लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है। प्रश्न उठता है कि लोक की स्वीकृति कब और कैसे मिलती है। वस्तुत: विश्वास (व्यक्तिपरक या वैयक्तिक) और लोकविश्वास में अंतरक्रिया (interaction) होती रहती है। कोई भी व्यक्तिपरक विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजर कर सामूहिक या सामाजिक होता है। अतएव लोकविश्वास सामूहिक अनुभव का ही परिणाम है। एक उदाहरण पर्याप्त है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो गैलीली (1564 - 1642 ई.)के पहले बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ से प्रमाणित विश्वास था कि पृध्वी अपने स्थान पर अडिग है और सूर्य उसके चोरों ओर घूमता है। गौलीलियो ने इसके विपरीत यह स्थापित किया कि सौर-मंडल का आधार-केन्द्र सूर्य है और उसका उगना एवं अस्त होना पृध्वी के घूमने के कारण प्रतीत होता है। दरअसल, यह उसका वैयक्तिक विश्वास था, और इसकी वजह से उसे धर्मविरोधी कहा गया तथा उस पर धर्म के विरुद्ध प्रचार करने का आरोप मढ़ा गया। परंतु बाद में, यह व्यक्तिपरक विश्वास लोकविश्वास के रूप में परिणत हो गया। वैज्ञानिक अनुभवों के प्रमाण की परख ने लोक को विश्वास की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया और धीरे-धीरे विश्वलोक ने अपनी स्वीकृति का मोहर लगा दी।
उक्त उदाहरण से एक तथ्य और स्पष्ट हो जाता है कि इस विशिष्ट विश्वास का जन्म गैलिलियो के समय 16वीं शती में हुआ था और फिर उसका विकास होता गया। दूसरे, लोकविश्वास एक गतिशील तत्त्व है। लोक की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कभी-कभी उसका रूप बदलता है, तो कभी उसके स्थान पर दूसरा खड़ा हो जाता है। परिवर्तन की दिशा का नेतृत्व पहले व्यक्ति में निहित लोकशक्ति करती है, बाद में लोक। सूक्ष्मता से देखा जाय, तो लोकविश्वास की जड़ लोकमान्यता है और लोकमान्यता आधारहीन कभी नहीं होती। या तो उसका आधार वेद, पुराण या लोकमान्य ग्रंथों में लिखा कोई प्रमाण या साक्ष्य होता है या फिर लोक के बीच से आया कोई लोकमान्य तर्क या प्रमाण। बहरहाल, बिना किसी ठोस आधार के लोकविश्वास का उद्भव नहीं होता।

पौराणिक लोकविश्वास

सर्वप्रथम पौराणिक लोकविश्वासों के उदाहरण लेना उचित है। घड़े या दौने में मानव का उत्पत्ति का लोकविश्वास पुराणों के साक्ष्य पर टँगा रहा, फिर भी उसके विरूद्ध शंकाओं और तर्कों की चुनौती खड़ी होती रही और उसे कई बार नकारा गया। नये बौद्धिक जागरण ने उसे बिल्कुल गौण बना दिया, लेकिन नवीन वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परखनली में भी जीवोत्पत्ति होती है और इस आधार पर वह पुराना लोकविश्वास पुन: संजीवनी पा गया है। दूसरी तरफ, शेषनाग के फन या कच्छप की पीठ पर पृथ्वी के रखे होने का लोकविश्वास अब लोकमान्य नहीं रहा। यह बात अलग है कि वह एक सीमित लोक में आज भी प्रचलन में हो। तात्पर्य यह है कि पौराणिक लोकविश्वासों को ज्यों-का-त्यों मान लेना या उनके संबंध में कोई प्रश्न न करना इस युग में संभव नहीं रहा। यहाँ तक कि देवी-देवताओं से संबंधित अद्भुत या चमत्कारपूर्ण लोकविश्वासों की चीड़-फाड़ होने लगी है और आस्था पर आधारित लोकविश्वासों के लिए नये-नये तर्क खोजे जा रहे हैं। लोकानुभवों से अर्जित स्थापनाओं या परिणामों के लोकमान्य होने से जो लोकविश्वास हर युग में बनते रहते हैं, उनका संबंध तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों से रहता है और जब वैसी ही परिस्थितियाँ आती हैं, तब वे लोकसिद्ध विश्वास अपने आप उभरते हैं। एक पुरानी आरजा देखें-

               तीतुर-बारी-बादरी, बिधवा काजर-रेख।
               बौ बरसै, बौ घर करै, जामें मीन न मेख।।

सहदेव या किसी दूसरे लोककवि ने लोकविश्वास को पद्य में गूंथकर लिखा है कि तीतर के पंखों जैसे बादल अवश्य बरसते हैं और अपने नेत्रों में काजल लगाने वाली विधवा किसी-न-किसी को जरूर रख लेती है। यह लोकविश्वास एक विशिष्ट अनुभव का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो आज भी सत्य है। यही कारण है कि यह लोकप्रचलन में हमेशा रहा है। ऐसे लोकविश्वास लोकजीवन के यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं और लोकसंस्कृति की रेखाएँ निर्मित करते हैं। इन्हीं के समानांतर कुछ लोकविश्वास लोकमूल्य या लोकादर्श की नींव के रूप में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। एक-दो उदाहरणों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी। बहुत प्राचीन लोकविश्वास है कि रणखेत में जूझने वाले वीर सीधे स्वर्ग जाते हैं अथवा उनकी कीर्ति हमेशा रहता ही। इस लोकविश्वास पर ही वीरता का आदर्श या लोकमूल्य जीवित है। विश्व के सभी देशों, धर्मों जातियों और वर्गों में कर्म से संबंधित एक लोकविश्वास है कि कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है। जो अच्छे कर्म करता है, उसे अच्छा फल मिलता है और जो बुरे कर्म करता है, उसे बुरा फल। इस आधार पर मानव को अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है और कर्म का मूल्य या आदर्श बनता है। धर्मों में पुण्यों से मोक्ष मिलता है और पुण्यों का अर्थ है अच्छे कर्म। इस तरह लोकविश्वासों के आधार जहाँ नैतिकता में मिलते हैं, वहाँ धर्मों में भी निहित रहते हैं। एक बहुत स्पष्ट तथ्य यह भी है कि लोकविश्वास उपयोगिता से जुड़े रहते हैं। इसका प्रमाण वृक्ष-संबंधी लोकविश्वास है। वृक्षों पर देवों का वास, वृक्षों की पूजा, बेलपत्र शिव का आहार, बाँस जलाने से वंश का नाश, आँवले की पूजा से पापों का नाश, तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष, महुआ-पुजा से वर-प्राप्ति आदि लोकविश्वासों का मूल कारण वृक्षों की सुरक्षा है। आदिमानव की प्रारंभिक अवस्थिति से लेकर आज के इस अणु-युग के उत्कर्ष तक वृक्षों की उपयोगिता सदैव बनी रही, इसीलिए वृक्षों को काटने से बचाने के लिए ये लोकविश्वास धीरे-धीरे विकसित हुए थे। अगर लोक से उनकी मान्यता समाप्त हो जाती है, तो सभी जंगल वृक्षविहीन होकर अपने अस्तित्व को दाँव पर लगा देंगे। इन लोकविश्वासों के संदर्भ में आज की वनसुरक्षा की समस्या परखी जा सकती है। प्राचीन मान्यता थी कि एक वृक्ष लगाने से एक संतान के पालन-पोषण का फल मिलता है या सौ गायों के दान का पुण्य होता है। लेकिन आज वे मान्यताएँ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। अब तो पुण्य या सुकर्म-फल नापने के पैमाने ही ओझल हो गये हैं। पहले उनके मापक थे यज्ञ, कन्यादान, संतान-पालन, गोदान आदि, लेकिन उनसे संबंधित लोकविश्वासों के अध:पतन से वे महत्त्वहीन हो गए हैं।
परम्परा से प्राप्त लोकविश्वास भी प्रचलन में रहते हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं जो आज भी किसी-न-किसी रूप में उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि वे मानव-मन के किसी छोर से बँधे रहते हैं। भाग्य-संबंधी लोकविश्वास इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि जहाँ मन की पहुँच नहीं हो पाती, वहाँ वे पहुँचकर मन को संतोष देते हैं। यदि कोई व्यक्ति निराशा और पीड़ा की चरमसीमा के शिखर पर खड़ा है और उसे कोई समाधान नहीं सूझता, तो भाग्य पर उसका विश्वास उसे एक नयी संतृप्ति देता है, जिससे वह चरम सीमा के आरोह को पार कर लेने की शक्ति या भीतरी ऊर्जा पा लेता है। 'भाग्य में ऐसा ही लिखा था' का विश्वास उसे सहनशीलता, धैर्य और शांति देता है तथा मस्तिष्कघात से बचाता है। इसी तरह के मनोचिकित्सक लोकविश्वास पुनर्जन्म पर आधारित हैं। प्रत्येक मनुष्य मरने के बाद फिर जन्म लेता है, इस मान्यता से मृत्यु का स्थायी भय दूर हो जाता है। इसी तरह 'इस जन्म के कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है' के विश्वास से कर्मफल न मिलने की निराशा या अच्छे कर्मों से अच्छा परिणाम न पाने पर उठी मन की टूटन शांत हो जाती है। इनके अतिरिक्त शकुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, जंत्र-मंत्र आदि संबंधी ऐसे लोकविश्वास हैं, जो उपयोगी सिद्ध न होने के कारण अंधविश्वास की कोटि में आ गए हैं। वैसे कभी-कभी उनका मनोवैत्ज्ञानिक प्रभाव उनके अस्तित्व की अहमियत पुष्ट करता है। बच्चे को न लग जाने पर जलती बाती से जब न उतारी जाती है, तब बच्चा प्रकाशवृत्तों को देखकर चमत्कृत होता है और रोना त्याग देता है। यह ठीक है कि अंधविश्वासों में प्रामाणिक आधार नहीं होते, लेकिन जब वे लोकविश्वास के रूप में जन्मे थे, तब उनके आधार निश्चित ही थे। आज वे घिस-पिट गये या विस्मृत हो चुके हैं और समझ के बाहर हैं, इसीलिए वे 'अंध' विश्वास बन गए हैं। संक्षेप में, लोकविश्वास की कसौटी लोक है। लोकस्वीकृति या लोकमान्यता न मिलने पर लोकविश्वास गौण होकर लुप्त हो जाता है। अतएव उसका एक छोर लोकमान्यता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व नहीं बनता। दूसरी तरफ लोकविश्वास जब अपनी व्यावहारिक स्थिति से उठकर सैद्धांतिक बनता है, तब लोकमूल्य के रूप में परिणत हो जाता है। लोकविश्वास की पूरी यात्रा को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है

प्रमाण+ अनुभव> प्रस्थापना (व्यक्ति द्वारा)> विश्वास (व्यक्ति की स्वीकृति) > लोकमान्यता> लोकविश्वास

लोकविश्वास की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। लोकविश्वास लोकसंस्कृति के विधायक तत्त्व हैं। एक अंचल के लोकविश्वासों की सामूहिक इकाई उस अंचल की लोकदृष्टि का तटस्थ चित्र प्रस्तुत करती ही है, साथ ही उसके लोकादर्शों या लोकमूल्यों की रेखाओं को भी स्पष्ट रूप में रखती है। इस प्रकार लोकविश्वास समाज और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।

वर्गीकरण

स्थूल रूप में लोकविश्वासों के दो रूप होते हैं-एक वह है जो प्रामाणिक आधारों पर प्रतिष्ठित रहता है और दूसरा वह जो प्रामाणिक आधार से वंचित रहता है। प्रथम वर्ग के लोकविश्वासों को भी दो वर्गों में रखा जा सकता है-प्रथम के अंतर्गत वे लोकविश्वास आते हैं, जो पौराणिक मान्यताओं या तथ्यों पर आधारित होते हैं और दूसरे में वे होते हैं, जो लोकानुभवों, लोकप्रमाणों और लोकमान्यताओं पर निर्भर करते हैं। द्वितीय वर्ग के वे हैं जिनके प्रामाणिक आधार नहीं मिलते और बिना किसी तर्क या तथ्य के परम्परा से प्राप्त होने के कारण ही जीवित रहते हैं। लेकिन जब लोक उन आधारहीन लोकविश्वासों में निरर्थक तत्त्वों की बाढ़ देखता है और लोक में उनकी उपयोगिता नहीं पाता, तब वह उन्हें स्वीकृति की परिधि से बाहर कर देता है। इतने पर भी वे छुटपुट सीमित दायरे में चलते रहते हैं और समझदार या उनसे अप्रभावित वर्ग उन्हें 'अंधविश्वास' के नाम से अभिहित करता है। वस्तुत: लोकविश्वास इतने अधिक और इतने विविध हैं कि उन्हें वर्गबद्ध करना कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न वर्गीकरण किया गया है-

  1. मानव और जगत् संबंधी लोकविश्वास
  2. प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास
  3. धार्मिक लोकविश्वास
  4. अतिप्राकृत लोकविश्वास
  5. कृषि-संबंधी लोकविश्वास
  6. ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास
  7. घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास
  8. शकुनापशकुन
  9. स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास
  10. नीतिपरक लोकविश्वास
  11. अंधविश्वास

परम्परा और प्रगति

'पथरीलौ पिया तोरो देस, मोयी अनी तौ मुरक गयी बिछिया की' गाती ग्रामवधू बुंदेलखंड की पथरीला-कँकरीली धरती को इसलिए कोसती है कि उसके बिछिया की अनी मुरक जाती है। शायद उसका विश्वास यहाँ आते ही बदलने लगता है, क्योंकि इस भूमि की संस्कृति किसी को बदलने की अपार क्षमता रखती है। अपने लोकविश्वासों की दृढ़ता के कारण। यहाँ के लोकविश्वास बहुत प्राचीन हैं। आदिम मानव की प्रारंभिक आस्थाओं से लेकर आटविक या वन्य संस्कृति के मूल्यों तक पुलिंदों, शबरों, गोंडों आदि अनार्य-जातियों से हिलमिल कर ये विश्वास-शिशु बड़े हुए हैं। दाँगी, राउत, खपरिया जातियों के साथ खेलकर उन्होंने आर्यों के आश्रमों में शिक्षा पायी और नाग, वाकाटकों, शुंगों आदि के संरक्षण में संपुष्ट होकर चंदेलों की कल्पवृक्षी छाया में वे युवा हो गए। फिर जैन, बौद्ध, इस्लाम-धर्मों के प्रभावों में साँस लेते हुए अपनी जीवन-यात्रा जारी रखी और बुंदेलों, मराठों, अंग्रेजों आदि के साथ आगे बढ़ते गए। तात्पर्य यह है कि लोकविश्वासों की यात्रा कईं पड़ावों पर ठहरकर आगे बढ़ी है और आज भी अपने सारे संघर्षों के बावजूद निरंतर गतिशील है। इस गत्यात्मकता और ऐतिहासिक सचेतनता को सामने रखकर ही लोकविश्वासों का परीक्षण आवश्यक है।
इसमें संदेह नहीं है कि लोकविश्वासों की एक दीर्घ परम्परा रही है और उनकी व्यापक परिधि में आदिम, वैदिक, पौराणिक, मध्ययुगीन और आधुनिक भावनाओं तथा चिन्तन के कई स्तर वर्तमान हैं। अतएव उनमें पुराने और नये विविध तत्त्वों का संघटन स्वाभाविक है। एक तरफ परम्परित तत्त्वों की आधारभूमियाँ हैं, तो दूसरी तरफ बदलाव की गतिशील दिशाएँ। एक तरफ परम्परा का अनुसरण है, तो दूसरी तरफ प्रगति का चाव। परम्परा और प्रगति के तानों-बानों से ही लोकविश्वासों की बुनावट होती रही हे, अतएव उन्हें रूढिबद्ध, परम्परित और स्थिर मान लेना उचित नहीं है। कुछ लोकविश्वास ऐसे हैं, जो स्थिर रहे हैं, लेकिन उनके स्वरूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन हुआ है। कुछ बिल्कुल बदल गए हैं, क्योंकि लोक ने उनकी मान्यता निरस्त कर दी है। इस रूप में लोकविश्वासों का अपना इतिहास रहा है, जिसे अनदेखा करने से उनके साथ अन्याय होगा। युग-चेतना की दृष्टि से देखा जाय, तो लोकविश्वासों में तत्कालीन लोक के विश्वासों की सच्ची तस्वीर मिलती है, जिससे उस समय की लोकसंस्कृति और लोकचेतना की सही दशा का पता चलता है। अगर किसी अंचल की लोकसंस्कृति का हृदय और मस्तिष्क एक साथ परखना हो, तो उसके लोकविश्वासों को जानना अत्यंत आवश्यक है। लोकविश्वासों के विकास की रेखाएँ लोकसंस्कृति के इतिहास का रेखाचित्र अंकित करती हैं और लोक की प्रगति के आरोह-अवरोह का लेखा बताती है।

आदिकाल

आदिकाल से तात्पर्य उस कालखंड से है, जिसमें प्रागैतिहासिक से लेकर रामायण-काल तक के लोकविश्वासों के उद्भव और विकास का संपूर्ण लेखा-जोखा आ जाता है। इस युग में बुंदेलखंड आदिवासी लोकसंस्कृति का पालना रहा है। यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उनके बाद गोंड़, कोल, भील, सहारिया जैसी जनजातियाँ मूल निवासी होने के कारण आदिकालीन लोकविश्वासों को ढ़ालने में प्रमुख रहीं। रामायण-काल के अंत में आर्यों के लोकविश्वास आश्रमों से निकलकर बाहर आए और उन्होंने लोक को प्रभावित करना शुरु कर दिया। अतएव यह युग इस अंचल में आदिवासियों के लोकविश्वासों का युग है। प्रागैतिहासिक लोकविश्वासों का अध्ययन गुहाचित्रों के आधार पर संभव है। छतरपुर (जटाशंकर, भीमकुंड, देवरा, किशुनगढ़), पन्ना (बराछ-पंडवन, इटवा, मझपहरा-टपकनिया, हाथीदौल, पुतरयाऊ घाटी, कल्याणपुर-बिलाड़ी), सागर (आबचंद, नरयावली, भापेल, बरोदा), रायसेन (बरखेड़ा, खरवई, हाथीटोल, पुतलीकरार) और होशंगाबाद (आदमगढ़, पंचमढ़ी) में स्थित शैलाश्रयों में प्राप्त चित्रों से स्पष्ट है कि उस समय पशु, आयुध, शिकार और आमोद-प्रमोद-संबंधी विश्वासों का विकास हुआ था और वे प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित थे। शिकार मुख्य आजीविका थी, इसलिए पशुओं का सामना, भोजन और उसके बाद गीत-नृत्य-सब समूह में किये जाते थे। निश्चित है कि 'सहकारिता' का विश्वास प्रधान रहा और साथ ही हींसक पशुओं से रक्षा के लिए शारीरिक वीरता का भी। 'प्रकृति से रक्षा' के प्रयोजन में प्रकृति-पूजा-संबंधी लोकविश्वासों का उद्भव भी इसी समय हुआ। ये लोकविश्वास धर्म के अंग नहीं थे, वरन् उनका आधार 'उपयोगिता' और 'क्षति' थे। धीरे-धीरे प्रकृति के उपयोगी अंग लोकदेवों में परिवर्तित होते गए। उनके लिए दी जा रही फल या माँस की भेंट 'बलि' के रूप में स्वीकृत हुई। गुहाचित्रों में प्रकृति की वस्तुओं के अंकन से उनकी प्रकृति-पूजा का भाव प्रमाणित होता है। गुफा-युग के बाद आदिवासी मैदानों में उतर आए और कृषि-युग में नाना प्रकार के लोकविश्वास जन्मे तथा पलपुस कर बड़े हुए। पशु, जल, नदी, वर्षा और पशुपति एवं जलदेवता की पूजा इसी समय शुरु हुई। भूदेवी या भुइयाँ रानी को फसल की उत्पादक देवी की मान्यता मिली। कृषि, धर्म और अतिप्राकृत विषयक लोकविश्वास इसी समय लोक में फैले। वस्तुत: लोकविश्वासों का इतिहास एक समस्या है, क्योंकि उनके लोकप्रचलन के प्रमाण दुर्लभ हो गए हैं।
आदिकाल के लोकविश्वासों का सही स्वरूप स्थिर करने के लिए इस अंचल के गोंड़ों, सौंर, भील, सहारिया आदि का सर्वेक्षण जरुरी है। गोंड़ों के लोकविश्वास 'भय' की मानसिकता से फूटे हैं। इसीलिए हर 'भय' का एक लोकदेवता उनकी सर्जना का अंग है। प्रकृति की सभी शक्तिसंपन्ना वस्तुओं की पूजा उनके जीवन की आस्था है। उनका विश्वास है कि यह संसार ही सब कुछ है, इसके सिवा दूसरा लोक नहीं। संसार का सृजन और संचालन बड़े देव करते हैं, उन्हीं को लोकगीतों में परभू (प्रभु) कहा गया है। प्रभु की माया संसार में अनेक लीलाएँ करती हैं। गोंड़, केवट, ब्राह्मण, क्षत्रिय-सब जातियाँ उसी की बनाई हैं। मानव का शरीर क्षणभागुर है। उसका सबसे बड़ा सुख मानसिक संतोष है, जो अपने धंधे (कर्म) के बाद मिलता है। इस मानसिकता के बावजूद गोंड़ छोटी-बड़ी बाधाओं से भयभीत रहते हैं और उन्हें दूर करने के लिए झाड़-फूँक, जादू-टोना और जंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। उनकी मान्यता है कि बीमारियाँ झाड़-फूँक, जंत्र-मंत्र से ठीक हो जाती हैं। आश्चर्य तो यह है कि हमारे बहुत से शकुन-अपशकुन गोंड़ों से आए हैं। उदाहरणार्थ के लिए पुरुष का दाहिना ओर स्त्री का बायाँ अंग फड़कना, किसी काम के लिए जाते समय पानी से भरा घड़ा या मछली लिए ढीमर अथवा बछड़े को दूध पिलाती गाय मिल जाना शुभ है। ये शकुन बुंदेलखंड में यत्र-तत्र आज भी प्रचलित हैं। इसी तरह सामने खाली घड़ा दिखना, काना मिलना, बिल्ली का रास्ता काटना, निकलते समय सामने छींक होना, कौआ सिर पर बैठना आदि अशुभ गोंड़ों में प्रचलित रहे हैं। कुछ भविष्यसूचक विश्वास भी गोंड़ों में थे और आज भी हैं, जैसे गौरैया का धूल में लोटना, बगुलों का एक पंक्ति में उड़ना और चंद्रमा के चारों तरफ मंडल बनना वर्षा की सूचना देता है।
सौंरों का विश्वास है कि महादेव ने हल, बैल और संसार की सृष्टि की है। जिस तरह गोंड़ कर्म और भाग्य पर विश्वास करते हैं, उसी तरह सौंर भी। सौंर प्रेतयोनि को मानते हैं। उनका विश्वास है कि मनुष्य मृत्यु के बाद प्रेतयोनि पाता है, इसीलिए वे मृतक को खेतों के पास या सागैन के वृक्षों के नीचे गाड़ते हैं। मृतक की आत्मा खेतों और वृक्षों की रक्षा करती है। सौंर जंत्र-मंत्र और जादू-टोना में कुशल होते हैं। दृष्ट आत्माओं को मंत्र- और जादू से बाँध देते हैं। भील भी आत्मवादी हैं। वे आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार पर्वतों नदियों, वनों-सभी में आत्माएँ हैं। दृष्ट आत्माएँ मनुष्य को सताती हैं। बीमारी या दूर्घटना किसी देवता के क्रोध का फल है अथवा भूत या चुड़ैल का कार्य है। तात्पर्य यह है कि आदिवासियों के लोकविश्वासों में काफी समानता मिलती है। बुंदेलखंड के उत्तरी क्षेत्रों में बसने वाली सहरिया जनजाति के पाप-पुण्य और पवित्र-अपवित्र-संबंधी लोकविश्वास पूरे प्रदेश में प्रचलित हैं। गाय की हत्या सबसे बड़ा पाप है, जिसके दंडस्वरूप जहाँ जाति-बिरादरी में रोटी देनी पड़ती है, वहाँ गंगा-स्नान भी अनिवार्य है। मासिक धर्म, बच्चे का जन्म या परिवार में किसी की मृत्यु अपवित्रता का कारण माना जाता है और व्यक्ति या परिवार पवित्र होने पर ही शुभ कार्य कर पाता है। इस प्रकार बहुत-से विश्वास एवं अंधविश्वास इन्हीं जनजातियों के प्रभाव से विकसित हुए हैं।

सांस्कृतिक संघर्ष

रामायण-काल में इस अंचल की भूमि पर तीन संस्कृतियों का संघर्ष रहा। एक थी प्राचीन जनजातीय संस्कृति, दूसरी यक्ष संस्कृति और तीसरी आर्यों की अश्रमी संस्कृति। बुंदेलखंड की जनजातियाँ रक्ष संस्कृति के प्रतिनिधि राक्षसों से निरंतर युद्ध करती रहीं, पर वह संघर्ष बाहरी था, इसलिए उन पर रक्ष संस्कृति का असर नहीं हुआ। असली संघर्ष त्रिकोणीय था। गोंड़ों के देवता 'ठाकुर' हर गाँव में प्रतिष्ठित थे, जिनसे गोंड़ी लोकसंस्कृति का उत्कर्ष प्रकट होता है। लेकिन 'गाँव-गाँव कौ ठाकुर' के साथ 'गाँव-गाँव कौ बीर' जुड़ा होने से यक्ष संस्कृति का प्रतिष्ठा का लोकप्रमाण भी मिलता है। रामायण के उत्तरकांड में भी यक्षों का साक्ष्य है। अतएव इस अंचल में सबसे पहले यक्षों के विश्वासों ने प्रवेश किया था। एक तो यक्षों का सुंदर, स्वस्थ और शक्तिमान शरीर तथा चमत्कारिक रूप था, दूसरे उनके संबंध में यह लोकविश्वास प्रचलित था कि उनके पास 'अमृत' है, जिसे पीने पर मनुष्य अमर हो जाता है। इसी 'अमृत' या 'अमरत्व' के लिए इस अंचल में यक्ष-पूजा प्रारंभ हुई। महाभारत में 'कुबेर' (यक्ष) को अमरत्व, धन और लोकपालन का स्वामी बताया गया है। इस तरह यक्ष भौतिक और अभौतिक सुखों के वरदानी रूप में पूजित हुए। लोक का विश्वास था कि अमृत से वृद्धावस्था और मृत्यु की पीड़ा का समाधान मिल जाता है। यक्ष को प्रसन्न करने के लिए, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और प्रार्थना (संगीत) को पूजा की विशेष सामग्री के रूप में स्वीकार किया गया। इस वजह से पूजा में 'बलि' का विश्वास कुछ कम हुआ। साथ ही आदिवासी इहलौकिकता-संबंधी विश्वासों से कुछ ऊपर उठे।
आर्यों की आश्रमी संस्कृति का इस अंचल में आना एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि उसके मूल्यों मान्यताओं और विश्वासों ने यहाँ की लोकसंस्कृति को परिवर्तन के द्वार तक पहुँचाया है। रामायण की कथा में शबरी द्वारा राम का स्वागत जहाँ आर्यों के विश्वासों का स्वागत है, वहाँ महाभारत के आदि पर्व में वर्णित चेदिनरेश उपरिचर वसु द्वारा इंद्र की पूजा के लिए इंद्रमह का आयोजन[1] आर्यों के धार्मिक विश्वासों की स्वीकृति है। लेकिन इंद्र के साथ-साथ आदिकालीन देव शिव की पूजा भी जारी थी। बुंदेलखंड में यक्षों के चबूतरों का स्थान शिव के चबूतरों ने ले लिया था। इंद्र की पूजा लोक में उतनी प्रचलित न हो सकी जितनी शिव की। वासुदेव कृष्ण ने इंद्र की जगह पर गोवर्धन की पूजा को प्रतिष्ठित किया था। चेदि यादवों के अधीन था और उस समय चरागाही लोकसंस्कृति के संस्कार प्रबल थे। यक्ष और शिव के साथ-साथ कारसदेव के प्रति पशुपालकों की आस्था दृढ़ थी। वन, वृक्ष, नदी आदि की पूजा के साथ नाग-पूजा भी बहुत प्राचीन है और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी तभी से प्रचलित रहे हैं। वस्तुत: जहाँ शिव के साथ नाग जुड़े हुए थे, वहाँ वैदिक देवता रुद्र का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त था। विष्णु का संबंध शेषनाग से स्थिर हो जाने पर दो तरह के विश्वासों का समन्वय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। नागों का संबंध पहले क्षेत्र से था, बाद में धन से हुआ। लोक में यह विश्वास था कि नाग भूमि में गड़े धन का रक्षा करते हैं। धन के देवता यक्ष कुबेर थे, इसलिए यक्षों और नागों में सामंजस्य की स्थिति रही होगी। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोकविश्वास समन्वय और एकता की भावना से संपुष्ट रहे हैं। पुनर्जन्म का लोकविश्वास बहुत पुराना है। उसका उद्भव उत्तरप्रस्तर-युग में हो चुका था। बुंदेलखंड की जनजातियों में मृतक संस्कार के अंतर्गत शव के साथ सुख देने वाली सामग्री का गाड़ना या शव-दाह के बाद हड्डियों को चुनकर किसी पात्र में सँजोना, इस विश्वास का प्रतीक है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति नयी यात्रा करता है। आर्यों के आने के साथ इस लोकविश्वास का और विकास हुआ। पितृलोक के बाद यमलोक और फिर स्वर्ग-नरक की मान्यताएँ उसके साथ जुड़ गईं। तदुपरांत पुनर्जन्म का विश्वास भी दृढ़ हो गया, जिसके कारण भोज्यपदार्थ तक पुरखों को अर्पित किये जोने लगे। लोगों को विश्वास था कि अपंण की सामग्री पुरखों तक पहुँच जाती है।
मूर्ति-पूजा, बलि, प्रेत-पूजा से संबंधित विश्वासों का उत्स जनजातियों में मिलता है। तंत्र-मंत्र यक्ष, गंधर्व आदि किरात जातियों से आये। इन सबको अपनाकर आश्रमी संस्कृति के आर्यों ने वैदिक लोकविश्वासों का प्रसार किया। इस प्रकार लोकविश्वासों की विभिन्न धाराएँ एक हो गयीं और एक नये प्रवाह का जन्म हुआ। वैदिक संस्कृति से आयी 'कर्म' की नयी लहर ने उसे नया मेड़ दिया था, जिसका उत्कर्ष महाभारत-काल में दिखाई पड़ता है। महाभारत में लिखा है कि दुष्कर्मों से द्विज का अपने पद से स्खलन हो जाता है। अपने कर्म से च्युत होने वाला ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, किंतु सत्कर्म करने से शुद्र ब्राह्मण बन जाता है। कर्म पर ऐसी आस्था सामाजिक चेतना की प्रमुख शक्ति थी। महाभारत के युद्ध में बुंदेलखंड के जनपद- चेदि और दशार्ण सम्मिलित हुए थे। 'युद्ध में जूझ जाने पर सूर्यलोक या स्वर्ग मिलता है' जैसा लोकविश्वास आर्यों की देन था, जिसे यहाँ लोकमान्यता मिली और जिसने वीरता की अमिट परंपरा खड़ी कर दी। लोकविश्वासों की मजबूत नींव पर ही लोकमूल्यों के महल खड़े होते हैं। बुंदेलखंड के संघर्षों के पिछे लोकविश्वासों की ही प्रेरणा थी।

सूत्रों और स्मृतियों के बंधन तथा धार्मिक जागृति

लोकविश्वासों की उठापटक और समन्वय की स्थिति के बाद सूत्रों और स्मृतियों ने उन सबको समेटकर एक नये विधान में संयोजित करने का प्रयत्न किया। हर जाति के अलग-अलग विधान थे और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी उसके अंतर्गत सम्मिलित थे। जैसे ब्राह्मण से संबंधित विश्वासों में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है; ब्राह्मण को भोजन, दान आदि से प्रसन्न कर आशीर्वाद लेने से पुण्य होता है; ब्राह्मण देवता की पूजा करने और करवाने का अधिकारी है आदि। इसी तरह संस्कारों के साथ भी लोकविश्वासों का मेल किया गया। उदाहरण के लिए, विवाह-संस्कार में वधू का दाहिने पाँव के सिरे से पत्थर को चलाना पत्थर की तरह दृढ़ बनने का प्रतीक है। शत्रु को भगाना, मारना और उस पर विजय पाना; यात्रा में सुरक्षित पहुँचना; छिपा खजाना पाना; रोग का उपचार आदि में जादू का प्रयोग होता था। अपशकुनों के बुरे प्रभावों से बचने के लिए अनुष्ठान किये जाते थे। अनेक प्रकार के लोकविश्वासों का प्रभाव भी उस समय ज्ञात था। वंशी बजाने से गर्भ सुरक्षित रहता है। गर्भवती के सिर के पास जलपात्र रखने से सुरक्षित और शीघ्र प्रसव होता है। देहरी पर खड़े होना अशुभ है। दक्षिण दिशा मृत्यु की दिशा है और अशुभ है। इस तरह के लोकविश्वास लोकनीति से जाँचकर लोकहित के लिए प्रचलित हुए थे। कुछ लोकविश्वासों के केन्द्र पशु, पक्षी, वृक्ष आदि होते थे। सियार, भेड़िया और कुत्ते अपवित्र माने जाते थे, अतएव उनका बोलना अशुभ था। उल्लू भी अशुभ समझा जाता था। पीपल, नीम, वट, बेल, ऊमर, पलाश और शमी वृक्षों को पवित्र माना गया था। शायद इसलिए कि वे मानव के लिए किसी-न-किसी रूप में उपयोगी थे। पीपल में बरमदेव का वास रहता है। नीम के पत्ते मृत व्यक्ति के दाह के बाद उसके द्वार पर चबाये जाते थे। कुश और घास या दूबा को भी पवित्र ठहराया गया था। तात्पर्य यह है कि प्रचलित लोकविश्वासों और शकुनापशकुनों को सूत्रों और स्मृतियों में सार्थकता के साथ पिरोकर उन्हें व्यवस्थित करने का काम किया गया था। साथ ही मानव के दैनिक जीवन से उन्हें जोड़कर एक नियंत्रक बंधन का रूप भी दिया गया था।
महात्मा महावीर और बुद्ध के पहले धर्म में अनेक अंधविश्वासों, कर्मकांडों और आडम्बरों का समावेश हो गया, जिसकी वजह से मानव जाति में एक जड़ ठहराव आ चुका था। इसीलिए इस संकटकाल में नयी धार्मिक जागृति नयी रोशनी लेकर आई। लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ, किंतु उसका असर जनता पर नहीं हुआ, इसीलिए जैन और बौद्ध ग्रंथों में पुराने लोकविश्वासों को अंधविश्वास मानकर स्थान दिया गया है। जातक कथाओं में ज्योतिष पर विश्वास, शकुन देखना, मंत्र और जादू-टोना, भूतों के लिए बलि, वृक्षों पर देवताओं का निवास, पुत्रप्राप्ति की कामना से यक्ष-पूजा, रोगों का मंत्रों और पूजा से उपचार आदि लोकविश्वासों का यत्र-तत्र वर्णन है। नागों और बुद्ध का संबंध इतिहास-ग्रंथों से पुष्ट है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने नागों को अपने प्रभाव में कर लिया था। जातकों में तो नागों की कई कथाएँ दी गयी हैं, जिनसे नाग-संबंधी लोकविश्वास स्पष्ट हो जाते हैं। नाग के पास अमूल्य मणि होना, नाग का अपनी केंचुली छोड़कर आदमी बन जाना आदि विश्वास इस युग में प्रचलित थे। रुढ़ और अंधविश्वासों के समानान्तर कुछ नये विश्वासों का विकास हो रहा था, जिनमें प्रमुख थे अहिंसापरक। जैन-धर्म के अनुसार मानव, पशु, वृक्ष, वायु, अग्नि, प्रस्तर-सभी में आत्मा होती है और सभी में मानव की तरह दु:ख अनुभव करने की शक्ति, अतएव सभी को एक समान समझना चाहिए। जन्म-मरण के चक्र में सभी फँसे हैं। उन्हें तभी मुक्ति मिल सकती है, जब वे दुष्कर्मों से छुटकारा पा लेते हैं। बौद्ध धर्म मानव की इच्छा और क्षणभंगुरता को दु:ख का कारण मानता है। स्वार्थ के त्याग, अहंकार के अंत और शांति के द्वारा इस दु:ख से मुक्ति संभव है। तात्पर्य यह है कि मूर्तिपूजा, यज्ञ, मंत्र, बलि आदि के अंधविश्वासों के खिलाफ बुद्ध ने लोक को जगाया और अहिंसा एवं सत्य तथा कर्म से संबद्ध लोकविश्वासों की प्रतिष्ठा की।

नाग-वाकाटक युग

महात्मा महावीर और बुद्ध के उपदेश बुंदेलखंड की धरती पर बाद में ही फैले और उनके अंकुर और भी बाद में फूटे। अतएव इस अंचल में उनका प्रभाव यत्र-तत्र ही मिलता है। उनकी अधोगति के बाद भागवतों और शैवों ने इस अंचल, के लोकविश्वासों में एक नयी क्रांति खड़ी कर दी। लोकविश्वासों के संदर्भ में क्रांति का अर्थ है-कुछ ऐसे विश्वासों का बदलाव, जो जीवन-दर्शन के बदलने में प्रधान हों। जैन और बौद्ध-धर्म में गृहत्याग और निर्वाण परममूल्य थे, लेकिन नाग-वाकाटक युग में धर्म के साथ घर, समाज और राष्ट्र जुड़ा था। प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है- "उस समय राष्ट्र की जैसी प्रवृत्तियाँ और जैसे भाव थे, उन्हीं के अनुरूप ईश्वर का एक विशिष्ट रूप उन लोगों ने चुन लिया था और उसी रूप को उन्होंने अपनी सारी सेवा समर्पित कर दी थी"[2]। इतना ही नहीं, इस युग में गार्हस्थिक आस्था को प्रमुख महत्त्व मिलता। लोक भक्ति पर विश्वास रखता हुआ शिव, विष्णु, सूर्य, यक्ष देवताओं और गंगा, नंदी, गाय आदि परिकरों की पूजा करने लगा था। नाग और वाकाटक शैव थे, पर वे अन्य धर्मों के प्रति उदार थे। इस कारण लोक में योग, भक्ति, कर्म और भुक्ति-सभी की मान्यता थी। लोगों में यह विश्वास दृढ़ था कि शरीर के द्वारा ही योग, भोग, कर्म और भक्ति की जा सकती है। जगत् सुखों और दु:खों का भंडार है। मृत्यु सबसे बड़ा दु:ख है, जिससे छुटकारा तभी मिलता है, जब मानव इसी जगत् में रहकर सत्कर्म करे।
इस परिवर्तन के बावजूद पुराने लोकविश्वास प्रचलित थे। बाद के बौद्ध संप्रदायों में फैले भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, रक्षा-ताबीज आदि संबंधी लोकविश्वास लोक में व्याप्त थे। भूत-प्रेत उपद्रव करते हैं और उनकी शांति बलि और मंत्रों से होती है। अनेक बाधाओं से बचने के लिए ताबीज कवच का काम करते हैं। देव तथा नक्षत्र-पूजा से गृहदशा संभल जाती है। मंत्र के जोर से भुजंग को रेखा के भीतर बाँधा जो सकता है। सूम जो धन गाड़ता है, उसकी रक्षा मरने के बाद सपं होकर करता है। नागों को प्रसन्न करने पर मनवांछित कार्यसिद्ध हो जाते हैं। यक्ष की पूजा से पुत्र प्राप्त होता है और रोग-शोक दूर हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकविश्वास किसी खास धर्म या संप्रदाय के नहीं होते। उनका विकास युग की चेतना से प्रेरणा पाकर क्रमिक रूप में होता है। एक उदाहरण काफी है। जनजातियाँ वृक्षों में आत्मा मानती थीं। वैदिक संस्कृति में वृक्ष को महत्त्व मिला है और पीपल में देवों का निवास कहा गया है। महाभारत में पत्तों और फलों से लदा वृक्ष पूजा योग्य बताया गया है। गीता में भी पीपल की महिमा का संकेत है। बौद्ध-धर्म में बोधि-वृक्ष की उपासना मान्य है। रुक्ख जातक में वृक्ष को देवता माना गया है।[3] बाद में पीपल पर वासुदेव और नीम पर देवी का निवास लोकप्रचलित रहा। पीपल पर बरम्ह या बरमदेव का वास आज भी लोकस्वीकृत है। कुछ लोग उसे ब्राह्मण समझते हैं, जबकि वह बीर बरम्ह या ब्रह्म है जिसका आशय यक्ष से है। विज्ञान की आधुनिक खोजों ने वृक्षों में जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं, जिससे लोक के बहुत पुराने विश्वास की पुष्टि हुई है। सिद्ध है कि एक लोकविश्वास न जाने कितने संप्रदायों, विचारधाराओं और दर्शनों से टकराकर आज तक प्रवहमान रहा है।
सतीत्व-संबंधी लोकविश्वास का प्रामाणिक साक्ष्य एरण का 501 ई. का अभिलेख है, जिसके अनुसार हूणों से लड़ते हुए सेनापति गोपराज की मृत्यु पर उसकी पतिव्रता पत्नी ने पति के शव के साथ चिता पर आरोहण किया था। सती प्रथा और नारी का सतीत्व पर विश्वास का यह उदाहरण इतिहास में सबसे पुराना है। उसके बाद के प्रमाण हैं सतीस्तंभ, जो सारे बुंदेलखंड में बिखरे पड़े हैं। उनसे यह सिद्ध होता है कि इस लोकविश्वास का प्रचलन उस समय अधिक रहा है, जब आक्रमणकारियों ने किसी भी भू-भाग या स्वत्व को हस्तगत करने के लिए युद्ध किये हों।

पौराणिक युग

पुराणों में लोकविश्वासों की भरमार है। उनकी कथाओं में निहित लोकविश्वास जहाँ पात्रों को जीवंत बनाते हैं, वहाँ कथा को नयी गति देते हैं। कथाओं ने लोकविश्वासों के प्रसार में प्रधान भूमिका निबाही है और लोकविश्वासों ने कथाओं को लोकोन्मुखी बनाने का कार्य किया है। वास्तव में, पौराणिक कथाएँ लोकविश्वासों की धरती से उगी हैं और उन्होंने लोकविश्वासों के ऐसे पुष्प बिखेरे हैं, जो लोकसंस्कृति की पुष्पमालिका के संग्रथन में आज तक भागीदार रहे हैं। इतना ही नहीं, इन कथाओं ने अवैदिक-वैदिक, वन्य-नागरी और देशी-विदेशी-सभी प्रकार के लोकविश्वासों को समन्वित कर लोकजीवन के व्यावहारिक क्षेत्र को व्यापक बना दिया है। विश्वास का सैद्धांतिक रूप उतना असरदार नहीं होता, जितना कि व्यावहारिक रूप। पुराणों में इसी व्यावहारिक रूप के दर्शन होते हैं। लोकविश्वासों के समन्वय और उनकी व्यावहारिकता ने लोक और लोकसंस्कृति को अधिक शक्तिसंपन्न और प्रभावशाली बनाने में मदद की है। दूसरे, पुराण कथानिबद्ध इतिहास हैं, अतएव उनमें आये लोकविश्वास कपोलकल्पित नहीं हैं। पुराणों के काल-निर्धारण एवं क्षेत्र की पहचान होने पर लोकविश्वासों का विकास समझा जा सकता है।
यहाँ एक उदाहरण विष्णु पुराण से उद्धृत है। नर्मदा संबंधी एक उपाख्यान है, जिसमें गंधर्वों और नागों के संघर्ष का वर्णन है। पहले गंधर्वों ने मुनि कश्यप के छ: लाख पुत्रों को लेकर नागों को पराजित किया था और उनके मूल्यवान् रत्न छीनकर उनके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था। बाद में नागों ने नर्मदा से पुरुकुत्स की सहायता लेने के लिए कहा, इस कारण नर्मदा पुरुकुत्स को लेकर पाताल गयी और पुरुकुत्स ने गंधर्वों का संहार किया। इस पर नागों ने नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि 'जो कोई नर्मदा का स्मरण करेगा, उसे सर्पों से भय नहीं रहेगा।' यह उपाख्यान चाहे ऐतिहासिक हो और नर्मदा के माध्यम से गंधर्व और नाग जातियों के संबंधों पर प्रकाश डालता हो, चाहे कल्पित हो और नर्मदा की महिमा स्थापित करने के लिए लिखा गया हो, लेकिन इतना निश्चित है कि इस कथा से एक लोकविश्वास का जन्म हो गया। लोगों का विश्वास है कि प्रात: और रात्रि में नर्मदा मैया को नमस्कार करने और यह प्रार्थना करने से कि 'हे नर्मदा ! मुझे सर्पों के विष से बचाओ', सर्पों का विष व्याप्त नहीं होता। होता यह है कि कथा विस्मृत हो जाती है, विश्वास अमर रहता है।[4]

चंदेल युग

चंदेल-काल बुंदेलखंड का स्वर्णयुग रहा है। इसी समय उसकी राजनीतिक इकाई का जन्म हुआ और इसी समय उसकी सांस्कृतिक इकाई की पहचान बनी। युग की परिस्थितियों के अनुसार उसके लोकमूल्य और लोकविश्वास आ खड़े हुए। बाहरी आक्रमणों का सामना करने के लिए चंदेलों ने केवल सैनिक और शस्र ही नहीं तैयार किए, वरन् भीतरी ऊर्जा को कायम रखने के लिए लोक के संकल्पों और विश्वासों के दुर्ग खड़े कर दिए। इन दुर्गों की नींव ऐसे लोकविश्वासों के कंधों पर थी, जो व्यक्ति और लोक को वज्र की तरह सूदृढ़ बना देते हैं। आल्हाखण्ड की हर गाथा में उनका स्पष्ट सेकेत है-

  1. मानुस देइया जा दुरलभ है आहै समै न बारंबार।
  2. मरद बनाये मर जैबै कों खटिया परकें मरै बलाय।

जे मर जैहें रनखेतन मा साखौ चलो अँगारुँ जाय।।
मानव शरीर एक दुर्लभ वस्तु है। मानव योनि बार-बार नहीं मिलती। अतएव लोकविश्वास है कि जीवन में जो करना है, इसी कीमती समय में कर लेना चाहिए। मर्द वह है, जो मृत्यु का वरण करे। जो युद्धक्षेत्र में प्राण देते हैं, उनका यश अमर रहता है। पुरुष के जूझने के समानांतर नारी के सतीत्व पर लोगों को गहन आस्था थी। आल्हा में सिरसा के महावीर मलखान की मृत्यु पर रानी गजमोतिन के सती होने का वर्णन है। इतिहासकार अलबेरूनी ने लिखा है कि 'विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं।' वत्सराज के 'रूपकषटकम्' में सती का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।[5] इन दोनों के विपरीत आत्महत्या करने को पाप माना जाता था। देश-जाति के प्रति लोगों का विश्वास था कि 'यदि कोई देश है तो उनका, जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके।'[6] लोक का यह आत्मविश्वास उस समय बहुत जरुरी था।
महोबा में तांडव नृत्य करते शंकर, चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चंडिका देवी का मूर्तियाँ और गोखागिरि के कालभैरव इस तथ्य के साक्षी हैं कि लोक ने समय को देखते हुए संहारकारी देवी-देवता को चुना था। इनके अलावा किसी देव या देवी पर विश्वास की रुढि वर्तमान थी। समाज में दान का महत्त्व सबसे अधिक था। लोगों का विश्वास था कि दान करने से दाता और उसके पूर्वज पुण्य के भागी होते हैं। चंदेलकालीन शिलालेखों में दान के अनेक उल्लेख हैं। तीर्थयात्रा करना, व्रत रखना, तालाब खुदवाना और मंदिर बनवाना धार्मिक लोकविश्वासों के प्रमुख अंग थे। बुंदेलखंड में तालाबों की भरमार है ही, चंदेलकालीन मंदिर भी अगणित हैं। गाय और गंगा पापों का नाश करने वाली मानी जाती थीं। कर्म और भाग्य-संबंधी विश्वास प्रबल थे। 'प्रबोधचंद्रोदय' में स्पष्ट है कि 'वीधाता ही वाम है, तो क्या नहीं घट सकता'।[7] भाग्य पर अधिक निर्भर होने के बावजूद कर्म उपेक्षित न था। लोक का विश्वास था कि भले कर्म दूसरे जन्म में सहायक होते हैं।[8] पुनर्जन्म होता है और उससे छुटकारा तभी मिलता है, जब व्यक्ति के पुण्य अधिक हों। पुण्य का अर्थ शुभकर्म ही है, अतएव यह सही नहीं है कि कर्म पर लोगों का विश्वास नहीं था या कम हो गया था। प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास आदिकाल से प्रचलित रहे हैं, किंतु इस काल में शिव-पार्वती की लोकप्रियता के कारण बेलपत्र को अधिक महत्त्व मिला था। नारियों का विश्वास था कि पार्वती की पूजा से अभीष्ट वह की प्राप्ति होती है।[9] इसी से संबद्ध बेलपत्र भी लोकमान्य हो गया। कृषि-संबंधी विश्वास कुछ परम्परित थे और कुछ नये। खेती करने के पहले हल-बैल की पूजा, अमावस्या को हल-बैल न चलाना, खेती के ओले, पाला आदि से बचाने के लिए पूजा करना आदि लोकविश्वास प्रचलित थे। नाग-संबंधी विश्वास इस समय तक बहुत लोकप्रिय हो चुके थे। दसवीं-ग्यारहवीं शती में निर्मित मंदिरों से जूड़ी नागसंबंधी किंवदंतियों में इन विश्वासों की भूमिका स्पष्ट है। आक्र्येल्याजिकल सर्वे रिपोट्र्स में उद्धृत इन किंवदंतियों से यह लोकविश्वास भी विशिष्ट बन जाता है कि मंदिर के निर्माण से व्यक्ति रोग-शोक से मुक्त हो जाता है।
कभी-कभी कोई लोकविश्वास स्थानीय इतीहास से जुड़ जाता है। महोबा में यह लोकप्रचलित है कि वहाँ कोई नगाड़ा (यद्ध का) नहीं बजाता। अगर बजाता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता है। इसी तरह चंदेलों के किलों के संबंध में यह लोकविश्वास है कि उनमें धन गड़ा हुआ है। अजयगढ़ दुर्ग के द्वार पर एक बीजक खुदा हुआ है। हर स्थान या नगर में कोई-न-कोई वृक्ष, सरोवर, भवन, वापी, मढिया आदि होता है, जिसमें भूत-प्रेत का निवास बताया जाता है। जादू-टोने, भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र-संबंधी विश्वास इस समय हर वर्ग में थे।[10] मंत्रों के बल से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।[11] आँखों में अंजन विशेष लगाने और आपत्तियों से बचने के लिए तंत्र-मंत्र और ज्योतिष का उल्लेख हुआ है। दिबारी, देवीगीत, राछरों जैसे आदिकालीन लोकगीतों और 'आल्हा' लोकगाथाओं में लोकविश्वासों को काफी महत्त्व मिला है। दुष्कर्म करने से मनुष्य अपने आप मर जाता है। इस संसार में कोई बचता नहीं हे, सभी नश्वर हैं। 'बाहें और नैन फड़कने से शुभ होता है।', 'धान बोने से बहन धनी होती है और दूध सींचने से ननद पुत्रवती होती है।', 'तथा शकुनापशकुन अपना फल अवश्य देते हैं।'[12]

तोमर काल

तोमरनरेशों के समय इस अंचल पर आक्रमणों की दृष्टि लगी हुई थी, अतएव ऐसे लोकविश्वासों का सतत् जागरण जरुरी था, जो लोक और लोकसंस्कृति को शक्तिसंपन्न बनाते। तत्कालीन काव्य-ग्रंथों और ऐतिहासिक प्रमाणों तथा लोकगीतों से पता चलता है कि उस समय लोक में शौर्य, कर्म, सतीत्व और प्रेम-संबंधी लोकविश्वास प्रमुख थे। विदेशी संस्कृति की तलवार से बचने के लिए दो मार्ग ही थे-एक युद्ध और दूसरा प्रेम। कविवर विष्णुदास के महाभारत से स्पष्ट है कि लोगों का विश्वास क्षात्र धर्म का पालन था। अगर क्षत्रिय शत्रुओं को देखकर भागता है, तो सात पीढ़ीयों केर पूर्वज लज्जित होते हैं। पृथ्वी पर उसे न तो नाम मिलता है और न गति।[13] मोक्ष पाने के लिए क्षत्रिय (सैनिक या वीर) रणक्षेत्र में जूझता है, राजा दान देने में कृपणता नहीं दिखाता और विप्र अपने मन में जीवों पर दया रखता है।[14] कवि ने सीता से कहलाया है-

       ध्रिगु रे ध्रिगु मानुस कौ जन्म। ध्रिगु जु बंस जिहि होत अकम्र्म।।
       ध्रिगु जीवन जो परबस रहै। दुक्ख बियापै सीता कहै।।

उस जीवन को धिक्कार है, जो परतंत्र होता है। सिद्ध है कि कवि लोकविश्वास को कथा के माध्यम से व्यक्त करता है और तत्कालीन लोकचेतना का प्रतिबिम्बन करता है। सारी परिस्थिति के ध्यान में रखकर ही उसने कथाकाव्य चुना है और कथा का फल बताते हुए कथा सुनने की अनिवार्यता प्रमाणित की है। कथा सुनने से पाप नष्ट होता है, मन और बुद्धि स्थिर होते हैं, युद्ध में पराजय नहीं होती और तीर्थ-स्नान का फल मिलता है। 'सत्त' और 'पत' उस समय के लोकजीवन के केन्द्रीय मंत्र थे। 'सत्त' और 'पत' से संबंधित अनेक लोकविश्वास हैं। देवता और देवी में सत्त होता है। पुरुष सत्त पर टिका रहता है। नारी में सत्त होता है, तभी वह सती होती है। नारी अपनी पत की रक्षा सबकुछ देकर करती है। कुल की पत, राज की पत, देस की पत की रक्षा करना सबका धर्म है। लोगों को विश्वास था कि कर्म भगवान् भी नहीं मिटा सकता। जो होना है, वह होकर रहेगा। विधना ने सुख और दु:ख मस्तक पर लिख दिये हैं।[15] इस रूप में कर्मफल और भाग्य पर विश्वास की परम्परा अमर रही है असल में, कर्म और भाग्य लोकसंस्कृति के खाते में पूरक रहे हैं। कीर्ति भी हर युग में प्यारी रही है। इस युग में भी कीर्ति के बिना जीवन कीर व्यर्थता सिद्ध की गयी है। लोगों का विश्वास था कि युद्ध और दान के बिना कीर्ति नहीं मिलती।[16] ज्योतिष और शकुनापशकुन पर विश्वास भी प्रबल था। स्वर्ग और नरक के माप भी निश्चित थे। पुत्र के बिना नरक से उद्धार नहीं होता और पूर्वज मोक्ष नहीं पाते।[17] धरती के संबंध में लोकमान्यता थी कि नाग (शेषनाग) के सिर (फन) पर धरती टिकी हुई है।[18] मंत्र और टोना-टोटका पर लोक का विश्वास अभी तक बना था।[19] वर्जनाएँ भी लोकविश्वास की संपुष्टि करती हैं। विष्णुदास कृत महाभारत में पूरे घत्ते की चौपाई वर्जनाओं से भरी हैं। उनमें कुछ ऐसी हैं जो नीतिपरक हैं, परंतु कुछ रूढियों के प्रति विद्रोही भूमिका अदा करती हुई स्वच्छंद हैं जैसे-

               बिनसै धर्म कियें पाखंड
               बिनसै बैदु सुरा-रस भीनें।
               बिनसै कला कुठाकुर सेवा।

इन तीनों अर्द्धालियों में जिन लोकविश्वासों का उल्लेख किया गया है, वे क्रांतिकारी हैं। पाखंड करने से धर्म नष्ट होता है और शराब में भीगने से वेद या वेदों का ज्ञान नष्ट होता है। ये दोनों धर्म के क्षेत्र में क्रांतिस्त्रष्टा विश्वास हैं जबकि 'कुस्वामी या बुरे आश्रयदाता की सेवा करने से कला नष्ट होती है' जैसा लोकविश्वास कला की दिशा में सार्थक पहल करता हुआ नया द्वार खोलता है।

बुंदेल काल

मध्यकाल में या तो बुंदेलों कार शासन रहा है या गोंड़ों का। इस कारण गोंड़ों में प्रचलित लोकविश्वासों का प्रभाव इस अंचल पर अधिक रहा है। गोंड़ चंदेलों के समय और उनके पूर्व भी रहे हैं। गोड़ों की गढियाँ पूरे अंचल में फैली हुई हैं, उनके अवशेष आज तक वर्तमान हैं। फिर गढ़-मंडला के गोंड़ सत्ता में रहे हैं। इसलिए उनके विश्वास इस अंचल के विश्वासों के साथ हिल-मिलकर आगे बढ़े हैं। गोंड़ों में रजस्वला स्री पाँच दिन तक घर के बाहर ही रखी जाती है। उसकी छाया पड़ना ही खराब माना जाता है। छुआछूत की यह मान्यता हमारे परिवारों में कुछ परिवर्तन के साथ आज तक जीवित है। भूत-प्रेतों पर गोंड़ों का विश्वास दृढ़ है, क्योंकि उनके कुपित होने पर मनुष्यों पर आपत्तियाँ आती हैं-आज भी लोक में यह विश्वास प्रचलित है। मूर्तिपूजा की कल्पना इस अंचल में गोंड़ों से आई थी, जो आज हिंदुओं के धार्मिक लोकविश्वासों की धुरी है। भक्ति आंदोलन की लहर इस अंचल के लोकविश्वासों में एक नया परिवर्तन अंकित करती है। भक्तिपरक लोकविश्वास तो बहुत पहले से मौजूद थे, लेकिन सीताराम और राधेश्याम की लीलाओं ने उनकी भावना को अधिक व्यापक और गहरा बना दिया था। लोकगीतों में राम-कृष्ण और सीता-राधा का नायकत्व लोकमय होकर लोक से इतना जूड़ चुका था कि हर पुरुष राम-कृष्ण और हर स्त्री सीता-राधा हो गयी थी। इस तरह लोकसंस्कृति की रक्षा के लिए एक नया आत्मविश्वास और नयी ऊर्जा का द्वार खुल गया। अंतर केवल इतना था कि लोकभक्ति संप्रदायमुक्त और निरपेक्ष थी। वह संपूर्ण लोक की थी, इसलिए लोक की शक्ति बनी। दूसरे, उससे हिंदू-मुस्लिम और नीची जातियों की भेद-भावविहीन एकता का सूत्रपात हुआ। तोमरकालीन ग्रंथ 'छिताई चरित' में कथाकार ने इस एकता के भाव का स्पष्ट संकेत किया था, और उसी परंपरा में लोकभक्ति से संबंद्ध लोकविश्वास ढल गये। जात-पाँत पूँछे न कोई, हरि को भजै सो हरि को होई (जाति-पाँति कोई नहीं पूछता, जो भगवान् को भजता है, वह उसी का हो जाता है), राम भरोसें खेती (सब राम का भरोसा है), राम भरोसे जे रहें परबत पै हरयायँ (जो राम के भरोसे रहते हैं, वे पर्वत पर भी हरे रहते हैं यानी कि विषम परिस्थिति में भी सुखी रहते हैं), राम राखे कोऊ न चाखे (राम रखवाला है, तो कोई क्या बिगाड़ सकता है) आदि विश्वास कहावतों के रूप में इसलिए प्रचलित हुए कि वे लोक द्वारा लोकजीवन के प्रमुख सूत्र बन चुके थे।
तोमरों के पतन के बाद इस अंचल की ऐतिहासिक घटना थी आजादी की लड़ाई, जो चंपतराय और छत्रसाल द्वारा लड़ी गयी। असल में, मुगलों के आक्रमण निरंतर होते रहने के कारण बुंदेलखंड की कुछ रियासतें आत्म-समपंण कर चुकी थीं और कुछ अधीन हो चुकी थीं। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष जरुरी था। अतएव शौर्यपरक लोकविश्वास भी 'परबत पर हरयाते' रहे इनके परिकर में क्षात्र-धर्म के पालन करने युद्ध में जूझने से स्वर्ग मिलता है, काल-गति जानी नहीं जाती, उद्यम का फल अवश्य मिलता है, भगवान जैसा करना चाहता है, वैसी ही बुद्धि कर देता है, रण के प्रयाण में ज्योतिष और शकुनों पर विश्वास, विपरीत स्थिति में अपशकुन, हर स्थिति में भाग्य या कर्म का फल आदि लोकविश्वास आते हैं, जो तत्कालीन ऐतिहासिक काव्यों में उल्लिखित हैं। आश्चर्य है कि मध्ययुग के सभी प्रमुख कवियों ने कुल, राज और हिंदुवाने की 'पत' (लाज या प्रतिष्ठा) रखने के लिए रण में जूझने और क्षात्रधर्म के पालन करने को प्रधानता दी है।
महोबा कौ रायसौ (1526 ई. के लगभग) में स्पष्ट है कि 'छत्रिय कौ यह धरम है, रन तिरथ तजि प्रान'। साथ ही सामुद्रिक (ज्योतिष) संबंधी लोकविश्वास यानी कि शुभ घड़ी में काम करना, शकुन और अपशकुन की मान्यता भी प्रमुख है।[20] तुलसी तो लोकविश्वासों के कोष थे। उन्होंने लोकविश्वासों की नींव पर अपनी मान्यताएँ खड़ी की हैं। दोहावली के दोहे लोकविश्वासों की शिलाओं पर कविता के ईंटगारे से बने स्तंभ हैं। संसार में काल किसको नहीं खाता अर्थात् संसार की हर वस्तु नश्वर है, इस लोकविश्वास को तुलसी ने लोकशैली से काव्यात्मक बना दिया है-

    काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ।
    का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ।।

यह दोहा लोककाव्य में भी आ गया है, पर इसके सभी प्रश्नों के उत्तरों के लिए एक दूसरा दोहा रच दिया गया है। तुलसी के दोहे लोकविश्वासों की तरह कहे जाते हैं- 'भलो भलाई पै लहै, लहै निचाई नीच', 'जड़-चेतन गुन-दोष मय वि कीन्ह करतार', 'तुलसी जसि भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय। आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय।।' और 'मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक। पालै-पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।।'
तुलसी भक्त कवि थे, इसलिए उन्होंने लोकविश्वास से लाभ लेकर भक्ति करने को कहा था। लोकविश्वास है कि मानव का शरीर मिलना दुर्लभ है, अतएव तुलसी ने उसे कारण बनाकर अपने कार्य की पुष्टि कर दी है-"दुर्लभ देह पाइ हरीपद भज करम वचन अरु ही ते।" रामचरितमानस में जहाँ सामान्य लोकविश्वासों का वर्णन है, जैसे 'होईहै वही, जो राम रचि राखा', 'जे न मित्र-दु:ख होहिं दुखारी, तिनहिं बिलोकत पातक भारी ।।' आदि, वहाँ कुछ विशिष्ट लोकविश्वासों का भी, जैसे 'भानु पी', सेइय उर आगी' (धूप को पिछे से और आग को आगे से सेवन करना लाभप्रद है) और 'श्रीखंड समपावक प्रबेस कियो, सुमिरि प्रभु, मैथिली।' (अग्नि-परीक्षा)। अग्नि-परीक्षा तो एक अभीप्राय है, एक कथानक-रुढि है, लेकिन तुलसी ने उसे अग्नि में प्रवेश करते हुए बताया है। ऐसा लोकविश्वास था कि अग्नि-परीक्षा में अग्नि जलाकर उसमें प्रवेश कर अक्षत निकल आना ही सफलता है और तुलसी ने बिल्कुल वैसा ही प्रसंग लंकाकांड में बुन दिया है। शकुनापशकुन, भूत-प्रेत, जादू-मंत्र, टोना-टोटके जैसे विश्वास भी तुलसी के परिचित थे। दोहावली में तो कवि ज्योतिषी हो जाता है। कौन-से नक्षत्र शुभ हैं, कौन-सी तिथियाँ अशुभ हैं, कौन-सा चंद्र घातक है और सिन वस्तुओं का दर्शन शुभ है।[21] रामचरितमानस में उस जादू के अंजन का उल्लेख है, जिसे आँखों में लगाने से धरती के नीचे गड़ा धन देख लेते हैं।[22]
केशव जैसे रीतिकवि ने उस समय की परिस्थितियाँ तौलकर यह लिखा था कि रण में जूझने वाले संसार-समुद्र से पार होकर सूरज-मंडल भेदकर स्वर्ग पहुँचते हैं। उनके पग-पग पर यज्ञों का फल होता है और उनकी कथा सुनकर लोक शुद्ध होता है।[23] केशव ने तुलसी की तरह लोक का प्रयोग अनेक बार किया है। 'जनपद' शब्द भी आया है, इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने लोक और लोकजीवन को करीब से देखा था। रतन-बावनी में 'पत' (पति पाठ सही नहीं है)-संबंधी विश्वास पर अच्छी चर्चा है। 'जहाँगीर जस-चंद्रिका' में भग्य और कर्म-संबंधी प्रचलित लोकविश्वास को वाणी दी है-'करम फलै उद्दिम करें उद्दिम करमहिं पाइ' (कर्म करने से भाग्य फलता है और भाग्य से कर्म)।[24]
प्रेमाख्यानकों में लोकसंस्कृति की धरोहर को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति अधिक बलवती होती है। हरिसेवक मिश्र (1698-1735 ई.) की रचना 'कामरूप की कथा' एव बोधा के 'विरहवारीश' (1755 ई.) में लोकविश्वासों की परम्परा का विकास मिलता है। उनमें प्रेम-संबंधी लोकविश्वासों की प्रमुखता है। प्रेम का पथ कराल है, तलवार की धार पर दौड़ने की तरह। चकोर सुधाधर के प्रम में अंगार खा लेती है। कमल और सूर्य, मृग और राग, मछली और जल, स्वाँति और चातक, चुंबक और लोहा तथा हारिल और लकड़ी के प्रेम के विश्वास[25] कब से प्रचलित हुए, खोज का विषय है। दूसरे परम्परित लोकविश्वास हैं-कर्म का फल भोगना पड़ता है; संसार में भावी प्रबल है, भाल में सब लिख दिया जाता है, वही होता है; पारस के स्पर्श से सोना होना; धरा शेषनाग के सीस पर स्थित है; भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, मूठ, शकुन-अपशकुन आदि।[26] 'छत्रप्रकास' और 'जगतराज की दिग्विजय' की रचना 18वीं शती के प्रथम चरण में हुई थी और दोनों बुंदेलखंड के इतिहास-ग्रंथ हैं। दूसरे, छत्रसाल और जगतराज के पत्र हैं, जो प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। धामी संप्रदाय का पवित्र ग्रंथ कुलजमस्वरूप भी तत्कालीन विश्वासों में उद्वेलन पैदा करता है। इन प्रमाणों के आधार पर लोकविश्वासों का एक चित्र बनता है, जिससे उस समय की संस्कृति का पता चलता है। पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से 'छत्रप्रकास' का कवि राष्ट्रीय और अराष्ट्रीय तत्त्वों की शत्रुता के विश्वास को स्पष्ट करता है। सुर और असुर के बैर[27] और संघर्ष का लोकविश्वास परम्परित है और मध्ययुग के अनेक ग्रंथों में इसी के प्रतीक द्वारा राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। इस संघर्षी वीरता के पीछे छत्रसाल की परमात्मा पर आस्था थी। उनका विश्वास था कि हर बात भगवान् की इच्छा से ही होती है। परमेश्वर ने जो बना दी, उसे कोई नहीं मिटा सकता। लोकिन 'उद्यम' (कर्म) का फल सबको मिलता है। इस लोकविश्वास का पुष्ट रूप छत्रप्रकास की इन पंक्तियों में मिलता है-

"जो जैसो उद्यम करै, सो तैसो फल लेइ।"
"उद्यम करै संग सब लागै। उद्यम तें जग में जस जागै।।
समुद उतर उद्यम में जइये। उद्यम तें परमेसुर पइये।।"

कर्म से कीर्ति मिलती है। समुद्र भी कर्म से पार किया जा सकता है और यहाँ तक कि परमेश्वर की प्राप्ति कर्म से ही होती है। 'कुलजमस्वरूप' में भी यह लोकविश्वास प्रधान है। लेकिन उसमें हिंदुओं और मुसलमानों के अंधविश्वासों की आलोचना है। मूर्तिपूजा भी अंधविश्वास है। छत्रसाल और तत्कालीन लोक ने इसे मान्यता नहीं दी। 'पन्ना' में सुरक्षित पत्रों से ज्ञात होता है कि छत्रसाल का विश्वास जादू-टोना पर था। उन्हों स्वप्नों में देवी-देवता के दर्शन होते थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए वे बलि भी चढ़ाते थे।[28] 'छत्रप्रकाश' में 'निधि अंजन' के प्रयोग से स्पष्ट है कि उस समय लोगों का विश्वास था कि सिद्ध अंजन लगाने से भूमि में गड़ी संपत्ति दिखाई देने लगती है।[29] इनके साथ-साथ परस्वार्थ और लोकहित को पुण्य और निजी स्वार्थ को पाप समझा जाता था, जिससे उस समय के लोक की मानसिकता प्रकट होती है- 'निज स्वारथ सो पाप नहिं, परस्वारथ सो पुन्न।' और 'काऊ की लटी न चाहै और न लटी करै।' (लटीउबुराई)। 'जगातराज-दिग्विजय' में तीन विचित्र लोकविश्वासों का वर्णन है। पहला यह है, कि राजा जो करता है, वह न्याय है-'राजा करहि सुन्याय है पाँसौ परहि सुदाँव।' बुंदेली कहावत है-'पंडित पढ़ै सो ब्याव, राजा कबै सो न्याय।' पंड़ित मंत्रों के रूप में कुछ भी पढ़े, वह विवाह माना जाता है। इसी प्रकार राजा जो भी निर्णय करे वही न्याय है। दूसरा एक स्वप्न है जिसमें दलेल शरीर में तेल लगाये, लाल फूलों की माला पहने हुए अन्न खा रहा है और प्रेतों की बरात साथ है। लोगों का विश्वास है कि इस स्वप्न से प्राणहानि होती है। तीसरा यह है कि विप्र का क्रोध एक क्षण, क्षत्रिय का तीन दिन, वैश्य का एक माह और शूद्र का हमेशा रहता है।[30]

       विप्र क्रोध क्षण एक बखानौ। क्षत्रिय क्रोध तीन दिन जानौ।।
       वैश्य क्रोध इक मास प्रजंता। शूद्र क्रोध कौ आदि न अंता।।

19वीं शती में भी होनहार की प्रबलता, कर्मफल की अनिवार्यता, लोकयश की ममता, सतीत्व की महत्ता, शकुनापशकुन और टोना-टोटका की व्याप्ति जैसे लोकविश्वास परम्परा से चले आये हैं।[31] 1842 ई. के पारीछत और अंग्रेजों के युद्ध के बाद कई कटककाव्य लिखे गए, जिनमें छोटे-छोटे युद्धों के वर्णन लोकछदों और लोकशैली में हैं। उनमें छात्रधर्म और कर्म तथा सत और पत-संबंधी लोकविश्वासों की महत्ता इसलिए मिली है कि वे आजादी की पहली लड़ाई की तैयारी में लोक को जाग्रत करें।
1857 ई. के स्वतंत्रता-संग्राम में मिली असफलता के फलस्वरूप लोकविश्वासों में गिरावट-सी दिखाई पड़ती है। फागसम्राद् ईसुरी निराशा-भरे स्वर में कह उठता है-'बखरी रैयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की।' उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में लोककाव्य का पुनरुत्थान हुआ था, इस कारण लोकविश्वासों का भी सहज सम्मान हुआ। ईसुरी की फागों में व्यक्त लोकविश्वास हैं-धर्म के बिना कर्म नहीं खुलता, योग से व्यक्ति विमान पर चढ़कर स्वर्ग जाते है, ब्रह्मा ने उन्हीं के लिए बैकुंठ की रचना की है, गंगा स्नान से मोक्ष मिलता है, इस तन का भरोसा नहीं है और एक दिन सभी को मरना है, यह संसार ओस की बूँद है, जो हवा के चलने से ढुलक जाती है, मानव बड़े भाग्य से होता है, जो विधाता ने लिख दिया है वही होता है, धर्मराज पाप-पुण्य का खाता रखता है, होतव्यता पर किसी का वश नहीं है, समरभूमि में लड़ते हुए प्राण देने पर मनुष्य का यश गंगाजी के यश की तरह होता है, न लगना, टोटका-टोना, राई-नौन उतारने से उपचार, गुनियाँ और नावते द्वारा जंत्र-मंत्र से झाड़-फूँक करना। इनसे स्पष्ट है कि 19वीं शती के अंतिम चरण में भी लोगों का विश्वास धर्म और तंत्र-मंत्र पर केंद्रित था। मध्ययुगीन लोककथाओं में भी 'इस देह का कोई ठिकाना नहीं है, करनी का फल मिलता है, भाग्य बलवान है, पूर्वजन्म के संचित कर्म फलित होते हैं, पुनर्जन्म होता है, परकाय-प्रवेश होता है, बलि से तालाब में जल भर जाता है, मंदिर और तालाब बनवाना पुण्य का काम है, पर्वस्थान का फल मिलता है, पेट ही सब करवाता है, पसीने की कमाई उत्तम होती है, नारी का हाथ पकड़ने से पती हो जाता है, नौलखा हार की रखवाली नागिन करती है, जन्मपत्री मिलाना और ज्योतिष से शुभ-अशुभ की जाँच, खाना खाने के पहले आगे देना अशुभ है' आदि लोकविश्वास अपने आप आ गए हैं। उनसे मध्ययुग की नाड़ी का निदान संभव है।
मध्ययुगीन लोकगाथाएँ वीररसपरक, प्रेमपरक और नीति या धर्मपरक रही हैं। वीर-रसपरक गाथाओं में मनोगूजरी, मथुरावली, लक्ष्मीबाई, लोहागढ़, धनसिंह आदि की गाथाएँ हैं, जिनमें क्षात्र धर्म और शकुनापशकुन-संबंधी लोकविश्वास प्रयुक्त हुए हैं। 'पत' रखने और 'सत्त' के लिए प्राण देने का लोकविश्वास मुख्य था, पर शकुनापशकुन की पंक्तियाँ फल या परिणाम को पहले से ही कह देती हैं। उदाहरण के लिए, 'छींकत घुड़ला (या बछेड़ा) पलाने अमन जू (या अन्य के साथ जू) बरजत भये असवार' से असफलता का संकेत मिल जाता है। राछरों में भी ये लोकविश्वास मिलते हैं। राछरों में क्षणभंगुरता की द्योतक दो पंक्तियाँ या साखी का प्रयोग अधिकतर हुआ है-'सदा तुरइया रे ना फूलै, सदा न सावन होय। सदा न राजा रन चढ़ै, सदा न जोबन होय।।' प्रेमपरक गाथाओं जैसे, सारंगा-सदाबृज, ढोला-मारु आदि में प्रेम, भाग्य, कर्म, ज्योतिष, जादू-मंत्र-संबंधी विश्वासों की भरमार है, जबकि धर्म-नीतिपरक गाथाओं में अवतार, सत्त, नीति, स्वर्ग-नरक, मानवयोनि, दया-प्रेम आदि संबंधी लोकविश्वास संग्रथित हैं। लोकगीतों में भी अनेक लोकविश्वासों की योजना हुई है। सुदिन, सुघरी और सगुन तो सुनिश्चित ही हैं। लमटेरा गीतों में एक-एक पंक्ति होती है, पर लोकविश्वास से जड़ित होकर वह कितनी सुंदर बन जाती है। इसका एक उदाहरण है-'मिलन खों बैयाँ फरकें रे, बैयाँ फरकें रे, दरस खों तरस रये दोऊ नैन रे...।' बाँहें और नैन के जोड़े से पंक्ति में संतुलन का सौंदर्य आ गया है। प्रथम अर्द्धपंक्ति में बाँहों का फड़कने का शकुन है और सात्त्विक कम्प भी। यह देह दुर्लभ है, भजन के बिना देह सूनी है, ईश्वर ही रचता है और मिटाता है, करम का लिखा कोई नहीं टाल सकता, हंस मोती चुगता है, प्रेम से ही प्रभु मिलते हैं, दान देने से स्वर्ग मिलता है, कोदों को दान में देने से नन्हें पति मिलते हैं, भौजी (भाभी) का हृदय कठोर होता है, बाँस आच्छादन करने से वंश बढ़ता है, पीपल में बरमदेव का वास है, हरदौल को निमंत्रण देने से विवाह में बाधा नहीं पड़ती, शुक संदेशवाहक है, मंत्र से रोग का उपचार होता है...आदि न जाने कितने लोकविश्वास लोकगीतों के भावों, विचारों और काव्यत्व को बल देते हैं। राई का उदाहरण देखें-

गोरी, हारै न जाव, गोरी हारै न जाव पीपर के पत्तन में देवता।
मोरी चुनरी के छोर, मोरी चुनरी के छोर, राजा करोंदन में बीद गये।

लोकविश्वास हे कि पीपल में देवता का वास है। पति कहता है कि जंगल न जाओ, वहाँ पीपल में देवता रहते हैं। अर्थात् घर पर रहो, ताकि वह प्रेम-क्रीड़ा कर सके। पत्नी भी चतुर है। अपनी चुनरी करोंदा में उलझी बताकर उसे पास बुलाना चाहती है। लोकविश्वास का उपयोग इस प्रकार करने से राई में काव्यत्व आ गया है। पुनर्जन्म में मनुष्य होंगे या नहीं, इस जन्म में मनुष्य की योनि बड़े भाग्य से मिली है, इस लोकविश्वास का सहारा लेकर ईसुरी कहता है-'मानुस होनें कै ना होनें, रजऊ बोल देव नौनें।'



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, 57/27
  2. (अंधकारयुगीन भारत, पृ. 104)
  3. जातक कथा सं. 74
  4. विष्णु पुराण, एच. एच. विल्सन, 1961 ई. पृ. 296
  5. रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 183 एवं गढ़ा सती अभिलेख सं. 1342
  6. अलबेरूनी का उद्धरण, चंदेल और उनका राजत्वकाल, केशवचंद्र मिश्र, पृ. 187
  7. प्रबोधचंद्रोदय, पृ. 97
  8. प्रबोधचंद्रोदय, पृ. 141
  9. रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 157
  10. रूपकषटकम् (रुक्मि.) पृ. 42 (त्रिपुर.) पृ. 103
  11. रूपकषटकम् (हास्य.) पृ. 136, 132
  12. ' बे नर आपऊ सें मर जात हैं कर कर खोटे काम रे ।' , ' दोई पाटन के बीच में साबत बचो न कोय रे ।', ' मिलन खाँ तो बहियाँ फरकें हों, बहियाँ फरकें हों, दरसन खों फरक रये दोउ नैन ।' , धान बओ, बीरन धान बओ बहन धनबंती होय, दूध सींचो भौजी दूध सींचो ननद पुतबंती होय ।' आदि ।
  13. महाभारत, पृ. 134 एवं 165
  14. रामायण-कथा, पृ. 68, छंद 30
  15. छिताईतरित, पृ. 37, छंद 250-51
  16. रामायण-कथा, पृ. 107, छंद 250-51
  17. रामायण-कथा, पृ. 49, छंद 85
  18. रामायण-कथा, पृ. 135, छंद 36
  19. महाभारत, पृ. 19, छंद 83-84, पृ. 104, छंद 48, पृ. 173
  20. परमाल रासो (महोबा कौ रायसौ), पृ. 285, छंद 15, पृ. 350, छंद 120 पृ. 181, छंद 483
  21. दोहावली, छंद 456, 457, 458, 459, 460
  22. बालकांड, दोहा संख्या 1
  23. केशव ग्रंथावली, खंड 3, वीर चरित्र, 31/16-18
  24. केशव ग्रंथावली, जहाँगीर-जस चंद्रिका, छंद 177-179
  25. विरहवारीश, बोधा, 1/30, 19/31-33
  26. कामरूप कथा, 5/31, 7/23, 15/78, 15/101, 5/79 एवं 91. 15/66 तथा विरहवारीश, 11/11, 19/6, 20/43, 20/53-54
  27. छत्रप्रकास (काशी सं.) 11/3
  28. डॉ. भगवान दास गुप्त की पुस्तक महाराज छत्रसाल बुंदेला, पृ. 142 में उद्धृत पन्ना, पत्र सं. 40, 61, 72, 75
  29. छत्रप्रकास, 11/15
  30. जगतराज की दिग्विजय, छंद 219, 261, 153
  31. सत्रजीत रायसौ, छंद 146; पारीछत कौ रायसौ, छंद 10; कृष्णचंद्रिका, पृ. 275; पारिछत कौ रायसौ, छंद 352-53; बाघाइट कौ राइसौ, छंद 97; लक्ष्मीबाई रायसौ 2/8, 24-25; कृष्णचंद्रिका 5/42-43

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