भीष्माष्टमी

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भीष्माष्टमी का व्रत माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था। माघ शुक्लाष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्म पितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता जीवित ही क्यों न हों।

व्रत-विधि

इस दिन प्रातः नित्य कर्म से निवृत्त होकर यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर स्नान करें। अन्यथा घर पर ही विधिपूर्वक स्नान कर भीष्म पितामह के निमित्त हाथ में तिल, जल आदि लेकर अपसव्य (दाहिने कंधे पर जनेऊ करें, यज्ञोपवीत न हो तो उत्तरीय अर्थात् गमछे को दाहिने रखने का विधान है) और दक्षिणाभिमुख होकर निम्न मंत्रों से तर्पण करें-

वैयाघ्रपादगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।

गङ्गापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥ भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।

आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ॥

यह तर्पण दाहिने हाथ पर बने पितृतीर्थ द्वारा अंजलि देकर करें अर्थात् उपरोक्त मंत्रों को पढ़ते हुए तिल-कुश युक्त जल को तर्जनी और अंगूठे के मध्य भाग से होते हुए पात्र पर छोड़ें। इसके बाद पुनः सव्य (वापस पहले की तरह बायें कंधे पर जनेऊ कर लें) होकर निम्न मंत्र से गंगापुत्र भीष्म को अर्घ्य देना चाहिये[1]-

वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च । अर्घ्य ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे ॥

पौराणिक कथा

देवव्रत (भीष्म) हस्तिनापुर के राजा शांतनु की पटरानी गंगा की कोख से उत्पन्न हुए थे। एक समय की बात है। राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट के पार चले गए। वहां से लौटते वक्त उनकी भेंट हरिदास केवट की रूपवान पुत्री मत्स्यगंधा (सत्यवती) से हुई। शांतनु उसके लावण्य पर मोहित हो गए। राजा शान्तनु ने हरिदास से उसका अपने लिए हाथ माँगा, परन्तु हरिदास ने राजा के प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि "महाराज आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत आपके राज्य का उत्तराधिकारी है, यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा करें तो मैं तैयार हूँ।" शान्तनु ने इस बात को मानने से मना कर दिया, परन्तु वे मत्स्यगंधा को न भूला सके। उसकी याद में व्याकुल रहने लगे। एक दिन देवव्रत द्वारा उनसे उनकी व्याकुलता का कारण पूछने पर सारा वृतान्त पता चला। ज्ञान होने पर देवव्रत स्वयं केवट हरिदास के पास गये और गंगाजल हाथ में लेकर आजीवन अविवाहित रहने की शपथ ली। इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। उनका पूरा जीवन सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए व्यतीत हुआ। राजा शान्तनु ने देवव्रत से प्रसन्न होकर उसे इच्छित मृत्यु का वरदान दिया।

कौरव-पाण्डव युद्ध में दुर्योधन ने अपनी हार होती देख भीष्म पितामह पर सन्देह व्यक्त करते हुए कहा कि- "आप अधूरे मन से युद्ध कर रहे हैं। आपका मन पाण्डवों की ओर है। भीष्म यह सुनकर बड़े दुःखी हुए तथा "आज जौ हरिहि न शस्त्र गहाऊँ" ऐसी प्रतिज्ञा की। तत्पश्चात् घमासान युद्ध हुआ। भगवान श्रीकृष्ण को भीष्म प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को हाथ में उठाना पड़ा। भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा भंग होते ही भीष्म पितामह युद्ध बन्द करके शरशैया पर लेट गये। महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर जब सुर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हुए, तब भीष्म पितामह ने अपना शरीर त्याग दिया। इसलिए माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी उनकी पावन स्मृति में उत्सव के रूप में मनाते हैं।

महत्त्व

इस व्रत के करने से मनुष्य सुन्दर और गुणवान संतति प्राप्त करता है-

माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम् । श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः सन्ततिभागिनः ॥

महाभारत के अनुसार जो मनुष्य माघ शुक्ल अष्टमी को भीष्म के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसके वर्षभर के पाप नष्ट हो जाते हैं-

शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम् । संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भीष्माष्टमी पर करें भीष्म तर्पण (हिंदी) ourhindudharm.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 4 फ़रवरी, 2017।

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