कुलांदेई फ्रांसिस
कुलांदेई फ्रांसिस (अंग्रेज़ी: Kulandei Francis, जन्म- 1946, ज़िला सलेम, तमिलनाडु) सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्हें 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' से सम्मानित किया गया है। इनके प्रयास से हजारों महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत होने और अपना परिवार चलाने में सक्षम हुईं।
परिचय
कुलांदेई फ्रांसिस का जन्म सन 1946 में भारतीय राज्य तमिलनाडु के सलेम ज़िले में हुआ था। इनके माता-पिता कृषि मजदूर थे और परिवार बेहद गरीब था। उनका अब तक का सफर काफी उतार-चढ़ाव का रहा है। खेतिहर मजदूर के घर जन्मे कुलांदेई अपने परिवार के एकमात्र ऐसे सदस्य हैं, जिन्होंने स्नातक की डिगरी हासिल की। उन्होंने अन्नामलाई विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। उनकी यह शिक्षा भी कर्ज लेकर पूरी हुई। स्नातक के बाद नौकरी करने के बजाय भूख, त्रासदी और प्रवास से जूझ रहे लोगों के लिए उन्होंने कुछ करने की ठानी और जुड़ गए बंगलुरु की 'होली क्रॉस सोसाइटी' से। कुलांदेई बताते हैं कि-
"घने जंगलों में 20-20 किलोमीटर तक जाकर संगठन का काम करना, वह भी दुर्गम रास्तों पर, आसान नहीं था। पर जब एक बार समाज सेवा का नजरिया स्पष्ट हो गया, तो इस सोसाइटी को छोड़कर मैंने तमिलनाडु के कृष्णागिरी से एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना की नींव रख दी।"
रेमन मैग्सेसे पुरस्कार
गरीबी से तपने वाले बचपन में सामाजिक बदलाव की कितनी भूख होती है, इसे कुलांदेई फ्रांसिस से बेहतर शायद ही कोई बयां कर पाए। विपन्नता की वजह से न जाने कितनी रात वह भूखे सोए होंगे, पर आज वह कई परिवारों की रोजी-रोटी का आधार बन चुके हैं। एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना के तहत सूखी धरती की प्यास बुझाने का काम हो, या फिर महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाना, कुलांदेई अपने मिशन में निर्लोभ भाव से लगे हुए हैं। पर अब यह 'अज्ञात' योद्धा विश्व प्रसिद्ध हो गया है। 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' विजेता कुलांदेई फ्रांसिस ने साबित किया है कि महानता की राह में गरीबी बाधक नहीं बन सकती। ग्रामीण जीवन की बदहाल दशा को बदलने के इसी जज्बे ने ही उन्हें उन छह शख्सियतों में शुमार किया, जिन्हें विश्व प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है।[1] 'रेमन मैग्सेसे फाउंडेशन' ने 2012 के पुरस्कार के विजेताओं का ऐलान करते हुए 65 साल के फ्रांकिस के बारे में कहा, "फ्रांसिस अपनी दूरदर्शी सोच और उत्साह के लिए जाने जाते हैं। उनके कार्यक्रमों से ग्रामीण भारत में हजारों महिलाओं और उनके परिवारों का उत्थान हुआ है।"
योगदान
शुरुआत में कुलांदेई ने सूखे पर ध्यान लगाया। उनके ही प्रयास का नतीजा है कि आज कृष्णागिरी, धरमपुरी और वेल्लूर ज़िले में 300 से अधिक छोटे-छोटे बांध बने हैं। पर कुलांदेई की यह अंतिम मंजिल नहीं थी। 'सामुदायिक भावना में विश्वास बहाल करते हुए आर्थिक रूप से अधिकारसंपन्न बनाने के लिए' उन्हें काम करना था। बस महिलाओं के स्वयं सहायता समूह की नींव पड़ गई। आज 8,500 से अधिक ऐसे समूह यहां काम कर रहे हैं, जिससे लाखों परिवारों की महिलाएं जीविकोपार्जन कर रही हैं। ग्रामीण जीवन में इस 'मूक' परिवर्तन के अग्रणी कुलांदेई पुरस्कारों में यकीन नहीं रखते। बधाई वह स्वीकारते तो हैं, पर विनम्रता से कहते हैं कि स्थानीय लोगों को मेरा काम संतुष्ट कर रहा है, बस यही मेरा पुरस्कार है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैगसायसाय विजेता 'अज्ञात' योद्धा (हिंदी) amarujala.com। अभिगमन तिथि: 05 अक्टूबर, 2016।
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