गोपाल भट्ट गोस्वामी

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गोपाल भट्ट गोस्वामी (जन्म- 1503, मृत्यु- 1578) चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी तथा उनके प्रमुख शिष्यों में से एक थे। वे वृन्दावन के प्रसिद्ध 'षड् गोस्वामियों' में से थे।

परिचय

गोपाल भट्ट गोस्वामी का आविर्भाव सन 1503 में, श्री रंगक्षेत्र में कावेरी नदी के निकट स्थित बेलगुंडी ग्राम में श्री वैंकटभट्ट जी के घर हुआ था। जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण यात्रा करते हुए श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन हेतु रंगक्षेत्र पधारे, तब वहाँ वैंकटभट्ट भी उपस्थित थे, और उन्हें अपने घर पर प्रसाद का निमंत्रण दिया। उस समय महाप्रभु ने चातुर्मास श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी के ही घर में किया, तब गोपाल भट्ट की आयु 11 वर्ष की थी। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने भी महाप्रभु की हर प्रकार से सेवा की और गोपाल से महाप्रभु का भी अत्यंत स्नेह हो गया। वहां से प्रस्थान करते समय महाप्रभु ने ही इन्हें अध्ययन करने को कहा और वृंदावन जाने की आज्ञा दी। माता-पिता की मृत्यु के बाद वृंदावन आकर श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्री रूप-सनातन जी के पास रहने लगे थे।[1]

श्रीराधा रमण जी का प्राकट्य

एक बार श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी अपनी प्रचार यात्रा के समय जब गंडकी में स्नान कर रहे थे, उसी समय सूर्य को अर्घ देते हुए जब अंजुली में जल लिया तो तो एक अद्भुत शालिग्राम शिला श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी की अंजुली में आ गई। जब दुबारा अंजलि में एक-एक कर के बारह शालिग्राम की शिलायें आ गयीं, तब उन्हें लेकर गोस्वामी वृन्दावन धाम आ पहुंचे और यमुना तट पर केशीघाट के निकट भजन कुटी बनाकर श्रद्धापूर्वक शिलाओं का पूजन-अर्चन करने लगे।

एक बार वृंदावन यात्रा करते हुए एक सेठ जी ने वृंदावनस्थ समस्त श्री विग्रहों के लिए अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र आभूषण आदि भेट किये। श्री गोपाल भट्ट को भी उसने वस्त्र आभूषण दिए, परन्तु श्री शालिग्राम जी को कैसे वे धारण कराते। श्री गोस्वामी के हृदय में भाव प्रकट हुआ कि अगर मेरे आराध्य के भी अन्य श्रीविग्रहों की भांति हस्त-पद होते तो मैं भी इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता, और इन्हें झूले पर झूलता । यह विचार करते-करते श्री गोस्वामी जी को सारी रात नींद नहीं आई। प्रात: काल जब वह उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने देखा कि श्री शालिग्राम जी त्रिभंग ललित द्विभुज मुरलीधर श्याम रूप में विराजमान हैं। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने भावविभोर होकर वस्त्रालंकार विभूषित कर अपने आराध्य का अनूठा श्रृंगार किया। रूप सनातन आदि गुरुजनों को बुलाया और राधारमणजी का प्राकट्य महोत्सव श्रद्धापूर्वक आयोजित किया गया। यही श्री राधारमण जी का विग्रह आज भी 'श्री राधारमण मंदिर' में गोस्वामी समाज द्वारा सेवित है और इन्हीं के साथ गोपाल भट्ट जी के द्वारा सेवित अन्य शालिग्राम शिलाएं भी मन्दिर में स्थापित हैं।[1]

राधारमण जी का श्रीविग्रह वैसे तो सिर्फ द्वादश अंगुल का है, तब भी इनके दर्शन बड़े ही मनोहारी हैं। श्रीराधारमण विग्रह का श्रीमुखारविन्द "गोविन्ददेव जी" के समान है। वक्षस्थल "श्री गोपीनाथ" के समान तथा चरणकमल "मदनमोहन जी" के समान हैं। इनके दर्शनों से तीनों विग्रहों के दर्शन का फल एक साथ प्राप्त होता है। श्रीराधारमण जी का मन्दिर गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। श्रीराधारमण जी उन वास्तविक विग्रहों में से एक हैं, जो अब भी वृन्दावन में ही स्थापित हैं। अन्य विग्रह जयपुर चले गये थे, पर श्रीराधारमणजी ने कभी वृन्दावन को नहीं छोड़ा। मन्दिर के दक्षिण पार्श्व में श्रीराधारमण जी का प्राकट्य स्थल तथा गोपाल भट्ट गोस्वामी जी का समाधि मन्दिर है।

ग्रन्थ रचना

सनातन गोस्वामी के आदेश से श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी ने "लघु हरिभक्ति विलास" की रचना की, जिसे देखकर सनातन गोस्वामी ने उसका परिवर्धन कर "श्रीहरि भक्ति विलास" का संपादन किया और उसकी विस्तृत दिग्दर्शिनी नामक टीका लिखी। इस प्रकार अनेक वैष्णव ग्रन्थ प्रणयन में सहायक होकर गोपाल भट्ट गोस्वामी ने महाप्रभु के भक्ति रस सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए अनेको व्यक्तियों को दीक्षा दी।

मृत्यु

सन 1578 की श्रावण कृष्ण पंचमी को गोपाल भट्ट गोस्वामी नित्य लीला में प्रविष्ट हो गए। 'श्रीराधारमण जी' के प्राकट्य स्थल के पार्श्व में इनकी पावन समाधि का दर्शन अब भी होता है।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी (हिन्दी) iskcondesiretree। अभिगमन तिथि: 26 मार्च, 2016।

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