गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-19

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गीता-प्रबंध
3.मानव-शिष्य

यह रूपक स्‍पष्‍ट ही मनुष्‍य के आंतरिक जीवन का है ;ज्ञान का प्रकाश जैसै-जैसे बढ़ता वैसे-वैसे मनुष्य सनातन भगवान् का सादृश्य लाभ करता है, यही बात इस रूपक के द्वारा दिखायी गयी है। परंतु गीता का उपक्रम कर्म से होता है और अर्जुन कर्मी है, ज्ञानी नहीं, योद्धा है, ऋषि मुनि या तत्व-जिज्ञासु नहीं। गीता मे आरंभ से ही शिष्य की यह विशिष्ट भूमि स्पष्ट करके बतला दी गयी है और अथ से इति तक इसका पूर्ण निर्वाह हुआ है। सबसे पहले उसकी यह विशिष्ट मनोभूमि प्रकट होती है उसके अपने कार्य के संबंध में, अर्थात् जिस महान् संहार-कार्य का वह प्रधान यंत्र बनने जा रहा है उसके संबधं में जिस ढंग से उसे होश आया है उसमें, इस होश के आते ही जो विचार उसके जी में उठते हैं उनमें और जिस दृष्टिकोण और प्रेरक भाव के कारण उसमें उस महाभयानक विपत्ति के पीछे हटने की इच्छा होती है उसमें ये विचार, यह दृष्टिकोण और ये प्रेरक-भाव किसी दार्शनिक या किसी गंभीर विचारशील व्यक्ति के अथवा इस प्रसंग के या ऐसे ही किसी अन्य प्रसंग के सम्मुख खड़े हुए किसी आध्यात्मिक वृत्ति वाले पुरुष के नहीं हो सकते। इनको हम व्यावहारिक या फलवादी मनुष्य मे दिमाग की उपज कह सकते हैं, ऐसे मनुष्य की जो भावुक, राग-द्वेषयुक्त, नैतिक और चतुर है, जिसे किसी गंभीर और मौलिक भाव का पकड़ने की गहराई की थाह लेने का अभ्यास नहीं, ऐसे मनुष्य की जो भावुक, राग-द्वेषयुक्त, नैतिक और चतुर है, जिसे किसी गंभीर और मौलिक भाव को पकड़ने अथवा किसी गहराई को थाह लेने का अभ्यास नहीं, उसे ऊंचे पर बंधे-बंधाये विचारों को सोचने और वैसे ही कर्म को करने का तथा संकटों और कठिनाइयों को विश्वासपूर्वक पार करने का अभ्यास है, किंतु अब वह देखता है कि उसके सारे-के-सारे पैमाने उसके काम नहीं आ रहे तथा उसको अपने ऊपर और अपने जीवन पर जो विश्वास था वह एक ही लहर में बहा आ रहा है।
अर्जुन जिस संकट में से गुजर रहा है वह इस तरह का है। गीता की भाषा में अर्जुन त्रिगुण के अधीन है और त्रिगुण के इसी क्षेत्र मे अब तक निश्चिंत होकर साधारण मनुष्यों की तरह चलता रहा है। उसका नाम अर्जुन इतने ही अर्थ में चरितार्थ होता है कि यहां तक शुद्ध और सात्विक है कि उसका जीवन ऊंचे और स्पष्ट सिद्धांतों और आवेगों सक परिचालित होता है और वह स्वभावतः अपनी निम्न प्रकृति को उस महत्तम धर्म के अधीन रखता है जिसे वह जानता है। वह उद्दंड आसुरी प्रवृत्ति वाला पुरुष नहीं है, अपने मनोविकारों का दास नहीं है, उसे शांति, संयम तथा कर्तव्य-निष्ठा की शिक्षा मिली है, वह देश-काल मान्य उत्कृष्ट मर्यादाओं का, जिनमें उसका जीवन बीता है, तथा जिस धर्म और सदाचार के अंदर पला है उनका पालन करने वाला है। पर अन्य मनुष्यों के समान उसमें भी अहंकार है, उसका अहंकार शुद्धतर और सात्विक अवश्य है जो मुख्यतः अपने ही स्वार्थों, वासनाओं और मनोविकारों के दासत्व में न धंसा रहकर, धर्म, समाज, और दूसरों के हित का भी विचार रखता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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