पोंगल
पोंगल
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अन्य नाम | माद्दू पोंगल या मात्तुपोंगल |
अनुयायी | हिन्दू धर्मावलम्बी |
उद्देश्य | दक्षिण भारत में धान की फ़सल समेटने के बाद लोग खुशी प्रकट करने के लिए पोंगल का त्योहार मनाते हैं। |
प्रारम्भ | पौराणिक |
अनुष्ठान | पोंगल अर्थात् खिचड़ी का त्योहार सूर्य के उत्तरायण होने के पुण्यकाल में मनाया जाता है। |
धार्मिक मान्यता | हिन्दू धर्म |
संबंधित लेख | मकर संक्रांति, लोहड़ी |
अन्य जानकारी | पोंगल विशेष रूप से किसानों का पर्व है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा-करकट एकत्र कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी की पूजा होती है और तीसरे तीन पशु धन की। |
अद्यतन | 21:04, 23 सितम्बर 2011 (IST) |
पोंगल – तमिलनाडु का फ़सलोत्सव
दक्षिण भारत के तमिलनाडु और केरल राज्य में मकर संक्रांति को 'पोंगल' के रुप में मनाया जाता है। सौर पंचांग के अनुसार यह पर्व तमिल महीने की पहली तारीख को आता है। पोंगल विशेष रूप से किसानों का पर्व है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा-करकट एकत्र कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी की पूजा होती है और तीसरे तीन पशु धन की। पोंगल का त्योहार 'तइ' नामक तमिल महीने की पहली तारीख़ यानी जनवरी के मध्य में मनाया जाता है। भोगी पर्व 13 जनवरी व पोंगल 14 जनवरी को मनाया जाता है। मात्तुपोंगल 15 को तथा थिरुवल्लूर दिन या कानुमपोंगल 16 तारीख़ को मनाए जाते हैं। पोंगल फ़सल काटने के उत्साह का त्योहार है, जो दक्षिण भारत में मनाया जाता है। तमिलनाडु में धान की फ़सल समेटने के बाद लोग खुशी प्रकट करने के लिए पोंगल का त्योहार मनाते हैं।
वर्ष भर के त्योहारों को पूर्णता देता है - पोंगल का त्योहार। इस त्योहार का मूल भी कृषि ही है। जनवरी तक तमिलनाडु की मुख्य फ़सल गन्ना और धान पककर तैयार हो जाती है। कृषक अपने लहलहाते खेतों को देखकर प्रसन्न और झूम उठता है। उसका मन प्रभु के प्रति आभार से भर उठता है। इसी दिन बैल की भी पूजा की जाती है, क्योंकि उसी ने ही हल चलाकर खेतों को ठीक किया था। अतः गौ और बैलों को भी नहला–धुलाकर उनके सींगों के बीच में फूलों की मालाएँ पहनाई जाती हैं। उनके मस्तक पर रंगों से चित्रकारी भी जाती है और उन्हें गन्ना व चावल खिलाकर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। कहीं–कहीं पर मेला भी लगता है। जिसमें बैलों की दौड़ व विभिन्न खेल–तमाशों का आयोजन होता है।
महोत्सव
भोगी का दिन पोंगल की तैयारी की सूचना भी देता है। नववस्त्र, तेल–स्नान (जो तमिलों की विशेषता है) तथा स्वादिष्ट भोजन, भोगी पर्व की पहचान है। घरों के आँगन में गोबर का लेप किया जाता है। जिससे सभी प्रकार के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। महिलाएँ घरों के द्वार को सजाने की दक्षता का प्रदर्शन कलात्मक रंग–बिरंगी रंगोली बनाकर करती हैं।
स्वच्छता का प्रतीक पोंगल
पोंगल पर स्वच्छता रखने के लिए, सभी टूटी–फूटी व अनुपयुक्त वस्तुएँ जैसे फटे हुए पायदान, टूटा फर्नीचर व फटे वस्त्र त्याग दिए जाते हैं तथा उन्हें अग्नि की ज्वाला में समर्पित कर दिया जाता है। परिवार के सभी सदस्य अलाव के चारों ओर एकत्रित होकर नृत्य करते हैं तथा ढोल व अन्य वाद्यों से वातावरण रंगमय, रसमय हो उठता है। पोंगल पर्व समाज में बुराई के अन्त का प्रतीक है। लोग अपने घर की साफ़–सफ़ाई करते हैं तथा पुरानी चीज़ों व वस्त्रों को छोड़ देते हैं। घरों को श्वेत रंग से सुशोभित किया जाता है। कृषि में काम आने वाले पशुओं को स्नान आदि कराकर उन्हें विभिन्न प्रकार के रंगों से सजाया जाता है।
पोंगल ओ पोंगल
पोंगल अर्थात् खिचड़ी का त्योहार सूर्य के उत्तरायण होने के पुण्यकाल में मनाया जाता है। खुले आँगन में हल्दी की जड़ की गाँठ को पीले धागे में पिरोकर पीतल या मिट्टी की हाँड़ी की गर्दन में बाँधकर उसमें चावल एवं मूँग की दाल की खिचड़ी पकाते हैं। उसमें उफान आने पर दूध व घी डाला जाता है। उफान आते ही घर के सभी सदस्य गाजे–बाजे के साथ पोंगल - पोंगल की आवाज़ लगाकर खुशी प्रकट करते हैं। वह उफान सुख और समृद्धि का परिचायक है। लोग एक–दूसरे के सुख व समृद्धि की कामना करते हैं। गन्न के साथ सूर्यदेव की पूजा की जाती है। इस दिन आग पर हाँड़ी चढ़ाने का विशेष मुहुर्त होता है, जिसे देखकर हाँड़ी को आग पर चढ़ाया जाता है।
उबलता हुआ दूध जब पात्र में से गिरने लगता है, तो उसे समृद्धशाली कृषि ऋतु का प्रतीक माना जाता है। हल्दी के पौधे की छोटी–छोटी टहनियों को बर्तनों के चारों ओर बाँधा जाता है तथा उसके साथ–साथ सूर्य व चन्द्रमा की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। सभी अपने मित्रों व सगे–सम्बन्धियों से मिलते हैं तथा मिठाइयों की भेंट देते हैं। पोंगल के समय गन्ने की फ़सल तैयार हो चुकी होती है तथा गन्ना सभी हाट–बाज़ारों में खूब बिकता है। जगह–जगह बच्चे गन्ना चूसते नज़र आते हैं।
पोंगल एक भोज्य पदार्थ
जिस बर्तन में पोंगल को बनाते हैं, वह 'पोंगल पलाई' कहलाता है। पोंगल को चावल व मूंग की दाल के मिश्रण से घी में बनाया जाता है। काजू, किसकिस, नमक व काली मिर्च भी इसमें मिलाई जाती है। इसे 'वेन पोंगल' कहते हैं, जिसका अर्थ है 'श्वेत पोंगल'। 'शरकरा पोंगल' में मसालों की जगह पर गुड़ का प्रयोग किया जाता है। विधिवत् पूजा में इन्हीं पकवानों को भगवान सूर्य को अर्पित किया जाता है। पूजा के पश्चात इसी को दोपहर के भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। वेंन पोंगल को नारियल की चटनी के साथ परोसा जाता है। साथ में सांभर व पापड़ भी रखे जाते हैं। पोंगल एक महाभोज के रूप में मनाया जाता हैं। कई अतिरिक्त भोज्य पदार्थ जैसा 'बड़ा' आदि भी इस अवसर पर बनाए जाते हैं।
- पोंगल का अर्थ है 'क्या यह उबल रहा' या 'पकाया जा रहा है?'
मात्तुपोंगल
पोंगल के बाद का दिन ऋषि–पशुओं, जैसे बैल, सांड़, को समर्पित होता है। आज भी बहुत से किसान भूमि जोतने व सिंचाई के लिए पुराने उपकरणों का प्रयोग करते हैं। ऐसी स्थिति में बैलों के बिना किसान का जीवन कठिन ही है। मात्तुपोंगल के अवसर पर, बैलों, गऊओं व कृषि में काम आने वाले सभी जानवरों की पूजा की जाती है। बैलों की लड़ाई, जिसे 'मंजू विस्तू' कहते हैं, का आयोजन भी इसी दिन किया जाता है। प्रत्येक घर में एक ऐसे सांड़ का पालन–पोषण किया जाता है, जो कि अति बलवान हो तथा युद्ध में वीरता से लड़े। पारम्परिक रूप से ऐसी मान्यता है कि जस घर में यदि आक्रामक सांड़ न हो, तो वह घर अपनी मान–प्रतिष्ठा खो देता है। इस किसान अपने आक्रामक सांड़ों को प्रदर्शन करते हैं। एक सांड़ का मालिक सभी लोगों को ललकारता है व चुनौती देता है कि जो भी व्यक्ति इस सांड़ की गर्दन से बँधे कपड़े को (जिसमें धन बँधा होता है) तोड़ देगा तथा सांड़ को अपने नियंत्रण में लेगा, वह इस कपड़े व धन का विजेता होगा। ढोल–नगाड़े व सीटी बजाकर सांड़ का उत्तेजित किया जाता है। कई बार तो धूँआ भी जलाया जाता है। कई प्राणलेवा दुर्घटनाएँ भी इस दिन होती है। सांड़ों को बड़ी कठिनाई से नियंत्रण में लाया जाता है। लेकिन एक बार जब सांड़ नियंत्रण में आ जाता है, तो इसका विजेता मालिक सभी को अपने घर में भोजन के आमंत्रित करता है।
कन्या पोंगल
उत्सव का अन्तिम दिन कन्यापोंगल के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पक्षियों की पूजा होती है। सांड़ व पक्षी युद्ध इस दिन उत्सव के प्रमुख आकर्षण होते हैं।
अट्टुकल पोंगल
- अट्टुकल पोंगल महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला एक प्रसिद्ध उत्सव है।
- यह उत्सव तिरुवनंतपुरम से 2 किलोमीटर दूर देवी के प्राचीन मंदिर में मनाया जाता है।
- 10 दिनों तक चलने वाले पोंगल उत्सव की शुरुआत मलयालम माह मकरम-कुंभम (फ़रवरी-मार्च) के भरानी दिवस (कार्तिक चंद्र) को होती है।
इन्द्र की कथा
भोगी पर्व श्री इन्द्र को समर्पित है। कृष्णावतार के समय देवराज इन्द्र व भगवान श्री कृष्ण के बीच शक्ति परीक्षण हुआ। भगवान श्री कृष्ण ने चरवाहों व अन्य लोगों को इन्द्र की पूजा करने की बजाए गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का निर्दश दिया, तो इन्द्र ने क्रोधवश वर्षा के रूप में कई दिनों तक अपना विरोध प्रकट किया। गउओं व अन्य पशु–पक्षी व लोगों को बचाने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने पर्वत को अपनी छोटी अँगुली से उठाया तथा छत्र के रूप में इस पर्वत का प्रयोग जीवन रक्षा के लिए किया। इस दृश्य को देखकर इन्द्र को अपनी गौणता का अहसास हुआ। तब भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र की पूजा की अनुमति भी दे दी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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