लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है। प्रश्न उठता है कि लोक की स्वीकृति कब और कैसे मिलती है। वस्तुत: विश्वास (व्यक्तिपरक या वैयक्तिक) और लोकविश्वास में अंतरक्रिया (interaction) होती रहती है। कोई भी व्यक्तिपरक विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजर कर सामूहिक या सामाजिक होता है। अतएव लोकविश्वास सामूहिक अनुभव का ही परिणाम है। एक उदाहरण पर्याप्त है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो गैलीली (1564 - 1642 ई.)के पहले बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ से प्रमाणित विश्वास था कि पृध्वी अपने स्थान पर अडिग है और सूर्य उसके चोरों ओर घूमता है। गौलीलियो ने इसके विपरीत यह स्थापित किया कि सौर-मंडल का आधार-केन्द्र सूर्य है और उसका उगना एवं अस्त होना पृध्वी के घूमने के कारण प्रतीत होता है। दरअसल, यह उसका वैयक्तिक विश्वास था, और इसकी वजह से उसे धर्मविरोधी कहा गया तथा उस पर धर्म के विरुद्ध प्रचार करने का आरोप मढ़ा गया। परंतु बाद में, यह व्यक्तिपरक विश्वास लोकविश्वास के रूप में परिणत हो गया। वैज्ञानिक अनुभवों के प्रमाण की परख ने लोक को विश्वास की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया और धीरे-धीरे विश्वलोक ने अपनी स्वीकृति का मोहर लगा दी।
उक्त उदाहरण से एक तथ्य और स्पष्ट हो जाता है कि इस विशिष्ट विश्वास का जन्म गैलिलियो के समय 16वीं शती में हुआ था और फिर उसका विकास होता गया। दूसरे, लोकविश्वास एक गतिशील तत्त्व है। लोक की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कभी-कभी उसका रूप बदलता है, तो कभी उसके स्थान पर दूसरा खड़ा हो जाता है। परिवर्तन की दिशा का नेतृत्व पहले व्यक्ति में निहित लोकशक्ति करती है, बाद में लोक। सूक्ष्मता से देखा जाय, तो लोकविश्वास की जड़ लोकमान्यता है और लोकमान्यता आधारहीन कभी नहीं होती। या तो उसका आधार वेद, पुराण या लोकमान्य ग्रंथों में लिखा कोई प्रमाण या साक्ष्य होता है या फिर लोक के बीच से आया कोई लोकमान्य तर्क या प्रमाण। बहरहाल, बिना किसी ठोस आधार के लोकविश्वास का उद्भव नहीं होता।

पौराणिक लोकविश्वास

सर्वप्रथम पौराणिक लोकविश्वासों के उदाहरण लेना उचित है। घड़े या दौने में मानव का उत्पत्ति का लोकविश्वास पुराणों के साक्ष्य पर टँगा रहा, फिर भी उसके विरूद्ध शंकाओं और तर्कों की चुनौती खड़ी होती रही और उसे कई बार नकारा गया। नये बौद्धिक जागरण ने उसे बिल्कुल गौण बना दिया, लेकिन नवीन वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परखनली में भी जीवोत्पत्ति होती है और इस आधार पर वह पुराना लोकविश्वास पुन: संजीवनी पा गया है। दूसरी तरफ, शेषनाग के फन या कच्छप की पीठ पर पृथ्वी के रखे होने का लोकविश्वास अब लोकमान्य नहीं रहा। यह बात अलग है कि वह एक सीमित लोक में आज भी प्रचलन में हो। तात्पर्य यह है कि पौराणिक लोकविश्वासों को ज्यों-का-त्यों मान लेना या उनके संबंध में कोई प्रश्न न करना इस युग में संभव नहीं रहा। यहाँ तक कि देवी-देवताओं से संबंधित अद्भुत या चमत्कारपूर्ण लोकविश्वासों की चीड़-फाड़ होने लगी है और आस्था पर आधारित लोकविश्वासों के लिए नये-नये तर्क खोजे जा रहे हैं। लोकानुभवों से अर्जित स्थापनाओं या परिणामों के लोकमान्य होने से जो लोकविश्वास हर युग में बनते रहते हैं, उनका संबंध तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों से रहता है और जब वैसी ही परिस्थितियाँ आती हैं, तब वे लोकसिद्ध विश्वास अपने आप उभरते हैं। एक पुरानी आरजा देखें-

               तीतुर-बारी-बादरी, बिधवा काजर-रेख।
               बौ बरसै, बौ घर करै, जामें मीन न मेख।।

सहदेव या किसी दूसरे लोककवि ने लोकविश्वास को पद्य में गूंथकर लिखा है कि तीतर के पंखों जैसे बादल अवश्य बरसते हैं और अपने नेत्रों में काजल लगाने वाली विधवा किसी-न-किसी को जरूर रख लेती है। यह लोकविश्वास एक विशिष्ट अनुभव का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो आज भी सत्य है। यही कारण है कि यह लोकप्रचलन में हमेशा रहा है। ऐसे लोकविश्वास लोकजीवन के यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं और लोकसंस्कृति की रेखाएँ निर्मित करते हैं। इन्हीं के समानांतर कुछ लोकविश्वास लोकमूल्य या लोकादर्श की नींव के रूप में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। एक-दो उदाहरणों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी। बहुत प्राचीन लोकविश्वास है कि रणखेत में जूझने वाले वीर सीधे स्वर्ग जाते हैं अथवा उनकी कीर्ति हमेशा रहता ही। इस लोकविश्वास पर ही वीरता का आदर्श या लोकमूल्य जीवित है। विश्व के सभी देशों, धर्मों जातियों और वर्गों में कर्म से संबंधित एक लोकविश्वास है कि कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है। जो अच्छे कर्म करता है, उसे अच्छा फल मिलता है और जो बुरे कर्म करता है, उसे बुरा फल। इस आधार पर मानव को अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है और कर्म का मूल्य या आदर्श बनता है। धर्मों में पुण्यों से मोक्ष मिलता है और पुण्यों का अर्थ है अच्छे कर्म। इस तरह लोकविश्वासों के आधार जहाँ नैतिकता में मिलते हैं, वहाँ धर्मों में भी निहित रहते हैं। एक बहुत स्पष्ट तथ्य यह भी है कि लोकविश्वास उपयोगिता से जुड़े रहते हैं। इसका प्रमाण वृक्ष-संबंधी लोकविश्वास है। वृक्षों पर देवों का वास, वृक्षों की पूजा, बेलपत्र शिव का आहार, बाँस जलाने से वंश का नाश, आँवले की पूजा से पापों का नाश, तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष, महुआ-पुजा से वर-प्राप्ति आदि लोकविश्वासों का मूल कारण वृक्षों की सुरक्षा है। आदिमानव की प्रारंभिक अवस्थिति से लेकर आज के इस अणु-युग के उत्कर्ष तक वृक्षों की उपयोगिता सदैव बनी रही, इसीलिए वृक्षों को काटने से बचाने के लिए ये लोकविश्वास धीरे-धीरे विकसित हुए थे। अगर लोक से उनकी मान्यता समाप्त हो जाती है, तो सभी जंगल वृक्षविहीन होकर अपने अस्तित्व को दाँव पर लगा देंगे। इन लोकविश्वासों के संदर्भ में आज की वनसुरक्षा की समस्या परखी जा सकती है। प्राचीन मान्यता थी कि एक वृक्ष लगाने से एक संतान के पालन-पोषण का फल मिलता है या सौ गायों के दान का पुण्य होता है। लेकिन आज वे मान्यताएँ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। अब तो पुण्य या सुकर्म-फल नापने के पैमाने ही ओझल हो गये हैं। पहले उनके मापक थे यज्ञ, कन्यादान, संतान-पालन, गोदान आदि, लेकिन उनसे संबंधित लोकविश्वासों के अध:पतन से वे महत्त्वहीन हो गए हैं।
परम्परा से प्राप्त लोकविश्वास भी प्रचलन में रहते हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं जो आज भी किसी-न-किसी रूप में उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि वे मानव-मन के किसी छोर से बँधे रहते हैं। भाग्य-संबंधी लोकविश्वास इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि जहाँ मन की पहुँच नहीं हो पाती, वहाँ वे पहुँचकर मन को संतोष देते हैं। यदि कोई व्यक्ति निराशा और पीड़ा की चरमसीमा के शिखर पर खड़ा है और उसे कोई समाधान नहीं सूझता, तो भाग्य पर उसका विश्वास उसे एक नयी संतृप्ति देता है, जिससे वह चरम सीमा के आरोह को पार कर लेने की शक्ति या भीतरी ऊर्जा पा लेता है। 'भाग्य में ऐसा ही लिखा था' का विश्वास उसे सहनशीलता, धैर्य और शांति देता है तथा मस्तिष्कघात से बचाता है। इसी तरह के मनोचिकित्सक लोकविश्वास पुनर्जन्म पर आधारित हैं। प्रत्येक मनुष्य मरने के बाद फिर जन्म लेता है, इस मान्यता से मृत्यु का स्थायी भय दूर हो जाता है। इसी तरह 'इस जन्म के कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है' के विश्वास से कर्मफल न मिलने की निराशा या अच्छे कर्मों से अच्छा परिणाम न पाने पर उठी मन की टूटन शांत हो जाती है। इनके अतिरिक्त शकुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, जंत्र-मंत्र आदि संबंधी ऐसे लोकविश्वास हैं, जो उपयोगी सिद्ध न होने के कारण अंधविश्वास की कोटि में आ गए हैं। वैसे कभी-कभी उनका मनोवैत्ज्ञानिक प्रभाव उनके अस्तित्व की अहमियत पुष्ट करता है। बच्चे को न लग जाने पर जलती बाती से जब न उतारी जाती है, तब बच्चा प्रकाशवृत्तों को देखकर चमत्कृत होता है और रोना त्याग देता है। यह ठीक है कि अंधविश्वासों में प्रामाणिक आधार नहीं होते, लेकिन जब वे लोकविश्वास के रूप में जन्मे थे, तब उनके आधार निश्चित ही थे। आज वे घिस-पिट गये या विस्मृत हो चुके हैं और समझ के बाहर हैं, इसीलिए वे 'अंध' विश्वास बन गए हैं। संक्षेप में, लोकविश्वास की कसौटी लोक है। लोकस्वीकृति या लोकमान्यता न मिलने पर लोकविश्वास गौण होकर लुप्त हो जाता है। अतएव उसका एक छोर लोकमान्यता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व नहीं बनता। दूसरी तरफ लोकविश्वास जब अपनी व्यावहारिक स्थिति से उठकर सैद्धांतिक बनता है, तब लोकमूल्य के रूप में परिणत हो जाता है। लोकविश्वास की पूरी यात्रा को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है

प्रमाण+ अनुभव> प्रस्थापना (व्यक्ति द्वारा)> विश्वास (व्यक्ति की स्वीकृति) > लोकमान्यता> लोकविश्वास

लोकविश्वास की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। लोकविश्वास लोकसंस्कृति के विधायक तत्त्व हैं। एक अंचल के लोकविश्वासों की सामूहिक इकाई उस अंचल की लोकदृष्टि का तटस्थ चित्र प्रस्तुत करती ही है, साथ ही उसके लोकादर्शों या लोकमूल्यों की रेखाओं को भी स्पष्ट रूप में रखती है। इस प्रकार लोकविश्वास समाज और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।

वर्गीकरण

स्थूल रूप में लोकविश्वासों के दो रूप होते हैं-एक वह है जो प्रामाणिक आधारों पर प्रतिष्ठित रहता है और दूसरा वह जो प्रामाणिक आधार से वंचित रहता है। प्रथम वर्ग के लोकविश्वासों को भी दो वर्गों में रखा जा सकता है-प्रथम के अंतर्गत वे लोकविश्वास आते हैं, जो पौराणिक मान्यताओं या तथ्यों पर आधारित होते हैं और दूसरे में वे होते हैं, जो लोकानुभवों, लोकप्रमाणों और लोकमान्यताओं पर निर्भर करते हैं। द्वितीय वर्ग के वे हैं जिनके प्रामाणिक आधार नहीं मिलते और बिना किसी तर्क या तथ्य के परम्परा से प्राप्त होने के कारण ही जीवित रहते हैं। लेकिन जब लोक उन आधारहीन लोकविश्वासों में निरर्थक तत्त्वों की बाढ़ देखता है और लोक में उनकी उपयोगिता नहीं पाता, तब वह उन्हें स्वीकृति की परिधि से बाहर कर देता है। इतने पर भी वे छुटपुट सीमित दायरे में चलते रहते हैं और समझदार या उनसे अप्रभावित वर्ग उन्हें 'अंधविश्वास' के नाम से अभिहित करता है। वस्तुत: लोकविश्वास इतने अधिक और इतने विविध हैं कि उन्हें वर्गबद्ध करना कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न वर्गीकरण किया गया है-

  1. मानव और जगत् संबंधी लोकविश्वास
  2. प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास
  3. धार्मिक लोकविश्वास
  4. अतिप्राकृत लोकविश्वास
  5. कृषि-संबंधी लोकविश्वास
  6. ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास
  7. घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास
  8. शकुनापशकुन
  9. स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास
  10. नीतिपरक लोकविश्वास
  11. अंधविश्वास

परम्परा और प्रगति

'पथरीलौ पिया तोरो देस, मोयी अनी तौ मुरक गयी बिछिया की' गाती ग्रामवधू बुंदेलखंड की पथरीला-कँकरीली धरती को इसलिए कोसती है कि उसके बिछिया की अनी मुरक जाती है। शायद उसका विश्वास यहाँ आते ही बदलने लगता है, क्योंकि इस भूमि की संस्कृति किसी को बदलने की अपार क्षमता रखती है। अपने लोकविश्वासों की दृढ़ता के कारण। यहाँ के लोकविश्वास बहुत प्राचीन हैं। आदिम मानव की प्रारंभिक आस्थाओं से लेकर आटविक या वन्य संस्कृति के मूल्यों तक पुलिंदों, शबरों, गोंडों आदि अनार्य-जातियों से हिलमिल कर ये विश्वास-शिशु बड़े हुए हैं। दाँगी, राउत, खपरिया जातियों के साथ खेलकर उन्होंने आर्यों के आश्रमों में शिक्षा पायी और नाग, वाकाटकों, शुंगों आदि के संरक्षण में संपुष्ट होकर चंदेलों की कल्पवृक्षी छाया में वे युवा हो गए। फिर जैन, बौद्ध, इस्लाम-धर्मों के प्रभावों में साँस लेते हुए अपनी जीवन-यात्रा जारी रखी और बुंदेलों, मराठों, अंग्रेजों आदि के साथ आगे बढ़ते गए। तात्पर्य यह है कि लोकविश्वासों की यात्रा कईं पड़ावों पर ठहरकर आगे बढ़ी है और आज भी अपने सारे संघर्षों के बावजूद निरंतर गतिशील है। इस गत्यात्मकता और ऐतिहासिक सचेतनता को सामने रखकर ही लोकविश्वासों का परीक्षण आवश्यक है।
इसमें संदेह नहीं है कि लोकविश्वासों की एक दीर्घ परम्परा रही है और उनकी व्यापक परिधि में आदिम, वैदिक, पौराणिक, मध्ययुगीन और आधुनिक भावनाओं तथा चिन्तन के कई स्तर वर्तमान हैं। अतएव उनमें पुराने और नये विविध तत्त्वों का संघटन स्वाभाविक है। एक तरफ परम्परित तत्त्वों की आधारभूमियाँ हैं, तो दूसरी तरफ बदलाव की गतिशील दिशाएँ। एक तरफ परम्परा का अनुसरण है, तो दूसरी तरफ प्रगति का चाव। परम्परा और प्रगति के तानों-बानों से ही लोकविश्वासों की बुनावट होती रही हे, अतएव उन्हें रूढिबद्ध, परम्परित और स्थिर मान लेना उचित नहीं है। कुछ लोकविश्वास ऐसे हैं, जो स्थिर रहे हैं, लेकिन उनके स्वरूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन हुआ है। कुछ बिल्कुल बदल गए हैं, क्योंकि लोक ने उनकी मान्यता निरस्त कर दी है। इस रूप में लोकविश्वासों का अपना इतिहास रहा है, जिसे अनदेखा करने से उनके साथ अन्याय होगा। युग-चेतना की दृष्टि से देखा जाय, तो लोकविश्वासों में तत्कालीन लोक के विश्वासों की सच्ची तस्वीर मिलती है, जिससे उस समय की लोकसंस्कृति और लोकचेतना की सही दशा का पता चलता है। अगर किसी अंचल की लोकसंस्कृति का हृदय और मस्तिष्क एक साथ परखना हो, तो उसके लोकविश्वासों को जानना अत्यंत आवश्यक है। लोकविश्वासों के विकास की रेखाएँ लोकसंस्कृति के इतिहास का रेखाचित्र अंकित करती हैं और लोक की प्रगति के आरोह-अवरोह का लेखा बताती है।

आदिकाल

आदिकाल से तात्पर्य उस कालखंड से है, जिसमें प्रागैतिहासिक से लेकर रामायण-काल तक के लोकविश्वासों के उद्भव और विकास का संपूर्ण लेखा-जोखा आ जाता है। इस युग में बुंदेलखंड आदिवासी लोकसंस्कृति का पालना रहा है। यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उनके बाद गोंड़, कोल, भील, सहारिया जैसी जनजातियाँ मूल निवासी होने के कारण आदिकालीन लोकविश्वासों को ढ़ालने में प्रमुख रहीं। रामायण-काल के अंत में आर्यों के लोकविश्वास आश्रमों से निकलकर बाहर आए और उन्होंने लोक को प्रभावित करना शुरु कर दिया। अतएव यह युग इस अंचल में आदिवासियों के लोकविश्वासों का युग है। प्रागैतिहासिक लोकविश्वासों का अध्ययन गुहाचित्रों के आधार पर संभव है। छतरपुर (जटाशंकर, भीमकुंड, देवरा, किशुनगढ़), पन्ना (बराछ-पंडवन, इटवा, मझपहरा-टपकनिया, हाथीदौल, पुतरयाऊ घाटी, कल्याणपुर-बिलाड़ी), सागर (आबचंद, नरयावली, भापेल, बरोदा), रायसेन (बरखेड़ा, खरवई, हाथीटोल, पुतलीकरार) और होशंगाबाद (आदमगढ़, पंचमढ़ी) में स्थित शैलाश्रयों में प्राप्त चित्रों से स्पष्ट है कि उस समय पशु, आयुध, शिकार और आमोद-प्रमोद-संबंधी विश्वासों का विकास हुआ था और वे प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित थे। शिकार मुख्य आजीविका थी, इसलिए पशुओं का सामना, भोजन और उसके बाद गीत-नृत्य-सब समूह में किये जाते थे। निश्चित है कि 'सहकारिता' का विश्वास प्रधान रहा और साथ ही हींसक पशुओं से रक्षा के लिए शारीरिक वीरता का भी। 'प्रकृति से रक्षा' के प्रयोजन में प्रकृति-पूजा-संबंधी लोकविश्वासों का उद्भव भी इसी समय हुआ। ये लोकविश्वास धर्म के अंग नहीं थे, वरन् उनका आधार 'उपयोगिता' और 'क्षति' थे। धीरे-धीरे प्रकृति के उपयोगी अंग लोकदेवों में परिवर्तित होते गए। उनके लिए दी जा रही फल या माँस की भेंट 'बलि' के रूप में स्वीकृत हुई। गुहाचित्रों में प्रकृति की वस्तुओं के अंकन से उनकी प्रकृति-पूजा का भाव प्रमाणित होता है। गुफा-युग के बाद आदिवासी मैदानों में उतर आए और कृषि-युग में नाना प्रकार के लोकविश्वास जन्मे तथा पलपुस कर बड़े हुए। पशु, जल, नदी, वर्षा और पशुपति एवं जलदेवता की पूजा इसी समय शुरु हुई। भूदेवी या भुइयाँ रानी को फसल की उत्पादक देवी की मान्यता मिली। कृषि, धर्म और अतिप्राकृत विषयक लोकविश्वास इसी समय लोक में फैले। वस्तुत: लोकविश्वासों का इतिहास एक समस्या है, क्योंकि उनके लोकप्रचलन के प्रमाण दुर्लभ हो गए हैं।
आदिकाल के लोकविश्वासों का सही स्वरूप स्थिर करने के लिए इस अंचल के गोंड़ों, सौंर, भील, सहारिया आदि का सर्वेक्षण जरुरी है। गोंड़ों के लोकविश्वास 'भय' की मानसिकता से फूटे हैं। इसीलिए हर 'भय' का एक लोकदेवता उनकी सर्जना का अंग है। प्रकृति की सभी शक्तिसंपन्ना वस्तुओं की पूजा उनके जीवन की आस्था है। उनका विश्वास है कि यह संसार ही सब कुछ है, इसके सिवा दूसरा लोक नहीं। संसार का सृजन और संचालन बड़े देव करते हैं, उन्हीं को लोकगीतों में परभू (प्रभु) कहा गया है। प्रभु की माया संसार में अनेक लीलाएँ करती हैं। गोंड़, केवट, ब्राह्मण, क्षत्रिय-सब जातियाँ उसी की बनाई हैं। मानव का शरीर क्षणभागुर है। उसका सबसे बड़ा सुख मानसिक संतोष है, जो अपने धंधे (कर्म) के बाद मिलता है। इस मानसिकता के बावजूद गोंड़ छोटी-बड़ी बाधाओं से भयभीत रहते हैं और उन्हें दूर करने के लिए झाड़-फूँक, जादू-टोना और जंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। उनकी मान्यता है कि बीमारियाँ झाड़-फूँक, जंत्र-मंत्र से ठीक हो जाती हैं। आश्चर्य तो यह है कि हमारे बहुत से शकुन-अपशकुन गोंड़ों से आए हैं। उदाहरणार्थ के लिए पुरुष का दाहिना ओर स्त्री का बायाँ अंग फड़कना, किसी काम के लिए जाते समय पानी से भरा घड़ा या मछली लिए ढीमर अथवा बछड़े को दूध पिलाती गाय मिल जाना शुभ है। ये शकुन बुंदेलखंड में यत्र-तत्र आज भी प्रचलित हैं। इसी तरह सामने खाली घड़ा दिखना, काना मिलना, बिल्ली का रास्ता काटना, निकलते समय सामने छींक होना, कौआ सिर पर बैठना आदि अशुभ गोंड़ों में प्रचलित रहे हैं। कुछ भविष्यसूचक विश्वास भी गोंड़ों में थे और आज भी हैं, जैसे गौरैया का धूल में लोटना, बगुलों का एक पंक्ति में उड़ना और चंद्रमा के चारों तरफ मंडल बनना वर्षा की सूचना देता है।
सौंरों का विश्वास है कि महादेव ने हल, बैल और संसार की सृष्टि की है। जिस तरह गोंड़ कर्म और भाग्य पर विश्वास करते हैं, उसी तरह सौंर भी। सौंर प्रेतयोनि को मानते हैं। उनका विश्वास है कि मनुष्य मृत्यु के बाद प्रेतयोनि पाता है, इसीलिए वे मृतक को खेतों के पास या सागैन के वृक्षों के नीचे गाड़ते हैं। मृतक की आत्मा खेतों और वृक्षों की रक्षा करती है। सौंर जंत्र-मंत्र और जादू-टोना में कुशल होते हैं। दृष्ट आत्माओं को मंत्र- और जादू से बाँध देते हैं। भील भी आत्मवादी हैं। वे आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार पर्वतों नदियों, वनों-सभी में आत्माएँ हैं। दृष्ट आत्माएँ मनुष्य को सताती हैं। बीमारी या दूर्घटना किसी देवता के क्रोध का फल है अथवा भूत या चुड़ैल का कार्य है। तात्पर्य यह है कि आदिवासियों के लोकविश्वासों में काफी समानता मिलती है। बुंदेलखंड के उत्तरी क्षेत्रों में बसने वाली सहरिया जनजाति के पाप-पुण्य और पवित्र-अपवित्र-संबंधी लोकविश्वास पूरे प्रदेश में प्रचलित हैं। गाय की हत्या सबसे बड़ा पाप है, जिसके दंडस्वरूप जहाँ जाति-बिरादरी में रोटी देनी पड़ती है, वहाँ गंगा-स्नान भी अनिवार्य है। मासिक धर्म, बच्चे का जन्म या परिवार में किसी की मृत्यु अपवित्रता का कारण माना जाता है और व्यक्ति या परिवार पवित्र होने पर ही शुभ कार्य कर पाता है। इस प्रकार बहुत-से विश्वास एवं अंधविश्वास इन्हीं जनजातियों के प्रभाव से विकसित हुए हैं।

सांस्कृतिक संघर्ष

रामायण-काल में इस अंचल की भूमि पर तीन संस्कृतियों का संघर्ष रहा। एक थी प्राचीन जनजातीय संस्कृति, दूसरी यक्ष संस्कृति और तीसरी आर्यों की अश्रमी संस्कृति। बुंदेलखंड की जनजातियाँ रक्ष संस्कृति के प्रतिनिधि राक्षसों से निरंतर युद्ध करती रहीं, पर वह संघर्ष बाहरी था, इसलिए उन पर रक्ष संस्कृति का असर नहीं हुआ। असली संघर्ष त्रिकोणीय था। गोंड़ों के देवता 'ठाकुर' हर गाँव में प्रतिष्ठित थे, जिनसे गोंड़ी लोकसंस्कृति का उत्कर्ष प्रकट होता है। लेकिन 'गाँव-गाँव कौ ठाकुर' के साथ 'गाँव-गाँव कौ बीर' जुड़ा होने से यक्ष संस्कृति का प्रतिष्ठा का लोकप्रमाण भी मिलता है। रामायण के उत्तरकांड में भी यक्षों का साक्ष्य है। अतएव इस अंचल में सबसे पहले यक्षों के विश्वासों ने प्रवेश किया था। एक तो यक्षों का सुंदर, स्वस्थ और शक्तिमान शरीर तथा चमत्कारिक रूप था, दूसरे उनके संबंध में यह लोकविश्वास प्रचलित था कि उनके पास 'अमृत' है, जिसे पीने पर मनुष्य अमर हो जाता है। इसी 'अमृत' या 'अमरत्व' के लिए इस अंचल में यक्ष-पूजा प्रारंभ हुई। महाभारत में 'कुबेर' (यक्ष) को अमरत्व, धन और लोकपालन का स्वामी बताया गया है। इस तरह यक्ष भौतिक और अभौतिक सुखों के वरदानी रूप में पूजित हुए। लोक का विश्वास था कि अमृत से वृद्धावस्था और मृत्यु की पीड़ा का समाधान मिल जाता है। यक्ष को प्रसन्न करने के लिए, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और प्रार्थना (संगीत) को पूजा की विशेष सामग्री के रूप में स्वीकार किया गया। इस वजह से पूजा में 'बलि' का विश्वास कुछ कम हुआ। साथ ही आदिवासी इहलौकिकता-संबंधी विश्वासों से कुछ ऊपर उठे।
आर्यों की आश्रमी संस्कृति का इस अंचल में आना एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि उसके मूल्यों मान्यताओं और विश्वासों ने यहाँ की लोकसंस्कृति को परिवर्तन के द्वार तक पहुँचाया है। रामायण की कथा में शबरी द्वारा राम का स्वागत जहाँ आर्यों के विश्वासों का स्वागत है, वहाँ महाभारत के आदि पर्व में वर्णित चेदिनरेश उपरिचर वसु द्वारा इंद्र की पूजा के लिए इंद्रमह का आयोजन-1 आर्यों के धार्मिक विश्वासों की स्वीकृति है। लेकिन इंद्र के साथ-साथ आदिकालीन देव शिव की पूजा भी जारी थी। बुंदेलखंड में यक्षों के चबूतरों का स्थान शिव के चबूतरों ने ले लिया था। इंद्र की पूजा लोक में उतनी प्रचलित न हो सकी जितनी शिव की। वासुदेव कृष्ण ने इंद्र की जगह पर गोवर्धन की पूजा को प्रतिष्ठित किया था। चेदि यादवों के अधीन था और उस समय चरागाही लोकसंस्कृति के संस्कार प्रबल थे। यक्ष और शिव के साथ-साथ कारसदेव के प्रति पशुपालकों की आस्था दृढ़ थी। वन, वृक्ष, नदी आदि की पूजा के साथ नाग-पूजा भी बहुत प्राचीन है और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी तभी से प्रचलित रहे हैं। वस्तुत: जहाँ शिव के साथ नाग जुड़े हुए थे, वहाँ वैदिक देवता रुद्र का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त था। विष्णु का संबंध शेषनाग से स्थिर हो जाने पर दो तरह के विश्वासों का समन्वय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। नागों का संबंध पहले क्षेत्र से था, बाद में धन से हुआ। लोक में यह विश्वास था कि नाग भूमि में गड़े धन का रक्षा करते हैं। धन के देवता यक्ष कुबेर थे, इसलिए यक्षों और नागों में सामंजस्य की स्थिति रही होगी। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोकविश्वास समन्वय और एकता की भावना से संपुष्ट रहे हैं। पुनर्जन्म का लोकविश्वास बहुत पुराना है। उसका उद्भव उत्तरप्रस्तर-युग में हो चुका था। बुंदेलखंड की जनजातियों में मृतक संस्कार के अंतर्गत शव के साथ सुख देने वाली सामग्री का गाड़ना या शव-दाह के बाद हड्डियों को चुनकर किसी पात्र में सँजोना, इस विश्वास का प्रतीक है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति नयी यात्रा करता है। आर्यों के आने के साथ इस लोकविश्वास का और विकास हुआ। पितृलोक के बाद यमलोक और फिर स्वर्ग-नरक की मान्यताएँ उसके साथ जुड़ गईं। तदुपरांत पुनर्जन्म का विश्वास भी दृढ़ हो गया, जिसके कारण भोज्यपदार्थ तक पुरखों को अर्पित किये जोने लगे। लोगों को विश्वास था कि अपंण की सामग्री पुरखों तक पहुँच जाती है।
मूर्ति-पूजा, बलि, प्रेत-पूजा से संबंधित विश्वासों का उत्स जनजातियों में मिलता है। तंत्र-मंत्र यक्ष, गंधर्व आदि किरात जातियों से आये। इन सबको अपनाकर आश्रमी संस्कृति के आर्यों ने वैदिक लोकविश्वासों का प्रसार किया। इस प्रकार लोकविश्वासों की विभिन्न धाराएँ एक हो गयीं और एक नये प्रवाह का जन्म हुआ। वैदिक संस्कृति से आयी 'कर्म' की नयी लहर ने उसे नया मेड़ दिया था, जिसका उत्कर्ष महाभारत-काल में दिखाई पड़ता है। महाभारत में लिखा है कि दुष्कर्मों से द्विज का अपने पद से स्खलन हो जाता है। अपने कर्म से च्युत होने वाला ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, किंतु सत्कर्म करने से शुद्र ब्राह्मण बन जाता है। कर्म पर ऐसी आस्था सामाजिक चेतना की प्रमुख शक्ति थी। महाभारत के युद्ध में बुंदेलखंड के जनपद- चेदि और दशार्ण सम्मिलित हुए थे। 'युद्ध में जूझ जाने पर सूर्यलोक या स्वर्ग मिलता है' जैसा लोकविश्वास आर्यों की देन था, जिसे यहाँ लोकमान्यता मिली और जिसने वीरता की अमिट परंपरा खड़ी कर दी। लोकविश्वासों की मजबूत नींव पर ही लोकमूल्यों के महल खड़े होते हैं। बुंदेलखंड के संघर्षों के पिछे लोकविश्वासों की ही प्रेरणा थी।


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