रश्मिरथी सप्तम सर्ग
| ||||||||||||||||||||||||||||
|
रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। सप्तम सर्ग की कथा इस प्रकार है -
सप्तम सर्ग
- घटोत्कच वध के बाद द्रोणाचार्य का निधन हुआ। द्रोणाचार्य के बाद कर्ण के सेनापतित्व की बारी आयी।
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं,
गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण
ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु,
उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण-
को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह। [1]
- कर्ण विपरीत परिस्थितियों में लड़ा। कवच-कुण्डल तो पहले ही इन्द्र को दे चुका था। इन्द्र से एकघ्नी नामक जो अस्त्र उसे मिला था, वह भी घटोत्कच को मारकर उसके पास से चला गया। फिर कुन्ती को उसने वचन दिया था कि अर्जुन के सिवा और पाण्डवों का वध मैं नहीं करूँगा। इस पर, शल्य को उसने सारथी बनाया। शल्य युधिष्ठिर का मामा था और पाण्डवों ने शल्य को सिखला रखा था कि जब आप कर्ण का रथ हाँकिये तब उसे दुर्वचन कहते रहिये जिससे उसका तेज मन्द होता जाय।-
देखता रहा सब शल्य, किन्तु,
जब इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की
ओर देख, यह परुष वचन,
“रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट
यह कालपृष्ठ धनु धरता है?
मारना नहीं है तो फिर क्यों,
वीरों को घेर पकडता है?”[2]
- तब भी कर्ण का पाण्डवी सेना पर भयानक आक्रमण हुआ और पाण्डवी पक्ष के वीर जवाब नहीं दे सके। कर्ण आज प्राणपण से लड़ रहा था। उसकी इच्छा थी कि अर्जुन और कृष्ण दोनों को बन्दी बनाकर समरभूमि में ही दुर्योधन का जय-तिलक सजा दिया जाय। वह उत्साह से लड़ रहा था। उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर उसके सामने पड़ गये। युधिष्ठिर को उसने पकड़ तो लिया, किन्तु कुन्ती को दिये गये वचन को याद करके उसने उन्हें छोड़ दिया। उस दिन इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव भी उसके वश में आ गये। कर्ण उन्हें मार सकता था, किन्तु कुन्ती के कारण उसने चारों को जीवित छोड़ दिया।
कितना पवित्र यह शील !
कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,
चेतनामयी माँ की प्रतिमा
घूमती रही तब तक मन में।
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल,
भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने
भीतर से कुछ इङिगत पाकर। [3]
- इस स्थिति से किंचित कुपित होकर, किन्तु वास्तव में कर्ण का अपमान करने के लिए शल्य कहता है कि 'तू जो इस प्रकार पाण्डवों को छोड़े जा रहा है, इससे मालूम होता है तू अर्जुन के बाणों से डरकर कायर हो रहा है।'
हंसकर बोला राधेय, “शल्य,
पार्थ की भीति उसको होगी,
क्षयमान्, क्षणिक, भंगुर शरीर
पर मृषा प्रीति जिसको होगी।
इस चार दिनों के जीवन को,
मैं तो कुछ नहीं समझता हूं,
करता हूं वही, सदा जिसको
भीतर से सही समझता हूं। [4]
- कर्ण कहता है कि मैंने चारों पाण्डवों को छोड़ दिया, यह भेद बताने लायक नहीं है। यह तो व्रत की वेदना है, जिसे मैं भीतर-भीतर सहूँगा। मैंने इन चारों वीरों को नहीं छोड़ा है, प्रत्युत, पुण्य के चार फूल भगवान पर चढ़ा दिये हैं।'
“समझोगे नहीं शल्य इसको,
यह करतब नादानों का हैं,
ये खेल जीत से बडे क़िसी,
मकसद के दीवानों का हैं।
जानते स्वाद इसका वे ही,
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया
से अलग खडे ज़ो जीते हैं। ”[5]
- इतने में अर्जुन से उसका सामना होता है। अर्जुन को एक बार वह मूर्च्छित कर देता है। किन्तु अर्जुन मूर्च्छा से जागकर फिर भयानक पराक्रम में प्रवृत्त हो जाता है। कर्ण और अर्जुन का यह संग्राम ऐसा घनघोर है कि दोनों पक्षों के वीर लड़ना छोड़कर इन्हीं का युद्ध देखने लग जाते हैं।
“अब लो मेरा उपहार,
यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें
बस, इसी बार मिल जायेगा। ”
कह इस प्रकार राधेय
अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति
विकराल शरासन पर धरके। ”[6]
संभलें जब तक भगवान्, नचायें
इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द,
मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य
सङगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, “अरे,
पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ? ”[7]
- इसी बीच अश्वसेन सर्प आता है और कर्ण से प्रार्थना करता है कि 'मुझे तू अपने बाण पर चढ़ाकर अर्जुन पर फेंक तो सही, मैं उसका खात्मा किये देता हूँ और तुझे विजय अनायास मिल जाती है।'
इतने में शर के कर्ण ने
देखा जो अपना निषङग ,
तरकस में से फुङकार उठा,
कोई प्रचण्ड विषधर भुजङग ,
कहता कि 'कर्ण! मैं अश्वसेन
विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम,
तेरा बहुविधि हितकामी हूं'।[8]
- महाभारत में लिखा है कि कर्ण ने अश्वसेन की सहायता यह कहकर अस्वीकृत कर दी कि 'साँप की सहायता से यदि एक सौ अर्जुनों का वध होता हो, तो भी मैं यह सहायता स्वीकार नहीं करूँगा। जो पतित, पामर, अनाचारी और मानवता का शत्रु है, वह तो मेरा भी शत्रु ठहरा, फिर उसकी सहायता लेकर मैं अपने पुण्य को नष्ट क्यों करूँ?
अगला जीवन किसलिए भला,
तब हो द्वेषान्ध बिगाड़ूँ मैं ?
सांपो की जाकर शरण,
सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं ?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु,
मित्रता न मेरी पा सकता ,
मैं किसी हेतु भी यह कलङक
अपने पर नहीं लगा सकता।[9]
- इसके बाद भगवान कृष्ण कर्ण के शौर्य की प्रशंसा करते हैं और साथ ही साथ अर्जुन को कर्ण के विरुद्ध उत्तेजित भी। इतने में कर्ण को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास होता है और वह काल को धमकाकर शल्य से कहता है कि 'अब मेरा रथ वहाँ ले चलो जहाँ कृष्ण और अर्जुन के साथ पाण्डव पक्ष के सभी नामी वीर वर्तमान हों। आज साकार प्रलय के बीच घमासान मचाता हुआ मैं मृत्यु का वरण करूँगा।'
क्या धमकाता है काल ? अरे,
आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त
कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .
ओ शल्य ! हयों को तेज़ करो,
ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों
चुनकर सारे वीर जहां।[10]
- शल्य रथ को भगवान के सामने ले जाता है। यहीं अभिशाप के कारण कर्ण के रथ के पहिये धरती में धँस जाते हैं और किसी प्रकार निकाले निकलते ही नहीं। कर्ण रथ से नीचे उतरकर उसे निकालने में तत्पर होता है, किन्तु भगवान कृष्ण का संकेत पाकर अर्जुन उसे नि:शस्त्र अवस्था में ही, बाणों से बींधने लगता है।
'नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?'
हंसे केशव, 'वृथा हठ ठानता है।
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?'[11]
- यहाँ कृष्ण और कर्ण का थोड़ा संवाद होता है, जिसमें दोनों पक्ष दोनों पक्षों पर दोषारोपण करते हैं।
'वृथा है पूछना, था दोष किसका ?
खुला पहले गरल का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है ,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है।'[12]
- संवाद समाप्त होते-होते कर्ण अपने पुण्यबल का आह्वान करता है और सूर्य की ओर दृष्टि करके वह मृत्यु के लिए तैयार हो जाता है। अर्जुन के लिए यह अच्छा अवसर है। उसका एक बाण आकर कर्ण के गले में लगता है और कर्ण के प्राण तेजोमय रूप में उड़कर सूर्य में समा जाते हैं।
'प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ ,
चढ़ा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ। '[13]
- सर्ग का अन्त युधिष्ठिर और कृष्ण के संवाद से होता है। युधिष्ठिर कर्ण की मृत्यु पर हर्ष प्रकट करते हैं किन्तु भगवान उदास हो जाते हैं। उनका कहना है कि 'यह विजय चरित्र खोकर हुई है। जीत असल में कर्ण की हुई। यह भूल जाइये कि कर्ण हमारा शत्रु था। वह द्रोण और भीष्म के समान आदर का पात्र है।'
'युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह ,
विपक्षी था, हमारा काल था वह।
अहा! वह शील में कितना विनत था?
दया में, धर्म में कैसा निरत था !'[14]
'समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये ,
पितामह की तरह सम्मान करिये।
मनुजता का नया नेता उठा है।
जगत् से ज्योति का जेता उठा है !'[15]
कर्ण-चरित
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[16][17]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 118।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 121-122।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 121।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 122।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 123-124।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 126।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 126।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 129।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 131।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 134।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 137।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 142।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 144।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 147।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “सप्तम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 147।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख