लोहड़ी

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लोहड़ी — सांस्कृतिक जीवंतता का पर्व

लोहड़ी

पंजाब एवं जम्मू–कश्मीर में 'लोहड़ी' नाम से मकर संक्रान्ति पर्व मनाया जाता है। एक प्रचलित लोककथा है कि मकर संक्रान्ति के दिन कंस ने बालकृष्ण को मारने के लिए लोहिता नामक राक्षसी को गोकुल में भेजा था, जिसे कृष्ण ने खेल–खेल में ही मार डाला था। उसी घटना की स्मृति में लोहिता का पावन पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज में भी मकर संक्रान्ति से एक दिन पूर्व 'लाल लाही' के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है।

जैसे होली जलाते हैं, उसी तरह लोहड़ी की संध्या पर होली की तरह लकड़ियाँ एकत्रित करके जलायी जाती हैं और तिलों से अग्नि का पूजन किया जाता है। इस त्योहार पर बच्चों के द्वारा घर–घर जाकर लकड़ियाँ एकत्र करने का ढंग बड़ा ही रोचक है। बच्चों की टोलियाँ लोहड़ी गाती हैं, और घर–घर से लकड़ियाँ माँगी जाती हैं। वे एक गीत गाते हैं, जो कि बहुत प्रसिद्ध है —

सुंदर मुंदरिये ! ..................हो
तेरा कौन बेचारा, .................हो
दुल्ला भट्टी वाला, ...............हो
दुल्ले घी व्याही, ..................हो
सेर शक्कर आई, .................हो
कुड़ी दे बाझे पाई, .................हो
कुड़ी दा लाल पटारा, ...............हो
यह गीत गाकर दुल्ला भट्टी की याद करते हैं।

इस दिन सुबह से ही बच्चे घर–घर जाकर गीत गाते हैं तथा प्रत्येक घर से लोहड़ी माँगते हैं। यह कई रूपों में उन्हें प्रदान की जाती है। जैसे तिल, मूँगफली, गुड़, रेवड़ी व गजक। पंजाबी रॉबिन हुड दूल्हा भट्टी की प्रशंसा में गीत गाते हैं। दूल्हा भट्टी अमीरों को लूटकर, निर्धनों में धन बाँट देता था। एक बार उसने एक गाँव की निर्धन कन्या का विवाह स्वयं अपनी बहन के रूप में करवाया था।

शीत ॠतु और अलाव

इस दिन शीत ऋतु अपनी चरम सीमा पर होती है। तापमान शून्य से पाँच डिग्री सेल्सियस तक होता है तथा घने कोहरे के बीच सब कुछ ठहरा सा प्रतीत होता है। लेकिन इस शीत ग्रस्त सतह के नीचे जोश की लहर महसूस की जा सकती है। विशेषकर हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश में लोग लोहड़ी की तैयारी बहुत ही ख़ास तरीके से करते हैं। आग के बड़े –बड़े अलाब कठिन परिश्रम के बाद बनते हैं। इन अलावों में जीवन की गर्म–जोशी छिपी रहती है। क्योंकि अब समय रबी (शीत) की फ़सल काटने का होता है। विश्राम व हर्ष की भावना को लोग रोक नहीं पाते हैं।

लोहड़ी पौषमास की आख़िरी रात को मनायी जाती है। कहते हैं कि हमारे बुज़ुर्गों ने ठंड से बचने के लिए मंत्र भी पढ़ा था। इस मंत्र में सूर्यदेव से प्रार्थना की गई थी कि वह इस महीने में अपनी किरणों से पृथ्वी को इतना गर्म कर दें कि लोगों को पौष की ठंड से कोई भी नुकसान न पहुँच सके। वे लोग इस मंत्र को पौष माह की आख़िरी रात को आग के सामने बैठकर बोलते थे कि सूरज ने उन्हें ठंड से बचा लिया।

मकर संक्रान्ति और लोहड़ी

लोहड़ी का त्योहार मनाते लोग
People Celebrate the Festival of Lohri

हिन्दू पंचांग के अनुसार लोहड़ी जनवरी मास में संक्रान्ति के एक दिन पहले मनाई जाती है इस समय धरती सूर्य से अपने सुदूर बिन्दु से फिर दोबारा सूर्य की ओर मुख करना प्रारम्भ कर देती है। यह अवसर वर्ष के सर्वाधिक शीतमय मास जनवरी में होता है। इस प्रकार शीत प्रकोप का यह अन्तिम मास होता है। पौष मास समाप्त होता है तथा माघ महीने के शुभारम्भ उत्तरायण काल (चौदह जनवरी से चौदह जुलाई) का संकेत देता है।

श्रीमद्भागवदगीता के अनुसार, श्रीकृष्ण ने अपना विराट व अत्यन्त ओजस्वी स्वरूप इसी काल में प्रकट किया था। हिन्दू इस अवसर पर गंगा में स्नान कर अपने सभी पाप त्यागते हैं। गंगासागर में इन दिनों स्नानार्थियों की अपार भीड़ उमड़ती है। उत्तरायणकाल की महत्ता का वर्णन हमारे शास्त्रकारों ने अनेक ग्रन्थों में किया है।

अलाव जलाने का शुभकार्य

सूर्य ढलते ही खेतों में बड़े–बड़े अलाव जलाए जाते हैं। घरों के सामने भी इसी प्रकार का दृश्य होता है। लोग ऊँची उठती अग्नि शिखाओं के चारों ओर एकत्रित होकर, अलाव की परिक्रमा करते हैं तथा अग्नि को पके हुए चावल, मक्का के दाने तथा अन्य चबाने वाले भोज्य पदार्थ अर्पित करते हैं।

'आदर आए, दलिदर जाए' — इस प्रकार के गीत व लोकगीत इस पर्व पर गाए जाते हैं। यह एक प्रकार से अग्नि को समर्पित प्रार्थना है। जिसमें अग्नि भगवान से प्रचुरता व समृद्धि की कामना की जाती है। परिक्रमा के बाद लोक मित्रों व सम्बन्धियों से मिलते हैं। शुभकामनाओं का आदान–प्रदान किया जाता है तथा आपस में भेंट बाँटी जाती है और प्रसाद वितरण भी होता है। प्रसाद में पाँच मुख्य वस्तुएँ होती हैं - तिल, गजक, गुड़, मूँगफली तथा मक्का के दाने। शीतऋतु के विशेष भोज्य पदार्थ अलाव के चारों ओर बैठकर खाए जाते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण व्यंजन है, मक्के की रोटी और सरसों का हरा साग।

आनन्द, संगीत और भांगड़ा

जनवरी की तीखी सर्दी में जलते हुए अलाव अत्यन्त सुखदायी व मनोहारी लगते हैं। सभी लोग रंग—बिरंगे वस्त्रों में बन–ठन के आते हैं। पुरुष पजामा व कुरता पहनते हैं। कुरते के ऊपर जैकेट पर शीशे के गोल विन्यास होते हैं। जिनके चारों ओर गोटा लगा होता है। इसी से मेल खाती बड़ी–बड़ी पगड़ियाँ होती हैं। सज–धजकर पुरुष अलाव के चारों ओर एकत्रित होकर भांगड़ा नृत्य करते हैं। चूँकि अग्नि ही इस पर्व के प्रमुख देवता हैं, इसलिए चिवड़ा, तिल, मेवा, गजक आदि की आहूति भी स्वयं अग्निदेव को चढ़ायी जाती है। भांगड़ा नृत्य आहूति के बाद ही प्रारम्भ होता है। नगाड़ों की ध्वनि के बीच यह नृत्य एक लड़ी की भाँति देर रात तक चलता रहता है तथा लगातार नए नृत्य समूह इसमें सम्मिलित होते हैं। पारम्परिक रूप से स्त्रियाँ भांगड़े में सम्मिलित नहीं होती हैं। वे अलग आँगन में अलाव जलाती हैं तथा सम्मोहक गिद्दा नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

माघी का दिन

माघ मास का आगमन इसी दिन लोहड़ी के ठीक बाद होता है। हिन्दू विश्वासों के अनुसार इस शुभ दिन नदी में पवित्र स्नान कर दान दिया जाता है। मिष्ठानों प्रायः गन्ने के रस की खीर का प्रयोग किया जाता है।

पंजाव में धूम

विशेषतः पंजाब के लोगों के लिए लोहड़ी की महत्ता एक पर्व से भी अधिक है। पंजाबी लोग हंसी–मज़ाक पसंद, तगड़े, ऊर्ज़ावान, जोशीले व स्वाभाविक रूप से हंसमुख होते हैं। उत्सव प्रेम व हल्की छेड़–छाड़ तथा स्वच्छंदता ही लोहड़ी पर्व का प्रतीक है।

आधुनिक समय में लोहड़ी का दिन लोगों को अपनी व्यस्तता से बाहर खींच लाता है। लोग एक–दूसरे से मिलकर अपना सुख–दुःख बाँटते हैं। भारत के अन्य भागों में लोहड़ी के दिन को पोंगलमकर संक्रान्ति के रूप में मनाया जाता है। ये सभी पर्व एक ही संदेश देते हैं, हम सब एक हैं। आपसी भाईचारें की भावना तथा प्रभु को धरती पर सुख, शान्ति और धन–धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देना, यही भावनाएँ इस दिन हर व्यक्ति के मन में होती हैं।

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