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ईसा पूर्व 326 में [[सिकन्दर]] की सेनाएँ [[पंजाब]] के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। [[मध्यप्रदेश]] और [[बिहार]] में [[नंद वंश]] का राजा [[धनानंद|धननंद]] शासन कर रहा था। [[सिकन्दर]] के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं। मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो [[मगध साम्राज्य]] की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करने और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था '[[चंद्रगुप्त मौर्य|चंद्रगुप्त]]'। जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों में इसे सेन्ड्रोकोट्टस की पहचान भारतीय ग्रंथों के चंद्रगुप्त से की है। यह पहचान [[भारत|भारतीय]] इतिहास के तिथिक्रम की आधारशिला बन गई है।
ईसा पूर्व 326 में [[सिकन्दर]] की सेनाएँ [[पंजाब]] के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। [[मध्यप्रदेश]] और [[बिहार]] में [[नंद वंश]] का राजा [[धनानंद|धननंद]] शासन कर रहा था। [[सिकन्दर]] के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं। मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो [[मगध साम्राज्य]] की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था '[[चंद्रगुप्त मौर्य|चंद्रगुप्त]]'। जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने इसे 'सेन्ड्रोकोट्टस' कहा है। विलियम जॉन्स पहले विद्वान थे जिन्होंने सेन्ड्रोकोट्टस' की पहचान भारतीय ग्रंथों के 'चंद्रगुप्त' से की है। यह पहचान [[भारत|भारतीय]] इतिहास के तिथिक्रम की आधारशिला बन गई है।
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चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने [[ब्राह्मण ग्रंथ|ब्राह्मण ग्रंथों]], [[मुद्राराक्षस]], [[विष्णुपुराण]] की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की [[धुण्डिराज]] द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में [[ब्राह्मण]], [[बौद्ध]] एवं [[जैन]] परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।
चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने [[ब्राह्मण ग्रंथ|ब्राह्मण ग्रंथों]], [[मुद्राराक्षस]], [[विष्णुपुराण]] की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की [[धुण्डिराज]] द्वारा रचित 'मुद्राराक्षस' की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को 'शूद्र' माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में [[ब्राह्मण]], [[बौद्ध]] एवं [[जैन]] परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।
====<u>राजनीतिक परिस्थितियाँ</u>====
====<u>राजनीतिक परिस्थितियाँ</u>====
जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति [[सेल्यूकस]] अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम [[एशिया]] में प्रभुत्व के मामले में, [[ऐन्टिगोनस]] का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई0 पू0 312 में उसने [[बेबिलोन]] पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने [[ईरान]] के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई0 पू0 305-4 में [[काबुल]] के मार्ग से होते हुए वह [[सिंधु नदी]] की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी।  
जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति [[सेल्यूकस]] अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम [[एशिया]] में प्रभुत्व के मामले में, [[ऐन्टिगोनस]] का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई0 पू0 312 में उसने [[बेबिलोन]] पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने [[ईरान]] के विभिन्न राज्यों को जीतकर 'बैक्ट्रिया' पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह [[भारत]] की ओर बढ़ा। ई0 पू0 305-4 में [[काबुल]] के मार्ग से होते हुए वह [[सिंधु नदी]] की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी।  


पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा [[रोमन]] लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते। केवल [[एप्पियानस]] ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।" जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।
पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा [[रोमन]] लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते। केवल [[एप्पियानस]] ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।" जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।

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ईसा पूर्व 326 में सिकन्दर की सेनाएँ पंजाब के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। मध्यप्रदेश और बिहार में नंद वंश का राजा धननंद शासन कर रहा था। सिकन्दर के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं। मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो मगध साम्राज्य की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था 'चंद्रगुप्त'। जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने इसे 'सेन्ड्रोकोट्टस' कहा है। विलियम जॉन्स पहले विद्वान थे जिन्होंने सेन्ड्रोकोट्टस' की पहचान भारतीय ग्रंथों के 'चंद्रगुप्त' से की है। यह पहचान भारतीय इतिहास के तिथिक्रम की आधारशिला बन गई है।

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रंथों, मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित 'मुद्राराक्षस' की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को 'शूद्र' माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।

राजनीतिक परिस्थितियाँ

जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम एशिया में प्रभुत्व के मामले में, ऐन्टिगोनस का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई0 पू0 312 में उसने बेबिलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर 'बैक्ट्रिया' पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई0 पू0 305-4 में काबुल के मार्ग से होते हुए वह सिंधु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी।

पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा रोमन लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते। केवल एप्पियानस ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।" जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।

बिन्दुसार

चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र 'बिन्दुसार' सम्राट बना। यूनानी लेखों के अनुसार उसका नाम अमित्रकेटे था। विद्वानों के अनुसार 'अमित्रकेटे' का संस्कृत रूप है 'अमित्रघात या अमित्रखाद' (शत्रुओं का नाश करने वाला)। स्टैवो के अनुसार सेल्यूकस के उत्तराधिकारी एण्टियोकस प्रथम ने अपना राजदूत डायमेकस बिन्दुसार के दरबार में भेजा। प्लिनी के अनुसार टॉलमी द्वितीय फिलेडेल्फस ने डायोनियस को बिन्दुसार के दरबार में नियुक्त किया।

अपने पिता की भाँति बिन्दुसार भी जिज्ञासु था और विद्वानों तथा दार्शनिकों का आदर करता था। ऐथेनियस के अनुसार बिन्दुसार ने एण्टियोकस (सीरिया का शासक) को एक यूनानी दार्शनिक भेजने के लिए लिखा था। दिव्यावदान की एक कथा के अनुसार आजीवक परिव्राजक बिन्दुसार की सभा को सुशोभित करते थे। पुराणों के अनुसार बिन्दुसार ने 24 वर्ष तक, किन्तु महावंश के अनुसार 27 वर्ष तक राज्य किया। डॉ. राधा मुकुद मुकर्जी ने बिन्दुसार की मृत्यु तिथि ईसा पूर्व 272 निर्धारित की है। कुछ अन्य विद्वान यह मानते हैं कि बिन्दुसार की मृत्यु ईसा पूर्व 270 में हुई।

अशोक

अशोक
Ashoka

अशोक (राजकाल ईसापूर्व 269-232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का राजा था। अशोक का 'देवनाम प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी' आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर (कर्नाटक) तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक गौतम बुद्ध के भक्त हो गया और उन्हीं (महात्मा बुद्ध) की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल-लुम्बिनी में मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक के अभिलेखों में प्रजा के प्रति कल्याणकारी द्रष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है|

बिंदुसार का पुत्र "अशोक महान"

अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। भाइयों के साथ गृह-युद्ध के बाद 272 ई. पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया।

आरंभ में अशोक भी अपने पितामह चंद्रगुप्त मौर्य और पिता बिंदुसार की भांति युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार करता गया। कश्मीर, कलिंग तथा कुछ अन्य प्रदेशों को जीतकर उसने संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया जिसकी सीमाएं पश्चिम में ईरान तक फैली हुई थीं। परंतु कलिंग युद्ध में जो जनहानि हुई उसका अशोक के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह हिंसक युद्धों की नीति छोड़कर धर्म विजय की ओर अग्रसर हुआ। अशोक की प्रसिद्धि इतिहास में उसके साम्राज्य विस्तार के कारण नहीं वरन धार्मिक भावना और मानवतावाद के प्रचारक के रूप में अधिक है।

बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक राजा हुआ। अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन उसके शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें संस्कृत तथा पालि में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।

तक्षशिला और कलिंग

अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक अशोक ने मौर्य साम्राज्य की परम्परागत नीति का ही अनुसरण किया। अशोक ने देश के अन्दर साम्राज्य विस्तार किया किन्तु दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार की नीति अपनाई।

भारत के अन्दर अशोक एक विजेता रहा। उसने खस, नेपाल को विजित किया और तक्षशिला के विद्रोह का शान्त किया। अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। ऐसा प्रतीत होता है कि नंद वंश के पतन के बाद कलिंग स्वतंत्र हो गया था। प्लिनी की पुस्तक में उद्धत मेगस्थनीज़ के विवरण के अनुसार चंद्रगुप्त के समय में कलिंग एक स्वतंत्र राज्य था। अशोक के शिलालेख के अनुसार युद्ध में मारे गए तथा क़ैद किए हुए सिपाहियों की संख्या ढाई लाख थी और इससे भी कई गुने सिपाही युद्ध में घायल हुए थे। मगध की सीमाओं से जुड़े हुए ऐसे शक्तिशाली राज्य की स्थिति के प्रति मगध शासक उदासीन नहीं रह सकता था। खारवेल के समय मगध को कलिंग की शक्ति का कटु अनुभव था। सुरक्षा की दृष्टि से कलिंग का जीतना आवश्यक था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कलिंग को जीतने का दूसरा कारण भी था। दक्षिण के साथ सीधे सम्पर्क के लिए समुद्री और स्थल मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण आवश्यक था। कलिंग यदि स्वतंत्र देश रहता तो समुद्री और स्थल मार्ग से होने वाले व्यापार में रुकावट पड़ सकती थी। अतः कलिंग को मगध साम्राज्य में मिलाना आवश्यक था। किन्तु यह कोई प्रबल कारण प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस दृष्टि से तो चंद्रगुप्त के समय से ही कलिंग को मगध साम्राज्य में मिला लेना चाहिए था। कौटिल्य के विवरण से स्पष्ट है कि वह दक्षिण के साथ व्यापार का महत्व देता था। विजित कलिंग राज्य मगध साम्राज्य का एक अंग हो गया। राजवंश का कोई राजकुमार वहाँ वाइसराय (उपराजा) नियुक्त कर दिया गया। तोसली इस प्रान्त की राजधानी बनाई गई।

हृदय परिवर्तन

कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा। अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर 'धम्म विजय' की नीति को अपनाया। डा. हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार मगध का सम्राट बनने के बाद यह अशोक का प्रथम तथा अन्तिम युद्ध था।

साम्राज्य की सीमा

अशोक के साम्राज्य की सीमा का मानचित्र

अशोक के शिलालेखों तथा स्तंभलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा की ठीक जानकारी प्राप्त होती है। शिला तथा स्तंभलेखों के विवरण से ही नहीं, वरन् जहाँ से अभिलेख पाए गए हैं, उन स्थानों की स्थिति से भी सीमा निर्धारण करने में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों में जनता के लिए राजा की घोषणाएँ थीं। अतः वे अशोक के विभिन्न प्रान्तों में आबादी के मुख्य केन्द्रों में उत्कीर्ण कराए गए। कुछ अभिलेख सीमांत स्थानों पर पाए जाते हैं। उत्तर—पश्चिम में शाहबाज़गढ़ी और मंसेरा में अशोक के शिलालेख पाए गए। इसके अतिरिक्त तक्षशिला में और क़ाबुल प्रदेश में लमगान में अशोक के लेख अरामाइक लिपि में मिलते हैं। एक शिलालेख में एण्टियोकस द्वितीय थियोस को पड़ोसी राजा कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर-पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा हिन्दुकुश तक थी।

शिलालेख और स्तूप

ब्राह्मी लिपि

पूर्व में बंगाल तक मौर्य साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि महास्थान शिलालेख से होती है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है और मौर्य काल का माना जाता है। महावंश के अनुसार अशोक अपने पुत्र को विदा करने के लिए ताम्रलिप्ति तक आया था। ह्वेनसांग को भी ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट, पूर्वी बंगाल तथा पुण्ड्रवर्धन में अशोक के स्तूप देखने को मिले थे। दिव्यावदान में कहा गया है कि अशोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का ही एक अंग था। आसाम कदाचित् मौर्य साम्राज्य से बाहर था। वहाँ पर अशोक के कोई स्मारक चीनी यात्री को देखने को नहीं मिले।

राज्यों से संबंध

यद्यपि अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी देशों पर उसका सीधा शासन था। अशोक के पाँचवे और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है। जैसे यवन, काम्बोज, नाभाक, नाभापंक्ति, भोज, पेत्तनिक, आन्ध्र, पुलिंद रेप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ अशोक द्वारा जीते गए राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभावक्षेत्र में थे।

धर्म परिवर्तन

इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। महावंश के अनुसार वह प्रतिदिन 60,000 ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी-देवताओं की पूजा किया करता था। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक के इष्ट देव शिव थे। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी। किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह जिज्ञासु भी था। मौर्य राज्य सभा में सभी धर्मों के विद्वान भाग लेते थे। जैसे—ब्राह्मण, दार्शनिक, निग्रंथ, आजीवक, बौद्ध तथा यूनानी दार्शनिक।

संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है, "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"

बौद्ध धर्म

इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके अभिलेख हैं। राज्याभिषक से सम्बद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा। भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न—बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है।

धर्म संबंधी शिलालेख

अशोक के शिलालेख

शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशोक का धम्म व्यावहारिक फलमूलक (अर्थात फल को दृष्टि में रखने वाला) और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया वहाँ लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया।

महत्वपूर्ण यह है कि एक शासक जिसके पास निरंकुश क़ानूनी विधान, विशाल सेना एंव अपरिमित संसाधन हो वह अपने शिलालेखों में स्वयं को नैतिक मूल्यों के विस्तारक के रूप में प्रस्तुत क्यों करता है? वस्तुतः योग्य व कुशल शासकों की नियुक्तियां सदैव साम्राज्य की रक्षा के लिए निर्मित की जाती हैं| बौद्ध धर्म की शिक्षा के केंद्र मगध में जनमानस में शोषण के विरुद्ध व्यापक चेतना थी| सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने और स्तूपादि को निर्मित कराने की प्रेरणा धर्माचार्य उपगुप्त ने ही दी। जब भगवान बुद्ध दूसरी बार मथुरा आये, तब उन्होंने भविष्यवाणी की और अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा कि कालांतर में यहाँ उपगुप्त नाम का एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान होगा, जो उन्हीं की तरह बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा और उसके उपदेश से अनेक भिक्षु योग्यता और पद प्राप्त करेंगे। इस भविष्यवाणी के अनुसार उपगुप्त ने मथुरा के एक वणिक के घर जन्म लिया। उसका पिता सुगंधित द्रव्यों का व्यापार करता था। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था। उपगुप्त किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। आनंद के शिष्य शाणकवासी ने उपगुप्त को मथुरा के नट-भट विहार में बौद्ध धर्म के 'सर्वास्तिवादी संप्रदाय' की दीक्षा दी थी। किन्तु बौद्ध अनुश्रुतियों और अशोक के अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि उसने किसी राजनीतिक उद्देश्य से धम्म का प्रचार किया। तेरहवें शिलालेख और लघु शिलालेख से विदित होता है कि अशोक धर्म परिवर्तन का कलिंग युद्ध से निकट सम्बन्ध है। रोमिला थापर का मत है कि धम्म कल्पना अशोक की निजी कल्पना थी।

अहिंसा का प्रचार

अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। अहिंसा के प्रचार के लिए अशोक ने कई क़दम उठाए। उसने युद्ध बंद कर दिए और स्वयं को तथा राजकर्मचारियों को मानव-मात्र के नैतिक उत्थान में लगाया। जीवों का वध रोकने के लिए अशोक ने प्रथम शिलालेख में विक्षप्ति जारी की कि किसी यज्ञ के लिए पशुओं का वध न किया जाए।

विदेशों से सम्बन्ध

धम्म प्रचार एवं धम्म विजय के संदर्भ में अशोक के शिलालेखों में कुछ ऐसे विवरण भी मिलते हैं, जिनमें उसके एवं विदेशों के पारस्परिक सम्बन्धों का आभास मिलता है। ये सम्बन्ध कूटनीति एवं भौगोलिक सान्निध्य के हितों पर आधारित थे। अशोक ने जो सम्पर्क स्थापित किए वे अधिकांशतः दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों में थे और धम्म मिशनों के माध्यम से स्थापित किए थे। इन मिशनों की तुलना आधुनिक सदभावना मिशनों से की जा सकती है। अशोक के ये मिशन स्थायी तौर पर विदेशों में एक आश्चर्यजनक तथ्य हैं कि स्तंभ अभिलेख नं. 7, जो अशोक के काल की आख़िरी घोषणा मानी जाती है, ताम्रपर्ण (श्रीलंका) के अतिरिक्त और किसी विदेशी शक्ति का उल्लेख नहीं करती। शायद विदेशों में अशोक को उनती सफलता नहीं मिली जितनी साम्राज्य के भीतर। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विदेशों से सम्पर्क के जो द्वार सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात खुले थे, वे अब और अधिक चौड़े हो गए।

यवन, काम्बोज एवं गांधार

खरोष्ठी लिपि

जहाँ तक पश्चिमी शक्तियों का सम्बन्ध है, शिलालेख 5 एवं 13 में यवनों, काम्बोजों एवं गांधारों का उल्लेख है। किन्तु उत्तर-पश्चिम की इन शक्तियों के पश्चिम में भी कुछ ऐसी शक्तियाँ थीं, जो कि सिकन्दर के आक्रमण के बाद स्थापित हो गई थीं और सामान्य रूप से यवन थीं। इनमें से कुछ को अशोक ने नाम लेकर अभिहित किया है। एक स्थान पर अशोक ने कहा है कि उसके धम्म मिशन सीमावर्ती राज्यों और 600 योजन जैसे सुदूर क्षेत्रों में भी पहुँचे थे। शिलालेख 2 एवं 13 में यवन नरेश अंतियोक का उल्लेख है जो अखमनी एण्टियोकस द्वितीय माना जाता है। कहा जाता है कि अशोक ने विशाल पत्थर पर एक अभिलेख उत्कीर्ण करवाया जिसकी घोषणाओं की शैली अखमनी प्ररूप से प्ररित थी। भाषाशास्त्रीय अध्ययन से भी इन सम्पर्कों की पुष्टि होती है। अशोक के शाहबज़गढ़ी एवं मनसेहरा शिलालेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग एवं कुछ ईरानी शब्दों का प्रयोग भी इसी ओर संकेत करते हैं। रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख में अपरान्त (पश्चिम भारत) में अशोक के गवर्नर के रूप में योनराज तुफ़ास्क का नाम मिलता है। जो स्पष्टतः एक ईरानी नाम है। पश्चिम के ही कुछ अन्य नरेशों के नाम अशोक के शिलालेख नं0 13 में मिलते हैं--

  1. तुरमाय अर्थात् तुलमाय, जो मिस्र का यवन नरेश टाल्मी द्वितीय फिलाडेल्फस (ई. पू. 285-47) था।
  2. अंतिकितनी अर्थात् अंतेकिन—मेसिडोनिया का यवन नरेश ऐण्टीगोनस गोनातास (ई. पू. 277-39)।
  3. मका अर्थात् मगा—उत्तरी अफ्रीका में सेरीन का यवन नरेश मगा (ई. पू. 282-58)।
  4. अलिकसुन्दर—ऐपीरस का यवन नरेश एलेक्ज़ेडर (ई. पू. 272-55) अथवा कोरिन्स का यवन नरेश एलेक्ज़ेडर (ई0 पू0 252-44)।

(ये चार नरेश अंतियोक के राज्य के परे बताए जाते हैं।)

दक्षिण

दक्षिण में मौर्य प्रभाव के प्रसार की जो प्रक्रिया चंद्रगुप्त मौर्य के काल में आरम्भ हुई, वह अशोक के नेतृत्व में और भी अधिक पुष्ट हुई। लगता है कि चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी। गावीमठ, पालकी गुण्डु, ब्रह्मगिरि, मास्की, येर्रागुण्डी, जतिंग रामेश्वर आदि स्थलों पर स्थित अशोक के शिलालेख इसके प्रमाण हैं। और फिर परिवर्ती कालीन साहित्य में, विशेष रूप से दक्षिण में अशोकराज की परम्परा काफ़ी प्रचलित प्रतीत होती है। ह्यूनत्सांग ने तो चोल-पाड्य राज्यों में (जिन्हें स्वयं अशोक के शिलालेख 2 एवं 13 में सीमावर्ती प्रदेश बताया गया है) भी अशोकराज के द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का वर्णन किया है। यह सम्भव है कि कलिंग में अशोक की सैनिक विजय और फिर उसके पश्चात उनके सौहार्दपूर्ण नीति ने भोज, पत्तनिक, आँध्रों, राष्ट्रिकों, सतियपुत्रों एवं केरलपुत्रों जैसी शक्तियों के बीच मौर्य प्रभाव के प्रसार को बढ़ाया होगा। अशोक और श्रीलंका के सम्बन्ध पारस्परिक सदभाव, आदर-सम्मान एवं बराबरी पर आधारित थे न कि साम्राज्यिक शक्ति एवं आश्रित शक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों पर।

उपर्युक्त विदेशी शक्तियों के अतिरिक्त कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनके सम्बन्ध में कुछ परम्पराएँ एवं किंवदन्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरणार्थ कश्मीर सम्भवतः अन्य सीमावर्ती प्रदेशों की तरह ही अशोक के साम्राज्य से जुड़ा था। मध्य एशिया में स्थित खोटान के राज्य के बारे में एक तिब्बती परम्परा है कि बुद्ध की मृत्यु के 250 वर्ष के बाद अर्थात् ई0 पू0 236 में अशोक खोटान गया था। सम्भवतः यह भी धम्म मिशन के रूप में हुआ होगा किन्तु यह दृष्टव्य है कि स्वयं अशोक के अभिलेखों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार नेपाल का कुछ अंश अशोक की यात्रा के उपलक्ष्य में वहाँ के करों को कम करना किसी विदेशी राज्य में सम्भव नहीं था। फिर भी नेपाल का शेष अंश सम्भवतः मौर्य साम्राज्य से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए हुए होगा।

अशोक शासक के रूप में

शासक संगठन का प्रारूप लगभग वही था जो चंद्रगुप्त मौर्य के समय में था। अशोक के अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जैसे राजुकु, प्रादेशिक, युक्तक आदि। इनमें अधिकांश राज्याधिकारी चंद्रगुप्त के समय से चले आ रहे थे। अशोक ने धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया जिसका विवेचन आगे किया जाएगा। केवल धम्म महामात्रों की नियुक्ति एक नवीन प्रकार की नियुक्ति थी। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। परन्तु शासन के प्रति वह कतई उदासीन नहीं हुआ।

40 वर्ष तक राज्य करने के बाद लगभग ई0 पू0 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक अशोक के अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। किन्तु इन मौर्य शासकों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त तथा अनिश्चित है। पुराण, बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में इन उत्तराधिकारियों के नामों की जो सूचियाँ दी गई हैं वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती हैं।

अशोक के बाद

पुराणों के अनुसार अशोक के बाद कुणाल गद्दी पर बैठा। दिव्यावदान में उसे धर्मविवर्धन कहा गया है, किन्तु अशोक के और भी पुत्र थे। राजतरंगिणी के अनुसार जलौक कश्मीर का स्वतंत्र शासक बन गया। तारनाथ के अनुसार वीरसेन अशोक का पुत्र था, जो गांधार का स्वतंत्र शासक बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि अशोक की मृत्यु के बाद ही साम्राज्य का विघटन हो गया। कुणाल अंधा था, अतः वह शासन कार्य में असमर्थ था। जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के अनुसार शासन की बाग़डोर उसके पुत्र संप्रति के हाथ में थी। इन अनुश्रुतियों के अनुसार संप्रति ही कुणाल का उत्तराधिकारी था। पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफ़ाओं के शिलालेख के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। नागार्जुनी गुफ़ाओं को दशरथ ने आजीविकों को दान में दिया था। इन प्रमाणों के आधार पर यह मत प्रस्तुत किया गया कि मगध साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में तथा संप्रति का पश्चिमी भाग में था। विष्णु पुराण तथा गार्गी संहिता के अनुसार संप्रति तथा दशरथ के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक सालिसुक था। उसे संप्रति का पुत्र बृहस्पति भी माना जा सकता है। पुराणों में ही नहीं वरन् हर्षचरित में भी मगध के अन्तिम सम्राट का नाम बृहद्रथ दिया गया है। इनके अनुसार मौर्य वंश के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ की, उसके सेनापति पुष्यमित्र ने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।

महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा

अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, इस धर्म के उपदेशों को न केवल देश में वरन विदेशों में भी प्रचारित करने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए। अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को अशोक ने इसी कार्य के लिए श्रीलंका भेजा था। अशोक ने अपने कार्यकाल में अनेक शिलालेख खुदवाए जिनमें धर्मोपदेशों को उत्कीर्ण किया गया। राजशक्ति को सर्वप्रथम उसने ही जनकल्याण के विविध कार्यों की ओर अग्रसर किया। अनेक स्तूपों और स्तंभों का निर्माण किया गया। इन्हीं में से सारनाथ का प्रसिद्ध सिंहशीर्ष स्तंभ भी है जो अब भारत के राजचिन्ह के रूप में सम्मानित है।

अशोक की सहृदयता, सहिष्णुता और उदारता

कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने धार्मिक क्षेत्रों की ओर ध्यान न देकर राष्ट्रीय दृष्टि से हित साधन नहीं किया। इससे भारत का राजनीतिक विकास रूका जबकि उस समय रोमन साम्राज्य के समान विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना संभव थी। इस नीति से दिग्विजयी सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकी। इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास अवरूद्ध हो गया। दूसरी ओर अन्य का मत इससे विपरीत है। वे कहते हैं इसी नीति से भारतीयता का अन्य देशों में प्रचार हुआ। घृणा के स्थान पर सहृदयता विकसित हुई, सहिष्णुता और उदारता को बल मिला तथा बर्बरता के कृत्यों से भरे हुए इतिहास को एक नई दिशा का बोध हुआ। लोकहित की दृष्टि से अशोक ही अपने समकालीन इतिहास का एकमात्र ऐसा शासक है जिसने न केवल मानव की वरन जीवमात्र की चिंता की। इस मत-विभिन्नता के रहते हुए भी यह विचार सर्वमान्य है कि अशोक अपने काल का अकेला सम्राट था, जिसकी प्रशस्ति उसके गुणों के कारण होती आई है बल के डर से नहीं।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, अशोक के बाद ही मौर्य साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया था और लगभग 50 वर्ष के अन्दर इस साम्राज्य का अंत हो गया। इतने अल्प समय में इतने बड़े साम्राज्य का नष्ट हो जाना एक ऐसी घटना है कि इतिहासकारों में साम्राज्य विनाश के कारणों की जिज्ञासा स्वाभाविक ही है। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने अशोक की धार्मिक नीति को साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण माना है। उसके अनुसार अशोक की धार्मिक नीति बौद्धों के पक्ष में थी और ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों व उनकी सामाजिक श्रेष्ठता की स्थिति पर कुठाराघात करती थी। अतः ब्राह्मणों में प्रतिक्रिया हुई, जिसकी चरमसीमा पुष्यमित्र के विद्रोह में दृष्टिगोचर होती है। इस मत का सफलतापूर्वक विरोध करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार हेमचंद्र रायचौधरी का कहना है कि एक तो अशोक ने पशुबलि पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया नहीं था और फिर स्वयं ब्राह्मण ग्रंथों में भी यज्ञादि अवसरों पर पशु-बलि के विरोध के स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। अतः अशोक के तथाकथित प्रतिबंध को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। धम्ममहामात्रों के दायित्वों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है, जिसे ब्राह्मण विरोधी कहा जाए। वे तो ब्राह्मण, श्रमण आदि सभी के कल्याण के लिए थे। राजुकों जैसे न्यायाधिकारियों को जो अधिकार दिए गए वे भी ब्राह्मणों के अधिकारो पर आघात करने के उद्देश्य से नहीं अपितु दंडविधान को लोकहित एवं अधिक मानवीय बनाने के उद्देश्य से प्रेरित थे। और न ही सेनानी पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह को ब्राह्मणों द्वारा संगठित क्रान्ति कहना उचित होगा। यह तो सैनिक क्रान्ति थी, जिसमें धर्म का पुट नहीं था। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि पुष्यमित्र की राज्यक्रान्ति का कारण सेना पर पूर्ण अधिकार रखने वाले सेनापति की महत्वाकांक्षा थी, असंतुष्ट ब्राह्मणों के एक समुदाय का नेतृत्व नहीं।

ब्राह्मणों सम्मान

शिलालेखों मे ऐसी पर्याप्त सामग्री मिलती है जिससे यह सिद्ध होता है कि अशोक ब्राह्मणों का आदर करता था, उनकी भलाई में दिलचस्पी लेता था। वह ब्राह्मणों और श्रमणों को दान देता था। अशोक के पुत्रों तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इसके विपरीत यदि कश्मीर के ब्राह्मण इतिहासकार कल्हण पर विश्वास किया जाए तो अशोक के उत्तराधिकारी जलौक और ब्राह्मणों के सम्बन्ध नितांत मैत्रीपूर्ण थे। पुष्यमित्र का मौर्य साम्राज्य का सेनापति नियुक्त किया जाना ही एक प्रबल प्रमाण है कि मौर्यों की नीति ब्राह्मण विरोधी नहीं थी।

अशोक की शान्तिप्रियता तथा अहिंसा

हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार अशोक की शान्तिप्रियता तथा अहिंसा की नीति साम्राज्य के पतन का कारण बनी। कलिंग युद्ध के बाद साम्राज्य की सेना का सामरिक उत्साह ठंडा पड़ गया। अशोक ने अशोक ने युद्ध विजय की नीति को त्यागकर धम्म विजय की नीति अपना ली। इससे भी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हुई। उसने अपने पुत्रों को विलय और रक्तपात न करने का उपदेश दिया। उसके उत्तराधिकारी भेरिघोष की अपेक्षा धम्म घोष से अधिक परिचित थे। सेना से राजाओं का सम्पर्क कम रहा। वे देश की एकता को विघटित होने से बचा न सके। राजाओं का सेना से कितना कम सम्पर्क था यह इस बात से स्पष्ट है कि पुष्यमित्र ने सेना के ही समक्ष अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ का वध किया। कई इतिहासकार रायचौधरी के इस मत से सहमत नहीं हैं। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार अशोक की शान्तिप्रियता में कट्टरता नहीं थी। वह मानवीय स्वभाव की जटिलता से अच्छी तरह परिचित था और इसलिए उसने शान्तिप्रियता और युद्धत्याग की नीति को सीमा के अन्दर ही नियंत्रित रखा। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सेना भंग कर दी। तेरहवें शिलालेख में अशोक ने आटविक जातियों को जो चेतावनी दी है उससे स्पष्ट है कि क्षमाशील होते हुए भी वह अवसर पड़ने पर इन आटविक जातियों को उचित दंड देने से हिचकता नहीं था। यह आटविक राज्यों को एक शक्तिशाली राजा की चेतावनी है। जिसे अपनी सैन्यशक्ति पर विश्वास है। अशोक की नीति व्यावहारिक थी। इसीलिए उसने कलिंग को स्वतंत्र नहीं किया। उसकी अहिंसा की नीति भी व्यावहारिक थी।

दुर्बल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों का भी कुछ उत्तरदायित्व था। वंशानुगत साम्राज्य तभी तक बने रह सकते हैं जब तक योग्य शासकों की श्रृंखला बनी रहे। चंद्रगुप्त और अशोक पराक्रमी योद्धा और कुशल शासक थे, अतः वे इतने विशाल साम्राज्य की एकता बनाए रखने में सफल रहे। परन्तु अशोक के उत्तराधिकारी इस कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य थे। जिनके परिणामस्वरूप साम्राज्य के विभिन्न भाग धीरे-धीरे अलग होने लगे। ये दुर्बल शासक इस विघटन को रोकने में असफल रहे। सम्राट अशोक का साम्राज्य उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित हो गया। इससे विघटन प्रक्रिया की गति और बढ़ी और साम्राज्य की सुरक्षा को भारी क्षति पहुँची।

हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार मौर्यों के दूरस्थ प्रान्तों के शासक अत्याचारी थे। दिव्यावदान में बिन्दुसार और अशोक के समय तक्षशिला में विद्रोह होने का उल्लेख है। दोनों बार उन्होंने राजकुमार अशोक और कुणाल से दुष्टामात्यों के विरुद्ध शिकायतें कीं। दिव्यावदन में उल्लिखित अमात्यों (उच्चाधिकारियों) की दुष्टता की पुष्टि अशोक के कलिंग अभिलेख से भी होती है। कलिंग के उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए अशोक ने कहा है कि नागरिकों की नज़रबंदी या उनको दी जाने वाली यातना अकारण नहीं होनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्राट अशोक ने प्रति पाँचवें वर्ष केन्द्र से निरीक्षाटन के लिए उच्चाधिकारियों को भेजने की व्यवस्था की। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अशोक ने इन उच्च अधिकारियों की कार्यविधियों पर नियंत्रण रखा, किन्तु उसके उत्तराधिकारियों के राज्यकाल में ये कर्मचारी अधिक स्वतंत्र हो गए और प्रजा पर अत्याचार करने लगे।

अत्याचार के कारण दूरस्थ प्रान्त अवसर पाते ही स्वतंत्र हो गए। कलिंग और उत्तरापथ और सम्भवतः दक्षिणापथ ने सबसे पहले मौर्य साम्राज्य से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। चंद्रगुप्त की विजयों, कौटिल्य की कूटनीति तथा चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श के बावजूद मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत कई अर्धस्वतंत्र राज्य थे जैसे यवन, काम्बोज, भोज, आटविक राज्य आदि। केन्द्रीय सत्ता के दुर्बल होते ही ये प्रदेश स्वतंत्र हो गए। स्थानीय स्वतंत्रता की भावना को चंद्रगुप्त ने अपने सुसंगठित शासन से तथा अशोक ने अपने नैतिकता पर आधारित धम्म से कम करने का प्रयास किया। किन्तु अयोग्य उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यह भावना और भी अधिक बढ़ी और साम्राज्य के विघटन में सहायक सिद्ध हुई। कुछ विद्वानों ने आर्थिक कारणों को भी मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण माना है। अशोक की दानशीलता ने मौर्य अर्थव्यवस्था को अस्त—व्यस्त कर दिया था। बौद्ध मठों और भिक्षुकों को प्रभूत धनराशि दान में दी जाने लगी। दिव्यावदान में अशोक के दान की जो कथाएँ दी गई हैं उनकी पुष्टि अन्य बौद्ध अनुश्रुतियों से भी होती है। शासन और सेना का संगठन, संचार—साधन तथा जनता के कल्याण के बजाय जब यह धनराशि सम्प्रदायों को दी जाने लगी तो शासन व्यवस्था और विशेषकर सैन्य संगठन की अवहेलना होने लगी। इसके परिणाम अत्यन्त घातक सिद्ध हुए।

अर्थव्यवस्था

रोमिला थापर ने कोसांबी के मत का उल्लेख किया है कि उत्तरकालीन मौर्यों के राज्य काल में अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। कर वृद्धि के लिए अनेक उपाय अपनाए गए। इस काल के आहत सिक्कों में काफ़ी मिलावट है किन्तु डा. थापर ने स्वयं इस मत का खंडन किया है। मौर्यों के ही काल में सर्वप्रथम राज्य की आय के प्रमुख साधन के रूप में करों के महत्व को समझा गया। विकसित अर्थ व्यवस्था और राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार के साथ करों में वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। सिक्कों में मिलावट होने से यह नतीजा निकाला जा सकता है कि अर्थ व्यवस्था पर भारी दबाव था। उत्तरकालीन मौर्यों के शासन में क्षीण नियंत्रण के कारण मिलावट वाले सिक्के अधिक मात्रा में जारी होने लगे—विशेषकर उन प्रदेशों में जो साम्राज्य से अलग हो गए थे। चाँदी की अधिक माँग होने के कारण हो सकता है कि चाँदी के सिक्कों में चाँदी की मात्रा में कमी हो गई हो। इसके अलावा कोसांबी की यह धारणा इस आधार पर बनी है कि ये आहत सिक्के मौर्य काल के हैं, किन्तु यह निश्चित नहीं है। हस्तिनापुर तथा शिशुपाल गढ़ की खुदाइयों से जो मौर्यकालीन अवशेष मिले हैं, उनसे एक विकसित अर्थ व्यवस्था तथा भौतिक समृद्धि का ही परिचय मिलता है।

मौर्य अत्याचार

नीहार रंजन राय के अनुसार पुष्यमित्र की राज्यक्रान्ति मौर्य अत्याचार से विरुद्ध तथा मौर्यों द्वारा अपनाए गए विदेशी विचारों का—विशेषतः कला के क्षेत्र में—अस्वीकार था। इस तर्क का आधार यह है कि साँची और भारहुत कला लोक परम्परा के अनुकूल तथा भारतीय है किन्तु मौर्य कला इस लोक—कला से भिन्न है और विदेशी कला से प्रभावित है। नीहार रंजन राय के अनुसार जनसाधारण के विद्रोह का दूसरा कारण अशोक के द्वारा समाजों का निषेध था, जिससे जनता अशोक के विरुद्ध हो गई। किन्तु सवाल यह है कि यह निषेध अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी जारी रखा कि नहीं। इसके अतिरिक्त जनता के विद्रोह के लिए यह आवश्यक है कि मौर्यों की प्रजा में विभिन्न स्तरों पर एक संगठित राष्ट्रीय जागरण हो ताकि वे पुष्यमित्र के समर्थन में मौर्यों के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का समर्थन कर सकें। किन्तु ऐसी जागृति की सम्भावना तत्कालीन परिस्थितियों में सम्भव नहीं दिखाई देती।

प्रशासनिक व्यवस्था

ऊपर मौर्य साम्राज्य के जिन कारणों का विवेचन किया गया है, उनके अतिरिक्त डा. रोमिला थापर ने कई अन्य कारण प्रस्तुत किए हैं। उनका यह विवेचन मुख्य रूप से मौर्ययुगीन प्रशासनिक व्यवस्था कि विशेषताओं पर आधारित है। सर्वप्रथम उन्होंने शासन में केन्द्रीकरण की प्रधानता का उल्लेख किया है। ऐसे शासन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक था कि शासक काफ़ी योग्य हो। केन्द्र के शिथिल शासन का कमज़ोर पड़ना स्वाभाविक था। अशोक की मृत्यु के बाद, विशेषकर जब साम्राज्य का विभाजन हो गया तो केन्द्र का नियंत्रण शिथिल हो गया और प्रान्त साम्राज्य से पृथक होने लगे।

अयोग्य शासक

दूसरा कारण यह बताया गया है कि अधिकारिक तंत्र भली-भाँति प्रशिक्षित नहीं था। प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर चुने हुए अधिकारी ही राजनीतिक हलचल के बीच शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने में समर्थ हो सकते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसी व्यवस्था पाई जाती है। डा. थापर का यह मत स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थशास्त्र के अमात्य वर्ग का अच्छी प्रकार अध्ययन करने से स्पष्ट होगा कि सभी उच्च कर्मचारी योग्यताओं के आधार पर नियुक्त होते थे। यथार्थ परीक्षण के आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति की जो व्यवस्था मौर्य काल में थी वह प्राचीन भारत या मध्यकालीन भारत में कहीं भी नहीं पायी जाती। आधुनिक प्रतियोगिता परीक्षा पद्धति की कल्पना उस युग में करना ऐतिहासिक दृष्टि से अनुचित होगा। शासन संगठन के सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि ऐसी प्रतिनिधि सभा का अभाव था जो कि राजा के कार्यों पर नियंत्रण रख सके। किन्तु राजतंत्र पर आधारित सभी प्राचीन तथा मध्यकालीन राज्यों की यही विशेषता है। ऐसी स्थिति में हम प्रति निधि संस्था के अभाव को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण नहीं मान सकते। कहा गया है कि मौर्यकालीन राजनीतिक व्यवस्था में राज्य की कल्पना का अभाव था।

राज्य की कल्पना इसलिए आवश्यक है कि राज्य को राजा, शासन तथा सामाजिक व्यवस्था से ऊपर माना जाता है। राज्य वह सत्ता है जिसके प्रति व्यक्ति की शासन व समाज से परे—पूर्ण निष्ठा या भक्ति रहती है। किन्तु मौर्य शासन में राज्य की कल्पना की गई है। कौटिल्य ने जिस सप्तांग राज्य की कल्पना की है वह काफ़ी विकसित थी। किन्तु यदि यह भी मान लिया जाए कि राज्य की कल्पना मौर्य युग में नहीं थी, तो यूनान के अतिरिक्त विश्व में प्राचीन तथा मध्य काल में राज्य की ऐसी संकल्पना नहीं पाई जाती जहाँ राज्य, राजा तथा समाज से ऊपर हो और जिसके प्रति व्यक्ति की, राजा तथा समाज की अपेक्षा, अधिक निष्ठा हो। यही बात राष्ट्रीय भावना के सम्बन्ध में कही जा सकती है। राष्ट्र की भावना आधुनिक राजनीतिक तत्व है। प्राचीन तथा मध्य काल में इसकी खोज करना व्यर्थ होगा। एथेंसस्पार्टा सदृश छोटे देशों में यह भावना सम्भव है। किन्तु एक साम्राज्य जिसमें अनेक राज्यों तथा जातियों के लोग हों, इसकी कल्पना करना असंगत है। अखमीनी तथा रोमन साम्राज्यों में क्या इस भावना की सम्भवना हो सकती है।

हमारे विचार में रोमिला थापर द्वारा प्रस्तुत किए गए उपर्युक्त कारणों में से कोई भी मौर्य साम्राज्य के विघटन का ख़ास तथा प्रबल कारण नहीं लगता। इससे पूर्व हम ऊपर जिन कारणों की व्याख्या कर चुके हैं, वे ही संभाव्य कारण हो सकते हैं। मुख्य कारण तो केन्द्र में योग्य शासक का अभाव है। वंशानुगत साम्राज्य तभी बने रह सकते हैं जब वंश में एक के बाद दूसरा योग्य शासक हो। अशोक के बाद योग्य उत्तराधिकारियों का नितांत अभाव रहा।

मौर्यकालीन भारत

मौर्य साम्राज्य की सामाजिक—आर्थिक, शासन प्रबंन्ध तथा धर्म और कला सम्बन्धी जानकारी के लिए हमारे पास सामग्री है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज़ कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों का ठीक से अर्थ लगाया जाए तो पता चलेगा कि वे एक—दूसरे के पूरक हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से भी प्रान्तीय शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मौर्य काल की जानकारी के लिए अर्थशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। परम्परागत धारणा के आधार पर इसे चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्रि चाणक्य (विष्णुगुप्त) द्वारा रचित मानकर ई0 पू0 चौथी शताब्दी का बताया जाता है। किन्तु वैज्ञानिक ढंग से किए गए आधुनिक शोध ने इस मत के प्रति आशंका व्यक्त की है। इस संदर्भ में ट्रांटमैन के शोधकार्य का उल्लेख अनुचित न होगा। अर्थशास्त्र की शैली के सांख्यकीय विश्लेषण द्वारा उन्होंने स्पष्ट किया है कि इसकी रचना एक युग विशेष में नहीं अपितु विभिन्न शताब्दियों में हुई और इसीलिए यह किसी व्यक्ति विशेष की रचना न होकर विभिन्न हाथों की कृति है। जहाँ कुछ अध्याय मौर्य काल के हैं वहाँ अधिकांश अध्याय ऐसे भी हैं जो तीसरी—चौथी शताब्दी ईसती में रचे गए। मौर्यकालीन समाज पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। उसके अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किए। किन्तु शूद्र को शिल्पकला और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हें सम्मिलित रूप में "वार्ता" कहा गया है। निश्चित है कि इस व्यवस्था से शूद्र के आर्थिक सुधार का प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा होगा। कौटिल्य द्वारा निर्धारित शूद्रों के व्यवसाय वास्तविकता के अधिक निकट है। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप से शूद्र भी कृषि, पशुपालन तथा व्यापार किया करते थे। अर्थशास्त्र में एक और परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है और वह यह कि शूद्र को आर्य कहा गया है तथा उसे म्लेच्छा से भिन्न माना गया है। कहा गया है कि आर्यशूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता--यद्यपि म्लेच्छों में संतान को दास रूप में बेचना या ख़रीदना दोष नहीं है। समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था, किन्तु मनु तथा पूर्वगामी धर्मसूत्रों की भाँति इस तथ्य को बार—बार दुहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया है। यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती कि ब्राह्मण, समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे, वे ही शिक्षक तथा पुरोहित होते थे। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख मेगस्थनीज़ ने भी किया है। राजा के पुरोहित और क़ानून मंत्री अधिकांश इसी वर्ग से नियुक्त किए जाते थे। उन्हें आर्थिक और क़ानन सम्बन्धी विशेष अधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहित (आचार्य) तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। यह भूमि 'ब्रह्मदेय' कहलाती थी और यह पूर्णतः कर मुक्त थी। ब्राह्मणों की समाज में प्रधानता बहुत पहले से चली आ रही थी और इस व्यवस्था में भी इसका प्रचलन विरोध नहीं किया गया। ब्राह्मणादि चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख किया है। इनकी उत्पत्ति धर्मशास्त्रों की भाँति विभिन्न वर्णों के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों में बताई गई है। जिन वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है वे हैं अम्बष्ठ निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वेदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चंडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं। जो निश्चित व्यवसाय से आजीविका चलाती थीं। कौटिल्य ने चांडालों के अतिरिक्त अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र माना है। इनके अतिरिक्त तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग, जाति का रूप धारण कर चुके थे। अर्थशास्त्र में इन सबका समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकर का उल्लेख है। जो शूद्र वर्ग के अंदर ही समाविष्ट किए जाते हैं। जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज़ की इंडिका से होती है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल ही सकता है। केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपातकाल में क्षत्रीय तथा वैश्य का व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गई है। मेगस्थनीज़ द्वारा भारतीय समाज का वर्गीकरण, भारतीय ग्रंथों में वर्णित वर्गीकरण से भिन्न है। मेगस्थनीज़ ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है— (1) दार्शनिक, (2) किसान, (3) अहीर, (4) कारीगर या शिल्पी, (5) सैनिक, (6) निरीक्षक, (7) सभासद तथा अन्य शासक वर्ग। मेगस्थनीज़ का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जातिवयवस्था से मेल नहीं खाता। दार्शनिकों की जाति को मेगस्थनीज़ दो श्रेणियों में विभक्त करता है—ब्राह्मण और श्रमण। ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मणों की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज़ लिखता है कि यज्ञ, अत्येष्टि क्रिया तथा अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है। श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। जो वनों में रहते थे और कंद-मूल-फलों पर आजीविका चलाते थे इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। मेगस्थनीज़ के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थाश्रम अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध धर्मों से नहीं। मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण मेगस्थनीज ने प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया गया है। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था। परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। किन्तु फिर भी मौर्याकाल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और पति की इच्छा के विरुद्ध वे कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। संभ्रांत घर कि स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर ही रहती थी। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को 'अनिष्कासिनी' कहा है। राजघराने के अंतःपुर का उल्लेख अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों में है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस समय के धर्मशास्त्र इस प्रथा के विरुद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है। किन्तु यूनानी लेखकों ने उत्तर—पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है। योद्धा वर्ग की स्त्रियों में सती की यह प्रथा प्रचलित रही होगी। मौर्य युग में भी बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर गणिका या वेश्या के रूप में जीवन—यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्ररूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ 'रूपाजीवा' कहलाती थीं। इनसे राज्य को आय होती थी। इनके कार्यों का निरीक्षण गणिकाध्यक्ष तथा एक राजपुरुष करता था। बहुत—सी गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं। नगरों का जीवन चहल—पहल का था। नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले तथा मदारी गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों के गाँवों में प्रवेश पर निषेध था किन्तु नगरों में ऐसा प्रतिबंध नहीं था। नगरों में प्रेक्षाएँ लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे। इन्हें रंगोपजीवी तथा रंगोपजीविनी कहते थे। बिहार, यात्रा, समाज, प्रवहण अन्य माध्यम से जिनके द्वारा जनता सामूहिक रूप से अपना मनोरंजन करती थी। एक प्रकार से समाज के वे जिनमें लोग सुरापान, माँस भक्षण तथा मल्लयुज़ को देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक को ये समाज पसंद नहीं थे। अतः उसने नए समाजों का प्रारम्भ किया जिनमें हस्ति, अग्निस्तंभ तथा विमानों की झाकियाँ दिखाई जाती थीं, ताकि लोगों में धर्माचरण को प्रोत्साहन मिले। कुछ ऐसे समाज भी थे जो सरस्वती के भवन में आयोजित होते थे और इनमें साहित्यिक नाटकों का अभिनय तथा गोष्ठियों का आयोजन होता था। बिहार यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता रहती थी। अशोक ने इन यात्राओं को बंद करवा दिया और धम्म यात्राओं का प्रारम्भ किया। जिनका उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। प्रवहण भी एक प्रकार के सामूहिक समारोह थे जिनमें भोज्य और पेय पदार्थों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता था।

आर्थिक व्यवस्था राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य—व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मिलित रूप से 'वार्ता' कहा गया है अर्थात् वृत्ति का साधन। इन व्यवसायों में कृषि मुख्य था। एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि भूमि कृषियोग्य होनी चाहिए। वह 'अदेव मातृक' हो अर्थात ऐसी भूमि हो कि उसमें बिना वर्षा के अच्छी खेती हो सके। मेगस्थनीज़ के अनुसार दूसरी जाति में किसान लोग हैं जो दूसरों से संख्या में अधिक हैं। अन्य राजकीय सेवाओं से मुक्त होने के कारण वे सारा समय खेती में लगाते हैं। मेगस्थनीज़ ने आगे लिखा है कि भूमि पशुओं के निर्वाह—योग्य है तथा अन्य खाद्य—पदार्थ प्रदान करती हैं। चूँकि यहाँ वर्षा साल में दो बार होती है, अतः भारत में दो फ़सलें काटते हैं। देश के प्रायः समस्त मैदानों में ऐसी सीलन रहती है जो भूमि को समान रूप से उपजाऊ रखती है। मेगस्थनीज़ ने इस बात को अनेक बार दोहराया है कि शत्रु, अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस वर्ग (किसान) के लोग सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माने जाते हैं। इसलिए हानि से बचाए जाते हैं। राजकीय भूमि पर दासों, कर्मकरों और क़ैदियों द्वारा जुताई और बुआई होती थी। दास, कर्मकरों को भोजन आदि दिया जाता था और कार्य के दौरान नक़द मासिक वेतन भी दिया जाता था। परन्तु ऐसी भी राजकीय भूमि होती थी जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी। ऐसी भूमि पर करद कृषक खेती करते थे। कृषियोग्य तैयार खेतों को खेती के लिए किसानों को दे दिया जाता। जो भूमि कृषि योग्य न हो उसे यदि कोई खेती के योग्य बना ले तो यह भूमि उससे वापस नहीं ली जाती थी। मेगस्थनीज़, स्ट्राबो, ऐरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी। वे राजा के लिए खेती करते थे और ¼ भाग राजा को लगान देते थे। यूनानी लेखकों का अभिप्राय राजकीय भूमि से है जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी। कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बीज, बैल और हथियार लाएँ तो वे उपज के ½ भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि—उपकरण राज्य द्वारा दिए जाएँ तो वे ¼ या 1/3 अंश के भागी थे। इस राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भूमि भी थी, जो गृहपतियों तथा अन्य कृषकों की निजी भूमि होती थी, जिस पर वे खेती करते थे और उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देते थे। यह अंश आमतौर पर उपज का छठा भाग होता था। किन्तु कभी—कभी ¼ भाग भी हो सकता था। इन कृषकों के ऊपर नियामक अधिकारी, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप होते थे, जो गाँवों में भूमि तथा अन्य प्रकार की सम्पत्ति के आँकड़े तथा लेखा रखते थे। राज्य की भूमि की व्यवस्था सीताध्यक्ष द्वारा होती थी और उससे होने वाली आय को कौटिल्य सीता कहा है। अनेक प्रमाणों से भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार सिद्ध होता है। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) तथा उपवास (काश्तकार) के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। भूमि के सम्बन्ध में 'स्वाम्य' का उल्लेख है। कहा गया है कि जिस भूमि का स्वामी नहीं है वह राजा की हो जाती है। 'स्वाम्य' से व्यक्ति का भूमि पर अधिकार सिद्ध हो जाता है। व्यक्ति को भूमि के क्रय तथा विक्रय का अधिकार था। राज्य की ओर से सिंचाई का उचित प्रबन्ध था। इसे 'सेतुबंध' कहा गया है। इसके अंतर्गत तालाब, कुएँ तथा झीलों पर बाँध बनाकर एक स्थान पर पानी एकत्रित करना इत्यादि निर्माण कार्य आते हैं। मौर्यों के समय सौराष्ट्र में सुदर्शन झील के बाँध का निर्माण इस सेतुबंध का एक उदाहरण है। सिंचाई के लिए अलग कर देना पड़ता था। जिसकी दर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। भूमिकर और सिंचाई कर को मिलाकर किसान को उपज का क़रीब ½ भाग देना पड़ता था। राज्य के अलावा लोग स्वयं कुएँ खुदवाकर तालाब या बावड़ी बनाकर सिंचाई की व्यवस्था करते थे। उन्हें प्रारम्भ में छूट देकर प्रोत्साहित किया जाता था। किन्तु कुछ समय बाद उन्हें भी सिंचाई कर देना पड़ता था। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि भारत में दुर्भिक्ष (अकाल) नहीं पड़ते। किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे और दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा जनता की भलाई के उपाय किए जाते थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में 12 साल का एक दुर्भिक्ष पड़ा था। सोहगोरा और महास्थान अभिलेख में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा, राज्य—कोष्ठागार से अनाज—वितरण का विवरण है। इसके अतिरिक्त वन प्रदेश एवं चारागाह थे। वन दो प्रकार के होते थे--(1) 'हस्तिवन' जहाँ पर हाथी रहते थे। ये हाथी राज्य की सम्पत्ति थे और लड़ाई के समय प्रयोग किए जाते थे, (2) 'द्रव्यवन' जहाँ से अनेक प्रकार की लकड़ी तथा लौहा, ताँबा इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थी। जंगलों पर राज्य का अधिकार था। इन वनों की उपज राज्य के कोष्ठागारों में पहुँचाई जाती थी और वहाँ से कारखानों में, जहाँ लकड़ी, मिट्टी तथा धातु की अनेक उपयोगी वस्तुएँ तथा युद्ध के लिए अस्त्र—शस्त्र बनाए जाते थे। कारखानों में बनी वस्तुएँ पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाज़ारों में बेची जाती थीं। मौर्यों के शासनकाल में राजनीतिक एकता तथा शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के नियंत्रण से शिल्पों को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक सुधार के साथ व्यापार की सुविधाएँ और व्यापार का पोषण करने वाले शिल्पों ने छोटे—छोटे उद्योगों का रूप धारण कर लिया। मेगस्थनीज़ ने शिल्पियों को चौथी जाति माना है। उसके अनुसार, उनमे से कुछ राज्य को कर देते थे और नियत सेवाएँ भी करते थे। पुराना नियम यह था कि शिल्पी कर के बदले महीने में एक दिन राजा के यहाँ काम करते थे। यह नियम ग़ैर—सरकारी शिल्पियों के लिए था। किन्तु जो राजा के शिल्पी होते थे, वे अनेक प्रकार की धातुओं, लकड़ियों तथा पत्थरों से राज्य के लिए विविध वस्तुओं का निर्माण करते थे। मेगस्थनीज़ ने जहाज़ बनाने वालों, कवच तथा आयुधों का निर्माण करने वालों और खेती के लिए अनेक प्रकार के औज़ार बनाने वालों का उल्लेख किया है। खानों और जंगलों से प्राप्त धातु तथा लकड़ी से राज्य अनेक प्रकार के उद्योगों का संचालन करता था। वस्त्र उद्योग भी राज्य के द्वारा संचालित था। अतः इन विविध उद्योगों में अनेक शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों के निरीक्षण में कार्य करते थे और राज्य से वेतन पाते थे। किन्तु अनेक स्वतंत्र शिल्पी भी थे। ये श्रेणियों में संगठित थे। श्रेणियों में संगठित होने से उनके वेतन तथा अन्य अधिकार अधिक सुरक्षित थे। शिल्पी के जीवन तथा सम्पत्ति—सुरक्षा की राज्य की ओर से पूरी व्यवस्था थी। मौर्य युग का प्रधान उद्योग सूत कातने और बुनने का था। ऊन, रेशे, कपास, शण—क्षोम और रेशम सूत कातने के लिए प्रयुक्त होते थे। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि काशी, वंग, पुण्ड्र, कलिंग, मालवा सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध थे। काशी और पुण्ड्र में रेशमी कपड़े भी बनते थे। प्राचीन काल से वंग का मलमल विश्वविख्यात था। चीन पट्ट का उल्लेख कौटिल्य में है जिससे पता चलता है कि रेशम चीन से आता था। मेगस्थनीज़ ने भारतीय वस्त्रों की बड़ी प्रशंसा की है। सरकारी कारख़ानों के अतिरिक्त जुलाहे स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते थे। खानों से कच्ची धातु निकालने, उसे गलाने, शुद्ध करने और लचीला बनाने की क्रिया की अच्छी जानकारी प्राप्त हा चुकी थी। मेगस्थनीज़ ने भारत में अनेक प्रकार की धातुओं की खानों का ज़िक्र किया है। जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि। इनका उपयोग आभूषण, बर्तन, युद्ध के हथियार, सिक्के आदि बनाने के लिए किया जाता था। लोहाध्यक्ष के निरीक्षण में युद्ध के हथियार तथा कृषि के उपकरण बनाने के लिए लोहे का उपयोग किया जाता था। सोने और चाँदी के अनेक प्रकार के आभूषण तथा सिक्के सुवर्णाध्यक्ष व लक्षणाध्यक्ष के निरीक्षण में बनते थे। मणि—मुक्ताओं का उपयोग समृद्ध परिवारों में होता था। मोतियों को अनेक लड़ियों में पिरोकर हार बनाए जाते थे, जो गले में पहने जाते थे। मुक्ता—लड़ियाँ कमर और हाथों को सजाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। इस प्रकार मणिकार और सुवर्णकार राजघराने तथा समृद्ध परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इन उद्योगों के अतिरिक्त कई अन्य उद्योग भी मौर्य काल में अच्छी अवस्था में थे, जैसे हाथीदाँत का काम करने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले तथा चर्मकार। पशुओं की खाल जूते बनाने, वर्म या ढाल बनाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं, जो कि अति सुन्दर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनाई जाती हैं। हाथीदाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से ही कुशल थे। एरियन ने समृद्ध परिवारों के द्वारा हाथीदाँत के कर्णाभूषण का इस्तेमाल किए जाने का उल्लेख किया है। यद्यपि कौटिल्य ने कुम्भकार की श्रेणियों का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी हमें मालूम है कि मिट्टी के बर्तन साधारण लोगों के द्वारा बड़ी मात्रा में उपयोग में लाए जाते थे। मौर्यकाल के काली ओपदार मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ऊँचे वर्ग के लोगों के द्वारा प्रयोग में लाए जाते थे। पत्थर तराशने का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में रहा होगा। अशोक के समय में एक ही पत्थर के बने हुए स्तंभ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। पत्थर पर पालिश का काम अपने चरमोत्कर्ष पर था। सारनाथ सिंह स्तंभ तथा बाराबर गुफ़ाओं की चमक अद्वितीय है।



व्यापार भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों के एक शासनसूत्र में बँधने से व्यापार को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक एवं सैनिक आवश्यकता के कारण यातायात मार्ग में वृद्धि हुई तथा मार्गों की सुरक्षा भी बढ़ी। कृषि तथा उद्योगों के लिए वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँचती थी। उत्तर—पश्चिमी भाग यूनानियों के अधिकार से मौर्यों के अधिकार में आ गया। दक्षिण की विजय से दक्षिण और पश्चिम व्यापार मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण हो गया। कलिंग की विजय से पूर्व और पूर्व—दक्षिण व्यापार मार्ग निष्कंटक हो गया। मेगस्थनीज़ के विवरण के स्पष्ट है कि मार्ग निर्माण का एक विशेष अधिकारी था जो एग्रोनोमोई कहलाता था। ये सड़कों की देखरेख करते थे और 10 स्टेडिया की दूरी पर एक स्तंभ खड़ा कर देते थे। साम्राज्य के राजमार्गों में उत्तर—पश्चिम को पाटलिपुत्र से मिलाने वाला राजमार्ग था। मेगस्थनीज़ के अनुसार इसकी लम्बाई 1,300 मील थी। पाटलिपुत्र के आगे यह मार्ग ताम्रलिप्ति (तामलूक) तक जाता था। हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग की तुलना दक्षिण को जाने वाले मार्ग से करते हुए कौटिल्य ने दक्षिण—मार्ग अधिक लाभदायक बताया है। क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापार की वस्तुए जैसे मुक्ता, मणि, हीरे, सोना, शंख इत्यादि आते थे। दक्षिण के लिए एक पुराना मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। इसी मार्ग को सम्भवतः उत्तरी मैसूर तक आगे बढ़ाया गया। कृष्णा, गोदावरी और तुंगभद्रा के किनारे होते हुए कई मार्ग व्यापार सैनिक अभियान तथा शासन की आवश्यकता के अनुसार बनाए गए होंगे। उत्तर की ओर एक पुराना मार्ग चंपा से बनारस तक और वहाँ से जमुना के किनारे—किनारे कौशाबी तक जाता था। इसके बाद स्थल मार्ग से कौशाबी से सिंधु—सौबीर तक व्यापार मार्ग जाता था। एक तीसरा मार्ग श्रावस्ती से राजगृह तक था। पश्चिमी तट पर भी समुद्री मार्ग भड़ोच और काठियावाड़ होकर लंका तक जाता था। पश्चिमी तट पर सोपारा भी महत्वपूर्ण बंदरगाह था। पूर्व में जहाज़ बंगाल में ताम्रलिप्ति के बंदरगाह से पूर्वी तट के अनेक बंदरगाह से होते हुए श्रीलंका जाते थे। रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजय का एक कारण व्यापार की दृष्टि से कलिंग का महत्व था। महानदी और गोदावरी के बीच स्थित होने के कारण बंगाल और दक्षिण का व्यापार सुरक्षित नहीं था। कौटिल्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी मार्गों से व्यापार को अधिक सुरक्षित माना है क्योंकि यह चोर डाकुओं के भय से अपेक्षाकृत मुक्त था। किन्तु नदियों से व्यापार स्थायी नहीं था। स्थल मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं, चोरों और जंगली जानवरों से विशेष भय था। मरुस्थल की यात्रा अत्यन्त कठिन थी। ख़तरों और कठिनाइयों के कारण व्यापारी काफ़िलों में संगठित होकर चलते थे। व्यापारियों को यातायात और सुरक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त थीं। यदि मार्ग में व्यापारियों का नुकसान हो जाए तो राज्य क्षतिपूर्ति करता था। इसके बदले व्यापारियों से अनेक शुल्क लिए जाते थे। अंतर्देशीय व्यापार की भाँति ही स्थल और जलमार्ग से विदेशों के साथ व्यापार को मौर्यों के सुसंगठित शासन से लाभ प्राप्त हुआ। यूनानी शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध की वजह से पश्चिमी एशिया और मिस्र के साथ भारत के व्यापार के लिए अनुकूल वातावरण बना। एक मुख्य स्थल मार्ग तक्षशिला से क़ाबुल, बैक्ट्रिया, और वहाँ से पश्चिमी देशों की तरफ़ जाता था। समुद्री मार्ग भारत के पश्चिमी समुद्रतट से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अदन तक जाता था। भारत से और मिस्र से आने वाली व्यापार—वस्तुओं का विनिमय अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। भारत से मिस्र को हाथीदाँत, कछुए सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी। प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था। माप और तोल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों के द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयात—वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगस्थनीज़ के अनुसार बिक्रीकर न देने वाले के लिए मृत्युदंड था। मौर्ययुगीन अर्थव्यवस्था के उपर्युक्त विवेचन को सर्वागीण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पुरातात्विक साक्ष्यों पर भी एक दृष्टिपात कर लिया जाए। जहाँ तक मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति का सवाल है, यह नश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उत्तरी काली पालिश के मृदभांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के काल में हुआ था, वह मौर्ययुग में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। मानचित्र—7 में इस संस्कृति के वितरण को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर, उत्तर—पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में इसका प्रसार हो चुका था। उत्तर—पश्चिम में कंधार, तक्षशिला, उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में रोपड़, हस्तिनापुर, तिलौराकोट एवं श्रावस्ती से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पालि एवं संस्कृत ग्रंथों में कौशाबी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्ययुग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पालिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है। किन्तु मध्य गंगा घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण का जो विवरण हम पढ़ते हैं, वह एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।





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