मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था

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मेवाड़ विषय सूची

मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर था। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। जातिगत पंचायतें अपनी जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए खान-पान, शादी-विवाह एवं रीति-रिवाजों से सम्बन्धित समय-समय पर नियम बनाती थीं और अपनी जाति के लोगों से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थीं। इस कार्य में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था।

समाज विभाजन

सामान्यत: राज्य जाति पंचायतों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। वस्तुत: मेवाड़ के महाराणाओं ने भी परम्परागत सामाजिक ढाँचे को बनाये रखनें में काफ़ी योगदान दिया था। जाति पंचायतों के नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। सबसे कड़ा दण्ड जाति से बहिष्कृत करना था। समाज परम्परागत रूप से चार भागों में विभक्त था-

  1. ब्राह्मण
  2. क्षत्रिय
  3. वैश्य
  4. शूद्र

जैन अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी स्वंय को हिन्दू समाज के वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थीं, शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हें शाश्वत रूप से प्रचलित रखे। इस प्रकार 18वीं शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व बना रहा।[1]

ब्रिटिश नियंत्रण

18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा मराठापिण्डारियों की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

धार्मिक समुदायों का संख्यात्मक प्रतिशत
समुदाय मतावलम्ब प्रतिशत
हिन्दु शैव, शाक्तवैष्णव 73.48%
आत्मवादी (आदिवासी) 13.34%
जैन 9.25%
सिक्ख 0.01%
आर्य 0.01
मुस्लिम सुन्नी 3.05%
शिया .40%
ईसाई कैथोलिक तथा प्रोटोस्टण्ट 0.02

धार्मिक आधार पर जातीय वर्गीकरण

जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और धर्म ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों हिन्दू तथा मुस्लिम में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के अनुसार वैदिक शैव, शाक्त तथा वैष्णव में तथा जैन 'श्वेताम्बर' व 'दिगम्बर' में उप विभाजित थे। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के मतमतांतरों मे विभाजित थे। शैवों में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि रूपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे। वैष्णवों में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों-विचारों में उपासना की दृष्टि से काफ़ी अन्तर था।[1]

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज में ईसाइयों का प्रवेश भी हो चुका था। यह समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध ईसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत सिक्ख समाज के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन संख्यात्मक प्रतिशत उन्नीसवीं शती के अन्त तक रहा।

धर्म सहिष्णु समाज

मेवाड़ी समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक साथ होने के बावजूद भी व्यवहारिक तौर पर कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। प्रत्येक धर्मावलम्बी व्यक्ति दूसरे धर्म को उतने ही आदर की दृष्टि से देखता था, जितना कि अपने धर्म को। यहाँ तक कि यहाँ के राणाओं ने भी धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं का सम्मान कर धर्म के प्रति अपनी सहिष्णुता व तटस्थता को दिखाया। राणा जनत सिंह द्वितीय ने रामला, कटड़ी, अर्णेटा और कान्या गाँवों को अजमेर की दरगाह को भेंट कर दिया। जैन मतावलम्बी जो एक स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, लिंगजी, लक्ष्मीजी, कालिका देवी आदि हिन्दू धर्म के प्रतीकों में आस्था रखते थे। राज्य में जनता द्वारा बनाये गये वर्तमान हिन्दू-जैन मन्दिर इसके उदाहरण हैं। आत्मवादी लोग एकलिंग (शिव), कालिका देवी (शक्त), श्रीनाथ जी (वैष्णव) तथा कालिया जी (ऋषभदेव) की पूजा में विश्वास रखते थे। 'शिवरात्रि' के महापर्व पर भील लोगों का एकलिंगजी के दर्शन करने आना, उनके लोक नृत्य 'गवरी' में 'राई' (पार्वती), और 'बुडया' (शिव) की उपस्थिति, दीपावली के दिनों में श्रीनाथ जी के चावल लूटना तथा धुलेव धाम के ऋषभदेव को अपना इष्ट मानना, इसका प्रमाण हैं। मुस्लिम समुदाय तथा हिन्दू समुदाय में पारस्परिक धार्मिक भावना का आदर किया जाता था। मुस्लिम लोग हिन्दुओं के सामाजिक-धार्मिक उत्सवों में बिना किसी भेद-भाव के भाग लेते थे। होली के अवसर पर गले मिलना, गुलाल लगाना, जादू-टोनों में विश्वास करना, झाड़-फूँक, नज़र आदि में श्रद्धा रखना आदि इस्लाम के विरुद्ध कार्य होते हुए भी इन्हें अपनाये हुए थे। इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा मुहर्रम के ताजियों के नीचे से बच्चों को निकालना, मुस्लिम पीरों में विश्वास करना आदि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है।

यद्यपि मेवाड़ी समाज में ईसाई समुदाय अपना धर्म सहिष्णु स्थान नहीं बना पाया था और अपने धार्मिक प्रचार द्वारा जनजाति के कुछ लोगों को इसाई धर्मानुयायी बनाने में वह सफल हो गया था, फिर भी जनता द्वारा इसका कोई तीव्र विरोध नहीं किया गया। अत: मेवाड़ी समाज में ईसाइयों के प्रति भी कोई द्वेष नही था और समाज धर्म सहिष्णु व साम्प्रदायिक भावना-मुक्त था। भारत में वर्ग स्तरण वंशानुक्रमण पर आधारित पैतृक और जन्मगत है, जिसे जाति के रूप में जाना जाता है। आलोच्यकाल में वर्गस्तरण जाति समाज, जातियों की स्थिति, उनका सामाजिक अन्तराल तथा पैतृक परम्परागत व्यवसायों के आधार पर वर्गीकृत था।

ब्राह्मण जातियाँ

जाति की संरचना को विस्तृत स्वरूप में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत सामाजिक ढाँचे में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मण जातियों को प्राप्त था, परन्तु ब्राह्मण जातियाँ भी विभिन्न उपजातियों में विभाजित थी। 18वीं शताब्दी के पूर्व अनेक ब्राह्मण उपजातियाँ मेवाड़ में विद्यमान थीं, तथापि 19वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़ में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, जोधपुर से जोधपुरिया, सिरोही से सिरोहिया आदि मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने भी अनेक ब्राह्मण परिवारों को उनके व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर मेवाड़ में बसाया था। गुजरात राज्य से पारख और मेवाड़ा ब्राह्मण, उत्तर प्रदेश से कन्नौजिया, सास्वत गौड़, श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सारस्वत, गौड़, मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थीं। यह सभी उपजातियाँ मूल में ब्राह्मण जाति होते हुए भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थीं। इन सभी ब्राह्मण जातियों में पारस्परिक खान-पान सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन करने वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियों के यहाँ बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने वाले ब्राह्मण द्विज जातियों (ब्राह्मण, राजपूत तथा वैश्य) के यहाँ बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे। ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे, किन्तु इनकी संख्या नगण्य थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्त्री-पुरुष पारस्परिक विवाह नहीं कर सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों में विकृतियाँ आने लगीं। खंडित व्यवहारों के कारण सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।[1] इन्हें भी देखें: ब्राह्मण

आजीविका

अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राह्मणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थीं। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राह्मणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थी, जिसका उपयोग ब्राह्मण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्त्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राह्मण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे। 'बख्शीखाना' के ठनाम-बहियों से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट, द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल ब्राह्मण रहे थे, जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हें धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तों के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी, जिन्हें मेवाड़ में 'ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राज ज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की थी।

पैतृक व्यवसाय

राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्राम, बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे। मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रूप में अपना रखा था। सामान्यत: श्रीमाली ब्राह्मण दूध बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नहीं माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि के व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।

राजपूत

मेवाड़ में सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राह्मणों के बाद समाज में राजपूतों का काफ़ी उच्च स्थान था। राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था-

  1. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य वंश
  2. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र वंश
  3. वशिष्ठ ऋषि द्वारा आबू पर्वत पर यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश

इन तीन राजपूत वंशों में, जिसमें 16 सूर्यवंशीय, 16 चन्द्रवंशीय और 4 अग्निवंशीय थे, सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामूहिक रूप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल 13 कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल के सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कहीं राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था। राजपूतों में विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्च परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह कर सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था, जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनों वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।[1]

दासया चाकर राजपूत

राजपूतों की इस श्रेणी में दास अथवा चाकर राजपूतों की इकाई आलोच्यकालीन समाज में एक स्थान रखती थी। राजपूतों द्वारा अन्य जाति की स्त्रियों को 'रखैल'[2] रखने की प्रथा और निर्धन बच्चे-बच्चियों के क्रम-विक्रम के रिवाज ने भी इस जाति के उद्भव तथा विकास में योगदान दिया। गोला राजपूतों को उच्चतर राजपूत कन्याओं के विवाह में दहेज के रूप में भेजा जाता था। इस पर राजपूत की प्रतिष्ठा निर्भर करती थी कि उसने कन्या-विवाह में कितने दास-दासी[3] प्रदान किये हैं। इन दास-दासियों का प्रयोग शासक, जागीरदार तथा सम्पन्न राजपूत अपने प्रशासकीय, व्यवस्थापकीय तथा काम-तृप्ति के लिए करते थे। दास-दासियों के विवाह की एक औपचारिकता पूरी कर दी जाती थी, जिससे स्वामी से उत्पन्न पुत्र का पिता मात्र विवाहित पति कहलाता रहे। राजपूत लोग इस जाति की स्त्रियों के साथ खान-पान में छूत नहीं मानते थे, जबकि पुरुषों के साथ खान-पान और व्यवहार की स्थिति भिन्न थी। दास-राजपूतों की सामाजिक प्रतिष्ठा और स्तरीकरण शासक अथवा स्वामी से उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों की दूरी और समीपता पर निर्भर रहता था। यह सम्बन्ध ही दासों की आर्थिक स्थिति को व्यक्त करते थे। कई दास राजपूत अपनी योग्यता और स्वामी की कृपा के द्वारा जाति में उपेक्षित होते हुए भी अपना सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और सम्मान रखते थे। राजपूतों के सीमित व्यवसाय तथा उसके परिणाम सामान्यत: राजकीय सेवा अथवा सामन्ती सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना राजपूत अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। अत: प्रशासकीय कार्य और सैनिक सेवा इनके जीविकोपार्जन का मुख्य साधन था।

राजपूतों का विघटन

18वीं शताब्धी के पूर्वार्द्ध तक मेवाड़ी राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की अखण्डता तथा सार्वभौमिकता के लिए मुग़लों तथा मराठों के दाँत खट्टे किये तथा अपने प्राणों की आहुति देकर आदर्श प्रस्तुत किये। किन्तु 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से निरन्तर युद्धों, पारस्परिक ईर्ष्या और आर्थिक विपन्नता ने राजपूतों के राजनीतिक संगठन में विघटन उत्पन्न कर दिया। अपनी गौरवशाली परम्पराओं को भूलकर कुल वैमनस्य और विद्वेष के अन्धकार वे में डूबने लगे। अधिकांश समय वे घृणित संगति अथवा देव-दासियों की चापलूसी में नष्ट करते थे। मद्य व अफीम के अति-सेवन के परिणामस्वरूप उनमें कई दुर्गुण उत्पन्न होते गये। अपनी झूठी और दम्भपूर्ण प्रवृत्ति एवं जीर्ण गौरव निर्वाह हेतु वे कुछ भी करने को तैयार थे। 'अंग्ल-मेवाड़ संधि' के बाद राजपूतों के लिए सैनिक सेवा का व्यापक क्षेत्र संकुचित तथा सीमित हो गया। प्रशासकीय सेवाओं में अन्य जातियों का प्रभाव बढ़ जाने के कारण अब राजपूतों की स्थिति में परिवर्तन आने लगा। व्यापार-वाणिज्य तथा धन-सम्पत्ति अर्जित करने के अन्य व्यवसायों में रुचि न होने के कारण अब राजपूतों को कृषि-कार्य अपनाने पर विवश होना पड़ा। ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व अधिकांश जागीरदार राजपूत थे और उनकी भूमि पर अन्य काश्तकार खेति करते थे। लेकिन अब इन कृषि जागीरदारों की तीन आर्थिक श्रेणियाँ हो गई थीं-

  1. दूसरों से खेती कराने वाले बड़े जागीरदार
  2. स्वयं और दूसरे काश्तकारों के साथ खेती करने वाले मध्यम जागीरदार
  3. अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाले जागीरदार

कायस्थों का स्थान

नौवीं शताब्दी के लगभग कायस्थ जाति ने हिन्दू समुदाय में वर्णविहीन स्थान बना लिया था। अपनी उत्पति के साथ ही यह जाति आभिजात वर्ग से सम्वंधित रही थी। मेवाड़ में इस जाति की 'माथुर' शाखा विद्यमान थी। इनमें पुन: प्रशाखा के रूप में 'भटनागर' की श्रेणी प्राप्त हेती है, जो पंजाब के भटनेर क्षेत्र से देशाटन करने वाले थे। श्रीवास्तव, कटारिया, निगम, सक्सेना आदि कायस्थों की प्रशाखाएँ थीं। विवाह सम्बन्धों का प्रचलन सिर्फ़ अन्तर्शाखा और प्रशाखा तक ही सीमित था। महाराण द्वारा स्वीकृत पट्टों, परवानों व आदेशों पर 'सही' का निशान लगाने वाले 'सहीवाला' और राजकीय-मंत्रालय का काम करने वाले 'बख्शी' कहलाते थे। प्राचीन कालीन 'पंचकूल'[4] की समिति का घराना 'पंचोली' कायस्थ कहलाने लगे थे। प्रकार्यात्मक दृष्टि से यह जाति विद्वता में ब्राह्मण गुणों, राज व्यवस्था में वैश्व-गुणों एवं वीसा में राजपूत गुणों से युक्त रही थी। अपने इस वंशानुगत गुणों के कारण ये मेवाड़ राज्य की सैनिक और असैनिक सेवा करते रहे थे। कामदार, कुशल कूटनीतिक, प्रशासक, राज अधिकारी, क़ानून विशेषज्ञ, महासहानी, लेखपाल, रोकड़िया तथा लिपिक के रूप में उनका एक विशेष स्थान था। महाराणा व सामन्तों से निकट सम्पर्क में रहने के कारण इन्हें इनाम तथा जीविकोपार्जन के लिए भूमि आदि प्राप्त होती रहती थी। इस प्रकार भू-ग्रहिता कायस्थ स्वत: कृषकों की श्रेणी में आ जाते थे, किन्तु इनकी भूमि पर कृषि कार्य इनके घरेलू दास अथवा गाँव के अन्य कृषकों के द्वारा किया जाता था। मांस-सदिरा के प्रयोग के सम्बन्ध में इस जाति में कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अत: इसे विचलित ब्राह्मण के रूप में भी माना जाता था। सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा में यह जाति राजपूतों व वैश्यों के समान स्तर पर रही थी। इन्हें भी देखें: कायस्थ

वैश्य

वैश्य अथवा महाजन जाति को सामान्यत: बनिया, बोहरा और सेठ कहा जाता था। जैन धर्म की धार्मिक सहिष्णुता से प्रभावित होकर राजपूतों तथा कई समाजोपाक्षित जातियों के लोगों ने जैन धर्म को अंगीकार कर लिया था। धीरे-धीरे जाति-मिश्रण प्रक्रिया के परिणामस्वरूप इनमें शाखा, प्रशाखा, गौत्र आदि के भेद उत्पन्न हो गये। जाति-वादी अलगाव की भावना प्रबल होती गई। श्रीमाल, ओसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी, पोखाल, बीजावर्गी आदि मेवाड़ में वैश्य-महाजन जाति की शाखाएँ थीं। महाजनों में एक अर्द्ध-जाति भी विद्यमान थी। महाजनों द्वारा अन्य जाति की स्त्रियों से उत्पन्न सदस्य अर्द्ध-जाति के होते थे, जिन्हें 'पंचाल' या 'पांचड़ा' कहा जाता था। महाजनों की सभी जातियाँ अन्तर्विवाही थीं। गौत्र और प्रशाखा के अनुसार वहिर्विवाही सम्बन्ध प्रचलित था। ऊँच-नीच का सामाजिक भेद-विभेद विवाह सम्बन्धों में मापा जाता था।

व्यवसाय व आर्थिक स्थिति

वाणिज्य-व्यापार तथा लेन-देन महाजनों का पारम्परागत व्यवसाय था। व्यापार के अलावा उधोगों पर भी उनका एकाधिपत्य था। अलग-अलग व्यवसाय के अनुसार आड़त का धंधा करने वाले 'आड़तिया', सोने-चाँदी का धंधा करने वाले 'शर्राफ', मण्डी में क्रय-विक्रय की मध्यस्थता करने वाले 'दलाल', कौड़ी का धंधा करने वाले 'कौड़ियात्' कपड़े के व्यापारी को 'बजाज' तथा औषधि विक्रेता महाजन 'पंसारी' कहलाते थे। महाजन जातियों में ऐसा कोई वाणिज्य व्यापार नहीं था, जो वैश्य समाज की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रतिकूल माना जाता हो। राज्य तथा जागीरों की प्रशासनिक व्यवस्था से सम्बंधित महाजनों को वेतन के बदले भूमि दी जाती थी। ऐसे महाजन स्वयं खेती न करके हिजारियों से खेती करवाते थे। राज्य एवं जागीर की प्रशासनिक सेवाओं में मुख्य रूप से लेखा-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था, अधीनस्थ सेवा तथा सैन्य सेवा प्रमुख थी। प्रशासन और सैन्य व्यवस्थापन के उच्च पदों पर इस जाति के मेहता, कोठारी, गाँधी गलूंडया आदि घराने के लोगों ने अधिक कार्य किया। वैश्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। जागीरों की प्रशासन-व्यवस्था चलाने, सामन्तों को ऋण आदि प्रदान करने, ब्रिटिश सरकार को खिराज चुकाने तथा राजपूतों को अपनी सामाजिक रुढियों एवं गौरव का निर्वाह करने हेतु समय-समय पर सेठ-साहूकारों की शरण लेनी पड़ती थी। इस प्रकार धीरे-धीरे वैश्य-महाजन वर्ग ने अपना राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभाव बढ़ा लिया था।[1]

चारण-भाट

'चारण' एवं 'भाट' को अलग-अलग जाति में वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु दोनों वर्गों के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हें एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा सकता है। चारण जाति में ब्राह्मण और राजपूत जाति के गुणों का सामन्जस्य मिलता है। पठन-पाठन तथा साहित्यिक रचनाओं के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती है। चारण लोग राजपूत जाति तथा राजकुल से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे। अपने शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी वात, ख्यात, रासो और साहित्य के लेखक रहे थे। वहीं भाट लोग जनसाधारण से सम्बंधित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे। लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया। शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा, वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्ता थे। लेकिन फिर भी समाज में दोनों की प्रतिष्ठा बराबर की रही थी। चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे। भूमि धारक चारण कृषि कार्य भी करते थे। युद्ध में भाग लेने व शान्ति की स्थापना में यह जाति राजपूत जाति के निकट थी। 18वीं शताब्दी में मराठों के विरुद्ध तथा 19वीं शताब्दी में आन्तरिक उपद्रवों को दबाने में इस जाति के लोगों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों में भाग लिया था। महाराणा अमरसिंह के काल में कुछ चारणों तथा भाटों ने अपने पैतृक व्यवसाय के साथ-साथ व्यापारिक सामान भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व बेचने का कार्य आरम्भ किया। ऐसे लोगों को 'बनजारा' कहा जाता था। चारणों की स्वामिभक्ति सदैव उल्लेखनीय रही थी। संकटकाल में भी वह अपने स्वामी के साथ रहता था। उनका घर संकटकाल में राजपूत स्त्रियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित माना जाता था।

मुस्लिम समाज

मेवाड़ में मुस्लिमों का स्वतंत्र अस्तित्व रहा था। जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दू समुदाय के बाद इनका दूसरा स्थान था। हिन्दू जाति-व्यवस्था से प्रभावित मुस्लिम समुदाय भी विभिन्न वर्गों में बँटा था।

  1. सैयद, शेख़ एवं पठान मुस्लिम, जिसे अशरफ़ समूह कहा जाता था।
  2. परिवर्तित मुस्लिम, जिनमें कायमारवानी, मेवाती अथवा मेव थे।
  3. पाक (पवित्र) व्यवसायी जातियाँ, जिसमें जुलाहे, दर्जी, कसाई, हज्जाम, कुंजड़ा, धुनिया, धोबी, फ़कीर, महावत आदि आते थे।
  4. नापाक (अपवित्र) जातियाँ, जैसे- मेहतर आदि।

इन स्तरों का प्रभाव उनके विवाह सम्बन्धों व सामाजिक व्यवहारों पर भी दिखाई देता था, अर्थात् उच्च स्तर का पुरुष निम्न स्तर की कन्या से विवाह कर सकता था, लेकिन निम्न स्तर के पुरुष का उच्च स्तर की कन्या से विवाह नहीं हो सकता था। धर्मपरिवर्तित मुस्लिमों के अनेक रीति-रिवाज हिन्दुओं के समान ही प्रचलित थे। इन्हें भी देखें: मुस्लिम एवं इस्लाम धर्म

जीविका कार्य

मेवाड़ के मुस्लिम समुदाय का मुख्य कार्य सैनिक सेवा था। आलोच्य काल में मराठों के विरुद्ध उनकी प्रशंसनीय सेवाओं के कारण अनेक मुस्लिम परिवारों को भूमि अथवा जागीर प्रदान कर दी गई थी। अनेक मुस्लिम परिवार राज्य के लिए तोप, बन्दूक व बारूद बनाने का काम करते थे। किन्तु 'आंग्ल-मेवाड़ सन्धि' के बाद सैनिक आवश्यकता न होने के कारण इनमें से अधिकांश मुस्लिम परिवार कृषि कार्य करने लग गये थे। जिन मुस्लिमों का मुख्य व्यवसाय कृषि था, उन्हें 'कुंजड़ा जाति' से जाना जाता था। अन्य व्यवसायी मुस्लिमों में कपड़ा रंगने वाले 'रंगरेज', चूड़ियाँ बनाने वाले 'चूड़ीगर', अस्त्र-शस्त्र बनाने वाले 'सिकलीगर', कपास धुनने वाले 'पिंजारा', कपड़े बुनने वाले 'जुलाहा' के साथ-साथ 'हज्जाम', 'कसाई', 'भिश्ती', 'मेहतर' आदि मुख्य थे। राज्य की असैनिक सेवा करने वाले मुस्लिमों में 'फीलखाना'[5] के महावत, नाव के कारखाने के नाविक, अस्तबल के सईस, पायगादार, हाथियों को प्रशिक्षण देने वाले जलेबदार, राज्य सवारी में छड़ी लेकर चलने वाले छड़ीदार, पत्थर गढ़ने वाले सलावट, चुनाई करने वाले मिस्त्री, नक्काशी करने वाले नक्काश आदि मुख्य थे। धर्माधिकरियों के अन्य वर्गों में क़ाज़ीतथा मौलवी लोग थे। इनकी जीविका धर्मार्थ भूमि या दान पर चलती थी।

बोहरा मुस्लिम

ये शिया मताबलम्बी थे तथा आर्थिक रूप से सम्पन्न थे। बोहरा व्यापारियों का सर्वप्रथम उल्लेख महाराणा शम्भू सिंह के काल में मिलता है। संभवत: व्यापारिक सुविधाओं से प्रेरित होकर ये मेवाड़ आये थे। ये लोग व्याज पर ऋण देने, साड़ियों पर जरी का काम करने, मोतियों का माला आदि बनाने तथा कपड़ा व मणिहारी की बिक्री हेतु फेरी का धन्धा भी करते थे। 19वीं शती के उत्तरोत्तर में इन लोगों ने लौह व्यवसाय के थोक व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया था। राज्य सेवाओं में नियुक्त अनेक बोहरा मुस्लिम मेवाड़ के आदिवासी क्षेत्रों में रुपयों का लेन-देन तथा व्यापार भी करते थे।

ईसाई

ईसाई समुदाय मेवाड़ में 1818 ई. को मेवाड़ और ईस्ट इंडिया कम्पनी के समझोते के पश्चात ही बसने लगा था। एजेन्सी के ब्रिटिश कर्मचारी, धर्म प्रचारक पादरी, सैनिक कर्मचारी तथा धर्म परिवर्तित ईसाई इस समुदाय में सम्मिलित थे। मेवाड़ में इनकी संख्या सीमित ही थी। 19वीं शती के अंतिम वर्षों में मेवाड़ी समाज में सिक्ख तथा आर्य समाजी लोगो का प्रवेश हुआ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मेवाड़ में सभी जातियों की शाखा-प्रशाखा किसी न किसी प्रकार से विद्यमान रही थी। उनमें ऊँच-नीच की सामाजिक दूरी भी काफ़ी हद तक व्याप्त थी। लेकिन ऊँच-नीच की परम्परा के बावजुद लोग एक-दूसरे की जाति और मान-मर्यादा का आदर करते थे तथा आर्थिक सम्बन्धों में एक-दूसरे पर आश्रित थे। विभिन्न सम्प्रदायों में धार्मिक सहिष्णुता एवं सहयोग की भावना यहाँ के समाज की मुख्य विशेषता थी।[1]

इन्हें भी देखें: ईसाई, बाइबिल, ईसाई धर्म एवं ईसाई मिशनरी

सेवक जातियाँ

इस वर्ग की जातियों में कन्दोई, तम्बोली, तेली, नाई, बारी, पिंजारा (मुस्लिम), खटीक, कलाल, धोबी, ढ़ोली इत्यादि प्रमुख थीं। इन जातियों का पारस्परिक जाति-भेद कार्य की विशेषता एवं उसके प्रकार पर निर्भर करता था, जैसे- मिठाई बनाने वाले कन्दोई, पान लगाने वाले तम्बोली, तेल निकालने वाले तेली, बाल काटने व साफ करने वाले नाई, पत्तल-दोना बनाने वाले वारी, मांस-विक्रेता खटीक, शराब विक्रेता कलाल, कपड़े धोने वाले धोबी, उत्सव गायन-वादन करने वाले ढोली कहलाते थे। सामाजिक-धार्मिक कार्यों में नाई, बारी, तम्बोली आदि महत्वपूर्ण सेवक जातियाँ थीं। यह सभी जातियाँ यजमानी पर अपना निर्वाह करती थीं।

उपेक्षित जातियाँ

हिन्दुओं की विकृत जाति-व्यवस्था से मेवाड़ भी अभिशप्त था। वाल्मीकि तथा चमार जातियों को निम्न जाति का दर्जा प्राप्त था। चमार जाति की उपजातियों में मृत पशु के चमड़े की सफाई व पकाने वाले बोला, ग्राम्य चर्मकारी करने वाले रेगर तथा सूअर पालने वाले भांबी मुख्य जातियाँ थीं। हेय कृषक श्रेणी में कीर नामक जाति के लोग नदी के किनारे तरबूज तथा खरबूज की खेती करते थे। मुस्लिम चर्मकारों को कसाई कहा जाता था। निम्न जातियों की बस्तियाँ प्राय: शहर से बाहर बनायी जाती थीं। सार्वजनिक कुओं व तालाबों का प्रयोग इनके लिए वर्जित था। ये जातियाँ भी अन्तर्जाति विवाह मानती थीं। इन निम्न जातियों के अलावा अन्य उपेक्षित जातियों को तीन वर्गां में बाँटा जा सकता है-

  1. धुमक्कड़-व्यवसायी जातियाँ - गडोलिया लुहार, बालदिया एवं बनजारा
  2. अपराधकर्मी व लोकानुरंजनी जातियाँ - कंजर, सांसी, थोरी बावरी तथा कालबेलिया, नट, रखत, मेर आदि।
  3. आत्मवादी अथवा आदिवासी जातियाँ - भील, मीणा और ग्रासिया
  • धुमक्कड़ व्यवसायी जातियाँ - गाड़ोलिया लुहार मूलत: लुहार नामक शिल्पी जाति की एक शाखा थे। इनका कार्य मुख्यत: लौह धातु के कृषि उपकरणों का निर्माण करना था। ये लोग पारिवारिक समूहों में बैलगाड़ियाँ पर देशाटन करते रहते थे। एक ही समूह के लोग अन्तर्समूह विवाह नहीं करते थे। इनमें कन्याओं की काफ़ी कमी थी, जिस कारण वधू-मूल्य लेने की प्रथा का प्रचलन इन लोगों में प्रचलित था। बनजारा जाति, मेवाड़ के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बालदिया[6] भी कहलाते थे। इनमें हैवासी, गवारिया और नट नामक तीन उपजाति भेंद थे। 18वीं शताब्दी के बाद इस जाति की आर्थिक स्थिति लगातार खराब होती गई। इसके परिणामस्वरूप इन्होंने दूसरे व्यवसाय तथा असमाजिक कार्यों में अपने आप को संलग्न कर लिया।
  • अपराधकर्मी व लोकानुरंजनी जातियाँ - अपराधकर्मी तथा लोकानुरंजनी जातियों के विवाह सम्बन्ध अन्तर्जाति समूह में होते थे। रक्त सम्बन्धों के अतिरिक्त इनमें कोई विवाह प्रतिबंध नहीं था। कई जातियों का परम्परागत व्यवसाय गायकी था। कालबेलिया जाति सांप का खेल दिखाती थी तथा आटा पीसने की चक्की तथा खरल-बट्टा बनाने का कार्य करती थी। वागरिया झाड़ू, चटाई आदि बनाने का लघु उद्योग कर जीविका चलाते थे। सरगड़ा जाति गाने-बजाने तथा रावल लोग रमत[7] द्वारा मनोरंजन का काम करते थे। नट खेल-तमाश दिखाकर अपना पेट पालता था। मेर व रावत नामक जातियाँ मेवाड़ के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के वन्य-प्रान्तों में रहती थी। मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव से उन्होंने इस्लाम धर्म को अपना लिया था, लेकिन अभी भी हिन्दु रीति-रिवाजों को वे भूल नहीं पाये थे। इन जाति के लोग सम्पन्न व्यक्तियों के यहाँ घरेलू दास बन कर अपना गुजारा करते थे। मेरों की आर्थिक स्थिति का अनुमान उनकी पैतृक दासत्व प्रवृत्ति से लगाया जा सकता है।
  • आत्मवादी अथवा आदिवासी जातियाँ - मेवाड़ राज्य के भोमट, मगरा, छप्पन, खेराड़ व ऊपरमाल के जंगलों में भील, ग्रासिया और मीणा जातियाँ रहती थीं। इनमें विवाह सम्बन्धों में भाई-बहन के रक्त-सम्बन्धों को छोड़कर शेष पर प्रतिबन्ध नहीं था। इनमें अधिकतर 'नाता' तथा 'दापा'[8] की प्रथा प्रचलित थी।

मेवाड़ में इन जातियों ने राज्य की महत्वपूर्ण सेवाएँ की थीं। प्राचीन काल से ही राज्य के प्रति अन्धभक्ति रखने वाले भीलों ने युद्ध के समय महत्वपूर्ण सेवाएँ दीं। इसलिए मेवाड़ के दरवार में इनका बड़ा सम्मान था। मेवाड़ में स्वच्छन्द सामान्तिक प्रवृत्तियों के कारण यह जाति कालान्तर में लूटमार और चोरी द्वारा अपनी जीविका चलाने लगी। राज्य प्रशासन ने इस पर नियंत्रण के लिए उन्हें 'बोलाई' एवं 'रखवाली' नामक शुल्क वसूल करने का भी अधिकार दे दिया था, फिर भी इनकी लुटेरी प्रवृत्ति पर नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका। अन्तत इनकी घनी बस्तियों वाले केन्द्र खेरवाड़ा, कोटड़ा तथा देवली में छावनियाँ बनाकर इन्हें सैनिक कार्यों में लगाने का निश्चय किया गया तथा 'मेवाड़ भील कोर' की स्थापना की गई। वर्ष 1881 ई. मे राणा सज्जन सिंह के शासन द्वारा इनके जाति-नियमों, परम्पराई आर्थिक अधिकारों में अधिकारिक हस्तक्षेप के कारण सम्पूर्ण भील जाति ने राज्य का प्रबल विरोध किया। अन्तत: जाति नियमों व अधिकारों को यथावत रखा गया।

आदिवासी जातियों का मुख्य व्यवसाय खेती करना तथा जंगली वस्तुओं को एकत्र कर नगर तथा कस्बे में बेचना था। ग्रामीण बास्तियों के आस पास रहने वाले आदिवासी गाँवों में बेगार करके अपना जीवन-निर्वाह करते थे। उसके बदले में ग्रामीण उन्हें आनाज के रूप में भत्ता देते थे। ओरणा, पानरवा और जवास के भील अपने को राजपूत तथा भीलों की मिश्रित सन्तान मानते थे। इनकी शाखा-प्रशाखा राजपूतों से मिलती-जुलती रही थी। इन्हें ग्रासिया अथवा मोमिया भील कहा जाता था। सामाजिक स्तरण में ये अन्य भीलों से उच्च माने जाते थे, लेकिन खान-पान और विवाह सम्बन्धों में ये अन्य भीलों के समान ही थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 1.5 मेवाड़ में जातिगत सामाजिक ढाँचा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2013।
  2. उपपत्नी
  3. दावड़े-दावड़ी
  4. पंचायती निर्णय
  5. हस्तीशाला
  6. बैल रखने वाले
  7. नाटक
  8. वधु का मूल्य देकर विवाह करना

बाहरी कड़ियाँ

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