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<poem>न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।  
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हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥</poem><ref>[[शान्ति पर्व महाभारत|महाभारत शान्तिपर्व]] 210.22</ref>
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न्यायसूत्र का काल
न्यायसूत्र के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म0म0 हरप्रसादशास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते है। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डा0 याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह।
किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह बौद्ध आचार्य नागार्जुन के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। म0म0 फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बङ्गला न्यायदर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्षरूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा उपनिषदों में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में न्यायदर्शन के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर।
उपर्युक्त दूसरी युक्ति के प्रसङ्ग में कहना है कि आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत कौटिल्य ने जिस योगशास्त्र का उल्लेख किया है, वह वह न्यायविद्या ही है पातंजल योग नहीं। प्राचीन समय में न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों के लिए योग या यौग पद का व्यवहार देखा जाता है। जैन दर्शन के अनेक प्राचीनग्रन्थों में’<ref>षड्दर्शनसमुच्चय की नवम कारिका, इसकी गुणरत्नसूरिकृत व्याख्या एवं स्याद्वादमञ्जरी आदि में ऐसा देखा जाता है।</ref> न्याय-वैशेषिक के लिए योग या यौग पद व्यवहृत हुआ है।
न्यायभाष्यकार ने 1.1.29 सूत्र के भाष्य में न्यायदर्शन के सिद्धान्त का प्रतिपादन योगशब्द से किया है, जो कि पातञ्जल योग के सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: कौटिल्य ने साङ्ख्य पद से सांख्य और योग दोनों को लिया है। प्राचीन समय में निरीश्वर सांख्य से सांख्य दर्शन और सेश्वर सांख्य से पातञ्जल योग का व्यवहार होता रहा है। अतएव एक नाम से ही कौटिल्य ने उन दोनों दर्शनों का संकेत किया है। इसका कारण प्राय: यह भी रहा है कि दोनों ही दर्शनों की चिन्तन-पद्धति एवं प्रमाण आदि के विषय में मतैक्य है। फलत: योग पद से यहाँ न्यायदर्शन ही ग्रन्थकार का विवक्षित रहा है।
न्यायदर्शन का प्रसिद्ध आरम्भवाद प्राय: इस योग पद के व्यवहार का मूल रहा है। क्योंकि दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक की सृष्टि होती है और तीन द्वयणुक मिलकर त्रसरेणु बनते हैं। इस तरह परमाणुओं के योग से सृष्टि-प्रक्रिया का निर्वाह एवं आरम्भवाद की स्थापना के कारण शायद योगपद से प्राचीन समय में न्यायविद्या का परिग्रह किया गया हो। अथवा पाशुपत योग का प्रभाव न्यायदर्शन पर आदिकाल से ही रहा है, अत एव योग पद से न्यायविद्या और योग से नैयायिक की प्रसिद्धि हुई होगी।
बात रही यहाँ उल्लिखित लोकायत की। वह नास्तिक तार्किक के लिए प्रयुक्त है, जो उस समय में अपना स्थान बना चुके थे और समाज में इनकी प्रतिष्ठा नहीं थी। अतएव मनुस्मृति आदि में इस शास्त्र की जमकर निन्दा की गयी हे।
निष्कर्ष यह हुआ कि न्यायसूत्र की रचना दो समयों में दो ऋषियों के द्वारा नहीं हुई है, अपितु एक समय में एक ही ऋषि द्वारा वह प्रणीत है। और वह ऋषि हैं महामुनि गौतम। इसमें जन-प्रसिद्धि भी अनुकूल है।
पितृमेघसूत्र<ref>हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक पृ0 48 में उद्धृत फुटनोट सं. 4 से गृहीत।</ref> की व्याख्या में अनन्त यज्वा ने गौतम और अक्षपाद को एक ही ऋषि माना है। इनके मत में गौतम धर्मसूत्र और न्यायसूत्र के रचयिता एक ही ऋषि हैं। न्यायकोष में उद्धृत है कि गौतम के विचारमग्न रहने से एक बार कूप में गिर जाने पर प्रभु ने अनुग्रह करके उनके पैर में एक आँख दे दी। अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण पद्य गौतम और अक्षपाद को दो नहीं मानता है। देवीपुराण आदि की कथा, महाकवि भास की उक्ति, रामायण तथा महाभारत में न्यायविद्या के प्रवर्तक गौतम ऋषि का उल्लेख इस पक्ष में प्रबल प्रमाण उपलब्ध हैं।
कौटिल्य इस न्यायविद्या से कथमपि अपरिचित नहीं हो सकतें हैं। अन्यथा वे ‘प्रदीप: सर्वविद्यानां’ आदि प तथा ‘व्यसने अभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति’ आदि गद्य न्यायविद्या या आन्वीक्षिकी की प्रशंसा में नहीं कहते।
अत: तर्क और प्रमाणों के आधार पर खृष्टपूर्व षष्ठ शतक ही न्यायसूत्र का रचनाकाल मानना उचित है।
न्यायसूत्र
यद्यपि दो तरह से न्याय पद की व्युत्पत्ति की गयी है-
‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:’ तथा ‘नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेनेति न्याय:’ तथापि प्रमाणों के द्वारा पदार्थों के परीक्षण में ही दोनों व्युत्पित्तियों का तात्पर्य है। अत: यहाँ अधिक विचार की अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार ने कहा है कि न्यायविद्या की प्रवृत्ति तीन प्रकार की देखी जाती है- उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा। पदार्थों के नाम का निर्देश करना ‘उद्देश्य’ है। उसके परिचयार्थ उसके स्वरूप का निरूपण ‘लक्षण’ है। और उसका यह लक्षण सर्वथा उपयुक्त है या नहीं- इसका विचार या आलोचन परीक्षा है।


==टीका टिप्पिणी==
==टीका टिप्पिणी==
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06:57, 28 नवम्बर 2010 का अवतरण

भारत के संग्रहालय

क्रम नाम स्थान प्रदेश
1 त्रिपुरा गवर्नमेंट संग्रहालय त्रिपुरा त्रिपुरा
2 स्टेट म्यूज़ियम कोहिमा नागालैंड
3 राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली दिल्ली
4 चंडीगढ़ संग्रहालय चंडीगढ़ चंडीगढ़
5 राष्ट्रीय गैलरी चंडीगढ़ चंडीगढ़
6 कला दीर्घा चंडीगढ़ चंडीगढ़
7 आदिवासी सांस्कृतिक संग्रहालय दादर और नगर हवेली दादर और नगर हवेली
8 राज्य संग्रहालय असम असम
9 गुरुकुल संग्रहालय झज्झर हरियाणा
10 अस्थल बोहर संग्रहालय रोहतक हरियाणा
11 एशियाटिक सोसाइटी कोलकाता कोलकाता
12 विक्टोरिया संग्रहालय कोलकाता कोलकाता
13 आशुतोष संग्रहालय कोलकाता कोलकाता
14 शांति निकेतन बोलपुर कोलकाता
15 द कोलकाता आर्ट सोसाइटी कोलकाता कोलकाता
16 इंडियन म्यूज़ियम हाउस कोलकाता कोलकाता
17 पुरातात्विक संग्रहालय नालंदा बिहार
18 पुरातात्विक संग्रहालय वैशाली बिहार
19 पुरातात्विक संग्रहालय बोधगया बिहार
20 चंद्रधारी संग्रहालय दरभंगा बिहार
21 गया संग्रहालय गया बिहार
22 नवादा संग्रहालय नवादा बिहार
23 राज्य संग्रहालय लखनऊ उत्तर प्रदेश
24 राजकीय संग्रहालय लखनऊ उत्तर प्रदेश
25 राजकीय संग्रहालय मथुरा उत्तर प्रदेश
26 राजकीय संग्रहालय झाँसी उत्तर प्रदेश
27 राजकीय अभिलेखागार लखनऊ उत्तर प्रदेश
28 राजकीय अभिलेखागार इलाहाबाद उत्तर प्रदेश
29 क्षेत्रीय अभिलेखागार वाराणसी उत्तर प्रदेश
30 महाराजा माधोसिंह संग्रहालय कोटा राजस्थान
31 इंडियन स्कल्पचर्स मुम्बई महाराष्ट्र
32 द आर्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया मुम्बई महाराष्ट्र
33 जहाँगीर आर्ट गैलरी मुम्बई महाराष्ट्र
34 मार्डन आर्ट इंस्टीट्यूट दादर मुम्बई महाराष्ट्र
35 कला निकेतन कोल्हापुर महाराष्ट्र
36 नागपुर संग्रहालय नागपुर महाराष्ट्र
37 प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम मुम्बई महाराष्ट्र
38 राज्य संग्रहालय हैदराबाद आन्ध्र प्रदेश
39 कला दीर्घा हैदराबाद आन्ध्र प्रदेश
40 सालारजंग संग्रहालय हैदराबाद आन्ध्र प्रदेश
41 स्वास्थ्य संग्रहालय हैदराबाद आन्ध्र प्रदेश
42 ज़िला संग्रहालय सलेम तमिलनाडु
43 द फोर्ट म्यूज़ियम चेन्नई तमिलनाडु
44 गवर्नमेंट म्यूज़ियम चेन्नई तमिलनाडु
45 आरंगर कोडायकोड्डम श्रीरंगम संग्रहालय श्रीरंगम तमिलनाडु
46 गाँधी संग्रहालय मदुरई तमिलनाडु
47 तमिलनाडु राज्य संग्रहालय मदुरई तमिलनाडु
48 तमिलनाडु राज्य संग्रहालय पुडुकोटाय तमिलनाडु

न्याय दर्शन— आस्तिक दर्शनों में न्याय दर्शन का प्रमुख स्थान है। वैदिक धर्म के स्वरूप के अनुसन्धान के लिए न्याय की परम उपादेयता है। इसीलिए मनुस्मृति में श्रुत्यनुगामी तर्क की सहायता से ही धर्म के रहस्य को जानने की बात कही गई है। वात्स्यायन ने न्याय को समस्त विद्याओं का 'प्रदीप' कहा है। 'न्याय' का व्यापक अर्थ है- विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वस्तुतत्त्व की परीक्षा[1] प्रमाणों के स्वरूप वर्णन तथा परीक्षण प्रणाली के व्यावहारिक रूप के प्रकटन के कारण यह न्याय दर्शन के नाम से अभिहित है। न्याय का दूसरा नाम है आन्वीक्षिकी अर्थात अन्वीक्षा के द्वारा प्रवर्तित होने वाली विद्या। अन्वीक्षा का अर्थ है- प्रत्यक्ष या आगम पर आश्रित अनुमान अथवा प्रत्यक्ष तथा शब्द प्रमाण की सहायता से अवगत विषय का अनु-पश्चात ईक्षणपर्यालोचन - ज्ञान अर्थात अनुमति। अन्वीक्षा के द्वारा प्रवृत्त होने से न्याय विद्या आन्वीक्षिकी है।

न्याय दर्शन का स्थान

भारतीय दर्शन के इतिहास में ग्रन्थ सम्पत्ति की दृष्टि से वेदान्त दर्शन को छोड़कर न्याय दर्शन का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। विक्रम पूर्व पञ्चमशतक से लेकर आज तक न्याय दर्शन की विमल धारा अबाध गति से प्रवाहित है। न्याय दर्शन के विकास की दो धारायें दृष्टिगोचर होती हैं।

  • प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है, जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से 'पदार्थमीमांसात्मक' प्रणाली कहते हैं। इस प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' कहा जाता है। प्राचीन न्याय में मुख्य विषय 'पदार्थमीमांसा' है।
  • दूसरी प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं, जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया। इस द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं और इस 'नव्यन्याय' में 'प्रमाणमीमांसा' वर्णित है।

न्यायसूत्र के रचयिता

न्यायसूत्र के रचयिता का गोत्र नाम 'गौतम' और व्यक्तिगत नाम 'अक्षपाद' है। न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है जिनमें प्रमाणादि षोडश पदार्थों के उद्देश्य, लक्षण तथा परीक्षण किये गये हैं। वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों पर विस्तृत भाष्य लिखा लिखा है। इस भाष्य का रचनाकाल विक्रम पूर्व प्रथम शतक माना जाता है। न्याय दर्शन से सम्बद्ध 'उद्योतकर' का 'न्यायवार्तिक', 'वाचस्पति मिश्र' की 'तात्पर्यटीका', 'जयन्तभट्ट' की 'न्यायमञ्जरी', 'उदयनाचार्य' की 'न्याय-कुसुमाज्जलि', 'गंगेश उपाध्याय' की 'तत्त्वचिन्तामणि' आदि ग्रन्थ अत्यन्त प्रशस्त एवं लोकप्रिय हैं। न्याय दर्शन षोडश पदार्थो के निरूपण के साथ ही 'ईश्वर' का भी विवेचन करता है। न्यायमत में ईश्वर के अनुग्रह के बिना जीव न तो प्रमेय का यथार्थ ज्ञान पा सकता है और न इस जगत के दु:खों से ही छुटकारा पाकर मोक्ष पा सकता है। ईश्वर इस जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाला है। ईश्वर असत पदार्थों से जगत की रचना नहीं करता, प्रत्युत परमाणुओं से करता है जो सूक्ष्मतम रूप में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। न्यायमत में ईश्वर जगत का निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं। ईश्वर जीव मात्र का नियन्ता है, कर्मफल का दाता है तथा सुख-दु:खों का व्यवस्थापक है। उसके नियन्त्रण में रहकर ही जीव अपना कर्म सम्पादन कर जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करता है।

न्यायसूत्र के अनुसार दु:ख से अत्यन्त विमोक्ष को ‘अपवर्ग’ कहा गया है [2] मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है। मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अत: उस अवस्था में 'आनन्द' की भी प्राप्ति नहीं होती। उद्योतकर के मत में नि:श्रेयस के दो भेद हैं- अपर नि:श्रेयस तथा परनि:श्रेयस। तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है। जीवन मुक्ति को अपरनि:श्रेयस और विदेहमुक्ति को परनि:श्रेयस कहते हैं।

भारतीय दर्शन-साहित्य को न्यायदर्शन की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है, उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है। हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। न्यायदर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है।

न्याय शास्त्र का इतिहास

उपक्रम

कोऽयं ललाटतटनेत्रपुटस्य गर्वात्
खर्वी करोति जगदित्यभिधाय शम्भो।
य: साभ्यसूयमकरोच्चरणेऽक्षिलक्ष्मीं
जीयात् स गौतममुनिर्मुनिवृन्दवन्द्य:॥[3]

वेद में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के लिए आत्मदर्शन या तत्त्वसाक्षात्कार आवश्यक तत्व के रूप में निर्दिष्ट है। बृहदारण्यक उपनिषद का कहना है कि पहले आत्मा आदि पदार्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण उपासना, पुन: हेतु द्वारा मनन अर्थात विवेचन रूप उपासना और पश्चात निदिध्यासन - एक चित्त होकर ध्यान रूप उपासना करनी चाहिए।[4] आत्मदर्शन के साधन - मनन रूप उपासना - सम्पादनार्थ मुख्यत: न्याय शास्त्र का आविर्भाव हुआ। चूँकि श्रवण के पश्चात मनन का विधान है, अत: इस शास्त्र की प्रक्रिया को शास्त्रों में अन्वीक्षा कहा गया है। अनु अर्थात श्रवणमनु, ईक्षा दर्शनं मननम् इति अन्वीक्षा- यही उक्त पद की व्युत्पत्ति है। श्रवण के बाद युक्ति द्वारा आत्मा आदि पदार्थों की ईक्षा-दर्शन-मनन अर्थात शास्त्रानुमत रीति से अनुमान करना ही अन्वीक्षा है।

अभिधान

इसी अन्वीक्षा के निर्वाहार्थ प्रकाशित विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रत्यक्ष और आगम के अविरोधी अनुमान अन्वीक्षा है।[5] न्यायविद्या या न्याय शास्त्र इसका नामान्तर है। इसे समझने के लिए इसके प्रतिपाद्य सभी पदार्थों का परिज्ञान आवश्यक है, जिन्हें यह विद्या प्रकाशित करती है। हेतुविद्या, हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। चूँकि यहाँ अनुमान की प्रधानता है और अनुमान का मुख्य अवयव है हेतु, अत: हेतुविद्या आदि इसके अन्वर्थक नाम हैं। इसी तरह युक्त एवं तर्क का साङ्गोपाङ्ग विवेचन यहाँ प्रमुख रूप से होता है, अत: तर्कशास्त्र या युक्तिशास्त्र आदि नाम भी इसका संगत है। परीक्षित प्रमाणों के आधार पर ही प्रमेय का यहाँ प्रतिपादन किया जाता है, अत: इसे 'प्रमाणशास्त्र' भी कहते हैं। 'प्राधान्येय व्यपदेशा: भवन्ति' इस सूक्ति के आधार पर इसकी प्रमाणशास्त्रता सिद्ध है। यहाँ प्रमाण का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।

इस आन्वीक्षिकी का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है कि यह अध्यात्म विद्या होकर भी शास्त्रान्तर के परिज्ञानार्थ प्रक्रिया का निर्देश कर प्रदीप की तरह उपकारिका होती है। अत: इसे 'प्रक्रियाशास्त्र' भी कहते हैं। आचार्य उदयन ने कहा है- ‘यावदुक्तोपपन्न इति नैयायिका:’ [6]- जितना कहने से विषय स्पष्टत: समझ में आ जाए, नैययायिक उतना अवश्य कहता है, अर्थात विषय (प्रतिपाद्य) का परिशुद्ध रूप में परिज्ञान इस शास्त्र का लक्ष्य रहा है। ठीक यही बात 'न्यायभाष्य' में कही गयी है। जितने शब्द समूह के कथन से साधनीय अर्थ की सिद्धि होती है उस शब्द समूह के प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयव कहे गये हैं, जिसे परमन्याय कहते हैं।[7]

यद्यपि श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध न्यायशास्त्र से भिन्न केवल अध्यात्मविद्या-विशेष रूप अर्थ में इस 'आन्वीक्षिकी' विद्या का उल्लेख मिलता है। कहा गया है कि भगवान के षष्ठ अवतार दत्तात्रेय ने अलर्क और प्रह्लाद आदि को 'आन्वीक्षिकी' रूपा अध्यात्मविद्या का उपदेश दिया था-

षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृत: प्राप्तोऽनसूयया।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥[8]

यहाँ 'आन्वीक्षिकी' की व्याख्या 'श्रीधरस्वामी' की है। तथापि 'न्यायभाष्य' में वात्स्यायन ने स्पष्ट कहा है कि आन्वीक्षिकी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यही न्यायशास्त्र है।

परिचय

न्यायभाष्यकर ने स्पष्ट कहा है कि उपनिषद आदि अध्यात्मविद्या से इसमें पार्थक्य दिखाने के लिए उन संशय आदि चौदह पदार्थों का प्रतिपादन भी यहाँ आवश्यक है।[9] चूँकि वेद, वार्ता तथा दण्डनीति से भिन्न चतुर्थी विद्या के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है, अत: इसके असाधारण प्रतिपाद्य उक्त संशय आदि चौदह पदार्थ विद्या के अपने असाधारण प्रतिपाद्य होते हैं। चूँकि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन न्याय शास्त्र में किया गया है, अत: शास्त्रान्तर से इसका पार्थक्य अवश्य सिद्ध होता है। न्यायवार्त्तिक में आचार्य उद्योतकर ने भी इसकी पुष्टि में कहा है कि न्याय दर्शन में यदि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन नहीं होता तो यह चतुर्थी विद्या नहीं कहलाती, बल्कि त्रयी के अन्तर्गत अध्यात्मविद्या के रूप में प्रतिष्ठित होती।[10] निष्कर्ष यह हुआ कि संशय आदि पदार्थों के विवेचन के कारण शास्त्रों में चतुर्थी विद्या के रूप में निर्दिष्ट यह आन्वीक्षिकी 'गौतमीय न्यायदर्शन' ही है कोई अन्य विद्या नहीं।

प्राचीनता

इस न्यायशास्त्र की उत्पत्ति कब हुई- यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह भूमि भारतवर्ष ही है, जहाँ इसका उद्भव हुआ। कश्मीर के राजा शाङ्करवर्मा के धर्म सचिव नैय्यायिक 'जयन्तभट्ट' ने 'न्यायमञ्जरी' में कहा है कि सृष्टि के आदि से ही वेद की तरह न्याय दर्शन आदि की प्रवृत्ति देखी जाती है। किसी ने इसे संक्षिप्त करके कहा तो किसी ने उसी को विस्तारपूर्वक समझाया। अतएव उन लोगों को इस शास्त्र का कर्ता मान लिया गया[11] वस्तु:स्थिति के विचार करने पर यह बात संगत प्रतीत होती है। ऋग्वेद के सूक्तों में युक्तिवाद का आभास मिलता है।[12] ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका प्रयोग देखा जाता है।[13] उपनिषदों में तत्त्वज्ञान के विचार के समय इस युक्तिवाद का विस्तार से व्यवहार किया गया है।[14] रामायण, महाभारत, भागवत तथा मनुस्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में इसका शास्त्र के रूप में उपयोग हुआ है।

  • रामायण के उत्तरकाण्ड में श्रीराम की यज्ञ सभा में हेतुवाद में कुशल हेतुक अर्थात नैयायिक विद्वान को ससम्मान निमन्त्रित करने की बात कही गयी है।[15]
  • महाभारत में निर्दिष्ट है कि नीति, धर्म और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए देवगण की प्रार्थना पर विधाता ने शतसहस्र अध्यायों को प्रकाशित किया। जहाँ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि अनेक विषय तथा त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता और दण्डनीति आदि विविध विद्याएँ प्रकाशित हुईं।[16]
  • भागवत में प्रतिपादित है कि विश्वस्सृष्टा के हृदयाकाश से व्याहृति और प्रणव के साथ आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति रूप चार विद्याएँ, उत्पन्न हुईं।[17] यहीं यह भी कहा गया है कि बलराम और श्रीकृष्ण धनुर्वेद तथा राजनीति के साथ आन्वीक्षिकी विद्या का भी अध्ययन करते थे।[18]
  • भगवान मनु ने राज्य संचालन के लिए शास्त्रान्तरों के साथ इस विद्या के अध्ययन पर भी बल दिया है।[19]
  • याज्ञवल्क्य ने कहा है कि राजा को अपनी सभी प्रकार की दुर्बलताओं से बचने के लिए आन्वीक्षिकी, दण्डनीति, वार्ता और त्रयी की शिक्षा लेनी चाहिए।[20]
  • इसी तरह की बात गौतम के धर्मसूत्र में भी कही गयी है।[21]
  • विष्णु पुराण में तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में विद्याओं की गिनती के समय न्यायविस्तर तथा न्यायशब्द से इस आन्वीक्षिकी का उल्लेख हुआ है।[22]</poem>

व्यापकता

फलत: इस विद्या की व्यापकता और महत्ता प्राचीन काल से ही निर्विवाद रूप से सिद्ध है। एक समय में यह शास्त्र अपने उत्कर्ष से अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया और वहाँ अपना प्रचार-प्रसार कर समृद्ध हुआ। खुर्दा अवेस्ता में युक्तिवादी गौतम का उल्लेख ही इसमें प्रमाण है।[23] पूरब दिशा की ओर भी इसने बर्मा तक अपना स्थान बना लिया था। बर्मी लिपि में आज भी 'नव्यन्याय' के ग्रन्थ उपलब्ध हैं।[24] उत्तर में जहाँ तक बौद्ध दर्शन का प्रचार-प्रसार हुआ वहाँ न्याय दर्शन के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव को मानना ही होगा। बौद्ध दर्शन का प्रबल प्रतिपक्षी नैय्यायिक ही रहा है। अत: चीन देश तिब्बत आदि में इसका कभी अवश्य प्रचार रहा होगा। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने निरन्तर इसकी प्रशंसा की तथा इसकी शिक्षा पर अधिक बल दिया। महाभारत स्पष्टत: कहता है कि न्याय शास्त्र को छोड़कर केवल वेद का अवलम्बन करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। अर्थात न्याय शास्त्र सम्मत मनन सर्वथा आवश्यक है। वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम्। अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हणा॥[25]

न्याय दर्शन पर आक्षेप

यद्यपि प्राचीन काल से ही तर्कविद्या या हेतुशास्त्र की निन्दा भी शास्त्रों में देखी जाती है। अतएव इसकी उपादेयता में सन्देह होना या इस शास्त्र के प्रति अनादर भाव का होना स्वाभाविक है।

  • रामायण में कहा गया है कि क्या आप लोकायतिकों की सेवा करते हैं? ये तो अनर्थ करने में ही कुशल हैं। पाण्डित्य का दम्भ ही इनमें रहता है। धर्मशास्त्र के रहते हुए ये तर्क करके उन धर्मशास्त्रीय विषयों की उपेक्षा करते हैं और अभिमान में चूर रहते हैं।[26]
  • महाभारत कहता है कि वेद निन्दक ब्राह्मण निरर्थक तर्कविद्या में अनुरक्त है।[27]
  • मनुस्मृति में कहा गया है कि हेतुशास्त्र का अवलम्बन कर जो ब्राह्मण वेद और स्मृति की अवहेलना करे उसका परित्याग करना चाहिए।[28] तथापि यह मानना होगा कि नास्तिक न्यायविद्या के प्रसंग में ये सारी बातें कही गयी हैं। गौतमीय न्यायशास्त्र इस निन्दा का लक्ष्य नहीं है।

प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विद्या की दो परम्परायें रही होंगी। एक वेदानुगामिनी, जो परलोक और ईश्वर में विश्वास रखती रही और दूसरी केवल तर्क करने वाली परम्परा रही होगी। दूसरी परम्परा ने इसकी प्रक्रिया तो अपनायी किन्तु वह इसके हार्दिक अभिप्राय को नहीं पकड़ पायी या उसे छोड़ दिया। अत: युक्तिविद्या की इस दूसरी परम्परा की निन्दा और इसकी पहली परम्परा की अर्थात गौमतीय न्यायविद्या की प्रशंसा सर्वत्र शास्त्रों में की गयी है। ‘तर्काप्रतिष्ठानात्’ (2/1/11/) इस वेदान्तसूत्र का संकेत भी इसी ओर है। गौतमीयन्यायविद्या भगवान व्यास के लिए निन्द्य नहीं है। अतएव शंकर भगवत्पाद ने वेदान्तसूत्र के भाष्य में प्रमाण के रूप में न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र का उपयोग किया है।[29] यह संभव भी नहीं है कि एक ही ग्रन्थ में एक ही लेखक एक ही शास्त्र की प्रशंसा और निन्दा एक साथ करे।

आदि प्रवर्तक अक्षपाद गौतम

उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गोतम या गौतम हैं। यही अक्षपाद नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। न्यायवार्त्तिककार उद्योतकराचार्य ने इनको इस शास्त्र का कर्ता नहीं वक्ता कहा है। यदक्षपाद: प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।[30] अत: वेदविद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वसृष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। महर्षि अक्षपाद से पहले भी यह विद्या अवश्य रही होगी। इन्होंने तो सूत्रों में बाँधकर इसे सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं पूर्णांग करने का सफल प्रयास किया है। इससे शास्त्र का एक परिनिष्ठित स्वरूप प्रकाश में आया और चिन्तन की धारा अपनी गति एवं पद्धति से आगे की ओर उन्मुख होकर बढ़ने लगी। वात्स्यायन ने भी न्यायभाष्य के उपसंहार में कहा है कि ऋषि अक्षपाद को यह विद्या प्रतिभात हुई थी- योऽक्षपादमृर्षि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम्।

न्याय-सूत्रों के परिसीलन से भी ज्ञात होता है कि इस शास्त्र की पृष्ठभूमि में अवश्य ही चिरकाल की गवेषणा तथा अनेक विशिष्ट नैयायिकों का योगदान रहा होगा। अन्यथा न्यायसूत्र इतने परिष्कृत एवं परिपूर्ण नहीं रहते। चतुर्थ अध्याय में सूत्रकार ने प्रावादुकों के मतों का उठा कर संयुक्तिक खण्डन किया है तथा अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समक्ष अनेक दार्शनिकों के विचार अवश्य उपलब्ध थे। महाभारत में भी इसकी पुष्टि देखी जाती है। वहाँ कहा गया है कि न्याय दर्शन अनेक हैं उनमें से हेतु, आगम और सदाचार के अनुकूल न्यायशास्त्र पारिग्राह्य है-

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥

[31]

न्यायसूत्र का काल न्यायसूत्र के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म0म0 हरप्रसादशास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते है। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डा0 याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह। किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह बौद्ध आचार्य नागार्जुन के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। म0म0 फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बङ्गला न्यायदर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्षरूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा उपनिषदों में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में न्यायदर्शन के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर। उपर्युक्त दूसरी युक्ति के प्रसङ्ग में कहना है कि आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत कौटिल्य ने जिस योगशास्त्र का उल्लेख किया है, वह वह न्यायविद्या ही है पातंजल योग नहीं। प्राचीन समय में न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों के लिए योग या यौग पद का व्यवहार देखा जाता है। जैन दर्शन के अनेक प्राचीनग्रन्थों में’[32] न्याय-वैशेषिक के लिए योग या यौग पद व्यवहृत हुआ है। न्यायभाष्यकार ने 1.1.29 सूत्र के भाष्य में न्यायदर्शन के सिद्धान्त का प्रतिपादन योगशब्द से किया है, जो कि पातञ्जल योग के सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: कौटिल्य ने साङ्ख्य पद से सांख्य और योग दोनों को लिया है। प्राचीन समय में निरीश्वर सांख्य से सांख्य दर्शन और सेश्वर सांख्य से पातञ्जल योग का व्यवहार होता रहा है। अतएव एक नाम से ही कौटिल्य ने उन दोनों दर्शनों का संकेत किया है। इसका कारण प्राय: यह भी रहा है कि दोनों ही दर्शनों की चिन्तन-पद्धति एवं प्रमाण आदि के विषय में मतैक्य है। फलत: योग पद से यहाँ न्यायदर्शन ही ग्रन्थकार का विवक्षित रहा है। न्यायदर्शन का प्रसिद्ध आरम्भवाद प्राय: इस योग पद के व्यवहार का मूल रहा है। क्योंकि दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक की सृष्टि होती है और तीन द्वयणुक मिलकर त्रसरेणु बनते हैं। इस तरह परमाणुओं के योग से सृष्टि-प्रक्रिया का निर्वाह एवं आरम्भवाद की स्थापना के कारण शायद योगपद से प्राचीन समय में न्यायविद्या का परिग्रह किया गया हो। अथवा पाशुपत योग का प्रभाव न्यायदर्शन पर आदिकाल से ही रहा है, अत एव योग पद से न्यायविद्या और योग से नैयायिक की प्रसिद्धि हुई होगी। बात रही यहाँ उल्लिखित लोकायत की। वह नास्तिक तार्किक के लिए प्रयुक्त है, जो उस समय में अपना स्थान बना चुके थे और समाज में इनकी प्रतिष्ठा नहीं थी। अतएव मनुस्मृति आदि में इस शास्त्र की जमकर निन्दा की गयी हे। निष्कर्ष यह हुआ कि न्यायसूत्र की रचना दो समयों में दो ऋषियों के द्वारा नहीं हुई है, अपितु एक समय में एक ही ऋषि द्वारा वह प्रणीत है। और वह ऋषि हैं महामुनि गौतम। इसमें जन-प्रसिद्धि भी अनुकूल है। पितृमेघसूत्र[33] की व्याख्या में अनन्त यज्वा ने गौतम और अक्षपाद को एक ही ऋषि माना है। इनके मत में गौतम धर्मसूत्र और न्यायसूत्र के रचयिता एक ही ऋषि हैं। न्यायकोष में उद्धृत है कि गौतम के विचारमग्न रहने से एक बार कूप में गिर जाने पर प्रभु ने अनुग्रह करके उनके पैर में एक आँख दे दी। अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण पद्य गौतम और अक्षपाद को दो नहीं मानता है। देवीपुराण आदि की कथा, महाकवि भास की उक्ति, रामायण तथा महाभारत में न्यायविद्या के प्रवर्तक गौतम ऋषि का उल्लेख इस पक्ष में प्रबल प्रमाण उपलब्ध हैं। कौटिल्य इस न्यायविद्या से कथमपि अपरिचित नहीं हो सकतें हैं। अन्यथा वे ‘प्रदीप: सर्वविद्यानां’ आदि प तथा ‘व्यसने अभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति’ आदि गद्य न्यायविद्या या आन्वीक्षिकी की प्रशंसा में नहीं कहते। अत: तर्क और प्रमाणों के आधार पर खृष्टपूर्व षष्ठ शतक ही न्यायसूत्र का रचनाकाल मानना उचित है। न्यायसूत्र यद्यपि दो तरह से न्याय पद की व्युत्पत्ति की गयी है- ‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:’ तथा ‘नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेनेति न्याय:’ तथापि प्रमाणों के द्वारा पदार्थों के परीक्षण में ही दोनों व्युत्पित्तियों का तात्पर्य है। अत: यहाँ अधिक विचार की अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार ने कहा है कि न्यायविद्या की प्रवृत्ति तीन प्रकार की देखी जाती है- उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा। पदार्थों के नाम का निर्देश करना ‘उद्देश्य’ है। उसके परिचयार्थ उसके स्वरूप का निरूपण ‘लक्षण’ है। और उसका यह लक्षण सर्वथा उपयुक्त है या नहीं- इसका विचार या आलोचन परीक्षा है।

टीका टिप्पिणी

  1. प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:। (वा.न्या.भा. 1/1/1)।
  2. ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)।
  3. यह पद्य भुवनेश्वर के अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण है।
  4. आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो

    मैत्रेय्यात्मना वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या वा विज्ञानेनेदं सर्व विज्ञातम्। (बृह. उप. 4.2.51)
    श्रोतव्य: पूर्वमाचार्यत आगमतश्च। पश्चान्मन्तव्यस्तर्कत इति (शाङ्करभाष्यम्।)
    श्रोतव्य: श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:।
    मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥
    -प्रो. तङ्गास्वामी ने अपनी दर्शनमञ्जरी में मानव उपपुराण अध्याय 6 का पद्य कहा है।
    तत्त्वचिन्तामणि में, न्यायतत्त्वालोक पृ0 2 में तथा विवरणप्रमेयसंग्रह पृ0 2 में यह पद्य उल्लिखित है।

  5. प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् (न्यायभाष्य 1.1.1)
  6. न्यायकुसुमाञ्जलि आरम्भिक उपक्रम अंश।
  7. साधनीयार्थस्य यावति शब्दसमूहे सिद्धि: परिसमाप्यते
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय’ समूहमपेक्ष्यावयवा उच्यन्ते।
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय: सोऽयं परमो न्याय इति।(न्यायभाष्य 1.1.1)

  8. भागवत 1.2.11
  9. इमास्तु चतस्रो विद्या: पृथक् प्रस्थाना: प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या। तस्या: पृथक् प्रस्थाना: संशयादय: पदार्था:। येषां पृथग्वचनमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात् यथोपनिषद:। 1.1.1. न्या0 भा0
  10. तस्या: संशयादि प्रस्थानमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात्। तस्मात् पृथगुच्यन्ते 1.1.1
  11. आदिसर्गात् प्रभृतिवेदवदिमा विद्या: प्रवृत्ता:। संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तान् कर्तृना चक्षते इति (न्यायमञ्जरी पृ0 5)
  12. ऋग्वेद 1.164
  13. अस्यवामस्य पलितस्य होतु:।
  14. छान्दोग्य उपनिषद के नारद-सनत्कुमार-संवाद में विद्याओं का विवरण देते समय ‘वाकोवाक्य’ पद का व्यवहार हुआ है, जिसकी व्याख्या शंकर भगवत्पाद ने तर्कशास्त्र की है एवं सुबालोपनिषद के द्वितीय खण्ड में वेद के साथ न्याय शास्त्र का भी उल्लेख हुआ है 'तस्यैतस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमिवैतद् ऋग्वेदो यजुर्वेद:............ न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्रीणीति'
  15. "हेतूपचारकुशलान् हेतुकांश्च बहुश्रुतान् 8"। बा. रा. उ. का. 7/94/8/ वाग्मिन: परस्परजिगीषया हेतुवादान् /1/14/19/ नावादकुशलो द्विज: /1/14/21/
  16. ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
    यत्र धर्मस्तथैवार्थ: कामश्चैवापि वर्णित:॥
    त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
    दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिता: (शांति पर्व 59.29, 33)

  17. आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च। एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दहृत:॥ तृ. स्क. 12.44)
  18. सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा। तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिञ्च षड्विधाम्॥ दशम स्कन्ध 85.38, यहाँ न्यायपथ से मीमांसा और आन्वीक्षिकी से यह न्यायविद्या तर्कशास्त्र अभिप्रेत है।
  19. त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्याद् दण्डनीतिञ्च शाश्वतीम्। आन्वीक्षिकीञ्चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकत:॥ मनुस्मति 7.43
  20. स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च।
  21. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जं साधुकारी स्यात्। साधुवादी त्रय्यामान्वीक्षिक्यां चाभिविनीत:॥ (गौतमधर्मसूत्र, अध्याय 11)
  22. <poem>अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्या ह्येताश्चतुर्दश। आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रय:। अर्थशास्त्रं चतुर्थ तु विद्या ह्यष्टादशैव तु॥ (विष्णुधमोत्तरपुराण......) पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रङ्गमिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चर्तुदश॥ (याज्ञ. स्मृ. 1.3)
  23. डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा सम्पादित तथा विद्या भूषण का 'हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक' पृ0 20-291
  24. शिक्षामन्त्रालय भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पूर्व एवं पश्चिम दर्शन का इतिहास- (History of philosophy Eastern and Western) डा. विभूतिभूषण भट्टाचार्य का लेख)। (प्रथम भाग)
  25. शान्तिपर्व 268.64
  26. काञ्चित् लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे। अनर्थकुशला ह्येते बाला: पण्डितमानिन:॥ धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधा:। बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरर्थ प्रवदन्ति ते। (वाल्मीकि रामायण. अयोध्या काण्ड 100.38-39)
  27. भवेत् पण्डितमानी च ब्राह्मणो वेदनिन्दक:। आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम्॥ (अनुशासन पर्व 37.12)
  28. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज: स साधुर्भिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:॥ (मनु. 2.11) हेतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्। (मनु. 2.11)
  29. द्र. शाङ्करभाष्य 1/1/4/
  30. न्यायवार्त्तिक का मङ्गलाचरण।
  31. महाभारत शान्तिपर्व 210.22
  32. षड्दर्शनसमुच्चय की नवम कारिका, इसकी गुणरत्नसूरिकृत व्याख्या एवं स्याद्वादमञ्जरी आदि में ऐसा देखा जाता है।
  33. हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक पृ0 48 में उद्धृत फुटनोट सं. 4 से गृहीत।