रम्भा तृतीया

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  • भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।
  • ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया पर रम्भातृतीया व्रत किया जाता है।
  • रम्भातृतीया मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर किया जाता है।
  • रम्भातृतीया को पार्वती पूजा; एक वर्ष तक करनी चाहिए।
  • विभिन्न नामों से देवी पूजा जैसे- मार्गशीर्ष में पार्वती, पौष में गिरिजा आदि नामों से पूजा होती है।
  • रम्भातृतीया विभिन्न दान तथा विभिन्न पदार्थों का सेवन किया जाता है।[1]
  • यदि तृतीया, द्वितीया एवं चतुर्थी से युक्त हो तो यह व्रत द्वितीया से युक्त तृतीया पर किया जाना चाहिए।[2]
  • पूर्वाभिमुख होकर पाँच अग्नियों[3] के बीच में बैठना चाहिए।
  • ब्रह्मा एवं महाकाली, महालक्ष्मी देवी, महामाया तथा सरस्वती के रूप में देवी की ओर मुख करना चाहिए।
  • ब्राह्मणों के द्वारा सभी दिशाओं में होम करना चाहिए।
  • देवी पूजा तथा देवी के समक्ष सौभाग्याष्टक नामक आठ द्रव्यों को रखना चाहिए।
  • सायंकाल सुन्दर घर के लिए स्तुति के साथ रुद्राणी को सम्बोधित करना चाहिए।
  • इस के उपरान्त कर्ता (स्त्री या पुरुष) किसी ब्राह्मण को उसकी पत्नी के साथ सम्मान देता है और सूप में नैवेद्य रखकर सधवा नारियों को समर्पित करता है।[4]
  • रम्भातृतीया व्रत विशेषत: नारियों के लिए है।
  • रम्भातृतीया को यह नाम इसलिए मिला है कि रम्भा ने इसे सौभाग्य के लिए किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हेमाद्रि व्रत खण्ड 1, पृ0 430-435, भविष्योत्तरपुराण 24|1-36 से उद्धरण); गरुड़ पुराण (1|120)
  2. कालनिर्णय 174
  3. (जैसे- गार्हपत्य, दाक्षिणाग्नि, सम्य एवं आहवनीय तथा ऊपर सूर्य)
  4. हेमाद्रि (व्रत खण्ड 1, 426-430, भविष्योत्तरपुराण 18|1-36 से उद्धरण) कालनिर्णय (176), तिथितत्व (30-31)

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