रमण महर्षि

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रमण महर्षि (जन्म- 30 दिसम्बर, 1879, तिरुचुली गाँव, तमिलनाडु; मृत्यु- 14 अप्रैल, 1950, रमण आश्रम, तमिलनाडु) बीसवीं सदी के महान संत थे, जिन्होंने तमिलनाडु स्थित पवित्र अरुनाचला पहाड़ी पर गहन साधना की थी। उन्हें केवल भारत में ही अपितु विदेशो में भी शांत ऋषि के रूप में जाना जाता है। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया था। रमण महर्षि के संपर्क में आने पर असीम शांति का अनुभव होता था। आज भी लोग शांति कि खोज में तिरुवन्नामलाई स्थित रमण महर्षि के आश्रम अरुनाचला पहाड़ी और अरुनाचलेश्वर मंदिर में जाते हैं। महर्षि ने भारत के साथ-साथ पश्चिम के कई देशो में अपना उजाला फैलाकर देश को गौरवान्वित किया तथा मानव जाति की बहुमूल्य सेवा की। भारत के आध्यात्मिक लाडले सपूतों में रमण महर्षि का नाम अग्रगण्य है।

जन्म

रमण महर्षि का जन्म 30 दिसम्बर, सन 1879 में मदुरई, तमिलनाडु के पास 'तिरुचुली' नामक गाँव में हुआ था। इनका जन्म 'अद्र दर्शन', भगवान शिव का प्रसिद्ध पर्व, के दिन हुआ था।[1] जन्म के बाद रमण के माता-पिता ने उनका नाम वेंकटरमण अय्यर रखा था। ये अपने पिता सुन्दरम अय्यर की चार संतानों में से दूसरे थे। बाद के समय में वेंकटरामन अय्यर 'रमण महर्षि' के नाम से विश्व में प्रसिद्ध हुए।

शिक्षा

जीवन के आरम्भिक वर्षों में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। वे एक सामान्य बालक के रूप में ही विकसित हुए थे। उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा गया। जब वे बारह वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी। मदुरै में उन्हें पहले 'स्काट मीडिल स्कूल' तथा बाद में 'अमेरिकन मिशन हाईस्कूल' में भेजा गया। यद्यपि वह तीव्र बुद्धि एवं तीव्र स्मरण शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु फिर भी अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं थे।[2]

बलशाली शरीर

वेंकटरामन स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर से युक्त थे। इसीलिए उनके साथी उनकी ताकत से डरते थे। वेंकटरामन बहुत गहरी नींद सोते थे। इनकी नींद इतनी गहरी होती थी कि उनके साथियों में से यदि कभी किसी को वेंकटरामन से नाराजगी रहती तो वे उनसे गहरी निद्रावस्था में बदला लेते थे। उन्हें सोया जानकर कहीं दूर जाकर पीटते थे तो भी उनकी नींद नहीं झुलती थी।

आध्यात्मिक अनुभव

बचपन से ही रमण को लगता था कि 'अरुनाचला'[3] में कुछ रहस्यमय है, जिसको समझ पाना जरुरी है। जब वह 16 साल के थे तो उनके यहाँ एक बुजुर्ग मिलने के लिए आये। रमण के पूछने पर बुजुर्ग ने बताया कि वो अरुनाचला से आये हैं। यह जानकर वेंकटरमण उनसे बहुत कुछ पूछने के लिए उत्सुक हो गए और अरुनाचला के बारे में बुजुर्ग से कई सवाल पूछे। एक दूसरी घटना ने रमण का ध्यान अरुनाचला की ओर आकर्षित किया और उनकी गहरी आध्यात्मिक भावना को जाग्रत किया। उन्होंने 63 शिव संतो से सम्बंधित एक धार्मिक पुस्तक पढी। यह उनका पहला धार्मिक सहित्य था। इसको पढ़कर वह बहुत रोमांचित हुए। पुस्तक में दिए गए पवित्र संतो के उदाहरण उनके हृदय को छू गये। इसने उनके हृदय में त्याग और परमेश्वर के प्रति प्रेम की भावना को जाग्रत कर दिया। रमण को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ।

एक दिन रमण एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा था, वह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए नहीं। उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा- "अब मृत्यु आ गयी है!" इसका क्या मतलब है? वह क्या है जो मर रहा है? यह शरीर मर जाता है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? यह शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर मर जाता है, पर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ। बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना और मृत्यु का डर सदा के लिए गायब हो गया। इस प्रकार युवा वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। अहंकार स्वयं जागरूकता की बाढ़ में कहीं खो गया। अचानक एक लड़का जो कि वेंकटरमण के नाम से जाना जाता था, एक साधु और संत में बदल गया। अब वह एक पूर्ण आत्म-ज्ञान के साथ विकसित ज्ञानी भी था।[1]

जीवन परिवर्तन व गृह त्याग

युवा ऋषि का जीवन अचानक बदल गया। जो वस्तुएँ पहले मूल्यवान थीं, उन्होंने अपना मूल्य खो दिया। अध्ययन, मित्र, रिश्तेदार, परिवार आदि का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया। वह पूरी तरह अपने परिवेश के प्रति उदासीन हो गये। विनय, गैर प्रतिरोधकता और अन्य गुण उनके श्रंगार बन गये। अकेले बैठते और स्वंय को ध्यान में लीन रखते। वह रोज 'मीनाक्षी मंदिर' जाते और हर बार भगवान और संतो की मूर्तियों के सामने खड़े होकर एक उमंग का अनुभव करते। उनकी आँखों से लगातार आँसू बहते रहते। एक नई दृष्टि लगातार उनके साथ थी। 17 वर्ष की अल्पायु में ही रमण का व्यवहार एक योगी के समान था। उनके आध्यात्मिक अनुभव के 6 सप्ताह बाद ही एक घटना ने उनको घर-बार छोड़ने के लिए प्रेरित कर दिया। रमण के अंग्रेज़ी के शिक्षक ने उनकी पढाई की ओर उदासीनता को देखते हुए उन्हें एक अध्याय को तीन बार लिखने के लिए सजा के रूप में दिया। उन्होंने दो बार तो लिखा, लेकिन तीसरी बार इसकी निरर्थकता को जानकर लिखना छोड़ दिया। काग़ज़, किताब एक तरफ़ रख दिए और आँख बंद करके गहरे ध्यान में चले गये। इसके बाद उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। उन्हें पता था की उन्हें कहाँ जाना है। उन्होंने पवित्र अरुनाचला पर्वत की यात्रा प्रारंभ कर दी। उन्होंने घर वालों के लिए एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा था- "मैं भगवान की खोज में उनके आदेशानुसार जा रहा हूँ..."।

प्रेरक प्रसंग

रमण महर्षि बहुत कुशल धनुर्धर भी थे। एक सुबह उन्होंने अपने एक शिष्य को अपनी धनुर्विद्या देखने के लिए बुलाया। शिष्य यह सब पहले ही कई बार देख चुका था, पर वह गुरु की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता था। वे समीप ही जंगल में एक विशाल वृक्ष के पास गए। रमण महर्षि के पास एक फूल था, जिसे उन्होंने पेड़ की एक शाखा पर रख दिया। फिर उन्होंने अपने बस्ते से अपना नायाब धनुष, बाण और एक कढ़ाई किया हुआ सुंदर रूमाल निकाला। वह फूल से सौ कदम दूर आकर खड़े हो गए और उन्होंने शिष्य से कहा कि वह रूमाल से उनकी आँखें ढंककर भली-भांति बंद कर दे। शिष्य ने ऐसा ही किया। रमण महर्षि ने शिष्य से पूछा- "तुमने मुझे धनुर्विद्या की महान कला का अभ्यास करते कितने बार देखा है?" "मैं तो यह सब रोज़ ही देखता हूँ।" शिष्य ने कहा। फिर शिष्य ने रमण महर्षि से कहा- "आप तो तीन सौ कदम दूर से ही फूल पर निशाना लगा सकते हैं।" रूमाल से अपनी आँखें ढंके हुए महर्षि रमण ने अपने पैरों को धरती पर जमाया। उन्होंने पूरी शक्ति से धनुष की प्रत्यंचा को खींचा और तीर छोड़ दिया।

हवा को चीरता हुआ तीर फूल से बहुत दूर, यहाँ तक कि पेड़ से भी नहीं टकराया और लक्ष्य से बहुत दूर जा गिरा। "तीर लक्ष्य पर लग गया न?" अपनी आँखें खोलते हुए महर्षि रमण ने पूछा। शिष्य ने उत्तर दिया- "नहीं, वह तो लक्ष्य के पास भी नहीं लगा। मुझे लगा कि आप इसके द्वारा संकल्प की शक्ति या अपनी पराशक्तियों का प्रदर्शन करने वाले थे।" महर्षि ने कहा- "मैंने तुम्हें संकल्प शक्ति का सबसे महत्वपूर्ण पाठ ही तो पढाया है। तुम जिस भी वस्तु की इच्छा करो, अपना पूरा ध्यान उसी पर लगाओ। कोई भी उस लक्ष्य को नहीं वेध सकता, जो दिखाई ही न देता हो।"[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 रमण महर्षि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।
  2. श्री रमण महर्षि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।
  3. तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई शहर में स्थित एक पवित्र पर्वत और शिव मंदिर।
  4. संकल्प की शक्ति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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