जूट

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सुखाती जूट

जूट शब्द संस्कृत के जटा या जूट से निकला समझा जाता है। यूरोप में 18वीं शताब्दी में पहले पहल इस शब्द का प्रयोग मिलता है, यद्यपि वहाँ इस द्रव्य का आयात 18वीं शताब्दी के पूर्व से 'पाट' के नाम से होता आ रहा था।

जूट के रेशे

जूट के रेशे दो प्रकार के जूट के पौधों से प्राप्त होते हैं। ये पौधे टिलिएसिई कुल के कौरकोरस कैप्सुलैरिस और कौरकोरस ओलिटोरियस हैं और रेशे के लिये दोनों ही उगाए जाते हैं। पहले प्रकार की फ़सल कुल वार्षिक खेती के 3/4 भाग में और दूसरे प्रकार की फ़सल कुल खेती के शेष 1/4 भाग में होती है। इनके बीज से फ़सल उगाई जाती है। बीज के लिये पौधों को पूरा पकने दिया जाता है, पर रेशे के लिये पकने के पहले ही काट लिया जाता है। यह प्रधानता भारत और पाकिस्तान में उपजाए जाते हैं।

कौरकोरस कैप्सुलैरिस

कैप्सुलैरिस कठोर होता है और इसकी खेती ऊँची तथा नीची दोनों प्रकार की भूमियों में होती है। कैप्सुलैरिस की पत्तियाँ गोल, बीज अंडाकार गहरे भूरे रंग के और रेशे सफ़ेद पर कुछ कमजोर होते हैं। कैप्सुलैरिस की किस्में फंदूक, घालेश्वरी, फूलेश्वरी, देसीहाट, बंबई डी 154 और आर 85 हैं।

कौरकोरस ओलिटोरियस

ओलिटोरियस की खेती केवल ऊँची भूमि में होती है। ओलिटोरियस की पत्तियाँ वर्तुल, सूच्याकार और बीज काले रंग के होते हैं और रेशे सुंदर सुदृढ़ पर कुछ फीके रंग के होते हैं। ओलिटोरियस की किस्में देसी, तोसाह, आरथू और चिनसुरा ग्रीन हैं।

खेती

भारत के बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम और उत्तर प्रदेश के कुछ तराई भागों में लगभग 16 लाख एकड़ भूमि में जूट की खेती होती है। इससे लगभग 38 लाख गाँठ (एक गाँठ का भाब्रिटेनर 400 पाउंड) जूट पैदा होता है। उत्पादन का लगभग 67 प्रतिशत भारत में ही खपता है। 7 प्रतिशत किसानों के पास रह जाता है और शेष ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्राँस, इटली, और संयुक्त राज्य अमरीका को निर्यात होता है। अमरीका, मिस्र, ब्राज़िल, अफ्रीका आदि अन्य देशों में इसके उपजाने की चेष्टाएँ की गईं, लेकिन भारत के जूट के सम्मुख वे अभी तक टिक नहीं सके।

जूट का पेड़

जलवायु

जूट की खेती गरम और नम जलवायु में होती है। इसकी खेती ताप 250-350 सेंटीग्रेड और आपेक्षिक आर्द्रता 90 प्रतिशत होनी चाहिए। हलकी बलुई, डेल्टा की दोमट मिट्टी में खेती अच्छी होती है। इस दृष्टि से बंगाल की जलवायु इसके लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। खेत की जुताई अच्छी होनी चाहिए। भूमि में प्रति एकड़ 50 से 100 मन गोबर की खाद या कंपोस्ट और 400 पाउंड लकड़ी या घास पात की राख डाली जाती है। पुरानी मिट्टी में 30-60 पाउंड नाइट्रोजन दिया जा सकता है। कुछ नाइट्रोजन बोने के पहले और शेष बीजांकुरण के एक सप्ताह बाद देना चाहिए। पोटाश और चूने से भी लाभ होता है। नीची भूमि में फ़रवरी में और ऊँची भूमि में मार्च से जुलाई तक बोआई होती है। साधारणतया छिटक बोआई होती है। अब ड्रिल का भी उपयोग होने लगा है। प्रति एकड़ 6 से लेकर 10 पाउंड तक बीज लगता है।

कटाई

पौधे के तीन से लेकर नौ इंच तक बड़े होने पर पहले गोड़ाई की जाती है। बाद में दो या तीन निराई और की जाती है। जून से लेकर अक्टूबर तक फ़सलें काटी जाती हैं। फूल झर जाने तथा फली निकल आने पर ही फ़सल काटनी चाहिए। अन्यथा देर करने से पछेती कटाई से रेशे मज़बूत, पर भद्दे और मोटे हो जाते हैं और उनमें चमक नहीं होती। बहुत अगेती कटाई से पैदावार कम और रेशे कमज़ोर होते हैं।

भूमि की सतह से पौधे काट लिए जाते हैं। कहीं पौधे आमूल उखाड़ लिए जाते हैं। ऐसी कटी फ़सल को दो तीन दिन सूखी जमीन में छोड़ देते हैं, जिससे पत्तियाँ सूख या सड़ कर गिर पड़ती हैं। तब डंठलों को गरों में बाँधकर पत्तों, घासपातों, मिट्टी आदि से ढँककर छोड़ देते हैं। फिर गरों से कचरा हटाकर उनकी शाखादार चोटियों को काटकर निकाल लेते हैं। अब पौधे गलाए जाते हैं। गलाने के काम दो दिन से लेकर एक मास तक का समय लग सकता है। यह बहुत कुछ वायुमण्डल के ताप और पानी की प्रकृति पर निर्भर करता है। गलने का काम कैसा चल रहा है, इसकी प्रारंभ में प्रति दिन जाँच करते रहते हैं। जब देखते है कि डंठल से रेशे बड़ी सरलता से निकाले जा सकते हैं तब डंठल को पानी से निकाल कर रेशे अलग करते और धोकर सुखाते हैं।

जूट को धोते किसान

रेशा निकालने वाला पानी में खड़ा रहकर, डंठल का एक मूठा लेकर जड़ के निकट वाले छोर को छानी या मुँगरी से मार मार कर समस्त डंठल छील लेता है। रेशा या डंठल टूटना नहीं चाहिए। अब वह उसे सिर के चारों ओर घुमाकर पानी की सतह पर पट रखकर, रेशे को अपनी ओर खींचकर, अपद्रव्यों को धोकर और काले धब्बों को चुन कर निकाल देता है। अब उसका पानी निचोड़ कर धूप में सूखने के लिये उसे हवा में टाँग देता है। रेशों की पूलियाँ बाँधकर जूट प्रेस में भेजी जाती हैं, जहाँ उन्हें अलग-अलग विलगाकर द्रवचालित दाब में दबाकर गाँठ बनाते हैं। डंठलों में 4.5 से 7.5 प्रतिशत रेशा रहता है।

आकार

ये साधारणतया छह से लेकर दस फुट तक लंबे होते हैं, पर विशेष अवस्थाओं में 14 से लेकर 15 फुट तक लंबे पाए गए हैं। तुरंत का निकाला रेशा अधिक मज़बूत, अधिक चमकदार, अधिक कोमल और अधिक सफ़ेद होता है। इन गुणों को खुला रखने से इनका ह्रास होता है। जूट के रेशे का विरंजन कुछ सीमा तक हो सकता है, पर विरंजन से बिल्कुल सफ़ेद रेशा नहीं प्राप्त होता। रेशा आर्द्रताग्राही होता है। 6 से लेकर 23 प्रतिशत तक नमी रेशे में रह सकती है।

जूट की पैदावार, फ़सल की किस्म, भूमि की उर्वरता, अंतरालन, काटने का समय आदि, अनेक बातों पर निर्भर करते हैं। कैप्सुलैरिस की पैदावार प्रति एकड़ 10-15 मन और ओलिटोरियस की 15-20 मन प्रति एकड़ होती है। अच्छी जोताई से प्रति एकड़ 30 मन तक पैदावार हो सकती है।

जूट का उपयोग

जूट के रेशे से बोरे, हेसियन तथा पैंकिंग के कपड़े बनते हैं। कालीन, दरियाँ, परदे, घरों की सजावट के सामान, अस्तर और रस्सियाँ भी बनती हैं। डंठल जलाने के काम आता है और उससे बारूद के कोयले भी बनाए जा सकते हैं। डंठल का कोयला बारूद के लिये अच्छा होता है। डंठल से लुगदी भी प्राप्त होती है, जो काग़ज़ बनाने के काम आ सकती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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