वरूथिनी एकादशी
वरूथिनी एकादशी को 'वरुथिनी ग्यारस' भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार यह वैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी वरुथिनी है। यह पुण्यदायिनी, सौभाग्य प्रदायिनी एकादशी वैशाख वदी एकादशी को आती है। यह व्रत सुख-सौभाग्य का प्रतीक है। यह व्रत करने से सभी प्रकार के पाप व ताप दूर होते हैं, अनन्त शक्ति मिलती है और स्वर्गादि उत्तम लोक प्राप्त होते हैं। सुपात्र ब्राह्मण को दान देने, करोड़ों वर्ष तक ध्यान मग्न तपस्या करने तथा कन्यादान के फल से बढ़कर 'वरुथिनी एकादशी' का व्रत है।
विधि
इस दिन भक्तिभाव से भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए। इस व्रत को करने से भगवान मधुसूदन की प्रसन्नता प्राप्त होती हैं और सम्पूर्ण पापों का नाश होता है व सुख-सौभाग्य की वृद्धि होती है तथा भगवान का चरणामृत ग्रहण करने से आत्मशुद्धि होती है।
व्रती को चाहिए कि वह दशमी को अर्थात व्रत रखने से एक दिन पूर्व हविष्यान्न का एक बार भोजन करे। इस व्रत में कुछ वस्तुओं का पूर्णतया निषेध है, अत: इनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। व्रत रहने वाले के लिए उस दिन पान खाना, दातून करना, परनिन्दा, क्रोध करना, असत्य बोलना वर्जित है। इस दिन जुआ और निद्रा का भी त्याग करें। इस व्रत में तेलयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए। रात्रि में भगवान का नाम स्मरण करते हुए जागरण करें और द्वादशी को माँस, कांस्यादि का परित्याग करके व्रत का पालन करें।
कथा
प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करता था। वह अत्यंत दानशील तथा तपस्वी था। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहा था, तभी न जाने कहाँ से एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूर्ववत अपनी तपस्या में लीन रहा। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया। राजा बहुत घबराया, मगर तापस धर्म अनुकूल उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान श्री विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने चक्र से भालू को मार डाला। राजा का पैर भालू पहले ही खा चुका था। इससे राजा बहुत ही शोकाकुल हुआ। उसे दुखी देखकर भगवान विष्णु बोले- 'हे वत्स! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करो। उसके प्रभाव से पुन: सुदृढ़ अंगो वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था।' भगवान की आज्ञा मान राजा ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक इस व्रत को किया। इसके प्रभाव से वह शीघ्र ही पुन: सुंदर और संपूर्ण अंगो वाला हो गया।
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