आबू पर्वत

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माउंट आबू, राजस्थान

आबू पर्वत सिरोही, राजस्थान में अरावली श्रृंख़ला की एक चोटी है। यह पर्वत चोटी समुद्र तल से 1219 मीटर ऊँची है। आबू पर्वत राजस्थानी राजाओं की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में प्रसिद्ध रहा। यहाँ आज भी सुन्दर पहाड़ी पर स्वास्थ्य-निवास है। मन्दिरों और प्रकृति सौन्दर्य के कारण आबू पर्वत प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है।

दिलवाड़ा जैन मंदिर

जैन वास्तुकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण स्वरूप दो प्रसिद्ध संगमरमर के बने मंदिर जो दिलवाड़ा या देवलवाड़ा मंदिर कहलाते हैं, इस पर्वतीय नगर के जगत् प्रसिद्ध स्मारक हैं। विमलसाह के मंदिर के एक अभिलेख के अनुसार राजा भीमदेव प्रथम के मंत्री विमलसाह ने यह मंदिर बनवाया था। मंदिर पर 18 करोड रुपए व्यय हुआ था। कहा जाता है कि विमलसाह ने पहले कुंभेरिया के पार्श्वनाथ के 360 मंदिर बनवाए थे, किंतु उनकी इष्टदेवी अंबाजी ने किसी बात पर रुष्ट होकर पांच मंदिरों को छोड़ अवशिष्ट सारे मंदिर नष्ट कर दिए और स्वप्न में उन्हें दिलवाड़ा में आदिनाथ का मंदिर बनाने का आदेश दिया, किंतु आबू पर्वत के परमार नरेश ने विमलसाह को मंदिर के लिए भूमि देना तभी स्वीकार किया, जब उन्होंने संपूर्ण भूमि को रजतखण्डों से ढक दिया। इस प्रकार 56 लाख रूपये में यह जमीन खरीदी गई थी। इस मंदिर में आदिनाथ की मूर्ति की आँखेंं असली हीरे की बनी हुई हैं और उसके गले में बहुमूल्य रत्नों का हार है। मंदिर का प्रवेश द्वार गुंबद वाले मंडप से होकर है, जिसके सामने एक वर्ग आकृति भवन है।[1]

इसमें 6 स्तंभ और 10 हाथियों की प्रतिमाएं हैं। इसके पीछे मध्य में मुख्य पूजा गृह है, जिसमें एक प्रकोष्ठ में ध्यान मुद्रा में अवस्थित जिन की मूर्ति है। इस प्रकोष्ठ की छत शिखर रूप में बनी है यद्यपि वह अधिक ऊँची नहीं है। इसके साथ एक दूसरा प्रकोष्ठ बना है, जिसके आगे एक मंडप स्थित है। इस मंडप के गुम्बद में 8 स्तंभ हैं। संपूर्ण मंदिर एक प्रांगण के अंदर घिरा हुआ है, जिसकी लंबाई 128 फुट और चौड़ाई 75 फुट है। इसके चतुर्दिक् छोटे स्तम्भों की दुहरी पंक्तियां हैं, जिनसे प्रांगढ़ की लगभग 52 कोठरियों के आगे बरामदा सा बन जाता है। बाहर से मंदिर नितांत सामान्य दिखाई देता है और इससे भीतर के अद्भुत कला वैभव का तनिक भी आभास नहीं होता। किंतु सफेद संगमरमर के गुंबद का भीतरी भाग, दीवारें, छतें तथा स्तंभ अपनी महीन नक्काशी और अभूतपूर्व मूर्तिकारी के लिए संसार-प्रसिद्ध हैं। इस मूर्तिकारी में तरह-तरह के फूल-पत्ते, पशु-पक्षी तथा मानवों की आकृतियां इतनी बारीकी से चित्रित हैं मानो यहां के शिल्पियों की छेनी के सामने कठोर संगमरमर मोम बन गया हो। पत्थर की शिल्प कला का इतना महान वैभव भारत में अन्यत्र नहीं है।

दूसरा मंदिर जो तेजपाल का कहलाता है, निकट ही है और पहले की अपेक्षा प्रत्येक बात में अधिक भव्य और शानदार दिखाई देता है। इसी शैली में बने तीन अन्य जैन मंदिर भी यहां आस-पास ही हैं। किंवदंती है कि वशिष्ठ का आश्रम देवलवाड़ा के निकट ही स्थित था। अर्बुदा देवी का मंदिर यहीं पहाड़ के ऊपर है।

जैन कथा

जैन ग्रंथ 'विविधतीर्थकल्प' के अनुसार आबू पर्वत की तलहटी में अर्बुद नामक नाग का निवास था, इसी के कारण यह पहाड़ आबू कहलाया। इसका पुराना नाम नंदिवर्धन था। पहाड़ के पास मंदाकिनी नदी बहती है और धीमाता अचलेश्वर और वशिष्ठाधाम तीर्थ हैं। अर्बुद-गिरी पर परमार नरेशों ने राज्य किया था, जिनकी राजधानी चंद्रावती में थी। इस जैन ग्रंथ के अनुसार विमल नामक सेनापति ने ऋषभदेव की पीतल की मूर्ति सहित यहां एक चैत्य बनवाया था और 1088 विक्रम संवत में उसने विमल-वसति नामक एक मंदिर बनवाया। 1288 विक्रम संवत में राजा के मुख्यमंत्री ने नेम का मंदिर- लुणिगवसति बनवाया। 1243 विक्रम संवत में चंडसिंह के पुत्र पीठपद और महनसिंह के पुत्र लल्ल ने तेजपाल द्वारा निर्मित मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। इसी मूर्ति के लिये चालुक्यवंशी कुमारपाल भूपति ने श्रीवीर का मंदिर बनवाया था। अर्बुद का उल्लेख एक अन्य जैन ग्रंथ 'तीर्थमाला चैत्यवंदन' में भी मिलता है-

कोडीवारकमंत्रिदाहड़पुरेश्रीमंडपे चार्वुदे।


इन्हें भी देखें: माउंट आबू


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 64 |

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