जूट

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सूखती हुई जूट

जूट अथवा पटसन आज मानव जीवन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो गया है। जूट शब्द संस्कृत के 'जटा' या 'जूट' से निकला समझा जाता है। यूरोप में 18वीं शताब्दी में सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग मिलता है, यद्यपि वहाँ इस द्रव्य का आयात 18वीं शताब्दी के पूर्व से 'पाट' के नाम से होता आ रहा था। विश्व में जूट उत्पादन करने वाले देशों में अविभाजित भारत का प्रायः एकाधिकार था, किन्तु विभाजन के फलस्वरूप इस परिस्थिति में अन्तर पड़ गया। जूट पैदा करने वाले पावना, बोगरा, मैमनसिंह, रंगपुर, मालदा, ढाका और फ़रीदपुर ज़िले बांग्लादेश[1] में चले गए। अब विश्व के उत्पादन का 40 प्रतिशत भारत और 50 प्रतिशत बांग्लादेश से प्राप्त होता है।

जूट के रेशे

जूट के रेशे दो प्रकार के जूट के पौधों से प्राप्त होते हैं। ये पौधे 'टिलिएसिई कुल' के 'कौरकोरस कैप्सुलैरिस' और 'कौरकोरस ओलिटोरियस' हैं और रेशे के लिये दोनों ही उगाए जाते हैं। पहले प्रकार की फ़सल कुल वार्षिक खेती के 3/4 भाग में और दूसरे प्रकार की फ़सल कुल खेती के शेष 1/4 भाग में होती है। इनके बीज से फ़सल उगाई जाती है। बीज के लिये पौधों को पूरा पकने दिया जाता है, पर रेशे के लिये पकने के पहले ही काट लिया जाता है। यह पौधे मुख्यत: भारत और पाकिस्तान में उपजाए जाते हैं।

कौरकोरस कैप्सुलैरिस

कैप्सुलैरिस कठोर होता है और इसकी खेती ऊँची तथा नीची दोनों प्रकार की भूमियों में होती है। कैप्सुलैरिस की पत्तियाँ गोल, बीज अंडाकार गहरे भूरे रंग के और रेशे सफ़ेद पर कुछ कमज़ोर होते हैं। कैप्सुलैरिस की किस्में फंदूक, घालेश्वरी, फूलेश्वरी, देसीहाट, बंबई डी 154 और आर 85 हैं।

कौरकोरस ओलिटोरियस

ओलिटोरियस की खेती केवल ऊँची भूमि में होती है। ओलिटोरियस की पत्तियाँ वर्तुल, सूच्याकार और बीज काले रंग के होते हैं और रेशे सुंदर सुदृढ़ पर कुछ फीके रंग के होते हैं। ओलिटोरियस की किस्में देसी, तोसाह, आरथू और चिनसुरा ग्रीन हैं।

उत्पादक देश

भारत में सर्वप्रथम प्रारम्भ होने वाला उद्योग जूट का ही था। देश के बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम और उत्तर प्रदेश के कुछ तराई वाले भागों में लगभग 16 लाख एकड़ भूमि में जूट की खेती होती है। इससे लगभग 38 लाख गाँठ[2] जूट पैदा होता है। उत्पादन का लगभग 67 प्रतिशत भारत में ही खपता है। 7 प्रतिशत किसानों के पास रह जाता है और शेष ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्राँस, इटली, और संयुक्त राज्य अमरीका को निर्यात होता है। अमरीका, मिस्र, ब्राज़ील, अफ़्रीका आदि अन्य देशों में इसके उपजाने की चेष्टाएँ की गईं, लेकिन भारत के जूट के सम्मुख वे अभी तक टिक नहीं सके।

भौगोलिक दशाएँ

जूट की खेती के लिए बहुत ही सावधानीपूर्वक हर कृषि-कर्म किया जाता है। इसकी खेती के लिए निम्नलिखित दशाओं का होना आवश्यक है-

जलवायु तथा तापमान

जूट की खेती गरम और नम जलवायु में होती है। इसकी खेती के लिए तापमान 25° से 35° सेंटीग्रेड और आपेक्षिक आर्द्रता 90 प्रतिशत होनी चाहिए। हल्की बलुई, डेल्टा की दोमट मिट्टी में खेती अच्छी होती है। इस दृष्टि से बंगाल की जलवायु इसके लिये सबसे अधिक उपयुक्त है।

जूट के पेड़

खेत की जुताई अच्छी होनी चाहिए। भूमि में प्रति एकड़ 50 से 100 मन गोबर की खाद या कंपोस्ट और 400 पाउंड लकड़ी या घास-पात की राख डाली जाती है। पुरानी मिट्टी में 30-60 पाउंड नाइट्रोजन दिया जा सकता है। कुछ नाइट्रोजन बोने के पहले और शेष बीजांकुरण के एक सप्ताह बाद देना चाहिए। पोटाश और चूने से भी लाभ होता है। नीची भूमि में फ़रवरी में और ऊँची भूमि में मार्च से जुलाई तक बोआई होती है। साधारणतया छिटक बोआई होती है। अब ड्रिल का भी उपयोग होने लगा है। प्रति एकड़ 6 से लेकर 10 पाउंड तक बीज लगता है।

वर्षा

बीज से अंकुर निकलने के दो तीन महीने के बाद पौधे को अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। अतः इसकी खेती 150 से 200 सेमी. या उससे भी अधिक वर्षा वाले भागों में की जाती है। 10 से 11 माह में इसकी फ़सल तैयार होती है, अतः खेतों में 6-7 माह तक पानी अधिक रहना चाहिए।

मिट्टी

जूट की खेती से भूमि बहुत अनुपजाऊ हो जाती है। इस कारण जूट की खेती उन्हीं स्थानों में की जाती है, जहाँ प्रतिवर्ष नदियाँ उपजाऊ मिट्टी लाकर बिछाती हैं। अतः पश्चिम बंगाल में डेल्टाई क्षेत्र में अधिक जूट पैदा किया जाता है। कांप एवं दोमट मिट्टी से यह खूब पैदा किया जाता है, किन्तु उसमें एकरूपता नहीं रहती।

श्रम

जूट के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है, क्योंकि तैयार पौधों को काटने तथा बण्डल बनाने, पानी में सड़ाने एवं रेशे निकालने आदि के कार्यों के लिए अधिक मजदूर चाहिए होते हैं। इस कार्य के लिए पर्याप्त धन भी व्यय करना पड़ता है। इसीलिए यह ज़रूरी है कि इन समस्त कार्यों के लिए सस्ते मजदूरों को लाया जाए।

जूट की कृषि

पश्चिम बंगाल में जूट का उत्पादन अधिकतर नदियों के पुराने या नये कगारों पर उभरी हुई भूमि और बलुई किनारों पर किया जाता है। जूट के पौधों से रेशा प्राप्त करने के लिए इन्हें 20-25 दिन तक जल में भिगोकर सड़ाने के लिए रखना पड़ता है, अतः उत्तम और मीठे जल की भी आवश्यकता होती है। बाद में इसे पीटकर धोया जाता है और फिर बण्डल को सुखाकर उससे रेशे को अलग कर लिया जाता है। भारत में जूट का उत्पादन पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम आदि राज्यों तक ही सीमित हैं, क्योंकि यहाँ गंगा, महानदी और ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा लायी हुई उपजाऊ मिट्टी मिलती है और बाढ़ के साथ बदलते रहने से इसकी उपजाऊ मिट्टी का ह्रास नहीं होता। अतः बिना खाद दिए इन राज्यों में जूट की खेती की जाती है। इसके पौधे की लम्बाई 3 से 3.5 मीटर तक होती है।

बुवाई तथा कटाई

इसकी खेती उस उभरी हुई भूमि पर होती है, जो नदियों के पुराने या नये कगारों के कारण बन जाती है। गर्तों में धान और जूट को बारी-बारी से बोते हैं। पश्चिम बंगाल में भूमि के ऊंचे-नीचे होने पर ही जूट बोने का समय निर्भर रहता है। निम्न भूमियों पर फ़रवरी से मार्च तक तथा उच्च भूमि पर मार्च से जून तक जूट की बुवाई की जाती है। जो फ़सल सबसे पहले बोई जाती है, उसी को पहले काटा जाता है। वैसे सभी प्रकार की फ़सल के लिए कटाई अगस्त से सितम्बर तक की जाती है। फूल झर जाने तथा फली निकल आने पर ही फ़सल काटनी चाहिए, अन्यथा देर करने से पछेती कटाई से रेशे मज़बूत, पर भद्दे और मोटे हो जाते हैं और उनमें चमक नहीं होती। बहुत अगेती कटाई से पैदावार कम और रेशे कमज़ोर होते हैं।

जूट निकालना

कटाई के समय भूमि की सतह से पौधे काट लिए जाते हैं। कहीं-कहीं पौधे आमूल उखाड़ लिए जाते हैं। ऐसी कटी फ़सल को दो तीन दिन सूखी ज़मीन में छोड़ देते हैं, जिससे पत्तियाँ सूखकर या सड़कर गिर पड़ती हैं। तब डंठलों को गरों में बाँधकर पत्तों, घास-पातों, मिट्टी आदि से ढँककर छोड़ देते हैं।

जूट को धोते किसान

फिर गरों से कचरा हटाकर उनकी शाखादार चोटियों को काटकर निकाल लेते हैं। अब पौधे गलाए जाते हैं। गलाने के काम में दो दिन से लेकर एक मास तक का समय लग सकता है। यह बहुत कुछ वायुमण्डल के ताप और पानी की प्रकृति पर निर्भर करता है। गलने का काम कैसा चल रहा है, इसकी प्रारंभ में प्रतिदिन जाँच करते रहते हैं। जब देखते है कि डंठल से रेशे बड़ी सरलता से निकाले जा सकते हैं, तब डंठल को पानी से निकालकर रेशे अलग करते और धोकर सुखाते हैं। रेशा निकालने वाला पानी में खड़ा रहकर, डंठल का एक मूठा लेकर जड़ के निकट वाले छोर को छानी या मुँगरी से मार-मारकर समस्त डंठल छील लेता है। रेशा या डंठल टूटना नहीं चाहिए। अब वह उसे सिर के चारों ओर घुमाकर पानी की सतह पर पट रखकर, रेशे को अपनी ओर खींचकर, अपद्रव्यों को धोकर और काले धब्बों को चुनकर निकाल देता है। अब उसका पानी निचोड़ कर धूप में सूखने के लिये उसे हवा में टाँग देता है। रेशों की पूलियाँ बाँधकर जूट प्रेस में भेजी जाती हैं, जहाँ उन्हें अलग-अलग विलगाकर द्रवचालित दाब में दबाकर गाँठ बनाते हैं। डंठलों में 4.5 से 7.5 प्रतिशत रेशा रहता है।

प्रकार

भारत में दो प्रकार की जूट पैदा की जाती है। 'चीनी जूट' नदियों के उभरे हुए किनारों या नदी के द्वीपों में बोया जाता है। 'देशी जूट' मुख्य रूप से हलकी बलुई, डेल्टा की दुमट मिट्टी में बोया जाता है। भारत के अनेक भागों में ये दो प्रकार के जूट साथ-साथ उगते हैं। प्रथम प्रकार का जूट सफेदी लिए और चमकीला तथा अच्छा होता है। जूट का रेशा दो प्रकार के पौधों से प्राप्त किया जाता है। ये पौधे 'श्वेत जूट' और 'टोसा जूट' हैं।

आकार

जूट साधारणतया छह से लेकर दस फुट तक लंबे होते हैं, पर विशेष अवस्थाओं में 14 से लेकर 15 फुट तक लंबे पाए गए हैं। तुरंत का निकाला रेशा अधिक मज़बूत, अधिक चमकदार, अधिक कोमल और अधिक सफ़ेद होता है। इन गुणों को खुला रखने से इनका ह्रास होता है। जूट के रेशे का विरंजन कुछ सीमा तक हो सकता है, पर विरंजन से बिल्कुल सफ़ेद रेशा नहीं प्राप्त होता। रेशा आर्द्रताग्राही होता है। 6 से लेकर 23 प्रतिशत तक नमी रेशे में रह सकती है। जूट की पैदावार, फ़सल की किस्म, भूमि की उर्वरता, अंतरालन, काटने का समय आदि, अनेक बातों पर निर्भर करती है। कैप्सुलैरिस की पैदावार प्रति एकड़ 10-15 मन और ओलिटोरियस की 15-20 मन प्रति एकड़ होती है। अच्छी जुताई से प्रति एकड़ 30 मन तक पैदावार हो सकती है।

उत्पादन क्षेत्र

भारत में जूट की औसत उपज 2,194 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर है। यह बिहार में सबसे कम 1000 किलोग्राम एवं पश्चिम बंगाल में 1,400 व असम में 1,800 किलोग्राम तक होती है। जूट उत्पादन के क्षेत्र मुख्यतः गंगा, ब्रह्मपुत्र नदी के डेल्टा में पश्चिम बंगाल, बिहार असम तथा मेघालय में हैं। ये चारों राज्य मिलकर कुल जूट क्षेत्रफल के 94 प्रतिशत जूट बोते हैं। शेष उत्पादन उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा के तराई वाले भागों से प्राप्त होता है। देश के अन्य भागों में इसकी कृषि बहुत कम होती है। उत्तर-पश्चिमी भारत में वर्षा काल में 'सन' नामक अन्य रेशे वाली फ़सल पैदा की जाती है।

जूट की खेती दक्षिण की ओर गंगा के मुहाने के पास कम होती है, क्योंकि यहाँ भूमि इतनी नीची है कि जूट के लिए अनुपयुक्त है। पश्चिम में दक्षिणी पठार की ओर भी, जहाँ पथरीली भूमि अधिक है, जूट की खेती कम होती है। भारत में जूट के उत्पादन में पश्चिम बंगाल का प्रथम स्थान है। यहाँ देश की कुल उपज का 73.95 प्रतिशत जूट उत्पन्न होता है। दूसरा स्थान बिहार (13.02 प्रतिशत) तथा तीसरा असम (6.07 प्रतिशत) का हे। अन्य राज्य में उड़ीसा प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है।

जूट का जहाँ 1960-1961 में उत्पादन 41 लाख गांठे था, वह 2008-2009 में बढ़कर 96 लाख गांठ हो गया। इसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। पश्चिम बंगाल से भारत के उत्पादन का लगभग तीन चौथाई जूट प्राप्त किया जाता है, अर्थात जूट उत्पादन में इस राज्य का पहला स्थान है। मुर्शिदाबाद, प. दिनाजपुर, कूचबिहार, हुगली, चौबीस परगना, नादिया, जलपाईगुड़ी, मिदनापुर, बर्द्धमान और माल्दा ज़िलों की 85 प्रतिशत भूमि पर जूट बोया जाता है, जहाँ गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के द्वारा उपजाऊ कांप मिट्टी जमाई जाती है। तापमान 36° से 40° तक रहते हैं। आर्द्रता का प्रतिशत 70 से 90 प्रतिशत तक रहता है। वर्षा की मात्रा मानसून पूर्व के काल में 250 सेमी. और इसके उपरान्त के काल में 2500 सेमी. तक हो जाती है। इन्हीं परिस्थितियों के कारण जूट उत्पादन के लिए पश्चिम बंगाल एक आदर्श राज्य है। यहाँ देश के समस्त जूट के उत्पादन का 73.95 प्रतिशत उत्पादन होता है।

अन्य प्रमुख राज्य

असम में और सुरमा नदियों की घाटियों के कछार, धरांग, गोलपाड़ा, कामरूप, लखीमपुर, नवगांव, शिवसागर ज़िलों में जूट बोया जाता है। असम में देश का 6.07 प्रतिशत जूट उत्पादित होता है।

मेघालय में गारो, खासी, जयन्तिया पहाडि़यों, मिकिर और उत्तरी कछार की पहाडि़यों में जूट पैदा किया जाता है।

बिहार के मुख्य उत्पादक ज़िले तराई क्षेत्र से संलग्न हैं। चम्पारण, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, पूर्णिया, सारण, सहरसा, भागलपुर और मुंगेर, झारखण्ड के संथाल परगना में यह विशेष रूप से पैदा किया जाता है। बिहार में जूट की उपज के अन्तर्गत देश के जूट क्षेत्रफल का 17.1 कृषि क्षेत्र है तथा 13.02 प्रतिशत जूट उत्पन्न किया जाता है।

उड़ीसा में तटीय भागों में विशेषकर बोलंगिरि, पटना, घेनकनाल, गंजाम, कालाहांडी, क्योंझर, कोरापुट, बालासोर, कटक और पुरी ज़िलों में जूट बोया जाता है।

उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तथा सरयू और घाघरा नदियों के दोआबों में बहराइच, देवरिया, बाराबंकी, गोंडा, सीतापुर, लखीमपुर-खीरी, बिजनौर ज़िलों में जूट पैदा होता है।

जूट का उपयोग

जूट के रेशे से बोरे, हेसियन तथा पैंकिंग के कपड़े बनते हैं। कालीन, दरियाँ, परदे, घरों की सजावट के सामान, अस्तर और रस्सियाँ भी बनती हैं। डंठल जलाने के काम आता है और उससे बारूद के कोयले भी बनाए जा सकते हैं। डंठल का कोयला बारूद के लिये अच्छा होता है। डंठल से लुगदी भी प्राप्त होती है, जो काग़ज़ बनाने के काम आ सकती है।

व्यापार

विभाजन के फलस्वरूप भारत में जूट की कमी अनुभव होने लगी, क्योंकि जूट उत्पादक क्षेत्रों का 73 प्रतिशत तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को चला गया, जबकि जूट के प्रायः सभी कारखाने भारत में ही रहे। अतः जूट की कमी को पूरा करने के लिए इसका उत्पादन बढ़ाया जाता रहा। इसके लिए घाघरा, सरयू, तापी, महानदी आदि घाटियों और समुद्रतटीय क्षेत्रों तथा तराई प्रदेश में जूट का उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों में सफलता मिली है। फिर भी अभी बांग्लादेश से जूट का आयात किया जाता है। आवश्यकता के अनुरूप कुछ जूट बांग्लादेश, फिलीपाइन्स, ब्राजील आदि देशों से भी आयात किया जाता है। भारत से बहुत ही अल्प मात्रा में कच्चे जूट का निर्यात संयुक्त राज्य अमरीका, इंग्लैण्ड, सोवियत रूस, अरब गणराज्य, आस्ट्रेलिया को किया जाता है। भारत जूट से बने पदार्थो का निर्यात करता है। वर्ष 1990-1991 में 2.2 लाख टन जूट से बने माल का निर्यात किया गया, जिसका मूल्य 298 करोड़ रुपये था। 2008-2009 में देश से 1,279 करोड़ रुपये का जूट निर्मित माल का निर्यात किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान
  2. एक गाँठ का भाब्रिटेनर 400 पाउंड

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