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पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से '''[[स्पीड पोस्ट]]''' और स्पीड पोस्ट से '''[[ई-पोस्ट]]''' के युग में पहुंच गया है। [[पोस्ट कार्ड]] 1879 में चलाया गया जबकि 'वैल्यू पेएबल पार्सल' (वीपीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ। तेज डाक वितरण के लिए [[पोस्टल इंडेक्स नंबर |पोस्टल इंडेक्स नंबर]] (पिनकोड) 1972 में शुरू हुआ। | पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से '''[[स्पीड पोस्ट]]''' और स्पीड पोस्ट से '''[[ई-पोस्ट]]''' के युग में पहुंच गया है। [[पोस्ट कार्ड]] 1879 में चलाया गया जबकि 'वैल्यू पेएबल पार्सल' (वीपीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ। तेज डाक वितरण के लिए [[पोस्टल इंडेक्स नंबर |पोस्टल इंडेक्स नंबर]] (पिनकोड) 1972 में शुरू हुआ। तेज़ीसे बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985 में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया। समय की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994 में मेट्रो, राजधानी, व्यापार चैनल, ईपीएस और वीसैट के माध्यम से मनी ऑर्डर भेजा जाना शुरू किया गया।[[चित्र:Post-office-darjling.jpg|thumb|left|डाकघर, [[दार्जिलिंग]]]] | ||
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डाकघर
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विवरण | 'डाकघर' एक सुविधा है जो पत्रों को जमा करने (पोस्ट करने), छांटने, पहुंचाने आदि का कार्य करती है। यह एक डाक व्यवस्था के तहत काम करता है। |
शुरुआत | अंग्रेज़ों ने सैन्य और खुफ़िया सेवाओं की मदद के मक़सद लिए भारत में पहली बार 1688 में मुंबई में पहला डाकघर खोला। |
स्वीकृति | भारतीय डाकघर को राष्ट्रीय महत्व के एक अलग संगठन के रूप में स्वीकार किया गया और उसे 1 अक्टूबर 1854 को डाकघर महानिदेशक के सीधे नियंत्रण में सौंप दिया गया। |
सदस्यता | भारत 1876 से 'यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन' (यू.पी.यू.) का और 1964 से 'एशिया प्रशांत पोस्टल यूनियन' (ए.पी.पी.यू.) का सदस्य है। |
अन्य जानकारी | आज़ादी के समय देश भर में 23,344 डाकघर थे। इनमें से 19,184 डाकघर ग्रामीण क्षेत्रों में और 4,160 शहरी क्षेत्रों में थे। आज़ादी के बाद डाक नेटवर्क का सात गुना से ज्यादा विस्तार हुआ है। वर्तमान में एक लाख 55 हज़ार डाकघरों के साथ भारतीय डाक प्रणाली विश्व में पहले स्थान पर है। |
डाकघर (अंग्रेज़ी: Post Office) एक सुविधा है जो पत्रों को जमा करने (पोस्ट करने), छांटने, पहुंचाने आदि का कार्य करती है। यह एक डाक व्यवस्था के तहत काम करता है। लगभग 500 साल पुरानी 'भारतीय डाक प्रणाली' आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और बेहतर डाक प्रणाली में अव्वल स्थान पर है। आज भी हमारे यहाँ हर साल क़रीब 900 करोड़ चिठियों को भारतीय डाक द्वारा दरवाज़े - दरवाज़े तक पहुंचाया जाता है।
भारतीय डाक-व्यवस्था
अंग्रेज़ों ने सैन्य और खुफ़िया सेवाओं की मदद के मक़सद लिए भारत में पहली बार 1688 में मुंबई में पहला डाकघर खोला। फिर उन्होंने अपने सुविधा के लिए देश के अन्य इलाकों में डाकघरों की स्थापना करवाई। 1766 में लॉर्ड क्लाइव द्वारा डाक-व्यवस्था के विकास के लिए कई कदम उठाते हुए, भारत में एक आधुनिक डाक-व्यवस्था की नींव रखी गई। इस सम्बंध में आगे का काम वारेन हेस्टिंग्स द्वारा किया गया, उन्होंने 1774 में कलकत्ता में पहले जनरल पोस्ट ऑफिस की स्थापना की। यह जी.पी.ओ. (जनरल पोस्ट ऑफिस) एक पोस्टमास्टर जनरल के अधीन कार्य करता था। फिर आगे 1786 में मद्रास और 1793 में बंबई प्रेसीडेंसी में 'जनरल पोस्ट ऑफिस' की स्थापना की गई।[1]
अखिल भारतीय सेवा
1837 में एक अधिनियम द्वारा भारतीय डाकघरों के लिए एक अखिल भारतीय सेवा को प्रारम्भ किया गया और फिर 1854 के 'पोस्ट ऑफिस अधिनियम' से पूरी डाक प्रणाली के स्वरूप में एक नया बदलाव आया और पहली अक्तूबर 1854 को एक महानिदेशक के नियंत्रण में भारतीय डाक-प्रणाली ने आधुनिक रूप में काम करना प्रारम्भ कर दिया। उस समय भारत में कुल 701 डाकघर थे। इसी साल 'रेल डाक सेवा' की भी स्थापना हुई और भारत से ब्रिटेन और चीन के बीच 'समुद्री डाक सेवा' भी प्रारम्भ की गई। इसी वर्ष देश भर में पहला वैध डाक टिकट भी जारी किया गया।[1]
भारतीय डाकघर का इतिहास
कोई भी संस्थान डाकघर जितना आदमी की ज़िंदगी के इतने क़रीब नहीं पहुंच सका है। डाकघर की पहुंच देश के कोने कोने तक है। एक वजह यह भी है कि जिसके कारण सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लोगों तक पहुंचने में होने वाली कठिनाई की स्थिति में ये डाकघर जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं। पहली बार भारतीय डाकघर को राष्ट्रीय महत्व के एक अलग संगठन के रूप में स्वीकार किया गया और उसे 1 अक्टूबर 1854 को डाकघर महानिदेशक के सीधे नियंत्रण में सौंप दिया गया। इस तरह डाक विभाग ने सन् 2004 में 1 अक्टूबर को अपने 150 वर्ष पूरे किये। भारतीय डाक व्यवस्था कई व्यवस्थाओं को जोड़कर बनी है। 650 से ज्यादा रजवाड़ों की डाक प्रणालियों, ज़िला डाक प्रणाली और जमींदारी डाक व्यवस्था को प्रमुख ब्रिटिश डाक व्यवस्था में शामिल किया गया था। इन टुकड़ों को इतनी खूबसूरती से जोड़ा गया है कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक संपूर्ण अखंडित संगठन है।
1766 में लार्ड क्लाइव ने देश में पहली डाक व्यवस्था स्थापित की थी। इसके बाद 1774 में वारेन हेस्टिंग्स ने इस व्यवस्था को और मजबूत किया। उन्होंने एक महा डाकपाल के अधीन कलकत्ता प्रधान डाकघर स्थापित किया। मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में क्रमशः 1786 और 1793 में डाक व्यवस्था शुरू की गई। 1837 में डाक अधिनियम लागू किया गया ताकि तीनों प्रेसीडेन्सी में सभी डाक संगठनों को आपस में मिलाकर देशस्तर पर एक अखिल भारतीय डाक सेवा बनाई जा सके। 1854 में डाकघर अधिनियम के जरिए एक अक्टूबर 1854 को मौजूदा प्रशासनिक आधार पर भारतीय डाक घर को पूरी तरह सुधारा गया।
डाक और तार
1854 में डाक और तार दोनों ही विभाग अस्तित्व में आए। शुरू से ही दोनों विभाग जन कल्याण को ध्यान में रख कर चलाए गए। लाभ कमाना उद्देश्य नहीं था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सरकार ने फैसला किया कि विभाग को अपने खर्चे निकाल लेने चाहिए। उतना ही काफ़ी होगा। 20वीं सदी में भी यही क्रम बना रहा। डाकघर और तार विभाग के क्रियाकलापों में एक साथ विकास होता रहा। 1914 के प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत में दोनों विभागों को मिला दिया गया।[2]
सेवाओं का एकीकरण
भारतीय राज्यों के वित्तीय और राजनीतिक एकीकरण के चलते यह आवश्यक और अपरिहार्य हो गया कि भारत सरकार भारतीय राज्यों की डाक व्यवस्था को एक विस्तृत डाक व्यवस्था के अधीन लाए। ऐसे कई राज्य थे जिनके अपने ज़िला और स्वतंत्र डाक संगठन थे और उनके अपने डाक टिकट चलते थे। इन राज्यों के लैटर बाक्स हरे रंग में रंगे जाते थे ताकि वे भारतीय डाकघरों के लाल लैटर बाक्सों से अलग नज़र आएं। 1908 में भारत के 652 देशी राज्यों में से 635 राज्यों ने भारतीय डाक घर में शामिल होना स्वीकार किया। केवल 15 राज्य बाहर रहे, जिनमें हैदराबाद, ग्वालियर, जयपुर और ट्रावनकोर प्रमुख हैं। 1925 में डाक और तार विभाग का बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया। विभाग की वित्तीय स्थिति का जायजा लेने के लिए उसके खातों को दोबारा व्यवस्थित किया गया। उद्देश्य यह पता लगाना था कि विभाग करदाताओं पर कितना बोझ डाल रहा है या सरकार का राजस्व कितना बढा रहा है और इस दिशा में विभाग की चारों शाखाएं यानी डाक, तार, टेलीफोन और बेतार कितनी भूमिका निभा रहे हैं।[2]
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
उन कठिन दिनों में देश के साथ-साथ डाक विभाग भी इसके असर से अछूता नहीं रहा। 1857 के बाद विभाग ने आगजनी और लूटमार का दौर देखा। एक उपडाकपाल और एक ओवरसियर की हत्या कर दी गई, एक रनर को घायल कर दिया गया और बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्यों के कई डाकघरों को लूट लिया गया। उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्यों और अवध में सभी संचार लाइनों को बंद कर दिया गया था और हिंसा खत्म हो जाने के बाद भी साल भर तक कई डाकघरों को दोबारा नहीं खोला जा सका। लगभग पांच माह तक चलने वाली 1920 की डाक हड़तालों ने देश की डाक सेवा को पूरी तरह ठप्प कर दिया था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई डाकघरों और लैटर बक्सों को जला दिया गया था, और डाक का आना-जाना बड़ी मुश्किल से हो पाता था। इसके कारण कई सेक्टरों में डाक सेवाएं गड़बड़ा गई थीं।[2]
सदस्यता
भारत 1876 से 'यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन' (यू.पी.यू.) का और 1964 से 'एशिया प्रशांत पोस्टल यूनियन' (ए.पी.पी.यू.) का सदस्य है। भारतीय डाक 217 से भी अधिक देशों के साथ स्थलीय और विमान सेवा द्वारा पत्रों का आदान-प्रदान करता है। भारतीय डाक द्वारा 27 देशों के साथ मनीऑर्डर सेवा की व्यवस्था की गई है और 25 देशों के साथ सिर्फ पैसा आने वाली ( भुगतान) सुविधा उपलब्ध की गई है। जबकि भूटान एवं नेपाल के साथ दोतरफा मनीऑर्डर सेवा की व्यवस्था की गई है। 'अंतरराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक मनीऑर्डर सेवा' द्वारा 97 देशों के साथ इलेक्ट्रॉनिक मनीऑर्डर सेवा चलायी जा रही है।
सबसे बड़ी डाक प्रणाली
आज़ादी के समय देश भर में 23,344 डाकघर थे। इनमें से 19,184 डाकघर ग्रामीण क्षेत्रों में और 4,160 शहरी क्षेत्रों में थे। आजादी के बाद डाक नेटवर्क का सात गुना से ज्यादा विस्तार हुआ है। आज एक लाख 55 हज़ार डाकघरों के साथ भारतीय डाक प्रणाली विश्व में पहले स्थान पर है। लगभग एक लाख 55 हज़ार से भी ज़्यादा डाकघरों वाला भारतीय डाक तंत्र विश्व की सबसे बड़ी डाक प्रणाली होने के साथ-साथ देश में सबसे बड़ा रिटेल नेटवर्क भी है। यह देश का पहला बचत बैंक भी था और आज इसके 16 करोड़ से भी ज़्यादा खातेदार हैं और डाकघरों के खाते में दो करोड़ 60 लाख करोड़ से भी अधिक राशि जमा है। इस विभाग का सालाना राजस्व 1500 करोड़ से भी अधिक है।[1]
स्वरूप
देशभर में डेढ़ लाख से ज़्यादा डाकघर हैं। जिसकी सेवाएं लोग कई तरीकों से रोजमर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं।
बड़े डाकघर
- सब पोस्ट ऑफिस
- हेड पोस्ट ऑफिस
- जनरल पोस्ट ऑफिस
- ये पोस्ट ऑफिस सभी प्रकार की सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।
छोटे डाकघऱ
- शाखा पोस्ट ऑफिस
- विभागेत्तर पोस्ट ऑफिस
- इन पोस्ट ऑफिसों में रोजमर्रा की जरुरतों की ज़रूरी सेवाएं ही उपलब्ध होती हैं।[3]
डाक सेवा का विकास
पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है। पोस्ट कार्ड 1879 में चलाया गया जबकि 'वैल्यू पेएबल पार्सल' (वीपीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ। तेज डाक वितरण के लिए पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिनकोड) 1972 में शुरू हुआ। तेज़ीसे बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985 में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया। समय की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994 में मेट्रो, राजधानी, व्यापार चैनल, ईपीएस और वीसैट के माध्यम से मनी ऑर्डर भेजा जाना शुरू किया गया।
संचार का मजबूत साधन
डाकघर ने राष्ट्र को परस्पर जोड़ने, वाणिज्य के विकास में सहयोग करने और विचार व सूचना के अबाध प्रवाह में मदद की है। डाक वितरण में पैदल से घोड़ा गाड़ी द्वारा, फिर रेल मार्ग से, वाहनों से लेकर हवाई जहाज तक विकास हुआ है। पिछले कई सालों में डाक लाने ले जाने के तरीकों और परिमाण में बदलाव आया है। आज डाक यंत्रीकरण और स्वचालन पर जोर दिया जा रहा है, जिन्हें उत्पादकता और गुणवत्ता सुधारने तथा उत्तम डाक सेवा प्रदान करने के लिए अपना लिया गया है। डाक सेवाओं के सामाजिक और आर्थिक कर्तव्य हैं जो कारोबारी नज़रिए से बिलकुल अलग हैं। विशेषतः विकासशील देशों में ऐसा ही है। भरोसेमंद डाक व्यवस्था आधुनिक सूचना व वितरण ढांचे का अहम अंग है। इसके अलावा वह आर्थिक विकास और ग़रीबी कम करने में एक महत्वपूर्ण साधन है।[4]
विस्तृत गतिविधियां
भारतीय डाक सेवा का क्षेत्र चिट्ठियां बांटने और संचार का कारगर साधन बने रहने तक ही सीमित नहीं है। आपको सुनकर हैरानी हो सकती है कि शुरूआती दिनों में डाकघर विभाग, डाक बंगलों और सरायों का रख रखाव भी करता था। 1830 से लगभग तीस सालों से भी ज्यादा तक यह विभाग यात्रियों के लिए सड़क यात्रा को भी सुविधाजनक बनाते थे। कोई भी यात्री एक निश्चित राशि के अग्रिम पर पालकी, नाव, घोड़े, घोड़ागाड़ी और डाक ले जाने वाली गाड़ी में अपनी जगह आरक्षित करवा सकता था। वह रास्ते में पड़ने वाली डाक चौकियों में आराम भी कर सकता था। यही डाक चौकियां बाद में डाक बंगला कहलाईं। 19वीं सदी के आखिर में प्लेग की महामारी फैलने के दौरान, डाकघरों को कुनैन की गोलियों के पैकेट बेचने का काम भी सौंपा गया था।
भारत संयुक्त परिवारों और छोटी आमदनी वाले लोगों का देश है, जहां लोगों को छोटी रकमों की सूरत में लाखों रूपए भेजने पड़ते हैं। रुपयों के लेन-देन का काम ज़िला मुख्यालयों में स्थित 321 सरकारी खजानों द्वारा किया जाता था। 1880 में मनीआर्डर के द्वारा छोटी रकमें भेजने का काम 5090 डाकघर वाली विस्तृत डाक एजेंसी को दिया गया और इस तरह ज़िला मुख्यालयों तक जाने और प्राप्तकर्ता द्वारा पहचान साबित करने की कठिनाइयां कम हो गईं। 1884 में उच्च पदों पर आसीन कर्मचारियों को छोड़कर देसी डाक कर्मचारियों के लिए डाक जीवन बीमा योजना शुरू की गई, क्योंकि भारत में काम करने वाली बीमा कंपनियां आम भारतीय निवासियों का बीमा करने से कतराती थीं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 डाकघर की कहानी इतिहास की जुबानी (हिंदी) IAS। अभिगमन तिथि: 24 दिसम्बर, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 भारतीय डाकघर का इतिहास (हिंदी) गूगल ग्रुप। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
- ↑ डाक सेवा का अधिकार (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 दिसम्बर, 2013।
- ↑ भारतीय डाकघर का इतिहास (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 दिसम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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