में हिप्पेरियन के अवशेष प्राप्त हुए और इन्हें हिप्पोथीरियम ऐंटिलोपियम[34] नाम दिया गया। भारत में इस पर अधिक खोज नहीं हुई है। ये दीर्घकाय, भारी घोड़े यूरोपीय, प्राचीन युद्धाश्वों के वंशज हैं। इनके पैर घने बालों से ढके होते हैं।
कब बनाया पालतू
क्या घोड़ा प्राचीन काल से ही पालतू जानवर था या उसे पालतू बनाए जाने की प्रक्रिया कभी बाद में आरंभ हुई थी? पुरातत्वविदों को कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं कि किसी समय पर घोड़ा एक खूँखार जानवर होता था और समूचे यूरेशिया क्षेत्र में माँस के लिए उसका शिकार किया जाता था। कज़ाकस्तान में पुरातत्वविद इस खोज-कार्य में लगे हुए हैं कि घोड़े को जंगली जानवर से पालतू जानवर बनाने की प्रक्रिया आख़िर कब और कैसे शुरू हुई। देश के उत्तर में क्रासनीयार नामक स्थान पर वैज्ञानिक अब ये पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि पुराने समय में इन घोड़ों की लगाम किस हद तक मनुष्य के हाथ में थी। शोधकर्त्ताओं को इस स्थान पर घोड़ों की रीढ़ की हड्डियाँ, खोपड़ियाँ वगैरह मिली हैं। अब पुरातत्वविदों को इस बात का पता लगाने की आवश्यकता है कि क्या इन जानवरों को किसी अन्य स्थान पर मारकर उनकी लाशों को यहाँ लाया गया था।[35]
अमरीका के कार्नेगी म्यूज़ियम ऑफ़ नैचुरल हिस्टरी की डॉक्टर सैंड्रा ऑलसेन इस स्थल की खुदाई की प्रभारी रही हैं। उनका कहना है, "अगर आप पैदल चल रहे हैं और आप अपने घर से दूर एक जंगली घोड़े का शिकार करके उसे मार देते हैं, तो आप इसे पूरे के पूरे को घसीट कर घर तक नहीं ला सकते"। उन्होंने बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के डिस्कवरी प्रोग्राम को बताया कि- "आप पहले घोड़े की लाश की चीर-फ़ाड़ करेंगे और फिर उसके मांस, चमड़े और शायद औज़ार बनाने के लिए उसकी हड्डियों को उठाकर घर लाएँगे"। अगर वैज्ञानिकों को इस बात का प्रमाण मिल जाता है कि घोड़ों को इसी स्थल पर लाकर मारा गया था, तो यह उन्हें पालतू बनाए जाने की प्रक्रिया की तरफ़ इशारा करेगा। बहरहाल, घोड़ों को पालतू बनाए जाने की प्रक्रिया के बारे में बुहत ही कम जानकारी हासिल हो सकी है और यह प्रागैतिहासिक काल के सबसे विवादास्पद पहलुओं में से एक है। यह प्रक्रिया कब और कैसे शुरू हुई, यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूरे विश्व पर इसकी गहरी छाप पड़ी है।
लगभग 5, 500 वर्ष पूर्व क्रासनीयार स्थान पर बोटाई संस्कृति के लोग रहते थे। खुदाई से इस स्थान पर एक गाँव के ख़ाके में बने 160 घर मिले हैं। इस स्थल पर घोड़ों की हड्डियाँ बिखरी हुई हैं और ऐसे लोगों की क़ब्रें मिली हैं जो समझा जाता है कि कुत्तों और घोड़ों को पालतू जानवरों के तौर पर रखते थे। ब्रिटेन के एक्सेटर विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ता इस स्थल पर मिले अकाचित बर्तनों के टुकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। इन बर्तनों के टुकड़ों में घोड़ी के दूध के अंशों की जाँच से वैज्ञानिकों को आशा है कि वे घोड़ों के घरेलू इस्तेमाल के बारे में महत्वपूर्ण सुराग़ खोज सकते हैं। वैसे वर्तमान समय पर कज़ाकस्तान में घोड़ी के दूध को ख़मीर देकर कूमिस नाम की हल्की शराब बनाई जाती है। इस खुदाई परियोजना के एक प्रवक्ता का कहना है कि "अगर यह बात साबित हो जाती है कि प्राचीन काल में घोड़ी का दूध निकाल कर पिया जाता था, तो हम काफ़ी निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उस समय पर घोड़ों को पालतू जानवरों के तौर पर रखा जाता था।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Veterinary Science
- ↑ तीन वृषण वाला
- ↑ तीन कान वाला
- ↑ दो खुरवाला
- ↑ बिना दाँत वाला
- ↑ बिना वृषण वाला
- ↑ कंधे पर एक या तीन अलक वाला
- ↑ सफेद पैर और आँखों वाला
- ↑ Hyracoatherium
- ↑ जीवाश्म
- ↑ Orohippus
- ↑ Epihippus
- ↑ Oligocene
- ↑ Mesohippus
- ↑ splint
- ↑ Anchitherium
- ↑ Miocene
- ↑ Megahippus
- ↑ Hypohippus
- ↑ Miocene
- ↑ Mercyhippus
- ↑ cement
- ↑ radius
- ↑ ulna
- ↑ Fibula
- ↑ Pliocene
- ↑ Neohipparion
- ↑ Hipparion
- ↑ Nannihippus
- ↑ Calihippus
- ↑ Phiohippus
- ↑ pleistocene
- ↑ incisor
- ↑ Hippotherim antelopium
- ↑ घोड़ों को लगाम कब कसी गई (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2018।