लक्ष्मी कुण्ड उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार काशी धर्म क्षेत्र के रूप में विद्यमान था, उस समय वनों से आच्छादित यह क्षेत्र ‘आनन्द कानन’ कहलाता था तथा ताल, तलैया, पोखरे, सरोवर व जलाशय की भरमार थी। इन जलाशयों में कुछ वर्तमान स्वरूप आज भी बरकरार हैं। इसमें प्रमुख है लक्ष्मीकुण्ड।
सोरहिया मेला
इसके तट पर स्थित माँ लक्ष्मी के मंदिर में भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी से 16 दिन का मेला लगता है जो सोरहिया मेला के नाम से प्रसिद्ध है। यह लक्सा थाना से 100 मीटर की दूरी पर औरंगाबाद मार्ग पर स्थित है। इस कुण्ड पर लगने वाले मेले में प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन-पूजन के लिये एकत्र होते हैं। लक्ष्मी कुण्ड के बारे में प्राचीन मान्यता रही है कि ये कुण्ड पहले लक्ष्मण कुण्ड के नाम जाना जाता था। इसके पास में ही रामकुण्ड और सीताकुण्ड भी था। लेकिन धीरे-धीरे सीता कुण्ड विलुप्त हो गया। किन्तु रामकुण्ड का अस्तित्व आज भी बरकरार है। लक्ष्मण कुण्ड का स्वरूप समय के अनुसार बदलता गया बाद में यह लक्ष्मी कुण्ड के नाम से जाना जाने लगा। लक्ष्मी जी के मंदिर में भाद्र पक्ष में सोलह दिनों का पर्व होने लगा।
पौराणिक महत्व
लक्ष्मी कुण्ड के बारे में ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकर ने काशी में 64 योगिनियों को भेजा। चौसट्टी योगिनी चौसट्टी घाट पर माता चौसट्टी के मंदिर के रूप में स्थापित है। जबकि शिव द्वारा भेजी गई मयूरी योगिनी लक्ष्मी कुण्ड पहुंची। तत्पश्चात् अलग-अलग कुण्डों के अस्तित्व को बनाये रखने में मयूरी योगिनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लक्ष्मी कुण्ड के निकट स्थित राम कुण्ड व सीता कुण्ड का भी प्राचीन काल में पौराणिक महत्व रहा। लेकिन उक्त कुण्डों पर किसी उत्सव, महोत्सव व पर्व न होने के कारण वे अपना महत्व खोते गये। बदली परिस्थितियों में धीरे-धीरे मयूरी योगिनी द्वारा अस्तित्व में आयी राम कुण्ड व सीता कुण्ड, जानकी कुण्ड का लोप हो गया। लेकिन सोरहिया मेला के कारण लक्ष्मी कुण्ड का स्वरूप ज्यों का त्यों सुरक्षित है।
पूजन एवं उत्सव
भक्ति दायिनी काशी की महिमा केवल मोक्ष की दृष्टि से ही नहीं अपितु जल तीर्थो के कारण भी है। इसका एक नाम अष्ट कूप व नौ बावलियाँ वाला नगर भी है। काशी के जल तीर्थ भी गंगा के समान ही पूज्य हैं। भाद्र मास में लक्ष्मी कुण्ड का मेला सोरहिया मेला के नाम जाना जाता है। सोलह दिनों तक चलने वाले मेले के आखिरी दिन महिलायें जीवित्पुत्रिका का व्रत रखती हैं और इसी कुण्ड पर अपने निर्जला व्रत को तोड़ती हैं। इस दृष्टि से यह कुण्ड अत्यन्त पवित्र रूप से पूजित है। जीवित्पुत्रिका व्रत पर लक्ष्मी कुण्ड के पूजन-अर्चन की प्रथा अति प्राचीन काल से चली आ रही है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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