ब्रिटिश साम्राज्य

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आश्रित राज्यों, उपनिवेशों, संरक्षित राज्यों और अन्य प्रदेशों की एक विश्वव्यापी व्यवस्था, जो तीन शताब्दी तक ग्रेट ब्रिटेन की प्रभुसत्ता और ब्रिटिश सरकार के प्रशासन के अधीन रही। साम्राज्य के बहुत विस्तृत होने के कारण अधीनस्थ राज्यों को पर्याप्त मात्रा में स्वशासन का अधिकार या मान्यता देने की नीति से 20वीं सदी में ‘ब्रिटिश राष्ट्रमंडल’ (कॉमनवेल्थ) की अवधारणा विकसित हुई, जिसमें मुख्यत: स्वशासित अधीनस्थ राज्य आते थे, जिन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर निरंतर बढ़ती ब्रिटिश प्रभुसत्ता को स्वीकार किया। इस संज्ञा को 1931 के अध्यादेश में स्थान मिला। आज राष्ट्रमंडल ब्रिटिश साम्राज्य के भूतपूर्व भूक्षेत्रों का प्रभुसत्तात्मक राज्यों के रूप में स्वतंत्र संघ है।

बस्तियों की स्थापना

ग्रेट ब्रिटेन ने सबसे पहले 16वीं शताब्दी में सागर पार देशों में अपनी बस्तियाँ बनाने की आज़माइश की। व्यावसायिक महत्त्वकाक्षांओं और फ़्रांस से प्रतिद्वंद्विता के चलते, 17वीं शताब्दी में समुद्रवर्ती विस्तार में तेज़ी आई और परिणामस्वरूप उत्तरी अमेरिका और वेस्ट इंडीज़ में बस्तियों की स्थापना हुई। 1670 तक न्यू इंग्लैंड, वर्जीनिया और मैरीलैंड में उपनिवेशों की और बरमूडा, होंडूरास, एंटिगुआ, बारबाडोस और नोवा स्कोटिया में ब्रिटिश अमेरिकी बस्तियों की स्थापना हो चुकी थी। 1655 में जमैका को युद्ध द्वारा जीता गया और 1670 के बाद से हडसन बे कंपनी ने ख़ुद को पूर्वोत्तर कनाडा कहे जाने वाले क्षेत्र में स्थापित कर लिया। 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापारिक चौकियाँ क़ायम करनी शुरू कर दी थी और इस कंपनी की गतिविधियों के प्रसार के फ़लस्वरूप जलडमरूमध्य बस्तियों (स्ट्रेट्स सेंटलमेंट्स (पनांग, सिंगापुर, मलक्का और लाबुआन)) पर ब्रिटेन का क़ब्ज़ा हो गया। अफ़्रीकी उपमहाद्वीप में पहली स्थायी ब्रिटिश बस्ती गांबिया नदी के जेम्स द्वीप पर स्थापित हुई। ग़ुलामों का व्यापार सियरा लिओन में पहले ही शुरू हो चुका था, लेकिन यह श्रेत्र 1787 में ही ब्रिटिश अधिकार में आया। ब्रिटेन ने केप आफ गुड होप (अब दक्षिण अफ़्रीका में) 1806 में हासिल किया और ब्रिटिश नियंत्रण में बोअर और ब्रिटिश अग्रगामियों ने दक्षिण अफ़्रीका के आंतरिक प्रदेश खोल दिए। लगभग सभी शुरुआती बस्तियां ब्रिटिश ताज के बजाय किन्हीं ख़ास कंपनियों और बड़े व्यवसायियों के प्रयास के फलस्वरूप बनीं। ब्रिटिश ताज ने नियुक्ति और निरीक्षण के कुछ अधिकारों का प्रयोग ज़रूर किया लेकिन ये उपनिवेश मूलत: स्व-प्रबंधित उद्यम ही थे। अत: साम्राज्य का गठन टुकड़ों- टुकड़ों में हासिल एक अव्यवस्थित प्रक्रिया थी। कभी-कभी तो ब्रिटिश सरकार इस प्रक्रिया में सबसे कम उत्साही भागीदार होती थी।

उपनिवेशों पर नियंत्रण

17वीं और 18वीं सदी में ब्रिटिश ताज उपनिवेशों पर अपना नियंत्रण मुख्यत: व्यापार और जहाजरानी के क्षेत्रों में रखता था। उस समय की वाणिज्यिक सोच के अनुरूप उपनिवेशों को इंग्लैंड के लिए आवश्यक कच्चे माल के स्रोत के रूप में रखा जाता था और ब्रिटिश बाज़ारों में तंबाकू और चीनी जैसे उनके निजी उत्पादों पर उन्हें एकाधिकार दे दिया गया था। बदले में उनसे आशा की जाती थी कि वे अपना समस्त व्यापार ब्रिटिश जहाजों के द्वारा ही करेंगे और ब्रिटेन निर्मित उत्पादों के लिए बाज़ार बनेंगे। 1651 के जहाजरानी अधिनियम और इसके बाद के अधिनियमों ने ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों के मध्य एक बंद अर्थव्यवस्था स्थापित की, सभी औपनिवेशिक निर्यात अंग्रेज़ी बाज़ारों से ब्रिटिश बाज़ारों में जाते थे और सभी औपनिवेशिक आयात इंग्लैंड के रास्ते आते थे। यह व्यवस्था तब तक चली, जब तक स्कॉटी अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ की 'वेल्थ ऑफ़ नेशन्स' के प्रकाशन (1776) और अमेरिकी उपनिवेशों को खो बैठने व ब्रिटेन में मुक्त व्यापार आंदोलन बढ़ने के सम्मिलित प्रभावों से 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह धीरे-धीरे समाप्त न हो गई। अमेरिका में ब्रिटेन की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए ग़ुलामों का व्यापार महत्त्वपूर्ण हो उठा था और कैरेबियाई उपनिवेशों व भावी संयुक्त राज्य (अमेरिका) के दक्षिणी भागों के लिए एक आर्थिक आवश्यकता बन गया। ब्रिटेन के उपनिवेशों में दास-प्रथा में मुक्ति के लिए चलने वाला आंदोलन, अमेरिकी आंदोलन से बहुत पहले सफल हो चुका था। वहाँ पर 1807 में ग़ुलामों का व्यापार समाप्त कर दिया गया था और 1833 में ब्रिटेन अधिकृत क्षेत्रों में भी ग़ुलाम-प्रथा का अंत हो गया था।

रॉबर्ट क्लाइव, जेम्स वुल्फ़ और आयर कूट जैसे व्यक्तियों के नेतृत्व में ब्रिटेन की थल व नौ-सैन्य शक्ति ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कनाडा और भारत जैसे दो महत्त्वपूर्ण हिस्से हासिल किए। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमेरिका में ब्रिटिश और फ़्रांसीसी उपनिवेशों के बीच चलने वाला युद्ध स्थानीय ही था। लेकिन 1763 की पेरिस की संधि, जिससे सातवर्षीय युद्ध (उत्तरी अमेरिका में फ्रेंच और इंडियन वॉर के नाम से प्रसिद्ध) समाप्त हुआ, कनाडा में ब्रिटेन का वर्चस्व स्थापित कर दिया। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी को फ़्रांस की कोंपेनी द इंद से मुक़ाबला करना पड़ा, लेकिन 1750 में फ़्रांसीसियों और बंगाल के शासकों पर क्लाइव की सैनिक विजय ने ब्रिटेन द्वारा बड़े पैमाने पर भारतीय क्षेत्रों के अधिग्रहण और भारत में उनके भावी वर्चस्व का रास्ता साफ़ कर दिया।

1776-1783 में ब्रिटेन के हाथ से 13 अमेरिकी उपनिवेशों के निकल जाने की क्षतिपूर्ति, 1788 से आस्ट्रेलिया में नई बस्तियों और अब के अमेरिका से ब्रिटिश सत्ता के वफ़ादार लोगों के उत्प्रवास के बाद ऊपरी कनाडा (अब ओंटारियो) के अभूतपूर्व विकास से हुई। नेपोलियन से हुए युद्धों ने साम्राज्य को अतिरिक्त लाभ प्रदान किया। ऐमिएं की संधि (1802) ने त्रिनिदाद और सीलोन (वर्तमान श्रीलंका) को आधिकारिक रूप से ब्रिटिश सत्ता के अधीन कर दिया और पेरिस की संधि (1814) से फ़्रांस ने टोबैगो, मॉरिशस, सेंट लूशिया और माल्टा सौंप दिए। 1795 में मलक्का साम्राज्य में शामिल हुआ और सर स्टैमफोर्ड रैफल्स ने 1819 में सिंगापुर हासिल किया। अलबर्टा, मैनिटोबा और ब्रिटिश कोलंबिया की कनाडाई बस्तियों ने ब्रिटिश प्रभाव को प्रशांत महासागर तक पहुँचा दिया, जबकि भारत में ब्रिटिश विजय द्वारा आगरा और अवध के संयुक्त राज्यों, मध्य प्रांतों, पूर्वी बंगाल और असम को भी मिला लिया गया।

पूर्ण पल्लवन का काल

19वीं शताब्दी को ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्ण पल्लवन का काल माना जाता है। प्रशासन और नीति में बदलाव इसी शताब्दी के दौरान हुए और 17वीं व 18वीं शताब्दी की जस-तस व्यवस्था की जगह, औपनिवेशिक कार्यालय में जोसेफ चैंबरलेन के कार्यकाल (1895- 1900) की विशिष्ट विवेकपूर्ण व्यवस्था आ गई। 1801 में शुरू हुआ यह कार्यालय, पहले गृह कार्यालय और व्यापार बोर्ड के साथ संलग्न था, लेकिन 1850 में यह एक अलग विभाग बन गया, जिसके कार्मिकों की संख्या बढ़ रही थी और जिसकी अपनी एक सतत नीति थी। इसके माध्यम से ज़रूरत पड़ने पर औपनिवेशिक सरकारों पर दबाव डाला जाता था और उन्हें अनुशासित किया जाता था।

औपनिवेशीकरण

1840 में न्यूजीलैंड आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इसके बाद यहाँ का औपनिवेशीकरण तेज़ी से हुआ। ब्रिटिश मिशनरियों की ओर से पड़ने वाले थोड़े-बहुत दबाव के कारण ब्रिटिश आधिपत्य फिजी, टोंगा, पापुआ और प्रशांत महासागर के दूसरे द्वीपों तक फैल गया। और 1877 में पश्चिमी प्रशांत महासागर के द्वीपों के लिए ब्रिटिश उच्चायोग की स्थापना की गई। भारतीय विद्रोह (1857) के बाद ब्रिटिश ताज ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकारी सत्ता संभाल ली। 1886 में ब्रिटेन द्वारा बर्मा (वर्तमान म्यांमार) का अधिग्रहण पूरा हो गया, जबकि पंजाब (1849) और बलूचिस्तान (1854-76) की विजय से स्वयं भारतीय उपमहाद्वीप में उसे महत्त्वपूर्ण नए प्रदेश उपलब्ध हो गए। फ़्रांसीसियों द्वारा स्वेज नहर का काम पूरा (1869) कर लिए जाने के बाद ब्रिटेन को भारत के लिए पहले से कहीं छोटा मार्ग सुलभ हो गया। ब्रिटेन ने इसका लाभ अदन में अपने बंदरगाह के विस्तार, सोमालीलैंड (वर्तमान सोमालिया) में एक सरंक्षित सराज्य और दक्षिणी अरब की रियासतों में अपने प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि के रूप में उठाया। साइप्रस, जो जिब्राल्टर और माल्टा ही की तरह भूमध्य सागर से होता हुआ भारत के साथ संपर्क-श्रृंखला की एक कड़ी था, पर 1878 में क़ब्ज़ा कर लिया गया। अन्यत्र, जलडमरूमध्य बस्तियों और मलय राज्य परिसंघ के विकास के साथ ब्रिटिश प्रभाव सुदूर पूर्व तक फैला और 1880 के दशक में ब्रूनई और सारावाक संरक्षित राज्य बना लिए गए। 1841 में हांगकांग द्वीप ब्रिटिश अधिकार में आ गया। चीन में ब्रिटिश-संधि-बंदरगाहों और व्यापार के केंद्र, शंघाई, के माध्यम से एक ‘अनौपचारिक साम्राज्य’ चल रहा था।

विस्तार

ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा विस्तार अफ़्रीका में हुआ। ब्रिटेन को 1882 से मिस्र में और 1899 से सूडान में सत्ताधारी शक्ति के रूप में जाना जाता था। इस शताब्दी के उत्तरार्ध में, रॉयल नाइजर कंपनी ने ब्रिटिश प्रभाव को नाईजीरिया और गोल्ड कोस्ट (वर्तमान घाना) में बढ़ाना शुरू कर दिया था और जांबिया भी ब्रिटिश अधिकार में आ गया। केन्या और युगांडा कहे जाने वाले क्षेत्रों में 'इंपीरियल ब्रिटिश ईस्ट अफ़्रीका कंपनी काम करती थी और ब्रिटिश साउथ अफ़्रीका कंपनी जिंबाब्वे,[1] जांबिया[2] और मलावी में सक्रिय थी। दक्षिण अफ्रीका से उत्तर में मिस्र तक फैली ब्रिटिश प्रदेशों की श्रृंखला ने अंग्रेज़ जनता के ‘केप से काहिरा’ तक विस्तृत अफ़्रीकी साम्राज्य के सपने को पूरा कर दिया। 19वीं सदी के अंत तक संसार की एक-चौथाई भूमि और उसकी चौथाई से भी अधिक जनसंख्या ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थी।

ब्रिटेन के कुछ उपनिवेशों के लिए सीमित स्वशासन के विचार की सिफ़ारिश सबसे पहले कनाडा के लिए 1839 में लॉर्ड डरहम ने की थी। इस रिपोर्ट में ‘उत्तरदायी स्वशासन’ का प्रस्ताव रखा गया था, ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा चुने गए अधिकारियों के बजाय कनाडा के नागरिकों द्वारा चुनी गई मंत्रिपरिषद कार्यकारी अधिकारों का प्रयोग कर सके। अपने कार्यकाल के लिए मंत्रिपरिषद प्राथमिक तौर पर औपनिवेशिक विधान सभा के समर्थन पर निर्भर रहने वाली थी।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भूतपूर्व दक्षिणी रोडेशिया
  2. भूतपूर्व उत्तरी रोडेशिया

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