श्रौतसूत्रों में यह सबसे अंतिम माना जाता है। इसका सम्बन्ध वैष्णवों के वैखानस सम्प्रदाय से है जिसमें नारायण (विष्णु) की उपासना प्रचलित है। दार्शनिक दृष्टि से वैखानसों की आस्था विशिष्टा द्वैत के तत्वत्रय–जीव, ईश्वर और प्रकृति में है। ये शिखा, त्रिदण्ड और यज्ञोपवीत धारण करते हैं। तिरूपति सदृश मंदिरों के अर्चक पद पर इन्हीं की नियुक्ति की जाती है। तप्त चक्राङ्क में इनकी आस्था नहीं है। श्री वैष्णव सम्प्रदाय के अन्य आचार्यों तथा उनके ग्रन्थों में भी उनकी अधिक श्रद्धा नहीं है। आन्ध्र क्षेत्र के किस्तना, गुंटूर, गोदावरी ज़िलों में ये अधिक परिमाण में हैं। गंजाम, विशाखापट्टनम्, वेलमोर, चुड़घा, कोचीन, बेल्लड़ी, अनन्तपुरम्, कुर्नूल, तंजोर, त्रिचनापल्ली प्रभृति जनपदों में भी ये थोड़े बहुत पाए जाते हैं।
हस्तलेख
वैखानस श्रौतसूत्रों की अधिकांश पाण्डुलिपियाँ दक्षिण भारत में ही प्राप्त हुईं हैं। साम्प्रदायिक मान्यताओं के अनुसार इसकी रचना विखना मुनि ने की, जैसा कि कुछ हस्तलेखों में प्रथम प्रश्न के अंत में लिखा मिलता है–
'इति श्री वैखानसे विखनसा ऋषिणा प्रोक्ते मूलगृह्ये श्रौतसूत्रे।'
- एक अन्य हस्तलेख के आरंभ में भी विखना मुनि की वंदना की गई है–
श्री लक्ष्मीवल्लभाद्यान्तां विखनामुनि मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम्।।
आनन्दसंहिता
वैखानसों की मान्यता के अनुसार वैखानस ब्रह्मा के अवतार थे, जिन्होंने विशिष्टता द्वैत के अध्ययनार्थ भूतल पर आकर नैमिषारण्य में तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु ने उन्हें वैखानस सूत्र समझाया था। विखनस् ने 'दैविकसूत्रम्' (देवपूजा की विधियों के प्रतिपादक ग्रन्थ) की रचना की। इसका संक्षेपीकरण भृगु, मरीचि, अत्रि और कश्यप ऋषियों ने किया। इस संक्षिप्त संस्करण का नाम पड़ा 'भगवच्छास्त्रम्'। अनुष्ठान संबन्धी समस्त मन्त्रों का संकलन 'वैखानसमन्त्रप्रश्नम्' संज्ञक पृथक ग्रन्थ में किया गया है। वैखानस श्रौतसूत्र के व्याख्याकार श्री निवास दीक्षित ने इसे 'औखेय सूत्र' कहा है। वैखानस सम्प्रदाय की 'आनन्दसंहिता' के अनुसार 'औखेय' का अर्थ भी वैखानस ही है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के व्याख्याकार महादेव जी ने औखेय शाखा को खाण्डिकेय शाखा की उपशाखा बतलाया है।
विषय वस्तु
वैखानस श्रौतसूत्र में निरूपित विषय–वस्तु इस प्रकार है:–
प्रश्न |
विषय
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प्रश्न 1 |
अग्न्याधेय और पुनराधेय;
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प्रश्न 2 |
अग्निहोत्र;
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प्रश्न 3 से 7 |
दर्शपूर्णमास;
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प्रश्न 8 व 9 |
आग्रयण और चातुर्मास्य;
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प्रश्न 10 |
निरूढ पशुबन्ध;
|
प्रश्न 11 |
चरक सौत्रामणी और परिभाषाएँ;
|
प्रश्न 12 से 16 |
अग्निष्टोम तथा प्रवर्ग्य;
|
प्रश्न 17 |
उक्थ्य, षोडशी, अतिरात्र, अप्तोर्याम तथा वाजपेय;
|
प्रश्न 18 व 19 |
अग्निचयन;
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प्रश्न 20 |
इष्टिविषयक प्रायश्चित्त;
|
प्रश्न 21– सोमविषयक प्रायश्चित्त।
|
अश्वेमेध
अश्वेमेध का नाम्ना एक स्थान[1] पर उल्लेख होने पर भी उसका प्रतिपादन नहीं है। नारायण (विष्णु) का उल्लेख उसमें बहुधा है। श्रौतसूत्र में मौलिकता कम प्रमाण में है। अधिकांश सामग्री बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी श्रौतसूत्रों में गृहीत है।
शैली
श्रौतसूत्र की शैली में सरलता है। कालन्द ने इसमें प्रयुक्त अप्रचलित शब्दों की लम्बी तालिका दी है, किन्तु उसमें से बहुत से शब्द पौन: पुन्येन अन्यत्र प्रचलित दिखाई देते हैं, यथा 'घन', 'देवार्ह', 'अनतिनीन्य', 'अनुच्च', 'अभिभूय', 'कुल्या', 'नायक' इत्यादि। उस सूची में कुछ शब्द अवश्य नए हैं, यथा– 'अवकाविल', 'आच्छिद्रक', 'नैष्पुरीष्य', 'अनिरूप्र', 'सेष्ट्याधान' इत्यादि। अग्निकुण्डों, अग्निमंथन तथा यज्ञीय पात्रों का विशद वर्णन वैखानस श्रौतसूत्र की विशिष्टता है। इस पर श्री निवास दीक्षित की व्याख्या उपलब्ध होते हुए भी अप्रकाशित है।
संस्करण
इसका डॉ. कालन्द और डॉ. रघुवीर के द्वारा सम्पादित एक ही संस्करण रॉयल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता से 1941 ई. में प्रकाशित हुआ है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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