तन्त्रिका तन्त्र

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(अंग्रेज़ी:Nervous System) तन्त्रिका तन्त्र अधिकांश जीव जंतुओं के शरीर का आवश्यक अंग हैं। इस लेख में मानव शरीर से संबंधित उल्लेख है। तन्त्रिक तन्त्र शरीर का एक महत्त्वपूर्ण तन्त्र या संस्थान है, जो सम्पूर्ण शरीर की तथा उसके विभिन्न भागों एवं अंगों की समस्त क्रियाओं का नियन्त्रण, नियम तथा समंवयन करता है और समस्थिति बनाये रखता है। शरीर के सभी ऐच्छिक एवं अनैच्छिक कार्यों पर नियन्त्रण तथा समस्त संवेदनाओं को ग्रहण कर मस्तिष्क में पहुँचाना इसी तन्त्र का कार्य है। यह शरीर के समस्त अंगों के आंतरिक एवं बाह्म वातावरण के परिवर्तनों के अनुसार द्रुत समंजन संभव बनाता है तथा तन्त्रिका आवेगों का संवहन करता है।

तन्त्रिका तन्त्र शरीर की अंसख्य कोशिकाओं की क्रियाओं में एक प्रकार का सामंजस्य उत्पन्न करता है ताकि सम्पूर्ण शरीर एक इकाई के रूप में कार्य कर सके। संवेदी तन्त्रिकाओं द्वारा शरीर के अन्दर एवं बाहर वातावरणगत परिवर्तन या उद्दीपन तन्त्रिका तन्त्र के सुषुम्ना या स्पाइनल कॉड तथा मस्त्तिष्क में पहुँचते है। जहाँ पर उनका विश्लेषण होता है और अनुक्रिया में प्रेरक पन्त्रिकाओं द्वारा शरीर की विभिन्न क्रियायें संपादित होती हैं।

तन्त्रिका तन्त्र तन्त्रिका ऊतकों से बना होता है, जिनमें तन्त्रिका कोशिकाओं या न्यूरॉन्स और इनसे सम्बन्धित तन्त्रिका तन्तुओं तथा एक विशेष प्रकार के संयोजी ऊतक जिसे न्यूरोग्लिया कहते हैं, का समावेश होता है।

तन्त्रिका तन्त्र का वर्गीकरण

मनुष्य में तन्त्रिका तन्त्र के तीन भाग होते हैं-

  1. केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र
  2. परिधीय तन्त्रिका तन्त्र
  3. स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र

केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र

सभी कशेरुकी जन्तुओं में केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र पृष्ठीय तथा नलिकाकार होता है। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के दो भाग होते हैं-

  1. मस्तिष्क
  2. मेरु रज्जु
मानव मस्तिष्क

संरचना तथा विभिन्न भागों के कार्य: प्राणी जगत में मनुष्य का मस्तिष्क सर्वाधिक विकसित होता है। वयस्क मनुष्य में इसका भार लगभग 1350 से 1400 ग्राम होता है। यह खोपड़ी की कपालगुहा में सुरक्षित रहता है। कपाल गुहा का आयतन 1200 से 1500 घन सेंटीमीटर होता है। मस्तिष्क के चारों ओर दो झिल्लियाँ पाई जाती हैं। बाहरी झिल्ली को दृढ़तानिका और भीतरी झिल्ली को मृदुतानिका कहते हैं। दोनों झिल्लियों के मध्य प्रमस्तिष्क मेरुद्रव्य भरा रहता है। यह मस्तिष्क की चोट, झटकों आदि से रक्षा करता है। मस्तिष्क का निर्माण तन्त्रिका कोशिकाओं तथा न्यूरोग्लियल कोशिकाओं के द्वारा होता है।

मेरुरज्जु

मस्तिष्क का पिछला भाग लम्बा होकर खोपड़ी के पश्च छोर पर उपस्थित महारन्ध से निकलकर रीढ़ की हड्डी तक फैला रहता है। इसे मेरुरज्जु या सुषुम्ना कहते हैं। यह कशेरुकाओं के मध्य उपस्थित तन्त्रिकीय नाल में सुरक्षित रहता है। यह मस्तिष्के के समान द्रढ़ तानिका तथा मृदुतानिका से घिरा रहता है। मेरुरज्जु के मध्य भाग में एक संकरी केन्द्रीय नाल होती है। केन्द्रीय नाल के चारों ओर मेरुरज्जु की मोटी दीवार में दो स्तर होते हैं।

परिधीय तन्त्रिका तन्त्र

मस्तिष्क, मेरुरज्जु से निकलने वाली तन्त्रिकाएँ परिधीय तन्त्रिका तन्त्र बनाती हैं। इस तन्त्र में दो प्रकार की तन्त्रिकाएँ आती हैं-

कपालीय तन्त्रिकाएँ

कपालीय तन्त्रिकाएँ परिधीय के विभिन्न भागों से जुड़ी रहती हैं। इन तन्त्रिकाओं का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों, सिर, गर्दन तथा अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाओं से होती है। मनुष्य में 12 कपालीय तन्त्रिकाएँ पाई जाती हैं। ये तन्त्रिकाएँ ज्ञानेन्द्रियों को मस्तिष्क से जोड़ती हैं और संवेदनाओं को मस्तिष्क में पहुँचाती हैं।

रीढ़ तन्त्रिकाएँ

मनुष्य में 31 जोड़ी रीढ़ तन्त्रिकाएँ पाई जाती हैं। ये मिश्रित प्रकार की होती हैं। प्रत्येक रीढ़ तन्त्रिका मेरुरज्जु के दो मूलों अधर मूल तथा पृष्ठमूल से निकलती हैं। ये मूल, धसर द्रव्य के श्रंगों से निकलकर कशोरुकाओं के बीच में से होकर आपस में जुड़ जाती हैं। इनमें पृष्ठमूल संवेदी तथा अधर मूल प्रेरक होते हैं। पृष्ठ मूल के ऊपर एक गुच्छिका होती है। इनमें संवेदी तन्तुओं की कोशिकाएँ होती हैं। पृष्ठ तथा अधर मूलों के परस्पर जुड़ने के पश्चात् पुनः तीन शाखाओं में विभक्त हो जाती है। ऊपर की ओर पृष्ठ शाखा, नीचे की ओर अधर शाखा तथा दोनों से सम्बन्धित योजि तन्त्रिका होती है। पृष्ठ शाखा संवेदी होती है। यह पृष्ठ देहभित्ति को जाती है तथा अधर शाखा का सम्बन्ध ऐच्छिक पेशियों से होती है। यह कायिक प्रेरक होती है। योजि तन्त्रिका में आन्त्सांग संवेदी तथा आन्तरांग प्रेरक दो प्रकार के तन्त्रिका तन्तु होते हैं।

स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र

यह तन्त्र स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है तथा अन्तिम रूप से इसका नियन्त्रण केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होता है। स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र का नियमन केन्द्रीय तन्तुओं द्वारा होता है जो स्वायत्त तन्त्र को गुच्छकों में प्रवेश कर जाते हैं। इन तन्तुओं को पूर्व गुच्छीय तन्तु कहते हैं। स्वायत्त गुच्छकों से निकलने वाले तन्तुओं को पश्च गुच्छीय तन्तु कहते हैं। स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र दो प्रकार का होता है-

  • परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र
  • अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र


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