राजिम कुंभ

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राजिम कुंभ छत्तीसगढ़ के रायपुर ज़िले में स्थित 'राजिम' में लगता है। राजिम अपने शानदार मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है। महानदी पूरे छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी नदी है। इसी नदी के तट पर बसी है, 'राजिम नगरी'। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर 'सोंढूर', 'पैरी' और 'महानदी' के त्रिवेणी संगम-तट पर बसे छत्तीसगढ़ की इस नगरी को श्रद्घालु 'श्राद्ध', 'तर्पण', 'पर्व स्नान' और 'दान' आदि धार्मिक कार्यों के लिए उतना ही पवित्र मानते हैं, जितना कि अयोध्या और बनारस को। मंदिरों की महानगरी राजिम की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता।

मेले की परम्परा

पूर्णिमा को छत्तीसगढ़ी में 'पुन्नी' कहते हैं। कुंभ माघी पुन्नी मेला के रूप में 'राजिम कुंभ' मनाया जाता रहा है, लेकिन भाजपा की सत्ता आते ही छग का प्रयाग राजिम कुंभ मेला का महत्त्व देशभर में होने लगा। राजिम कुंभ साधु-संतों के पहुँचने व प्रवचन के कारण धीरे-धीरे विस्तार लेता गया और यह अब प्राचीन काल के चार कुंभ हरिद्वार, नासिक, इलाहाबादउज्जैन के बाद पाँचवाँ कुंभ बन गया है। राजिम का यह कुंभ हर वर्ष माघ पूर्णिमा से प्रारंभ होता है और महाशिवरात्रि तक पूरे एक पखवाड़े तक लगातार चलता है।

प्राचीनता

महानदी, पैरी और सोंढूर नदियों के पवित्र संगम पर छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध तीर्थ राजिम के परम्परागत वार्षिक मेले का आयोजन माघ पूर्णिमा को होता है। क्योंकि पूर्णिमा को छत्तीसगढ़ी में 'पुन्नी' कहते हैं, इसीलिए पुन्नी मेलों का सिलसिला यहाँ लगातार चलता रहता है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों में नदियों के किनारे सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण युगों से इन मेलों में अपने साधनों से आते-जाते हैं और सगे-संबंधियों से मिलते हैं। छत्तीसगढ़ में धान की कटाई के बाद लगातार मेले-मड़ई का आयोजन शुरू हो जाता है। मेलों में ही अपने बच्चों के लिए वर-वधू तलाशने की परंपरा भी रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बना तो कुछ वर्षों बाद 'राजिम मेले में कुंभ' आयोजनों को नया आयाम मिला। यह एक दृष्टि से बड़ा काम भी है। देश के दूसरे प्रांतों में कुंभ स्नान के लिए लोग जाते हैं। छत्तीसगढ़ में भी कुंभ के लिए पवित्र नगरी राजिम को धीरे-धीरे चिह्नित किया गया। वर्तमान समय में 'राजिम कुंभ' देशभर में विख्यात हो गया है। राजिम के प्रसिद्ध मन्दिर 'राजीवलोचन' में ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि क्षत्रिय भी पुजारी हैं। यह एक अनुकरणीय परंपरा है। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को यह मान दिया है। श्रीराम अर्थात 'राजीवलोचन जी' स्वयं क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। छत्तीसगढ़ में ही केवट समाज के लोग माता पार्वती अर्थात 'डिड़िनदाई' के पारंपरिक पुजारी हैं।

संत समागम

ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ स्नान करने मात्र से मनुष्य के समस्त कल्मष नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के उपरांत वह विष्णुलोक को प्राप्त करता है। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव और विष्णु यहाँ साक्षात रूप में विराजमान हैं, जिन्हें 'राजीवलोचन' और 'कुलेश्वर महादेव' के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि वैष्णव सम्प्रदाय की शुरुआत करने वाले महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली 'चम्पारण्य' भी यहीं है। वल्लाभाचार्य ने तीन बार पूरे देश का भ्रमण किया। वे 'आष्टछाप' के महाकवियों के गुरु थे। सूरदास जैसे महाकवि को उन्होंने ही दिशा देकर कृष्ण की भक्ति काव्य का सिरमौर बनने हेतु प्रेरित किया। राजिम मेले के अवसर पर करीब ही बसे चम्पारण्य में भी महोत्सव का आयोजन होता है। राजिम कुंभ में हज़ारों साधु-संत उमड़ते हैं। संत-समागम में पूरे देश से साधु-संत यहाँ आते हैं। अतिथि-संतों, नागा साधुओं और साध्वियों की उपस्थिति के गौरवशाली दृश्य इस बात का एहसास कराते हैं कि इतने असंख्य संतों के बीच में रहकर जीवन के विशाल प्रवाह में निस्वार्थ होकर, निजता खोकर ही एक हुआ जा सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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