कामिल बुल्के
कामिल बुल्के
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पूरा नाम | फ़ादर कामिल बुल्के |
जन्म | 1 सितम्बर, 1909 |
जन्म भूमि | बेल्जियम |
मृत्यु | 17 अगस्त, 1982 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | हिन्दी साहित्यकार तथा लेखक |
मुख्य रचनाएँ | 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास', 'अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश', 'मुक्तिदाता', 'नया विधान', 'हिन्दी-अंग्रेज़ी लघुकोश', 'बाइबिल' (हिन्दी अनुवाद)। |
विद्यालय | कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, यूवेन विश्वविद्यालय, यूरोप |
शिक्षा | इंजीनियरिंग, एम. ए., बी.ए. |
पुरस्कार-उपाधि | पद्म भूषण |
विशेष | फ़ादर कामिल बुल्के डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे। |
अन्य जानकारी | 1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की थी। वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत के नागरिक बनने के बाद वह स्वयं को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
फ़ादर कामिल बुल्के (अंग्रेज़ी: Camille Bulcke जन्म: 1 सितम्बर, 1909; मृत्यु: 17 अगस्त, 1982) बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिन्दी, तुलसीदास और वाल्मीकि के भक्त रहे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर 1909 को बेल्जियम की फ्लैंडर्स स्टेट के 'रम्सकपैले' गांव में हुआ था। 'यूवेन विश्वविद्यालय' से अभियांत्रिकी की शिक्षा समाप्त करने के बाद वह 1935 में भारत आए। सबसे पहले उन्होंने भारत का भ्रमण किया और भारत को अच्छी प्रकार से समझा। कुछ समय के लिए वह दार्जिलिंग में भी रहे और उसके बाद राँची और उसके बाद झारखंड के गुमला ज़िले के 'इग्नासियस विद्यालय' में गणित विषय का अध्यापन करने लगे। यहीं पर उन्होंने भारतीय भाषाएँ सीखनी प्रारम्भ कीं और उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वह बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है-
'मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।'
परिचय
फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ था। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला (वर्तमान में झारखंड में) में 5 वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वे बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है- "मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।"[1]
नाम का अर्थ
'कामिल' शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं। एक अर्थ है- 'वेदी-सेवक' और दूसरा अर्थ है- 'एक पुष्प का नाम।' फ़ादर कामिल बुल्के दोनों ही अर्थों को चरितार्थ करते थे। वे जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में 'वेदी-संन्यासी' थे और एक व्यक्ति के रूप में महकते हुए पुष्प। ऐसे पुष्प, जिसकी उपस्थिति सभी के मनों को खुशबू से भर देती है। मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' में लिखा है- "फूल मरै पर मरै न बासू।" यह पंक्ति फ़ादर कामिल बुल्के पर पूरी तरह सटीक बैठती है।[2]
हिन्दी ज्ञान
फ़ादर कामिल बुल्के ने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में 'विशारद' की परीक्षा 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन', प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की (1942-1944) थी। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में शोध किया, उनका शोध विषय था- 'रामकथा का विकास'। 1949 में ही वह 'सेंट जेवियर्स कॉलेज', राँची में हिन्दी व संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की। कामिल बुल्के सन 1950 में 'बिहार राष्ट्रभाषा परिषद' की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की 'केन्द्रीय हिन्दी समिति' के सदस्य रहे।
प्रेरणास्रोत 'डॉ. धीरेन्द्र वर्मा'
कामिल बुल्के लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में संस्कृत तथा हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे थे, लेकिन बाद में बहरेपन के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। बुल्के का अपने समय के हिन्दी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था।
"फ़ादर बुल्के तुलसी के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे। कॉलेज मंच पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा था- "संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अंग्रेज़ी नौकरानी है। पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता।"
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डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा 'एक इसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2' में लिखते हैं- "सन 1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया।" इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे। बुल्के जी अपने समय के प्रति सजग एवं सचेत थे। भारत और भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के, बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ईसा के परम भक्त थे। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की रामभक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। उनका कहना था[3]-
"जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिन्दी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है… जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।"
कामिल बुल्के और 'रामचरितमानस'
धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन के लिए बुल्के के पास दर्शन का ज्ञान था। वह भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने तुलसीदास के ग्रंथ रामचरित मानस को पढ़ा। वह रामचरित मानस से वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने रामचरित मानस का गहन अध्ययन किया। रामचरित मानस में उन्हें नैतिकता और व्यावहारिकता का आकर्षक समन्वय मिला। अत: उन्होंने अपने शोध का विषय 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' चुना। इस विषय पर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्राप्त की। उनका यह कार्य भारत के साथ ही विश्व में प्रकाशित हुआ और इसके बाद पूरा विश्व बुल्के को जानने लगा।
- उपलब्धि
बुल्के के द्वारा प्रस्तुत शोध की विशेषता थी कि यह मूलतः हिन्दी में प्रस्तुत किया गया पहला शोध प्रबंध है। फ़ादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फ़ादर बुल्के ने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया।
- भाषा ज्ञान
बुल्के बहु-भाषाविद् थे। वह अपनी मातृभाषा 'फ्लेमिश' के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे।
भारत की नागरिकता
1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत के नागरिक बनने के बाद वह स्वयं को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे।
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हिन्दी साहित्यानुरागी
गजेंद्र नारायण सिंह जो कि फ़ादर कामिल बुल्के के छात्र रहे, वे बताते हैं कि- "मैं संत जेवियर्स कॉलेज में दाखिल हुआ था तो एक दिन समय निकालकर फ़ादर बुल्के से मिलने गया। उनके कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए मैंने कहा- 'में आई कम इन फ़ादर।' मेरे इतना कहते ही दरवाज़ा खुला और एक अत्यंत ही शांत, सौम्य, साधु पुरुष गर्दन पर भागलपुरी सिल्क की चादर लपेटे हुए खड़ा था। उन्होंने धीरे से गम्भीर स्वर में कहा- "अभी दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए आपने किसी भाषा का व्यवहार किया? क्या आपकी अपनी कोई बोली या भाषा नहीं है? आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हैं, फिर भी विदेशी आंग्ल भाषा का व्यवहार हिन्दी के एक प्राध्यापक के पास क्यों कर रहे हैं? आपकी मातृभाषा क्या है?" प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने। मैं अवाक स्तम्भ खड़ा रहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि- "आपकी मातृभाषा क्या है?" मेरे द्वारा बताये जाने पर कि मैथली है, तो उन्होंने मुझसे निर्विकार भाव से कहा- "आइंदा जब आप मेरे पास आएं तो मैथली या हिन्दी मैं ही बात करेंगे, अंग्रेज़ी में कदापि नहीं।" हिन्दी के प्रति समर्पित ऐसे साहित्याअनुरागी बहुभाषाविद उस विदेशी संत प्राध्यापक की ओर निर्निमेष में ताकता ही यह गया।
अपने हिन्दीविद होने के कारण डॉ. बुल्के को देश-विदेश में बहुत सम्मान प्राप्त था। 1950 से ही वे 'बिहार राष्ट्रसभा परिषद' की कार्यकारिणी के सदस्य थे। वे 1972 से ही भारत सरकार की 'केंद्रीय हिन्दी समिति' के भी सदस्य थे। उन्हें 1973 में बेल्जियम की 'रॉयल अकादमी' का सदस्य बनाया गया था। उनके ‘रामकथा’ हिन्दी विषय की उपाधि के लिये हिन्दी में लिखित प्रथम शोध प्रबंध की भाषा के माध्यम के रूप में हिन्दी को पहली बार प्रतिष्ठित कराने का श्रेय उनका है। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा था। स्वर्गीय काका कालेलकर ने एक बार कहा था- "फ़ादर बुल्के तुलसी के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।" कॉलेज मंच पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा था- संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अग्रेज़ी नौकरानी है। पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता।
अपने धर्म के प्रति आस्था
एक बार किसी कॉलेज में आयोजित 'तुलसी जयंती' पर कामिल बुल्के आमंत्रित थे। स्वागतकर्ता ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि- "डॉ. बुल्के राम के अनन्य भक्त हैं।" इस पर प्रतिकार करते हुए उन्होंने कहा कि- "मैं तो कैथोलिक ईसाई पादरी हूं। मेरे लिए राम ईश्वर रूप नहीं हो सकते। मेरे लिये तो वंदनीय केवल ईसा मसीह हैं।" अपने मज़हब और उसके प्रति अटूट आस्था कामिल बुल्के में थी। बावजूद इस रूढ़ि और कट्टरता के वे 'तुलसी साहित्य' के प्रशंसक और ‘मानस’ के अनुरागी थे। वे अक्सर कहते थे कि- "गोस्वामी तुलसीदास विश्व के महान् कवियों में थे और उनकी रचनाओं में ज्ञान का अक्षय भंडार छिपा है।"[2]
'पद्मभूषण' सम्मान
कामिल बुल्के की हिन्दी सेवाओं के लिये 1974 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मभूषण' की उपाधि दी। उस समय फ़ादर अक्सर कहते थे- "इस उपाधि के बाद बहुत-सा समय लोगों के साथ चला जाता है।" वे एक पल भी बेकार गंवाना पसंद नहीं करते थे। फ़ादर हिन्दी के इतने सबल पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अग्रेज़ी शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं था। उन्हें इस बात का दु:ख था कि हिन्दी वाले अपनी हिन्दी का सम्मान नहीं करते। उनका विचार था- "दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिन्दी की सरलता की बराबरी कर सके।" उन्हें इस बात का दर्द था की हिन्दीभाषी और हिन्दी संस्थाएं हिन्दी को खा गए। जब भी कोई उनसे अंग्रेज़ी में बोलता था, वे पूछ लेते थे- "क्या तुम हिन्दी नहीं जानते?"
रचनाएँ
बुल्के ने बाइबिल का हिन्दी अनुवाद भी किया। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। उनकी छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए कामिल बुल्के अपनी आत्मकथा 'एक इसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2' में लिखते हैं- "सन 1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया।" इलाहाबाद के प्रवास को बुल्के अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे।
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- रामकथा : उत्पत्ति और विकास
- अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश
- मुक्तिदाता
- नया विधान
- हिन्दी-अंग्रेज़ी लघुकोश
- रामकथा
- नीलपंछी
- बाइबिल (हिन्दी अनुवाद)
- द हिन्दी साल्टर
- संत लुकस के अनुशार येशु ख्रीस्त का पवित्र सुसमाचार
उनके द्वारा तैयार किया 'अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश' आज भी प्रामाणिकता और उपयोगिता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। कामिल बुल्के के शोधग्रंथ के उद्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय कथा है। इसी प्रसंग में फ़ादर बुल्के अपने एक मित्र हालैंड के डॉ. होयकास का विवरण देते हुए कहते हैं कि- "वे संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान् थे।
- हिन्दी-अंग्रेज़ी शब्दकोश
बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में लगे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिन्दी कोश प्रकाशित हुआ जो आज भी सबसे प्रामाणिक शब्दकोष माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हज़ार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश और बाइबिल का हिन्दी अनुवाद 'नया विधान', हिन्दी के महत्व और उसकी सामर्थ्य को सिद्ध करने के ही उपक्रम हैं। उनके 'अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश' ने अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की राह को सुगम बनाया है।
कथन
फ़ादर बुल्के ने कहा -
'1938 में मैंने हिन्दी के अध्ययन के दौरान रामचरित मानस तथा विनय पत्रिका का परिशीलन किया। इस अध्ययन के दौरान रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ पढ़कर अत्यंत आंनद का अनुभव हुआ-
धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताके।
प्रिय पितु-मातु प्रान सम जाके।
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं-
'फ़ादर कामिल बुल्के और मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया था। मैंने उनमें हिन्दी के प्रति हिन्दी वालों से कहीं ज़्यादा गहरा प्रेम देखा। ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है। उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया।'
रामकथा मर्मज्ञ
फ़ादर कामिल बुल्के का दूसरा जग-विख्यात पहलू है कि वे हिन्दी के विद्वान, रामकथा के मर्मज्ञ व विदेश में जन्मे भारतीय थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'रामकथा उत्पत्ति और विकास' पर 1950 में पी.एच.डी. की। इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी इस कथा के अध्ययन के विकास की दृष्टि से अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है। तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेज़ी के महाकवि शेक्यपियर। वे प्राय: कहा करते थे- "हिन्दी में सब कुछ कहा जा सकता है।" इस बात की पुष्टि करने के लिए उन्होंने सबसे पहले दर्शन, धर्मशास्त्र आदि विषयों की परिभाषिक शब्दावली का एक लघुकोश 'ए टैक्नीकल इंगलिश हिन्दी ग्लौसरी' के नाम से प्रकाशित किया। इसके बाद 'अंग्रेज़ी-हिन्दीकोश' को 1967 में तैयार किया और इसका खूब स्वागत हुआ।[2]
डॉ. फ़ादर बुल्के शोध सस्थान
इलाहाबाद को अपना 'मायका' मानने और कहने वाले फ़ादर बुल्के सचमुच ही गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम-तीर्थ थे। उनके पुस्तकालय के द्वार सभी के लिए सदैव खुले रहते थे। उनका पुस्त्कालय उस समय बहुत 'अमीर' माना जाता था। 'अमीर' इस रूप में कि उसमें असंख्य किताबें थीं, जिन्हें फ़ादर बुल्के स्वयं अपने खर्चे पर मंगाया करते थे। आज भी उन पुस्तकों का लाभ रांची के लोग उठा रहे हैं। मनरेसा हाउस, जो अब 'डॉ. फ़ादर बुल्के शोध सस्थान' के रूप में जाना जाता है, वहां बैठकर न जाने कितने विद्यार्थी अध्ययन करते रहते हैं।
परम विनोदी स्वभाव
फ़ादर कामिल बुल्के परम विनोदी थे। अपने विनोदी स्वभाव के कारण वे जीवन का, मित्रों का, संगत का, पारस्परिक मेल-मिलाप का भरपूर आनंद लेते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा- "फ़ादर, आपके सिर के बाल काले और दाढ़ी के सफ़ेद क्यों हैं?" तो फ़ादर कामिल बुल्के ने प्रत्युत्तर में कहा- "मैं सिर पर काला और दाढ़ी पर सफ़ेद खिजाब लगाता हूं।" फिर बोले, "सिर के बाल काले हैं, क्योंकि सिर में कुछ भी नहीं है।" फ़ादर को बच्चे बहुत प्रिय थे। उनके निश्छल बालरूप में उन्हें शायद कभी मरियम की गोद में खेलते-मचलते ईसा दिखाई देते होंगे तो कभी दशरथ के आंगन में ठुमुक-ठुमुक चलते रघुवीर, जिनकी पौजनियां बज रही है। 'ठुमुक चलत बाजत पैंजनियां।'[2]
मृत्यु
फ़ादर कामिल बुल्के की मृत्यु गैंग्रीन के कारण 17 अगस्त, 1982 को दिल्ली में हुई। दिल्ली के 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान' के अधिकारियों के असहयोग पूर्ण आचरण और गर्म मौसम के चलते फ़ादर कामिल बुल्के के पार्थिव शरीर को रांची लाना असंभव हो गया तो दिल्ली स्थित जेसुइट मठवासीय साथियों ने उन्हें दिल्ली में ही दफनाने का निर्णय लिया। कश्मीरी गेट स्थित 'निकल्सन सेमेट्री' में अंतिम समाधि में जाने से पूर्व जब उनका ताबूत खोला गया तो बाबा कामिल बुल्के के जुड़े हाथ हृदय पर थे और मुखमण्डल पर चिर-शांति की सौम्यता छाई हुई थी। मृत्यु उनकी सौम्य छवि को मिटा न सकी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी के सुयोग्य विद्वान् फ़ादर कामिल बुल्के (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 01 दिसम्बर, 2016।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 कादम्बिनी, एच एम वी एल प्रकाशन, सितम्बर-2013
- ↑ हिंदीमय थे फ़ादर कामिल बुल्के (हिंदी) pravasiduniya.com। अभिगमन तिथि: 01 दिसम्बर, 2016।
बाहरी कड़ियाँ
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