"वास्तविक नियंत्रण रेखा": अवतरणों में अंतर
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श्याम सरन की लिखी किताब 'How India Sees the World' में इस बात का जिक्र किया गया है कि चाइनीज प्रीमियर ली पेंग्स के [[1991]] में भारत दौरे के बाद भारतीय पीएम [[पी. वी. नरसिम्हा राव]] और ली इस समझौते पर पहुंचे कि एलएसी पर शांति कायम होनी चाहिए। जब पीएम राव ने [[1993]] में [[चीन]] का दौरा किया, उसके बाद फिर भारत ने औपचारिक तौर से एलएसी को मान्यता दे दी थी। तब से एलएसी का संदर्भ [[1959]] या फिर [[1962]] से नहीं जोड़ा जाता है बल्कि जब इन दोनों देशों के बीच समझौता हुआ, तब से ही इसका संदर्भ लिया जाता है। | श्याम सरन की लिखी किताब 'How India Sees the World' में इस बात का जिक्र किया गया है कि चाइनीज प्रीमियर ली पेंग्स के [[1991]] में भारत दौरे के बाद भारतीय पीएम [[पी. वी. नरसिम्हा राव]] और ली इस समझौते पर पहुंचे कि एलएसी पर शांति कायम होनी चाहिए। जब पीएम राव ने [[1993]] में [[चीन]] का दौरा किया, उसके बाद फिर भारत ने औपचारिक तौर से एलएसी को मान्यता दे दी थी। तब से एलएसी का संदर्भ [[1959]] या फिर [[1962]] से नहीं जोड़ा जाता है बल्कि जब इन दोनों देशों के बीच समझौता हुआ, तब से ही इसका संदर्भ लिया जाता है। | ||
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17:02, 17 जून 2020 का अवतरण
वास्तविक नियंत्रण रेखा (अंग्रेज़ी; Line of Actual Control) भारत और चीन के बीच की वास्तविक सीमा रेखा है। 4057 कि.मी. लंबी यह सीमा रेखा जम्मू-कश्मीर में भारत अधिकृत क्षेत्र और चीन अधिकृत क्षेत्र अक्साई चीन को पृथक करती है। यह लद्दाख, कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुजरती है। यह भी एक प्रकार की सीजफ़ायर (युद्धविराम) रेखा है, क्योंकि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद दोनों देशों की सेनाएं जहां तैनात थीं, उसे वास्तविक नियंत्रण रेखा मान लिया गया था।
तीन सेक्टर
भारत और चीन के बीच 4057 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख तक फैली है। यह रेखा तीन सेक्टरों में बंटी हुई है-
- पश्चिमी सेक्टर लद्दाख और कश्मीर तक है।
- मध्य सेक्टर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के इलाके में है।
- पूर्वी सेक्टर सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में है।
मैकमोहन रेखा
एलएसी मोटे तौर पर मैकमोहन रेखा पर आधारित है। 1914 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन और तिब्बत के प्रतिनिधि के बीच शिमला समझौते के तहत दोनों देशों को विभाजित करने वाली रेखा का नाम मैकमोहन पड़ा।
एलएसी के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि- "यह एक मोटी निब से खींची गई थी, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह किस पहाड़ या नदी-नाले से होकर जाती है। इसी वजह से भारत और चीन के बीच भ्रम की स्थिति बनी हुई है। एलएसी को लेकर दोनों देशों की अपनी-अपनी अवधारणाएं हैं। लेकिन दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे के दावे को नहीं मानती हैं। अपनी अवधारणाओं के मुताबिक दोनों देशों की सेनाएं अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक गश्ती करती रहती हैं। गश्ती के दौरान दोनों देशों के सैनिक अक्सर एक-दूसरे की अवधारणा वाले इलाके में चले जाते हैं। अक्सर गश्ती के दौरान दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने भी हो जाते हैं और टोकने के बाद अपने इलाके में वापस लौट जाते हैं। गश्ती के दौरान एक-दूसरे के इलाके में गलती से जाने के बहाने चीनी सैनिकों की हाल में घुसपैठ काफ़ी बढ़ गई है।[1]
तनाव का कारण
ईस्टर्न सेक्टर में एलएसी पर 1914 मैकमोहन रेखा है जिसकी स्थिति को लेकर भारत और चीन के बीच विवाद है। यह भारत की इंटरनेशनल बाउंड्री को इंगित करता है। मिडिल सेक्टर की लाइन थोड़ी सी कम विवादित है। सबसे बड़ा जो विवाद है, वह है वेस्टर्न सेक्टर में जहां से एलएसी शुरू हुआ है। 1959 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने एक दूसरे को चिट्ठी लिखी थी। 1965 में पहली बार दोनों देशों के बीच इस लाइन का जिक्र किया गया था। शिवशंकर मेनन ने अपनी किताब 'Choices: Inside the Making of India’s Foreign Policy' में लिखा है कि- 'एलएसी को केवल मानचित्र पर अंकित सामान्य शर्तों पर वर्णित किया गया था, ना कि वास्तविक रूप में स्केल पर।
भारत द्वारा कड़ा विरोध
1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद चीन ने ये दावा किया था कि वे एलएसी के पी'छे 20 कि.मी. के दायरे को अपनी सीमा के अंदर तक विस्तार कर रहे हैं। झोऊ ने 1959 के बाद एक बार फिर से नेहरू को लिखी चिट्ठी में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) का जिक्र किया था। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 1959 और 1962 में दोनों बार चीन के एलएसी के दावे को खारिज कर दिया था। भारत ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि- 'ये लाइन ऑफ कंट्रोल क्या है, किस आधार पर चीन ने इसका निर्धारण किया है। क्या आवेश में आकर चीन की तरफ से खींचे गए लाइन को एलएसी नाम दे दिया गया?'
भारत ने कब एलएसी को दी मान्यता
श्याम सरन की लिखी किताब 'How India Sees the World' में इस बात का जिक्र किया गया है कि चाइनीज प्रीमियर ली पेंग्स के 1991 में भारत दौरे के बाद भारतीय पीएम पी. वी. नरसिम्हा राव और ली इस समझौते पर पहुंचे कि एलएसी पर शांति कायम होनी चाहिए। जब पीएम राव ने 1993 में चीन का दौरा किया, उसके बाद फिर भारत ने औपचारिक तौर से एलएसी को मान्यता दे दी थी। तब से एलएसी का संदर्भ 1959 या फिर 1962 से नहीं जोड़ा जाता है बल्कि जब इन दोनों देशों के बीच समझौता हुआ, तब से ही इसका संदर्भ लिया जाता है।
गलवान घाटी
गलवान घाटी वही जगह है, जहां पर 20 अक्टूबर 1962 को भारत और चीन के बीच पहली बार जंग हुआ था। गलवान घाटी को चीन शिनजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा मानता है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्या है वास्तविक नियंत्रण रेखा (हिंदी) navbharattimes.indiatimes.com। अभिगमन तिथि: 17 जून, 2020।
- ↑ क्या है लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (हिंदी) timesnowhindi.com। अभिगमन तिथि: 17 जून, 2020।